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सोमवार, 18 मई 2020

ताउम्र भटकना



आज भी माँ कहती है-
“बेटी, कल्पनालोक में विचरण करना छोड़ दे, 
क्रियाशील हो जा, ज़िन्दगी और भी खूबसूरत दिखेगी” 
और मैं हमेशा की तरह सच्चे मन से माँ से ही नहीं 
अपने आप से भी वादा करती हूँ
कि धरातल पर उतर कर 
ज़िन्दगी के नए मायने तलाश करूँगीं  
लेकिन ये तलाश कहाँ पूरी होती है. 
ताउम्र चलती है और हम भटकते हैं 
हर पल इक नई राह पर चल कर 
जाने क्या पाने को....  

शुक्रवार, 15 मई 2020

मस्त रहो 


महामारी के इस आलम में 
मन पंछी सोचे अकुला के 
छूटे रिश्तों  की याद सजा के
ख़ुद ही झुलूँ ज़ोर लगा के  
 आए अकेले , कोई ना अपना  
 साथ निभाते भरम पाल के ! 
 ख़ुद से रूठो ख़ुद को मना के  
 स्नेह का धागा ख़ुद को बाँध के  
 यादों का झोंका आकर कहता   
 मस्त रहो ख़ुद से बतिया के !! 
 मीनाक्षी धनवंतरि 

बुधवार, 6 जून 2018

अनायास 

आभासी दुनिया में ब्लॉग जगत की अपनी अलग ही खूबसूरती है जो बार बार अपनी ओर खींचती है

अनायास..
पुरानी यादों का दरिया बहता  
 चट्टानों सी दूरी से जा टकराता  
 भिगोता उदास दिल के किनारों को  
 अंकुरित होते जाते रूखे-सूखे ख़्याल  
 अतीत की ख़ुश्क बगिया खिल उठी 
 और महक उठी छोटी-छोटी बातों से  
 यादों के रंग-बिरंगे फूलों की ख़ुशबू से  
 मेरी क़लम एक बार फिर से जी उठी  
 बेताब हुई लिखने को मेरा इतिहास  
 भुला चुकी थी जिसे मैं 
या भूलने का भ्रम पाला था 
शायद !!

मंगलवार, 21 जून 2016

प्रेम - Unconditional



सागर की लहरों से बतियाती 
रेत पर लकीरें खींचती पीठ करके बैठी 
कोस रही थी चिलचिलाती धूप को 
सूरज की तीखी किरणें तीलियों सी चुभ रहीं थीं 
 हवा भी लापरवाह अलसाई  हुई कहीं दुबकी हुई थी 
बैरन बनी चुपके से छिपकर कहीं से देख रही होगी
सूरज के साथ मिल कर मुझे सता कर खुश होती है 
पल भर को मैं डरी-सहमी  फिर घबरा के सोचा 
क्या हो अगर धूप और  हवा दोनों रूठ जाएँ 
दूसरे ही पल चैन की साँस लेकर सोचा मैंने 
सूरज, चाँद , सितारे , हवा और पानी सब 
 जब तक साँस है तब तक सबका साथ  है 
जन्म-जन्म के साथी निस्वार्थ भाव से 
करते हम सबको प्यार बिना शर्तों के !

शुक्रवार, 27 मई 2016

शब्द शराब तो भाव नशा





शब्द शराब बन
आँखों के ज़रिए
उतरते हैं दिल
और दिमाग़ में
नशा ग़ज़ब चढ़ता
नस नस में उतरता
धीरे धीरे असर होता
शब्दों का, भावों का
इसीलिए तो शब्द सबके
और अपने भी पी जाती हूँ
जो नशा बन छा जाते
करते जादू सा मुझ पर 
 कर देते मुझे मूक-मुग्ध !







रविवार, 24 अगस्त 2014

फूल और पत्थर




मेरे घर के गमले में 
खुश्बूदार फूल खिला है
सफ़ेद शांति धारण किए 
कोमल रूप से मोहता मुझे .... 
छोटे-बड़े पत्थर भी सजे हैं 
सख्त और सर्द लेकिन
धुन के पक्के हों जैसे 
अटल शांति इनमें भी है 
मुझे दोनों सा बनना है 
महक कर खिलना 
फिर चाहे बिखरना हो 
सदियों से बहते लावे में 
जलकर फिर सर्द होकर 
तराशे नए रूप-रंग के संग 
पत्थर सा बनकर जीना भी है !!

