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रविवार, 28 अगस्त 2011

कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन ....

कल की पोस्ट करते वक्त कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन .... 
सब मिल कर गडमड हो गया.... 

अपने एक परिचित मित्र के मित्रों की दास्ताँ ने मन बेचैन कर दिया... 

लड़की 24-25 साल की है .....
28 साल के पति के साथ सालों की दोस्ती के बाद अभी छह महीने ही हुए थे शादी को...  
मस्ती करने गए थे समुन्दर में.... जो महँगी पड़ गई..... 
लड़की के पति बोट के किनारे पर बैठे अपना संतुलन खो बैठे और पीछे की तरफ़ गिर गए .... 
मित्रों ने फौरन निकाल लिया लेकिन रीढ़ की हड्डी को बहुत नुक्सान पहुँचा ......
अस्पताल में इलाज चलते पता चला कि वेजीटेबल स्टेट में हैं... 
लाइफ स्पोर्ट के यंत्र बस निकालने का फैंसला करना है......... 
लड़की अपने मन के भावों को संयत करती हुई बात करती है ... 
लेकिन जाने मन में कैसे कैसे झंझावात चल रहे होगे......!!!  

ऐसे हादसे अतीत की कड़वी यादों में ले जाते हैं..... 
मन अशांत हो जाता है....
मन अशांत हो तो जीवन ढोने जैसा लगता है....
समझो तो जीवन बुलबुले जैसा हल्का और क्षणभुंगुर भी लगता है ..... 

माँ से बात होती है तो मन बच्चे जैसा फिर से सँभलने लगता है .... 
बच्चा सा बन कर पल में रोते रोते फिर से हँसने लगता है.... 

अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियों बार बार याद आती हैं और  मन गुनगुनाने लगता है ...... 



"साँसों का पैमाना टूटेगा, 
पलभर में हाथों से छूटेगा
सोच अचानक दिल घबराया,
ख़्याल तभी इक मन में आया  
जाम कहीं यह छलक न जाए, 
छूटके हाथ से बिखर न जाए
क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ, 
जीवन का मधुरस मैं पी लूँ." 





शनिवार, 27 अगस्त 2011

ज़िन्दगी एक बुलबुला है !

ज़िन्दगी एक बुलबुला है 


  आज के दिन ........ 
"  प्रेम ही सत्य है"  ब्लॉग जन्मा था .... हमेशा ज़िन्दा रहेगा अंर्तजाल पर  डॉ अमर कुमार की तरह ..... 
ब्लॉग को जन्म देने वाला न रहेगा....  कभी अचानक वह भी चल देगा डॉ अमर की तरह ..... 


Dr.Amar Favorite Quotation on Facebook : "  मुझे पढ़ लो, हज़ार कोटेशन पर भारी पड़ूँगा"  


चेतन जगत को लेकर कुछ ऎसे ही ख़्यालात मेरे भी हैं.. पर मृत्यु के बाद क्या और कैसे होगा.. यह नहीं सोचता । 
मूँदहू आँख कतऊ कछु नाहीं... कौन अपना जिया जलाये जिस तरह परिजन चाहें.. क़फ़न दफ़न करेंकुछ तो करेंगे हीदुनिया को दिखाना होता है... वैसे न भी कुछ करें मृत प्राणी को क्या फ़र्क़ पड़ता हैजिन्दा में घात प्रतिघात.. मरने पर दूध भात !  on आख़िरी नींद की तैयारी


नहीं जी, कम से कम मैंने तो आपकी पिछली पोस्ट का कोई अनर्थ न लिया. बरसों पहले (शायद 1982 में) एक अठन्नी के बदले किसी अनाम फ़क़ीर ने दुआ दी कि, “ज़िन्दगी में हमेशा मालिक को, और मौत को याद रखा करो, ताउम्र बिना कोई गलती किए सुखी रहोगे.” यह सूत्र मैंने अपना लिया है, मुझे किसी बात से कोई भय नहीं लगता. एक दूसरा सूत्र और भी...लेकिन वह यहाँ उतना प्रासंगिक नहीं है. आपके होनहार द्वय के चित्र व संगीत सँयोजन उत्कृष्ट के आस कहीं पर ठहरे हुए हैं...किंतु चीकने पात दिख गए. on यही तो सच है......


