Translate

प्रेम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रेम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 21 जून 2016

प्रेम - Unconditional



सागर की लहरों से बतियाती 
रेत पर लकीरें खींचती पीठ करके बैठी 
कोस रही थी चिलचिलाती धूप को 
सूरज की तीखी किरणें तीलियों सी चुभ रहीं थीं 
 हवा भी लापरवाह अलसाई  हुई कहीं दुबकी हुई थी 
बैरन बनी चुपके से छिपकर कहीं से देख रही होगी
सूरज के साथ मिल कर मुझे सता कर खुश होती है 
पल भर को मैं डरी-सहमी  फिर घबरा के सोचा 
क्या हो अगर धूप और  हवा दोनों रूठ जाएँ 
दूसरे ही पल चैन की साँस लेकर सोचा मैंने 
सूरज, चाँद , सितारे , हवा और पानी सब 
 जब तक साँस है तब तक सबका साथ  है 
जन्म-जन्म के साथी निस्वार्थ भाव से 
करते हम सबको प्यार बिना शर्तों के !

मंगलवार, 14 जून 2016

अम्माजी के छोटे-छोटे सपने


ऑफिस से नीचे उतरते ही मैट्रो स्टेशन है. जहाँ से घर की दूरी चालीस मिनट की है. घर के पास वाला स्टेशन भी नज़दीक ही है. हर शाम पाँच बजे सीमा मदर डेरी में होती है. दूध , दही, सब्ज़ियाँ और फल लेकर ही घर जाती है. घर जाते ही फ्रेश होकर पहले अम्मा और अपने लिए चाय बनाती है. दोनों एक साथ चाय पीते हुए एक दूसरे से सारे दिन का हालचाल पूछते  हैं. 'बहू, आज भी सेब की सब्ज़ी बनाना. रात के खाने के लिए'. सास के इतना कहते ही सीमा बोल उठती है, 'अरे अम्मा कल तो कुछ था नहीं घर में. दाल से आपका यूरिक एसिड बढ़ जाता है इसलिए सेब की रसेदार सब्ज़ी बना ली थी, आज तो मैं आपकी पसन्द की सारी सब्ज़ियाँ ले आई हूँ.' अम्मा का झुर्रीदार चेहरा चमक उठता है. 'तो फिर सीताफल बनाना आज' कह कर चाय का लम्बा घूँट भरते हुए सीमा को प्यार भरी नज़र से देखती हैं.

'अम्मा, बस अभी आई, सीतफल यहीं ले आती हूँ' सीमा कहती हुई चाय के खाली प्याले लेकर किचन के सिंक में रख कर सीताफल थाली में ले आती है. इधर उधर की बातें करते हुए सीताफल कट जाता है. अम्मा को भी चाय पीते हुए सीमा से बात करना बहुत अच्छा लगता है. बुज़ुर्गों को सिर्फ इतना ही तो चाहिए कि बच्चे कुछ पल उनके साथ बैठे, यही पल उन्हें खुशी तो देते ही हैं साथ ही जीने के लिए नई उर्जा भी दे जाते हैं. आज स्कूल की पिकनिक के कारण बच्चे शाम छह बजे से पहले घर लौटने वाले नहीं थे इसलिए सीमा कुछ बेफिक्र थी .  इत्मीनान से अम्मा के पास बैठ कर बतियाते हुए सब्ज़ी काट रही थी.

सीमा के छोटे से घर परिवार में सुख-शांति है. एक दूसरे के लिए प्रेम और आदर है. सभी एक दूसरे की ज़रूरतों और सुविधाओं का ख्याल रखते हैं. इस घर में कलह होता है तो सिर्फ एक ही बात पर कि राजेश परिवार को लेकर कहीं बाहर घुमाने नहीं ले जाता. उसकी अपनी मजबूरियाँ हैं. दो साल से नई नौकरी की तलाश में जुटे राजेश को बस इंतज़ार है एक अच्छी नौकरी का. जिस दिन उसके मनपसन्द की नौकरी मिलेगी, पहली छुट्टी में सभी मनाली घूमने जाएँग़ें. सीमा भी यह जानती है इसलिए गुस्से पर जल्दी ही काबू पा लेती है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए राजेश ने पिछले साल अम्मा के जन्मदिन पर उन्हे टचपैड लेकर दिया था जिस पर वे कुछ गेम्ज़ बड़े शौक से खेलती हैं. उन्हें हिन्दी के सीरियल पसन्द नहीं. टीवी पर संगीत के कार्यक्रम अच्छे लगते हैं या नेशनल जीयोग्राफ़ी देखने का शौक रखती हैं . कुछ दिन बाद राजेश ने सीमा के लिए भी होम थिएटर खरीदा. राजेश अच्छी तरह जानता है कि संगीत सीमा में गजब की मस्ती भर देता है. उसे कितनी भी थकावट होगी अच्छे म्युज़िक सिस्टम पर संगीत सुनते ही दूर हो जाएगी.

'अम्मा, बच्चे आने वाले हैं, जल्दी से खाना पका लूँ नहीं तो उनके ऊधम से काम रुक जाएगा' सीमा कहते हुए उठ जाती है. पीछे पीछे अम्माजी भी किचन में आ जाती हैं. जानती हैं कि किचन में काम करते हुए सीमा को ऊँची आवाज़ में म्युज़िक सुनने की आदत है इसलिए अम्मा अपने कानों पर ईयर प्रोटेक्टर लगा कर म्युज़िक सिस्टम ऑन कर देती हैं. सीमा के मना करने पर भी आटा गूँदने वाली  मशीन में आटा गूँदने लगती हैं. उधर सीमा एक तरफ कुकर में दाल और दूसरी तरफ सीताफल पकने के लिए रख देती है.

