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मंगलवार, 21 जून 2016

प्रेम - Unconditional



सागर की लहरों से बतियाती 
रेत पर लकीरें खींचती पीठ करके बैठी 
कोस रही थी चिलचिलाती धूप को 
सूरज की तीखी किरणें तीलियों सी चुभ रहीं थीं 
 हवा भी लापरवाह अलसाई  हुई कहीं दुबकी हुई थी 
बैरन बनी चुपके से छिपकर कहीं से देख रही होगी
सूरज के साथ मिल कर मुझे सता कर खुश होती है 
पल भर को मैं डरी-सहमी  फिर घबरा के सोचा 
क्या हो अगर धूप और  हवा दोनों रूठ जाएँ 
दूसरे ही पल चैन की साँस लेकर सोचा मैंने 
सूरज, चाँद , सितारे , हवा और पानी सब 
 जब तक साँस है तब तक सबका साथ  है 
जन्म-जन्म के साथी निस्वार्थ भाव से 
करते हम सबको प्यार बिना शर्तों के !

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

गुलमोहर और ताड़


मेरे घर के सामने

हर रोज़ ध्यान लगाने की कोशिश करती हूँ ....
आँखें खुलते ही शीशे की दीवार से पर्दा हटा देती हूँ ...
दिखता है विस्तार लिए नीला आसमान ... 
उस पर उसी के बच्चे से बादल
हँसते-रोते सफ़ेद रुई के फोहे से 
कभी कभी तो धुँए के तैरते छल्लों से लगते  ...
ध्यान हटाती हूँ ...
आँखें नीचे उतरने लगती हैं पेडों पर ....

गुलमोहर और ताड़ के पेड़
कैसे एक साथ खड़े हैं...बाँहों में बाँहें डाले...
गुलमोहर की नाज़ुक बाँहें नन्हें नन्हें 
हरे रोमकूप से पत्तों सी कोमल...
ताड़ की सूखी खुरदरी... 
तीखी नोकदार फैली हुई सी बाँहें.....
फिर भी शांत..ध्यानमग्न हो जैसे एक दूसरे में...
मेरा ही ध्यान क्यों टूट जाता है....!! 

अपनों के बीच भी हम कहाँ रह पाते हैं
अपना मान कर एक दूसरे को ...!!




सोमवार, 29 अक्टूबर 2007

नभ की सुषमा

अभी तो सूरज दमक रहा है. दिन अलस जगा है.
चंदा के आने का इंतज़ार अभी से क्यों लगा है !
बस उसी चंदा के ख्यालों में मेरा मन रमा है
नभ की सुषमा देखने का अरमान जगा है !
कविता के सुन्दर शब्दो का रूप सजा है
अब ब्लॉगवाणी पर पद्य मेरा हीरे सा जड़ा है !



नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !

ऐसी आभा देख गगन की
तारावलि मुस्काई !

नभ ने ऐसी शोभा पाई
सागर-मन अति भाई !

कहाँ से नभ ने सुषमा पाई
सोच धरा ने ली अँगड़ाई !

रवि की सवारी दूर से आई
उसकी भी दृष्टि थी ललचाई!

घन-तन पर लाली आ छाई
घनघोर घटाएँ भी सकुचाईं !

नील गगन के नील बदन पर
रवि आभा घिर आई !

ऐसी आभा देख गगन की
कुसुमावलि भी मुस्काई !

नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2007

धरा गगन का मिलन असम्भव !

अम्बर की मीठी मुस्कान ने,
रोम रोम पुलकित कर दिया
उससे मिलने की चाह ने,
धरा को व्याकुल कर दिया .
मिलन असम्भव पीड़ा अति गहरी,
धरा गगन की नियति यही रहती
अंबर की आँखों से पीड़ा बरसती,
वसुधा अंबर के आँसू आँचल मे भरती

हरा आँचल लपेट सोई जब निशा के संग धरा
अम्बर निहारे रूप धरा का चन्दा के संग खड़ा

सूरज जैसा अम्बर का लाल हुआ रंग बड़ा
मिलन की तृष्णा बढ़ी , विरह का ताप चढ़ा

जब सूरज चंदा की दो बाँहें अम्बर ने पाईं
और प्यासी धरती को आगोश मे भरने आई

तब पीत वर्ण की चुनरी ओढ़े वसुधा शरमाई
यह सुन्दर छवि वसुधा की नीलाम्बर मन भाई.