मंगलवार, 1 जून 2010

काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता







ज़रूरी नहीं कि जो कहते नहीं,,,बोलते नहीं... या ब्लॉग पर लिखते नहीं...उन्हें समाज में हो रही घटनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता.... सब अपने अपने तरीके से उन घटनाओं के प्रति अपने भाव प्रकट करते हैं...उन घटनाओं को देखते सुनते हुए कभी मौन धारण कर लेते हैं तो कभी बहस और वाद विवाद करने लगते हैं. कभी वही विवाद किसी ‘वाद’ का बदसूरत रूप लेकर चारों तरफ अशांति फैला देते हैं...

कुछ विदेशी दोस्तों ने नक्सलवाद के बारे में पूछा तो विकीपीडिया का लिंक भेज दिया लेकिन खुद भी पढने बैठ गए... अचानक अपने देश के नक्शे पर नज़र गई तो फिर हटी नही...... जिस तरह से लाल,पीले और संतरी रंगों से नक्सलवाद के छाए आंतक को दिखाया गया था उसे देख कर एक अजीब सा दर्द महसूस होने लगा....

नक्शा घायल शरीर जैसा दिखने लगा..... नक्शे पर फैले लाल पीले रंग को देख कर लगने लगा जैसे ज़ख़्म हों जो नासूर बन कर रिस रहे हों.......घाव इतने गहरे लग रहे थे जैसे कि उनका इलाज सम्भव ही न हो.....समूचा वजूद तेज़ दर्द की लहर से तड़प उठा.....

अचानक नादान मन सोचने लगता है ....काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता तो कितना अच्छा होता.....‘वाद’ शब्द ही नहीं होगा तो फिर किसी तरह का कोई विवाद खड़ा न हो सकेगा... बेकार की बहसबाज़ी न होगी.....दलबाज़ी और गुटबाज़ी न होगी.... झग़ड़ा फ़साद न होगा... मासूमों का ख़ून न बहेगा... नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद, पूँजीवाद , समाजवाद जातिवाद आदि का झगडा भी नही रहेगा.........!

सबसे खास बात होगी अपने देश का नक्शा घायल जैसा न दिखेगा....!!!!


शनिवार, 29 मई 2010

गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड है







इस पोस्ट का शीर्षक फुरसतिया ब्लॉग़ की पोस्ट ‘एक ब्लॉगर की डायरी’ से लिया गया है. नेट की परेशानी के कारण कुछ रचनाओं के प्रिंट आउट करवा कर पढ़ते हैं सो फुरसतिया पोस्ट को तो फुरसत होने पर ही पढ़ा जा सकता है.. पढती जा रही हूँ और सोचने के लिए कई विषय मिलते जा रहे हैं...

सबसे रोचक लगा ‘गुस्सा डीलर’ के बारे मे जानकर.... जब पढ़ा कि गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड हो गया है तब से सोच रहे हैं कि जितना गुस्सा कम, उतनी बुद्धि कम .... अब क्या करें कैसे उबाल आए कि हम भी बुद्धिजीवी बन जाएँ एक दिन में... गुस्सा होने की लाख कोशिश करने लगे...... पहले अपने ही घर से शुरु किया....पति शाम को ऑफिस से आते हैं...जी चाहता है कि बाहर घूम आएँ ...ताज़ी हवा में टहल आएँ ...इंतज़ार करने लगे कि आज तो बाहर बाहर से ही निकल जाएँग़े...आदत से मजबूर दरवाज़ा खोल दिया...मुस्कुरा कर स्वागत भी किया... हम कुछ कहते उससे पहले ही महाशय के चेहरे पर मन मन की थकावट देख कर चुप रह गए ... गुस्सा भी अन्दर ही अन्दर मन मसोस कर रह गया कि थके मानुस को क्यों परेशान करना....