ऊँची आवाज़  में संगीत सुनते हुए सीमा के हाथ फुर्ती से चलने लगते हैं. फटाफट सलाद काट कर डाइनिंग टेबल पर रखती है और अम्मा के लिए गाजर कद्दूकस करके उसमें नींबू की दो चार बूँदें भी डाल देती है. म्यूज़िक की ऊँची आवाज़ के कारण दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई नहीं देती...हमेशा की तरह राजेश कुछ कहते  उससे पहले ही सीमा खिलखिलाते हुए उसकी नकल करते हुए कहती है, " चोर की मौसी , चोरों का काम आसान कर देती हो " बेटा बहू को हँसते हुए देख कर अम्मा के मुहँ पर भी ढेर सारी हँसी फैल जाती है. बिना कुछ सुने ही बस बहू बेटा को मुस्कुराते खिलखिलाते देख उनका झुर्रीदार चेहरा भी खिल उठता है.

हमेशा की तरह फ्रेश होने के बाद राजेश भी किचन में आ जाता है. 'हैलो अम्मा.....ठीक हो?'  इशारे से ही मुस्कुराती अम्मा थम्ज़अप का इशारा कर देती हैं. घर आकर सीमा और राजेश ऑफिस का कम ही ज़िक्र करते हैं. बच्चों के बारे में राजेश कुछ पूछते कि डोरबेल बज उठती है... पिकनिक से थके दोनो बच्चे घर पहुँचते ही फिर से जोश में आ जाते हैंं. बड़ी पोती सारे दिन का लेखाजोखा सुनाने के लिए  दादी को उनके कमरे में खींंच कर ले जाती है. छोटी पोती भी पीछे पीछे पहुँच जाती है. राजेश तब तक हाथ मुँह धोकर वापिस किचन में आता है सीमा का हाथ बँटाने. दोनों मिल कर डाइनिंग टेबल पर खाना लगाते हैं. सीमा जानती है कि राजेश को आजकल के नए गाने बिल्कुल पसंद नहीं इसलिए खाना खाते वक्त कम आवाज़ में ग़ज़लें लगाना नहीं भूलती.
खाते हुए बोलना अम्माजी को कतई पसंद नहीं लेकिन अपनी बातों से एक दूसरे को पछाड़ती पोतियों के मुस्कुराते चेहरे देख कर खुद भी मुस्कुराने लगतींं हैं. खाने के बाद दोनों पोतियाँ बेफिक्री और मस्ती से डाइनिंग टेबल को साफ करती हैं. बचे  हुए काम को समेटते हुए बेटा बहू कब अपने कमरे में जाते हैं उन्हें नहीं पता. खाना खत्म करते ही हमेशा की तरह बच्चों को शुभरात्रि कह कर वे अपने कमरे में लौट आती हैं.  
अक्सर उदासी की चादर ओढ़े रात के अंधेरे में अकेली तन्हा कभी कभी सिसकती हैं अपने साथी को याद करते हुए फिर भी एक सुकून की नींद सोती अपने छोटे छोटे सपनों की दुनिया में खुश हैं अम्माजी  !

बुधवार, 17 जुलाई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (समापन किश्त )

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ)  (नौ) 