सोमवार, 30 जून 2014

इक नए दिन का इंतज़ार


हर नया दिन सफ़ेद दूध सा
धुली चादर जैसे बिछ जाता 
सूरज की  हल्दी का टीका सजा के
दिशाएँ भी सुनहरी हो उठतीं  
सलोनी शाम का लहराता आँचल
पल में स्याह रंग में बदल जाता  
वसुधा रजनी की गोद में छिपती 
चन्दा तारे जगमग करते हँसते
मैं मोहित होकर मूक सी हो जाती 
जब बादल चुपके से उतरके नीचे 
कोमल नम हाथों से गाल मेरे छू जाते 
और फिर होने लगता 
इक नए दिन का इंतज़ार .....! 

सोमवार, 12 मई 2014

सुबह का सूरज




ऊँची ऊँची दीवारों के उस पार से 
विशाल आसमान खुले दिल से 
मेरी तरफ सोने की गेंद उछाल देता है 
लपकना भूल जाती हूँ मैं 
 टकटकी लगाए देखती हूँ
नीले आसमान की सुनहरीं बाहें 
और सूरज की सुनहरी गेंद 
जो संतुलन बनाए टिका मेरी दीवार पर 
   पल में उछल जाता फिर से आसमान की ओर
छूने की चाहत में मन पंछी भी उड़ता
खिलखिलातीं दिशाएँ !!





सोमवार, 5 मई 2014

अपनापा




रोज़ की तरह पति को विदा किया
दफ़तर के बैग के साथ कचरे का थैला भी दिया
दरवाज़े को ताला लगाया
फिर देखा आसमान को लम्बी साँस लेकर
सूरज की बाँहें गर्मजोशी से फैली हैं
बैठ जाती हूँ वहीं उसके आग़ोश में..  
जलती झुलसती है देह
फिर भी सुकूनदेह है यूँ बाहर बैठना
चारदीवारी की कैद से बाहर 
ऊँची दीवारों के बीच 
नीला आकाश, लाल सूरज, पीली किरणें 
बेरंग हवा बहती बरसाती रेत का नेह 
गुटरगूँ करते कबूतर, बुदबुदाती घुघुती 
चहचहाती गौरया 

यही तो है अपनापा !!

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

काली होती इंसानियत....



अन्धेरे कमरे के एक कोने में दुबकी सिसकती
बैठी सुन्न सहम जाती है फोन की घंटी से वह

अस्पताल से फोन पर मिली उसे बुरी खबर थी
जिसे सुन जड़ सी हुई वह उठी कुछ सोचती हुई

एक हाथ में दूध का गिलास दूसरे में छोटी सी गोली
कँपकँपाते हाथ ...थरथर्राते होंठ , आसुँओं से भीगे गाल

नन्ही सी अनदेखी जान को कैसे बचाएगी इस जहाँ से
खुद को  बचा न पाई थी उन खूँखार दरिन्दों से....

कुछ ही पल में सफ़ेद दूध ....लाल हुआ फैलता गया
एक कोने से दूसरे कोने तक टूटे गिलास का काँच बिखरा
और  फ़र्श धीरे धीरे लाल से काला होता गया....

शायद इंसानियत भी ....... !!!

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कल रात मैं रात के संग थी...



कल रात मैं रात के संग थी
तन्हाँ सिसकती सी रात को ....
समझाना चाहा ...
हे रात ! तुम्हें ग़म किस बात का 
साए तो सदा साथ रहते हैं अंधेरों के... 
देखो तो दिवस को ... 
पहर दर पहर 
साए आते जाते हैं 
फिर साथ छोड़ जाते हैं... 
दिन ढलता जाता है 
और फिर मर जाता है...! 
हम भी कितने पागल है
यूँ ही बस किसी अंजान साए के पीछे भागते हैं... 

गुरुवार, 30 जून 2011

एक कर्मयोद्धा सा


रियाद में अपने घर की खिड़की से ली गई तस्वीर 




सड़क के उस पार शायद कोई मजदूर बैठा है
कड़ी धूप में सिर झुकाए जाने क्या सोचता है...
मैं खिडकी के अधखुले पट से उसे देखती हूँ
जाने क्या है उसके मन में यही सोचती हूँ ..
कुछ देर में अपनी जेब से पर्स निकालता है
शायद अपने परिवार की फोटो निहारता है
बहुत देर तक एकटक देखता ही रहता है
कभी होठों से तो कभी दिल से लगाता है
जाने कितने सालों से घर नहीं गया होगा...
अपनों को याद करके कितना रोया होगा..
विधाता ने किस कलम से उनका भाग्य लिखा...