बच्चों की बारी आई... उन पर आजमाना चाहा ...युवा लोग तो वैसे भी बुर्ज़ुगों के कोप का निशाना बने ही हुए है....दोनो बच्चे दुबई में हैं..अकेले रहने का पूरा मज़ा ले रहे हैं... दो दो दिन बीत जाते हैं बात किए हुए...आधी आधी रात तक घर से बाहर होते हैं लेकिन न जाने चिल्ला नहीं पाते कि शादी हो जाएगी तब तो बिल्कुल नहीं पूछोगे.... अभी से यह हाल है....फोन किया...बात सुनी..छोटे ने कहावत एक बार सुनी थी नवीं या दसवीं की हिन्दी क्लास में कि ‘बेटा बन कर सबने खाया बाप बन कर किसी नहीं’ बस तो ऐसा मीठा बन जाता है कि प्यार आने लगता है....गुस्सा कहाँ आता... बल्कि सोचने लगेगी कि यही वक्त है उनका मस्ती करने का..क्या करते हैं, कहाँ जाते हैं इतनी खबर ही बहुत है....

दोस्तों और रिश्तेदारों की बारी आई....कोई तो भला मानुस हो जो गुस्सा दिलवा दे ताकि बुद्धिजीवी होने का सपना इसी जन्म मे पूरा हो सके.... स्काइप, जीमेल, फेसबुक आदि पर कई रिश्तेदार और दोस्त होते हैं जो नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं......हरी बत्ती हो तो बड़ों को नमस्कार कर देते हैं लेकिन छोटों की नमस्ते का इंतज़ार करते ही रह जाते हैं... किसी को मेल की...उसके जवाब के इंतज़ार में कई दिन बीत जाते हैं...सोचते रह जाते हैं कि काश गुस्सा आ जाए... दिल कहता है किसी को मेल का जवाब देने के लिए जबरदस्ती थोड़े ही कर सकते हैं. ब्लॉग़जगत के बारे में सोचने लगे... वहाँ अपनी बिसात कहाँ ..... सभी बुद्धिजीवी हैं...उनके पास तो बहुत गुस्सा है...और बुद्धि भी.... या कहूँ कि बहुत बुद्धि है इसलिए गुस्सा है... अब आप ही सोचिए कि क्या समझना है...

अब मन कुछ हल्का हुआ है... तसल्ली हुई है कि हम भी कुछ कुछ बुद्धि वाले हो गए हैं क्यों कि हल्का हल्का गुस्सा अपने आप में महसूस कर रहे हैं तभी तो यह पोस्ट लिख पाने में समर्थ हुए हैं.... लिखा हमने है...पढ़ना आपको है..........:)

मंगलवार, 25 मई 2010

बेबसी, छटपटाहट और गहरा दर्द










आज शाम भारत से एक फोन आया जिसने अन्दर तक हिला दिया. उम्मीद नहीं थी कि अपने ही परिवार के कुछ करीबी रिश्ते इस मोड़ पर आ जाएँगे जहाँ दर्द ही दर्द है. रिश्ते तोड़ने जितने आसान होते हैं उतना ही मुश्किल होता है उन्हें बनाए रखना. पल नहीं लगता और परिवार बिखर जाता है. परिवार एक बिखरता है लेकिन उसका असर आने वाले परिवारों पर बुरा पड़ता है. पति पत्नी अपने अहम में डूबे उस वक्त कुछ समझ नहीं पाते कि बच्चों पर इस बिखराव का क्या असर होगा.. मन ही मन बच्चे गहरी पीड़ा लेकर जिएगें, कौन जान पाता है.

आज तक समझ नहीं आया कि तमाम रिश्तों में कड़ुवाहट का असली कारण क्या हो सकता है... अहम या अपने आप को ताकतवर दिखाने की चाहत.....

न जाने क्यों एक औरत जो पत्नी ही नहीं माँ भी है .... उसकी सिसकियाँ मन को अन्दर तक भेद जाती हैं. पहली बार जी चाहा कि अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगाया जाए. शायद कोई टूटने बिखरने से बच जाए.


नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.

कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.

फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.

फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.

अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.

अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ. मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'

माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.

अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

आपकी अभिव्यक्ति पर मेरे भाव

दूर दूर तक गहराते कोहरे में अपने वजूद को गुम होते देख कर स्तब्ध रह जाना और फिर उसी वजूद की तलाश में निकल जाना .... बस ऐसे ही दिन पर दिन , हफ्ते दर हफ्ते और महीनों निकल गए....