सुधा की कहानी चाहे आज यहाँ खतम हो जाए लेकिन असल ज़िन्दगी में तो उसका हर दिन एक नई कहानी के साथ शुरु होता है और आगे भी होता रहेगा...देखा जाए तो हम सब की ज़िन्दगी का हर दिन नई कहानी के साथ शुरु होता है. पिछले दिनों हम भी बच्चों के साथ थे. मिलना जितना आनन्द देता है बिछुड़ना उतना ही दुख. सुधा का छोटा बेटा जो पिछले दिनों दिल्ली अकेले रह कर नौकरी की तलाश कर रहा था, धीरे धीरे 'डिप्रेशन' में जाने लगा था. वही नहीं उसके कई दोस्त बेरोज़गारी के शिकार तनाव में डूबते उतरते जी रहे थे या कहूँ कि जी रहे हैं. अच्छी पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी अगर नौजवानों को नौकरी नहीं मिलती तो उनकी ज़िन्दगी अच्छी बुरी किसी भी दिशा की ओर बढ़ेगी, इसके बारे में वे खुद भी नहीं जान पाते. 
सुधा के पति ने छोटे बेटे को अपनी ही कम्पनी में लगवा लिया और अब वह अपने माता-पिता के साथ खुश है. जितना खुश अपने लिए है उतना ही दुखी है अपने बेरोज़गार दोस्तों के लिए. अपने बेटे के मुँह से जब सुधा उसके दोस्तों की कहानियाँ सुनती है तो उसे अपना अतीत याद आ जाता है कि अपने देश में नौकरी की तलाश करते हुए धीरज कैसे हिम्मत हार बैठे थे. बूढ़े माँ बाप और पत्नी को अकेला छोड़ना आसान नहीं था लेकिन जीने के लिए जो साधन चाहिए होते हैं उसके लिए पैसे की ज़रूरत होती है. दोस्त , रिश्तेदार और समाज बोलने को बड़ा सा मुँह खोलकर ऊँची ऊँची बातें तो करेंगे लेकिन आगे बढ़ कर कोई मदद नहीं करेगा. 
भूखे पेट भजन न होए ..... पेट भरा हो तो उपदेश देना भी आ जाता है. उस वक्त भी सुधा ने ही निर्णय लिया था कि घर परिवार की खातिर धीरज को अगर विदेश में नौकरी मिलती है तो निश्चिंत होकर जाए. उस वक्त सुधा ने सोचा नहीं था कि जो समाज बड़ी बड़ी बातें करता है वही छोटी छोटी ओझी हरकतों से जीना हराम भी कर देगा. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अकेली औरत का मनोबल तोड़ने के लिए समाज के सफ़ेदपोश छिपकर वार करते हुए अचानक सामने आकर डराने लगते हैं. अपने आप को देशभक्त कहने वाले लोग नेताओं को कोसने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते. हाँ वक्त के मारे लोगों पर तानाकशी करने से बाज़ नहीं आएँगें. सुधा के मन में कई सवाल उठते हैं .... तीखे सवाल जिनका जवाब किसी के पास नहीं है. सबके पास अनगिनत उपदेशों का पिटारा है. 
एक नहीं हज़ारों सुधाएँ हैं हमारे देश में. जिन्हें बचपन से ही दबा दबा कर दब्बू बना दिया गया. पैदा होते ही उसे ऐसी शिक्षा दी गई कि पुरुष पिता, भाई , पति और पुत्र के रूप में उसका स्वामी है. धर्म से उसका ऐसा नाता जोड़ दिया जाता है कि कोई कदम उठाने से पहले वह सौ बार सोचती है कि अगर आवाज़ उठाने से पुरुष का कोई रूप उससे नाराज़ या दुखी हो गया तो वह पाप होगा और वह नरक में जाएगी. उनकी दासी बन कर ही जीना उसकी नियति है. 
सुधा के विचार में आजकल की पढ़ी लिखी आज़ाद ख्याल औरतें भी कहीं न कहीं उसी दासत्व की शिकार हैं तभी बार बार आज़ादी की बातें करतीं हैं. बूढ़े लाचार माता-पिता को बेसहारा छोड़कर अगर सुधा अपने बच्चों को लेकर मायके चली जाती तब भी समाज के ठेकेदार बुरा भला कहने से बाज़ न आते. सुधा की ज़ुबानी  "औरत की आज़ादी की बात करने वाले लोग मेरी जगह खड़े होकर सोचें कि पति के बूढ़े माँ बाप की सेवा करना उचित है या अपनी आज़ादी...उस आज़ादी का क्या करना जिसका आनन्द लेते हुए बूढ़े माता-पिता को बेसहारा और अकेला छोड़ दिया जाए चाहे उनकी तानाशाही ही क्यों न सहनी पड़े हैं वे अपने बड़े ही जिनको मान सम्मान देंगे तो आने वाली पीढ़ी भी वही सीखेगी." 
सुधा का विश्वास है कि बड़ों की सेवा का फल है जो आज उसके दोनों बच्चे अच्छे संस्कारों के धनी हैं. वे भी अपने माता-पिता की सेवा के लिए हर पल तत्पर हैं. यही नहीं बहू कोमल भी बेटी बनकर परिवार में रच बस गई है. सुधा के सेवाभाव से उसके भरे पूरे परिवार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है.  
इतने दिनों बाद समापन किश्त लिखते हुए मेरे मन में भी सुधा को लेकर हज़ारों सवाल थे जिनके सवाल पाने के लिए सुधा के मन को बहुत टटोला. बहुत कुछ समझा जाना.  लेकिन यहाँ रखकर उसका दिल दुखी नहीं करना चाहती. सुधा को एक औरत की जगह अगर इंसान के रूप में देखा जाए तो इंसान तो अनगिनत चाहतों का भंडार है. बहुत कुछ पाकर भी बहुत कुछ पाने की चाहत उसे चैन से जीने नहीं देती. सब कुछ पाकर भी उसे लगता है कि उसने बहुत कुछ खो दिया है जिसे पाने की चाहत इस जीवन में तो पूरी होगी नहीं. देखा जाए तो हम सब अपने अपने मन के गहरे और अथाह समुन्दर में उठने वाली अनगिनत लहरों की चाहतों में डूबते उतरते हैं...बस इसी डूबने उबरने में ज़िन्दगी तमाम हो जाएगी...!! 

यहाँ अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्से को अपनी ज़ुबानी कह कर  सुधा का दिल कुछ हलका हुआ फिर भी जानती हूँ उसके तन-मन की कभी न खतम होने वाली तिश्नगी को.......

मेरी पसन्द का एक गीत सुधा के नाम...... 



शनिवार, 22 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (9)

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ) 

सुधा की असल ज़िन्दगी में तो उसकी कहानी चलती रहेगी लगातार लेकिन यहाँ  उसी की इच्छा  के मुताबिक अगली किश्त अंतिम होगी..... ! 