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

वासन्ती वैभव


वात्सल्यमयी वसुधा का वासंती वैभव निहार
गगन प्यारा विस्मयविमुग्ध हो उठा।
धानी आँचल में छिपे रूप लावण्य को
आँखों में भर कर बेसुध हो उठा।

सकुचाई शरमाई पीले परिधान में
नवयौवना का तन-मन जैसे खिल उठा।
गालों पर छाई रंग-बिरंगे फूलों की आभा
माथे पर स्वेदकण हिमहीरक सा चमक उठा।

चंचल चपला सी निकल गगन की बाँहों से
भागी तो रुनझुन पायल का स्वर झनक उठा।
दिशाएँ बहकीं मधुर संगीत की स्वरलहरी से
मदमस्त गगन का अट्ठहास भी गूंज उठा।

महके वासंती यौवन का सुधा-रस पीने को
आकुल व्याकुल प्यासा सागर भी मचल उठा।
चंदा भी निकला संग में लेके चमकते तारों को
रूप वासंती अम्बर का नीली आभा से दमक उठा।

कैसे रोकूँ वसुधा के
जाते वासंती यौवन को
मृगतृष्णा सा सपना सुहाना
सूरज का भी जाग उठा
पर बाँध न पाया रोक न पाया
कोई जाते यौवन को
फिर से आने का स्वर किन्तु
दिशाओं में गूंज उठा ।।

गुरुवार, 6 सितंबर 2007

हरी भरी दूब


हरी-हरी दूब पर इधर-उधर भागते बच्चों को कभी देखती तो कभी व्यास नदी के किनारे छप-छप करते नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से एक-दूसरे पर पानी उछालते बच्चों की मधुर मुस्कान को देखती जो मन-मोहिनी थी। कितनी ही बार झुक-झुक कर बच्चे नदी की बहती शीतल धारा के मीठे पानी को अंजुलि से मुँह में भरने की कोशिश कर रहे थे, दो बूँद पानी मुँह में जाता बाकि नदिया में फिर से बह जाता , पर बच्चों को झुकने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी । काश मेरा बचपन लौट आए तो मैं भी उन जैसे ही खेल-खेल में ही ठंडे पानी से खेलती और पीकर अपनी प्यास बुझाती। शायद बुढ़ापा आ रहा है या मेरा अहम् मुझे झुकने से मना कर रहा है । मानव की प्रकृति भी अद्भुत है , प्रेम पाने की लालसा सदा रहती है लेकिन आत्मसमर्पण करना कठिन लगता है । मैं टूट सकती हूँ लेकिन झुक नहीं सकती। झुकने का डर कायरता की निशानी है । वास्तव में झुकने से कुछ मिलेगा ही , कुछ भी खोने का भय होना ही नहीं चाहिए। बच्चों को देख रही हूँ जो हरी मुलायम घास पर दौड़ रहे हैं लेकिन आश्चर्य हो रहा है घास का व्यवहार देखकर जो अपना हरयाला आँचल बिछाए बच्चों को हँसते मुस्कराते देख खुशी से झूम रही है । दूर-दूर तक नज़र गई तो देखा कि पिछले हफ्ते आए तूफ़ान से कितने ही पेड़ जड़ समेत धराशायी हो गए। तूफ़ान के सामने बड़े-बड़े पेड़ हार गए, टूट गए, अब उनमें दुबारा खड़े होने की ज़रा सा भी शक्ति नहीं रही । दूसरी तरफ हरी दूब को जीने की कला आती है , तूफ़ान आया , चला गया पर दूब और भी अधिक निखर गई , जैसे सोना आग में तप निखर जाता है हरी मुलायम दूब और भी निखर उठी।

सोच रही हूँ कि प्रकृति कितना कुछ सिखाती है लेकिन हम अपने अहम् में डूबे , अपने अन्दर की लड़ाइयों में व्यस्त अनदेखा कर जीवन की डगर पर बढ़ने की कोशिश में लगे रहते हैं।