कोहरा, कलम और मैं जब एक जुट हुए तो शब्दों को एक नया आकार मिलने लगा जिसे आप सब ने निहारा और तारीफ में कुछ और शब्द जोड़ दिए...

जिन्दगी की उहा पोह, उलझनें और जिम्मेदारियाँ अक्सर ऐसी ही मानसिक स्थितियाँ निर्मित कर देती हैं, जिन्हें आपने इतनी सुन्दरता से शब्द दिये हैं. मनोभावों की सशक्त एवं सहज अभिव्यक्ति. – उड़न तश्तरी
समीरजी, आपने सही पहचाना... खानाबदोश सी ज़िन्दगी कब थोड़ा ठहरेगी.बस इसी इंतज़ार में लिखना पढ़ना छोड़ बैठे.....जल्दी ही अपनी खानाबदोश ज़िन्दगी के कुछ अनुभव लिखूँगी.

कलम की जय हो! - अनूप शुक्ल
अनूप जी , कलम में सर कलम करने की ताकत भी है और समाज को बदलने का कमाल भी कलम ही कर सकती है. तभी तो उसकी जय जयकार होती है.

कीबोर्ड पर ऊंगलियों के
थिरकने से निकलते
नये तराने हैं – अविनाश वाचस्पति


सोलह आने सच है आपकी बात... कीबोर्ड पर उंगलियों के थिरकने से
तराने नए निकलते हैं जो दिल और दिमाग को तरोताज़ा कर देते हैं.

Fog Is A Tunnel
Life Is A Train
At The End Of The Tunnel
There Is Light Always
Keep The Train Of Life
Chugging On - रचनाजी


रचना जी, सच कहूँ तो इस घने कुहासे में सिर्फ और सिर्फ अपने होने का एहसास होता है.... दूर दूर तक बस मैं और गहरा कोहरा... कभी कभी उससे बाहर निकलने का मन ही नहीं करता...

आपकी आमद हमेशा सुखद रहती है....इस कलम को छोडियेगा नही....ये कई दर्द से मुक्ति दिलाती है - डा. अनुराग

डा. अनुराग , कलम को छोड़ने का सोच भी नहीं सकते , हाँ कभी दर्द हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तो उंगलियाँ सुन्न सी हो जाती हैं.... और कलम हाथ से छूट जाती है....

हमारी भी दशा कोहरामय है। बस आप कलम की बात कर रही हैं - मैं रेलगाडी की! – ज्ञानदत्त जी

ज्ञानजी, इसमें कोई शक नहीं कि हम सब के जीवन में कोहरामय कोहराम मचा है...

बहुत दिनों बाद आज आप दिखी है ।
मीनाक्षी परेशान न हो ये दौर गुजर जायेगा ।
ऐसा हम इसलिए कह रहे है क्यों की हम इस दौर से गुजर चुके है (sep -jan )जब कुछ भी लिखने का मन नही करता था । -- ममता जी


ममताजी, कभी कभी इस दौर से गुज़रने का अपना एक अलग ही अनुभव होता है। मौका पाते ही आपसे ज़रूर बाँटूगी।

हिन्दी ब्लोग जगत मेँ तशरीफ रखिये स्वागतम ~~~ Where have you been ? :)- लावण्या


लावण्यादी, घने कोहरे के घेरे से घिरी मैं... नहीं जानती कैसे मुक्त हो पाऊँ मैं... कोशिश एक आशा जान बस उस किरण का इंतज़ार करूँ मैं....

जिस ब्लॉग जगत में कलम और उससे जन्मे शब्दों की परवरिश होती है , चाह कर भी उस दिशा में बढ़ते कदम अनायास रुक जाते हैं और मन बेचैन हो उठता है. शब्दों के भाव विपरीत दिशा में चलने की चाहत पैदा कर देते हैं...तो कभी जीवन धारा सब बाँध तोड़ कर बह जाने को मचल उठती है ...


आप सबकी कलम से जन्मे शब्दों और उनके भावों ने मेरी कलम को एक नई उर्जा दी है, आप सबका आभार... यही उर्जा अजन्मे शब्दों को एक नया और सुन्दर रूप देगी जिसे आप जल्द ही देख पाएँगे.