सुधा जब शहर आई थी तो बड़ा बेटा आठ्वीं में और दूसरा बेटा सातवीं में था. गाँव से शहर आकर बसना आसान नहीं था. 19 साल माँ बाऊजी का साथ था और यहाँ अकेले बच्चों का पालन-पोषण करना था. गाँव से स्कूल दूर पड़ते थे. वक्त के अभाव में पढ़ाई पर बहुत असर होता, गाँव में ट्यूश्न पढ़ाने वालों का भी अभाव था. खैर गाँव से शहर आ गए नए घर में. धीरज जा चुके थे . 
सुधा ने एक छोटे से हवन के साथ ग़ृह-प्रवेश किया जिसमें धीरज की दोनों बहनें थीं और कुछ नए घर के आसपास के नए पड़ोसी थे. हवन के दौरान गाँव के दो आदमी किसी काम से नए घर में आए. सुधा से बात करके दरवाज़े से ही लौट गए. 
जाने क्या सूझी कि छोटी ननद सबके सामने ही सुधा को आड़े हाथों लेकर बुरा-भला कहने लगी. गाँव की 'यारियाँ' वहीं छोड़ कर आनी थीं. यहाँ ऐसे नहीं चलेगा. फिर ऐसा हुआ तो गला दबा देने तक की धमकी दे डाली.  सुधा समेत वहाँ बैठी सभी औरतें हैरान थीं. कुछ ही देर में सभी बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गईं. गाँव में बड़ी ननद घर के नज़दीक थीं तो यहाँ शहर में छोटी ननद का घर नज़दीक था. नए शहर में , नए पड़ोस में  सुधा के चरित्र को उछाल दिया गया था. हवन खत्म होते ही वे भी अपने घर चली गईं थी. छोटी ननद ने एक बार भी नहीं सोचा था कि नए माहौल में उसकी बात का क्या असर होगा. 
19-20 साल तक माँ-बाऊजी की सेवा करने के कारण सुधा गाँव के लिए एक आदर्श बहू का जीवंत उदाहरण थी. लोग उसका आदर करते. उसका छोटे से छोटा काम करना भी अपना सौभाग्य मानते. माँ बाऊजी या छोटे बेटे के लिए गाँव के डॉक्टर आधी रात को आने को तैयार रहते. गाँव के सरपंच भी किसी काम के लिए उसे मना न करते. गाँव की बनी बनाई इज़्ज़त के बारे में सोचे बिना छोटी ननद ने नए लोगों के सामने ऐसा कहा कि सालों तक उसका जीना दूभर हो गया. 
समाज हमसे ही बनता है और हम ही समाज को अच्छा बुरा रूप देते हैं. यही समाज अकेली औरत का जीना मुश्किल कर देता है. किसी पर-पुरुष से बात करते देख उसपर हज़ारों लाँछन लगा दिए जाते हैं. आज भी अपने देश के दूर दराज के गाँवों और छोटे शहरों की सोच का दायरा संकुचित ही है. हैरानी तो इस बात की होती है कि लोग आधुनिक लिबास और खान-पान को जितनी आसानी से अपने जीवन में उतार लेते हैं उतना ही मुश्किल होता है उनके लिए अपने दिल और दिमाग की सोच को विस्तार देना. 
सुधा  दो किशोर बेटों के साथ नए माहौल में रहने की पूरी कोशिश कर रही थी. फिर भी घर में कोई भी आता तो पड़ोस सन्देह भरी निगाहों से देखता. सुधा ने अपनी हिम्मत और अच्छे व्यवहार से जल्दी ही सबका दिल जीत लिया. पड़ोसियों की कही बातें अब भी नहीं भूलतीं उसे फिर भी अकेले रहने के कारण न चाहते हुए भी कई बातों को नज़रअन्दाज़ करके रहना पड़ता है. धीरज के साथ न होने के कारण सुधा कई बार ज़हर का घूँट पीकर रह जाती. 
नारी आज़ादी और उसके मान-सम्मान की बातें उसे झूठीं लगतीं. 27 सालों में सुधा ने जो झेला सब के पीछे कहीं न कहीं कोई औरत ही होती जो उसका जीना मुहाल कर देती. पुरुष तमाशबीन सा दिखता जो दूर से ही तमाशा देखते हुए बिना दखलअन्दाज़ी किए अपनी सत्ता सँभाले रखता. 
 नौवीं कक्षा में आते आते बड़े बेटे की शरारतें बढ़ती गईं. स्कूल जाने के नाम से ही वह बिदकने लगता. छोटा बेटा अभी भी बीमार था. स्कूल ने उसका साथ दिया और घर पर रह कर भी उसकी उपस्थिति दर्ज होती रहती. सुधा की पूरी कोशिश होती कि बच्चों में अच्छे संस्कार डाल सके. पढ़ाई का महत्व बताती क्यों कि उसे अपने घर में दसवीं के बाद पढ़ने का मौका नहीं मिला था. 