एक पल के लिए दुखी होती हूँ ------
दूसरे ही पल मुझे वह -------
हर बाधा से जूझता एक कर्मयोद्धा सा दिखा..!!


रविवार, 26 जून 2011

पलाश




लाल फूलों से दहकता पलाश
जैसे पछतावे की आग में जलता हो...
कभी उसने शिव पार्वती के
एकांत को भंग किया था





शांति दूत सा सफेद पलाश
खड़ा मेरे आँगन में ...
कभी निहारती उसे
कभी अपने आप को
वर्षों तक अपने शरीर को उसके आग़ोश में
सरंक्षित रखने की इच्छा जाग उठी ...


शुक्रवार, 24 जून 2011

खिड़की के बाहर खड़े पेड़




खिड़की के बाहर खड़े पेड़
हमेशा मुझे लुभाते हैं....
उनकी जड़ें कितनी गहरी होगीं..
मानव सुलभ चाहत खोदने की ...
उनका तना कितना मज़बूत होगा ...
इच्छा होती छूकर उन्हें कुरेदने की ...
उनकी शाखाओं में कितना लचीलापन होगा...
पकड़ कर उन्हें झुका लूँ
या झूल जाऊँ उन संग
खिड़की के बाहर खड़े पेड़
हमेशा मुझे बुलाते हैं..
कभी सर्द कभी गर्म
हवाओं का रुख पाकर

अचानक शाख़ों में छिपे पंछी चहचहाते
जबरन ध्यान तोड़ देते हैं मेरा.....!!! 

गुरुवार, 2 जून 2011

बादलों का आंचल

 साँझ के वक्त आसमान से उतरते सूरज की कुछ तस्वीरें लीं....कुछ भाव भी मन में आ गए बस उन्हें इस तरह यहाँ उतार दिया.... चित्र को क्लिक करके देखिए...शायद अच्छा लगे..... 






शुक्रवार, 20 मई 2011

रेगिस्तान का रेतीला रूप

(28 मई 2009 का ड्राफ्ट)


दूर दूर तक फैले
रेगिस्तान का रेतीला रूप
निहारा... सराहा.... महसूस किया
जैसे हो माँ का आँचल
लहराता... बलखाता....
अपने आगोश में लेता....
सूरज जलता सा उतरता
अपनी गर्मी से तड़पाता
धरती के अधर सुखाता 
रोम रोम रूखा हो जाता
वसुधा को प्यासा कर जाता
प्यासी दृष्टि में आस जगाता

रियाद शहर से बाहर का रेगिस्तान

बुधवार, 11 मई 2011

उड़ान


 रेगिस्तान का सूर्यास्त 
















चंचल मन की चाह अधिक है

कोमल पंख उड़ान कठिन है

सीमा छूनी है दूर गगन की

उड़ती जाऊँ मदमस्त पवन सी

साँसों की डोरी से पंख कटे

पीड़ा से मेरा ह्रदय फटे

दूर गगन का क्षितिज न पाऊँ

आशा का कोई द्वार ना पाऊँ !
(मन के भाव नारी कविता ब्लॉग़ पर जन्म ले चुके थे,,,आज उन्हें अपने ब्लॉग़ पर उतार दिए...)

गुरुवार, 24 मार्च 2011

इंतज़ार है बस
























भरम में खड़े हैं शायद वो चलेंगे साथ दो कदम
तन्हा बुत से बने हैं उस पल का इंतज़ार है बस 
रुके हैं वहीं जहाँ से शुरु किया था सपनों का सफ़र
हो जाए शायद उनपर मेरी सदाओं का कुछ असर 
न हुए न होंगे कभी हमारे थे वो संगदिल सनम
दीवाने हुए थे यकीं था हमें भी मिलेंगे अगले जनम















सब्र कर लिया जब्त कर लिया बहते जज़्बातों को
पर कैसे रोकें दिल की दरारों से रिसते इस दर्द को........! 
                 

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

तू सूरज मैं मूरत मोम की



तू सूरज मैं मूरत हूँ मोम की
तू अग्निकण मैं बूँद हूँ ओस की !
तपन तेरी से पिघले तन-मन
तपिश तेरी से सुलगे प्रति-क्षण !
तू समझे न बातें मेरे ह्रदय की
तू क्या जाने पीड़ा मेरे मन की !
अभिव्यक्त करूँ मैं कैसे अपने भावों को
हँसते-हँसते सहती हूँ तेरी घातों को !