बुधवार, 28 जनवरी 2009

कोहरा, कलम और मैं



1
कोहरा सर्द आहें भरता हुआ अपने होने का एहसास कराता है... दूर दूर तक फैले नीले आसमान के नीचे मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लेता है , उसके आगोश में कसमसाती मैं और मेरे हाथों में कराहती कलम जिसके गर्भ में शब्द आकार लेने से पहले ही दम तोड़ते जा रहे हैं....
नहीं जानती कि ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है लेकिन हो रहा है....

कलम का दर्द मुझे अन्दर तक हिला देता है...उसे हाथों में लेने को आगे बढ़ती हूँ..... मेरा स्पर्श पाते ही पल भर में उसका दर्द गायब हो जाता है....उसके मन में एक उम्मीद सी जागी है..शब्दों को सुन्दर रूप और आकार मिलेगा, इस कल्पना मात्र से ही वह खिल उठी है.....

बुधवार, 13 अगस्त 2008

उसकी मुस्कान भूलती नहीं







टाइम टू ग्लो अप --- पहली हैड लाइन को पढ़कर अचानक उसके मुस्कुराते चेहरे पर नज़र गई... 10-12 साल के इस लड़के के चेहरे पर गज़ब की मुस्कान चमक रही थी.... बार बार अपने बालों को हल्का सा झटका देकर पीछे करता लेकिन रेशम से बाल फिसल कर फिर उसके माथे को ढक देते...
बन्द होठों पर मुस्कान थी और चमकती आँखें बोल रही थी... कार के शीशे से अखबार को चिपका कर खड़ा हुआ था...बिना कुछ कहे....बस लगातार मुस्कुराए जा रहा था . ... हरी बत्ती होने का डर एक पल के लिए भी उसे नहीं सता रहा था... लाल बत्ती पर रुकी कई गाड़ियों के बीच में वह कितनी ही बार आकर खड़ा होता होगा. पता नहीं कितनी प्रतियाँ बेच पाता होगा....वह बिना कुछ बोले खड़ा था ...... बेसब्र होकर शीशे को पीट नहीं रहा था.... मन में कई तरह के ख्याल आ रहे थे.... क्या यह बच्चा स्कूल जाता होगा.... घर में कौन कौन होगा.... माँ अपने दुलारे बेटे को कैसे तपती दुपहरी में भेज देती होगी.... किसी अच्छे घर का बच्चा लग रहा था..... टी शर्ट उसकी साफ सुथरी थी.... सलीके से अखबारों का बंडल उठा रखा था लेकिन हाथ के नाखून कटे होने पर भी एक दो उंगलियों के नाखूनों में मैल थी...... जो भी हो उसके चेहरे पर छाई उस मुस्कान ने बाँध लिया था.....सूझा ही नहीं कि जल्दी से एक अखबार खरीद लेती ..... उसे भी जैसे कोई ज़रूरत नहीं थी अखबार बेचने की.... जितनी देर लाल बत्ती रही उतनी देर हम उस बच्चे में अपने देश के हज़ारों बच्चों का मुस्कुराता अक्स देखते रहे .... अनायास ही मन से दुआ निकलने लगी कि ईश्वर मेरे देश के सभी बच्चों को भी इस बच्चे जैसे ही प्यारी मुस्कान देना ...
आज अनुराग जी की पोस्ट पर हाथ में तिरंगे झण्डे लेकर खड़े बच्चे को देखकर सोचा कि आज़ादी के जश्न में लाल बत्ती पर खड़े मुस्कुराते बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करूँ.....