स्कूल के दिनों बड़े बेटे की शिकायतों से परेशान सुधा कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देती. बाद में चाहे रो लेती. धीरज छुट्टी आता तो बार बार कहने पर भी वह बच्चों को न डाँटता और न कभी उन पर हाथ उठाता. उसकी अपनी सोच थी. कुछ दिनों की छुट्टी में आकर बच्चों के सामने बुरा क्यों बनना. सारा जिम्मा सुधा पर ही डाल देता. खैर सुधा अकेली डटी थी दो बेटों को लेकर गृहस्थी सँभालते हुए दिन बीतते जा रहे थे. 
सुधा बेटों को एक ही बात कहती कि मर्यादा लाँघ कर कोई ऐसा काम न हो जाए कि उस पर या विदेश में बैठे पिता के नाम पर बट्टा लग जाए. बच्चे जो देखते उसी हिसाब से चलते हुए अच्छे नम्बरों में स्कूल पास किया. कॉलेज पहुँच गए. पिता के दूर होने पर भी बच्चों में कोई बुरी आदत पनपने नहीं पाई थी. कॉलेज जाते बच्चों का ऐसा चरित्र सुधा की लगन और मेहनत का फल था. उसके अपने अच्छे और मज़बूत चरित्र ने बेटों को संस्कारी बनाया. हालाँकि परिवार और रिश्तेदार सुधा के इस काम को भी महत्त्व न देते. धीरज और उसके अच्छे खानदान का उदाहरण देते कि इस खानदान में तो आजतक कोई बुरे चरित्र वाला हुआ ही नहीं. 
दोनों बेटों ने बहुत करीब से माँ के सेवाभाव और त्याग को देखा था. माँ उनके लिए भगवान से भी बढ़कर थी. जिस माँ को उसके पति ने बरसों तक अपने से अलग रखा उसके लिए उसी माँ ने बच्चों में भी अपने जैसा ही आदर भाव डाला. बच्चों के लिए माता-पिता भगवान से भी बढ़कर. दोनों बेटों के ऐसे भाव देख कर सुधा और धीरज खुशी से फूले न समाते. अच्छी संतान को सामने देखकर जीवन जैसे सफल हो गया. तपस्या पूर्ण हो गई. दोनों बेटे दिन रात अपने माता-पिता को सुख देने के उपाय खोजते हैं. 
इसी बीच सुधा ने अकेले ही एक और जिम्मेदारी का बोझ अकेले उठाया और बड़े बेटे के लिए सुन्दर सी बहू चुन लाई. ऊँची पढ़ाई के लिए विदेश जाते बेटे को अकेले भेजते वक्त उसे अपने पति की याद आई जिसने इतने सालों अकेले ही ज़िन्दगी बसर कर ली. वही इतिहास दुबारा न दोहराया जाए इसलिए उसने बेटे की शादी करके बहू के साथ विदा करने की ठान ली. धीरज मन ही मन अपनी पत्नी की तारीफ करता है जिसने इस बड़े काम को भी अकेले ही अंजाम दिया. बड़ी धूमधाम से बेटे की शादी की. इस शादी की एक खासियत यह थी कि अच्छी बहू पाने के लिए जात-पात की परवाह किए बिना सुधा ने अपनी जाति से बाहर की लड़की पसन्द की थी. सुधा और धीरज बहू के रूप में बेटी पाकर अपने को धन्य मानने लगे. छोटा बेटा भाभी में माँ और बहन पाकर सातवें आसमान पर उड़ रहा था. 
अब दोनों बेटों की बारी थी. वे अपनी माँ को पिता से मिलाने के लिए साधन जुटाने लगे कि कैसे दोनों एक साथ रह सकें. बरसों के बाद दोनों बेटों की कोशिशों से आज सुधा अपने पति के साथ खुश है. सुधा और धीरज साथ-साथ रहते हैं लेकिन जाने सुधा के दिल और दिमाग में क्या चलता रहता है कि रह रह कर उसे तनाव घेर लेता है. प्यारी सी बहू जो बेटी बनकर हर रोज़ सुधा से नेट पर बात करती है. दोनों बेटे बिना नागा उसे 'गुड मॉर्निंग' कह कर अपनी प्यारी मुस्कान भरी तस्वीर भेजते हैं.उन्हें देखकर बच्चों जैसी हँसी हँस देती है. कुछ देर उनके साथ बच्चा बन जाती है फिर कुछ वक्त के बाद अजीब से अवसाद से घिर जाती है. 
पूछती हूँ तो कहती है उसे खुद समझ नहीं आता कि वह क्यों बार बार तनावों के जाल में उलझ जाती है. 'अच्छा दीदी, आज यह गीत सुनो जो सुबह से बार बार सुन रही हूँ शायद आपको कोई जवाब मिल जाए' कह कर यूट्यूब का यह लिंक भेज देती है ---- 
"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ......."  



क्रमश: 

गुरुवार, 30 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6)

चित्र गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

अच्छी तरह से जानती हूँ कि रश्मि रविजा की कहानी लिखने का कोई सानी नहीं, सिर्फ कहानी ही नहीं उनकी हर विधा का लेखन प्रभावित करता है. जया की कहानी भुलाए नहीं भूलती लेकिन सुधा से वादाख़िलाफ़ी करना उसकी तौहीन होती. इसलिए इतने लंबे अंतराल के बाद भी सुधा की कहानी लेकर आना कोई आसान नहीं था जबकि पाठक उस ब्लॉग का रास्ता ही भूल चुके होते हैं जो लम्बे अरसे तक बन्द रहता है. कहीं पढ़ा भी है कि "A post without comments is like that abandoned house down the end of your street" ऐसे में सुधा की मुस्कान मेरे लिए अनमोल उपहार है.

सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 
मझली जेठानी और बड़ी ननद के समझाने पर माताजी ने सुधा को अस्पताल ले जाने की इजाज़त दे दी. आनन-फानन उसे सरकारी अस्पताल ले गए जहाँ आम सुविधाओं का तो अभाव होती ही है , रोगी को इंसान भी नहीं समझा जाता. एक स्ट्रेचर पर लेटी सुधा दर्द से तड़पती रही लेकिन ग्लूकोस चढ़ाने के बाद कोई भी उसका हाल पूछने न आया. दर्द में पड़ी सुधा का बच्चे की साँसें पल पल धीमी होती जा रही थीं लेकिन डॉक्टर उसके साथ आए परिवार को कोसने के अलाव कुछ नहीं कर रहे थे. 11 महीने बाद तो माँ और बच्चे की सलामती के लिए फौरन सिज़ेरियन होना चाहिए था. सुधा उन दिनों को याद करके ही सिहर उठती है कुछ कहना उसके मुश्किल था. स्वाभाविक ही था क्यों कि   बच्चा पैदा हुआ जिसने बाहर आकर जीने के लिए कुछ पल संघर्ष भी किया लेकिन शायद माँ के गर्भ में इतना दर्द झेल चुका था कि अब उसमें ज़िन्दा रहने की ताकत ही खत्म हो चुकी थी. माँ को कभी न भूलने वाला दर्द देकर वह सदा के लिए इस बेदर्द दुनिया को छोड़कर चला गया. 
सुधा का दर्द 11 महीनों के उस दर्द से कहीं ज़्यादा गहरा था. दिखना अभी भी बन्द था. बढ़े हुए रक्तचाप के कारण आँखों के आगे का अंधेरा अभी वैसा ही बना हुआ था लेकिन ससुराल वालों को उसकी रत्तीभर भी चिंता नहीं थी. तीसरे दिन ही उसे अस्पताल से छुट्टी दिला कर घर ले जाने के लिए डॉक्टरों से कहा जाने लगा. उस वक्त सुधा की माँ का सब्र का बाँध टूट गया. 'मार दो , उसी  यहीं गला घोट कर मार दो' कह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. काश ऐसा उसने उन 11 महीनों में किया होता जब सुधा को डॉक्टर की सख़्त ज़रूरत थी. सुधा के ससुरालवाले चुपचाप घर वापिस लौट गए. 
बार बार एक ही ख्याल मन में आता है कि लड़की के माता-पिता अपने आप को इतना असहाय और लाचार क्यों बना लेते हैं. एक बेटी अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर सदा के लिए अजनबी घर में आती है अपना नाम तक बदल लेती है. अजनबी जीवन-साथी को ही नहीं उसके पूरे परिवार को अपना मान लेती है. घर-गृहस्थी के अनगिनत काम, वंश बढ़ाने के अलावा पति और उसके परिवार के लिए अपने माता-पिता तक को भूल जाती है. शायद ससुराल वाले डरते हैं कि कहीं उनकी बेगार बहू उनके हाथ से निकल न जाए. इसी डर के कारण वे बहू से जुड़े हर रिश्ते को उससे दूर रखने की कोशिश करते हैं. सुधा के साथ भी कुछ ऐसा ही था. 
22 दिन अस्पताल रहने के बाद सुधा घर लौटी थी लेकिन किसी ने भी उसका हाल पूछना तो दूर एक नज़र देखा भी नहीं. घर का आख़िरी कमरा उसका अपना था जिसे वह खुद ही साफ करती. उस दिन भी उसने ही कमरा साफ़ किया और सिसकियाँ लेती हुई लेट गई. एक अजीब सा खालीपन था जिसे भरने के लिए उसके आँसू भी कम पड़ रहे थे. उधर सास थी कि उसे रोते देख सहानुभूति देने की बजाए और भी आग-बबूला हो जाती. 'अब बस कर रोना-धोना, बहुत  हुआ.... हमारे बच्चे भी जाया हुए पर ऐसी नौटंकी कभी नहीं की....ससुर के सामने रो-रो कर नाटक करते शर्म नहीं आती......'  इस तरह के कई नश्तर सुधा को चीर जाते लेकिन एक आह न निकलती. 
'अब खाना तुम्हारे मायके से आएगा क्या.....' कहती हुई सास अपने कमरे से बाहर निकली. ससुरजी की हिम्मत नहीं थी अपनी पत्नी के सामने कुछ बोलने की फिर भी धीरे से बोले, 'बच्चे , उठ कर बस एक दाल और दो दो चपातियाँ ही बना ले.' बुखार में तपती हुई सुधा चूल्हा सुलगाने के लिए रसोईघर आई. बड़ी मुश्किल से वह खाना बना पाई. पड़ोसन शीला चाची ने अपनी छत से ही उसे खाना बनाते हुए देख लिया था. रसोईघर आकर उसे गले से लगा कर उसके दुख को दूर करने की कोशिश में सुधा के तपते बदन ने उसे बेचैन कर दिया. सुधा की सास को वहीं से आवाज़ देती हुए बोली , ' क्या भाभी .. बिटिया तो बुखार में तप रही है और तुम उससे रोटियाँ बनवा रही हो....?' कह कर धीरज को आवाज़ दी कि फौरन गाँव के डॉक्टर को बुला लाए. 
उस वक्त तो सुधा के सास-ससुर चुप लगा गए. खाना खाकर दवा लेनी थी इसलिए जबरदस्ती कुछ कौर निगलने पड़े सुधा को... सिसकियाँ दबाती हुए अपने कमरे में चली गई. सुधा अपने पति को समझ न पाती जो अपने माता-पिता के डर से या किसी उपेक्षा भाव से उसके पास न आते. मन की बात बिना कहे चुपचाप पति को परमेश्वर मान कर उसके प्यार को जीतने की चाहत और भी बढ़ती जाती. फिर भी अन्दर बहते दर्द को रोकने के लिए बाँध बनाती काग़ज़ के टुकड़ों पर ... एक एक शब्द में रिसता दर्द बाहर निकलता तो कुछ राहत पा जाती सुधा.... 