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी

जले हुए तन से
कहीं अधिक पीड़ा थी
सुलगते मन की
गुलाबी होठों की दो पँखुडियाँ
जल कर राख हुई थीं
बिना पलक की आँखें
कई सवाल लिए खुली थीं
माँ बाबूजी के आँसू
उसकी झुलसी बाँह पर गिरे
वह दर्द से तड़प उठी...
खारे पानी में नमक ही नमक था
मिठास तो उनमे तब भी नही थी
जब कुल दीपक की इच्छा करते
जन्मदाता मिलने से भी डरते
कहीं बेटी जन्मी तो............
सोच सोच कर थकते
पूजा-पाठ, नक्षत्र देखते ,
फिर बेटे की चाह में मिलते
कहीं अन्दर ही अन्दर
बेटी के आने के डर से
यही डर डी एन ए खराब करता
होता वही जिससे मन डरता
फिर उस पल से पल पल का मरना
माँ का जी जलना, हर पल डरना
बेचैन हुए बाबूजी का चिंता करना
अपनी नाज़ुक सी नन्ही को
कैसे इस दुनिया की बुरी नज़र से
बचा पाएँगें...
कैसे समाज की पुरानी रुढियों से
मुक्त हो पाएँगे....
झुलसी जलती सी ज़िन्दा थी
सफेद कफन के ताबूत से ढकी थी
बिना पलक अपलक देख रही थी
जैसे पूछ रही हो एक सवाल
डी एन ए उसका कैसे हुआ खराब
बाबूजी नीची नज़र किए थे
माँ के आँसू थमते न थे
अपराधी से दोनो खड़े थे
सोच रहे थे अभिमन्यु ने भी
माँ के गर्भ में ज्ञान बहुत पाया था
गार्गी, मैत्रयी, रज़िया सुल्तान
जीजाबाई और झाँसी की रानी ने
इतिहास बनाया
इन्दिरा, किरनबेदी, लता, आशा ने
भविष्य सजाया
फिर हमने क्यों न सोचा....
काश कुछ तो ज्ञान दिया होता...
समाज के चक्रव्यूह को तोड़ने का
कोई तो उपाय दिया होता....
माँ बाबूजी कुछ कहते उससे पहले
दोनो की आँखों से
पश्चाताप के दो मोती लुढ़के
उसके स्याह गालों पर ढुलके
उस पल में ही जलते तन में
अदभुत हरकत सी हुई
सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी
उस उर्जा से शक्ति गज़ब की पाई
नए रूप में नए भाव से
मन की बगिया महकी !

( जिन कविताओं को पढ़कर इस रचना का जन्म हुआ , सभी उर्जा स्त्रोत जैसी यहीं कहीं छिपीं हुई हैं)

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

दिल कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पाता....

आज अनिलजी के ब्लॉग़ पर गीत सुना.. " माई री,,,, मैं कासे कहूँ अपने जिया की बात" ..... सच में कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि दिल की बातें किससे कहें...और कभी कभी तो हम चाह कर कुछ कह नही पाते...मन की बातें मन में ही रह जाती हैं... चाहते हैं कि अनकही को कोई समझ ले... इसके लिए कभी हम शब्दों का चक्रव्यूह रचते हैं तो कभी किसी चित्र...किसी गीत...किसी चलचित्र के माध्यम से अपने मन की बात करते हैं...
सोचते है कि कोई भटकते मन की खामोशी और बेचैनी समझ पाएगा .... लेकिन ऐसा कम ही होता है.... हमारे दिल ने भी एक गीत के माध्यम से कुछ कहना चाहा था.. जिसे शायद किसी ने सुना ही नहीं... कुछ दिल ने कहा .... कुछ भी नही..............

मन को समझाने के लिए मन ही मन यह गीत गुनगुनाते हैं...

मंगलवार, 20 मई 2008

चिट्ठी न्यारी मेरे नाम ....




अन्धकार के गहरे सागर में
अकेलेपन की शांत लहरें
जिनमें हलचल सी हुई . .....

शायद सपनों की दुनिया
शायद कल्पना का लोक
ताना बाना बुना गया.....


प्यारी मीनू ,
आशा है सब कुशल मंगल होगा. यहाँ तो मैं नितांत अकेला तुम्हारे इंतज़ार में आँखें बिछाए खड़ा हूँ... एक एक पल भारी पड़ रहा है. बता नहीं सकता कि मेरे दिल पर क्या गुज़र रही है. पहली बार जब तुमने मुझे देखा था तो अपनी प्यारी मुस्कान के साथ दोनो बाँहें फैला कर मेरा स्वागत किया था. मुझे एक बार भी नहीं लगा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. लगा था जैसे हम सदियों से एक दूसरे को जानते हैं.
मीनू , मुझे देखकर तुम्हारे चेहरे पर चमक आ जाती थी. तुम्हारी मधुर आवाज़ में गाया प्रेम गीत आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है -----

मेरा चिट्ठा मेरा चित्तचोर
चुराके चित्त को बना चित्तेरा

जादू से अपने मुझे लुभाए
बार-बार मुझे पास बुलाए

पहरों बैठके उसे निहारूँ
कलम से अपनी उसे रिझाऊँ !