"मेरी अर्थी को काँधे से इक पल में उतारो ....
आप समझेंगे कि मैं ज़िन्दा हूँ तो फिर ऐसा क्यों
अरे समझो मेरी हालत को, मैं तो एक ज़िन्दा लाश हूँ ....
जिसे हर पल अपने ही काँधों पर उठाए घूम रही हूँ ...
अब इस लाश के वज़न को और ढोया नहीं जाता
ये भीगी आँखे रो-रो कर फरियाद करती है तुमसे
इन्हें चैन दो, मुक्ति दो, जला कर श्मशान में
हमेशा के लिए चैन से सो जाऊँ बस यह खुशी दो
चैन से सोकर रूह तो मुस्कुराएगी
तिल-तिल मरकर जीने से अच्छा है 
ज़िन्दगी भर सोने की खुशी मुझे मिल जाएगी..... !" (सुधा) 

इसी दौरान धीरज ने सागर भैया को फिर से कुवैत में नौकरी ढूँढने के लिए विनती की. दो ढाई साल तक बेरोज़ग़ारी से जूझते हुए धीरज के लिए सुधा और माता-पिता को झेलना भी दूभर हो गया था. काम था नही उस पर सुधा को थोड़ी सी हमदर्दी दिखाना भी माता-पिता को सुहाता नहीं था. धीरज अब झूठ बोलने लगा था. घर से खेतों में जाने का बहाना करके घर के पिछले दरवाज़े से वह सुधा के पास आ जाता. 3-4 घंटे उसके साथ बिता कर खेतों में जाकर कुछ सब्ज़ी ले आता घर के लिए.
 माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा सख्ती ही शायद बच्चों को डरपोक बना देती है और यही डर उन्हें  झूठ बोलने पर मजबूर करता है. बचपन से शुरु हुआ यह सिलसिला शादी के बाद तक चलता रहता है. पति-पत्नी में संवाद की कमी का कारण भी  कुछ हद तक वही रहता है. 
इन सबमें डूबती उबरती सुधा अपनी ज़िन्दगी की नाव को खेती जा रही थी. धीरज को भी कुवैत में दुबारा नौकरी मिल गई थी. मन ही मन चैन की साँस लेकर धीरज सुधा के साथ हमदर्दी करने लगा था. पति की हमदर्दी पाकर भी सुधा निहाल हो जाती. बच्चे का जाने का ग़म गहरा था लेकिन उस पर वक्त की पट्टी बँधने से रिसना बन्द हो गया था. नए सिरे से ज़िन्दगी शुरु करने के लिए वह फिर तैयार थी. खुशी-खुशी धीरज को विदेश के लिए विदा करके सुधा बहुत रोई थी. सूजी हुई आँखें उसके मन की सारी कहानी कह जाते लेकिन सिवाय आईने के और कोई न देख समझ पाता. धीरज के दो बड़े भाई कभी कभी आते लेकिन भाभियों के पास न आने का बहुत बड़ा कारण होता बच्चों की पढ़ाई लिखाई. बहनों के अपने-अपने परिवार थे. सुधा इन सब बातों से अंजान बनकर सास-ससुर का ख्याल रखती. 
सुधा ने धीरज से वादा लिया था कि वह हर रोज़ उसे एक खत लिखेगा लेकिन शायद ऐसा मुमकिन नहीं था. गाँव का डाकिया अक्सर नज़र चुरा कर निकल जाता लेकिन जब चिट्ठी आती तो गली के मुहाने से ही शोर मचाते हुए आता, 'चाय मिलेगी तो खत दूँग़ा' और सुधा खिलखिलाती हुई झट से चाय  बना लाती चाहे बाद में सास-ससुर के ताने सहने पड़ते. 'दूध चीनी तो शायद तुम्हारी माँ दे जाती' 'बेचारा बेटा विदेश में कमाइयाँ कर रहा है और यह यहाँ लुटाने में लगी है' सुधा सफ़ाई में कुछ कहने की  हिम्मत न जुटा पाती. 
उन्हीं दिनों सुधा को पथरी का तेज़ दर्द उठा. देसी दवाइयों से इलाज चलता रहा लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा. इस बार सुधा के बड़े भैया हिम्मत करके उसे घर ले आए. सुधा की हालत सही नहीं थी इसलिए वहीं रहकर इलाज कराने की सोची गई. अभी डॉक्टर को एक बार  ही दिखाया था कि तीसरे दिन ससुर जी और छोटी ननद गुस्से में उबलते हुए सुधा के मायके पहुँच गए. 'क्या समझ रखा है अपने आपको..... बेटी को लाने की हिम्मत कैसे की.... मेरे माँ-बाप की सेवा कौन करेगा... ' छोटी ननद बिना रुके गुस्से में बोलती जा रही थी. ससुरजी गुस्से में भरे चुप बैठे रहे. सुधा के भाई अन्दर ही अन्दर उबल रहे थे लेकिन माँ डर रही थी कि कहीं सुधा को माँ के घर बैठना पड़ेगा तो समाज को क्या मुँह दिखाएगी. उसी पल सुधा को उनके साथ लौटा दिया. मन ही मन माँ  शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में. 

जब ज़िन्दा थे तो किसी ने प्यार से अपने पास न बिठाया
अब मर गए तो चारों ओर बैठे हैं !

पहले किसी ने मेरा दुख मेरा हाल न पूछा
अब मर गई तो पास बैठ कर आँसू बहाते हैं !

एक रुमाल तक भी भेंट न दी जीते जी किसी ने
अब गर्म शालें औ’ कम्बल ओढ़ाते हैं !

सभी को पता है ये शालें ये कम्बल मेरे किसी काम के नहीं
मगर बेचारे सब के सब दुनियादारी निभाते हैं !

जीते जी तो खाना खाने को कहा नहीं किसी ने
अब देसी घी मेरे मुँह में डाले जाते हैं !

जीते जी साथ में एक कदम भी चले नहीं हमारे साथ जो
अब फूलों से सजा कर काँधे पर बिठाए जाते हैं !

आज पता चला कि मौत ज़िन्दगी से कितनी अच्छी नेमत है
हम तो बेवजह ही ज़िन्दगी की चाहत में वक्त गँवाए जाते थे..!(सुधा)

बात करते-करते सुधा चुप हो गई लेकिन मेरे दिल और दिमाग में कई सवाल सिर उठाने लगे.. क्या कहूँ सुधा को अबला या सबला...!! 

क्रमश: 

बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा



मंगलवार, 5 जुलाई 2011

गुलमोहर और ताड़


मेरे घर के सामने

हर रोज़ ध्यान लगाने की कोशिश करती हूँ ....
आँखें खुलते ही शीशे की दीवार से पर्दा हटा देती हूँ ...
दिखता है विस्तार लिए नीला आसमान ... 
उस पर उसी के बच्चे से बादल
हँसते-रोते सफ़ेद रुई के फोहे से 
कभी कभी तो धुँए के तैरते छल्लों से लगते  ...
ध्यान हटाती हूँ ...
आँखें नीचे उतरने लगती हैं पेडों पर ....

गुलमोहर और ताड़ के पेड़
कैसे एक साथ खड़े हैं...बाँहों में बाँहें डाले...
गुलमोहर की नाज़ुक बाँहें नन्हें नन्हें 
हरे रोमकूप से पत्तों सी कोमल...
ताड़ की सूखी खुरदरी... 
तीखी नोकदार फैली हुई सी बाँहें.....
फिर भी शांत..ध्यानमग्न हो जैसे एक दूसरे में...
मेरा ही ध्यान क्यों टूट जाता है....!! 

अपनों के बीच भी हम कहाँ रह पाते हैं
अपना मान कर एक दूसरे को ...!!




मंगलवार, 25 मई 2010

बेबसी, छटपटाहट और गहरा दर्द










आज शाम भारत से एक फोन आया जिसने अन्दर तक हिला दिया. उम्मीद नहीं थी कि अपने ही परिवार के कुछ करीबी रिश्ते इस मोड़ पर आ जाएँगे जहाँ दर्द ही दर्द है. रिश्ते तोड़ने जितने आसान होते हैं उतना ही मुश्किल होता है उन्हें बनाए रखना. पल नहीं लगता और परिवार बिखर जाता है. परिवार एक बिखरता है लेकिन उसका असर आने वाले परिवारों पर बुरा पड़ता है. पति पत्नी अपने अहम में डूबे उस वक्त कुछ समझ नहीं पाते कि बच्चों पर इस बिखराव का क्या असर होगा.. मन ही मन बच्चे गहरी पीड़ा लेकर जिएगें, कौन जान पाता है.

आज तक समझ नहीं आया कि तमाम रिश्तों में कड़ुवाहट का असली कारण क्या हो सकता है... अहम या अपने आप को ताकतवर दिखाने की चाहत.....

न जाने क्यों एक औरत जो पत्नी ही नहीं माँ भी है .... उसकी सिसकियाँ मन को अन्दर तक भेद जाती हैं. पहली बार जी चाहा कि अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगाया जाए. शायद कोई टूटने बिखरने से बच जाए.


नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.

कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.

फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.

फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.

अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.

अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ. मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'

माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.

अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

बुधवार, 6 अगस्त 2008

प्रेम चमकते हीरे सा.. !













प्रेम का भाव, उस भाव के आनन्द की अनुभूति...इस पर बहुत कुछ लिखा गया है.. अक्सर बहस भी होती है लेकिन बहस करने से इस विषय को जाना-समझा ही नही जा सकता ... केवल प्रेम करके ही प्रेम को जाना जा सकता है।
प्रेम करते हुए ही प्रेम को पूरी तरह से जाना जा सकता है... नदी में कूदने की हिम्मत जुटानी पड़ती है तभी तैरना आता है ... प्रेम करने का साहस भी कुछ वैसा ही है.. किसी के प्रेम में पड़ते ही हम अपने आप को धीरे धीरे मिटाने लगते हैं...समर्पण करने लगते हैं..अपने आस्तित्त्व को किसी दूसरे के आस्तित्त्व में विलीन कर देते हैं... यही साहस कहलाता है...
प्रेम का स्वरूप विराट है...उसके अनेक रूप हैं... शिशु से किया गया प्रेम वात्सल्य है जिसमे करुणा और संवेदना है तो माँ से किया गया प्रेम श्रद्धा और आदर से भरा है...उसमें गहरी कृतज्ञता दिखाई देती है... यही भाव किसी सुन्दर स्त्री से प्रेम करते ही तीव्र आवेग और पागलपन में बदल जाते हैं.. मित्र से प्रेम का भाव तो अलग ही अनुभूति कराता है, उसमें स्नेह और अनुराग का भाव होता है...
प्रेम के सभी भाव फूलों की तरह एक दूसरे से गुँथे हुए हैं...हमारा दृष्टिकोण , हमारा नज़रिया ही प्रेम के अलग अलग रूपों का अनुभव कराता है।

मेरे विचार में प्रेम चमकते हीरे सा समृद्ध है.... कई रंग हैं इसमें और कई ठोस परतें हैं . हर परत की अपनी अलग चमक है जो अदभुत है... अद्वितीय है !!!

(घुघुतीजी के स्नेह भरे आग्रह का परिणाम है यह पोस्ट... प्रेम भाव को शब्दों का रूप देने के लिए वक्त चुराना पड़ा नहीं तो इस वक्त हम कोई ब्लॉग़ पढ़ रहे होते )