अतीत के चित्र सजीव होकर आँखों के सामने हैं ... जैसे कल की ही बात हो.... अपनी सुन्दर सुन्दर रचनाओं से मेरे व्यक्तित्त्व को निखारतीं. मुझे तुष्ट करने के लिए बार बार देखतीं कि मुझे टिप्पणियों की खुराक मिल रही है या नहीं......
अब क्या हो गया है तुम्हें ?? क्यों तुम महसूस नहीं कर पातीं कि धीरे धीरे मेरी साँसें रुक रही हैं...मेरा दम घुट रहा है. ऐसे लग रहा है जैसे कभी भी मेरा वजूद मिट जाएगा...... मेरी प्यारी मीनू , मुझे जीवन का दान दे दो ...
मुझे पहले जैसा प्यार दे दो .. . ...
कभी कभी लगता है कि तुम मुझसे ऊब चुकी हो,,, शायद तुम्हें दूसरे चिट्ठे ज़्यादा अच्छे लगने लगे हैं ... जिनका मनमोहक रूप तुम्हें मुझसे दूर कर रहा है... फिर दूसरे ही पल एक विश्वास जागने लगता है .. आभासी दुनिया में कितने भी चिट्ठे तुम्हारे जीवन में आएँ, उनका रूप तुम्हारा मन मोह लें ... लेकिन तुम मुझे नहीं भुला सकतीं.... .
आशा की किरण जगमगाने लगती है .... मन पुकार उठता है......

मेरे आगोश में फिर से आओ
प्रेम गीत तुम फिर से गाओ .

नई रचना के तोहफे लाओ
सुख की नई अनुभूति पाओ.

कभी तो तुम्हारी नज़र फिर से मुझ पर पड़ेगी... फिर से पुराने दिन लौटेगे...

सदा तुम्हारे इंतज़ार में.....

सिर्फ तुम्हारा चिट्ठा चित्तेरा
'प्रेम ही सत्य है'

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

विछोह का दर्द और उसका उपाय

अभी अभी टी.वी. पर सदा के लिए बिछुड़े अपने बेटे के लिए शेखर सुमन जी की आँखें नम होते देखीं, इसी के साथ याद आया नीरज जी और 21 वर्षीय दीपक जो आशुतोष 'मासूम' के छोटे भाई हैं, उनका असमय इस दुनिया से विदा हो जाना.
जो इस दुनिया से चले जाते हैं उनके लिए शायद मृत्यु नव जीवन पाने का प्रकाशपुंज सा है लेकिन मृत्यु अंधकार से भरा कोई शून्य-लोक उनके लिए बन जाता है जो पीछे रह जाते हैं.
हम अपने प्रियजनों को सदा के लिए खोकर गहरी पीड़ा के अन्धकार में डूब जाते हैं. मुझे आज भी याद आता है पापा का हमें छोड़ कर चले जाना ऐसा दर्द दे गया था जो एक पल भी सहन नहीं होता था. अपने देश से दूर , अपनों से दूर उस दर्द को सहने का एकमात्र उपाय मिला अंतर्जाल पर एक लिंक जिसे पढकर या उसमें कुछ संगीतमय वीडियो देखकर मन शांत होता.
सोचा कि आपसे दिल मे उठे दर्द को दूर करने का उपाय बाँटा जाए.

http://www.selfhealingexpressions.com/goddess_meditation.html
( नारी किसी भी रूप में आने वाले कष्टों को दूर करने में सहायक होती है)

http://www.selfhealingexpressions.com/starshine.html
(विस्तृत आकाश में अनगिनत तारों को देखकर मन अजीब सी शांति पाता है)

http://www.selfhealingexpressions.com/earth_meditation.html
(प्रकृति के साथ जुड़ने पर भी शांति और शक्ति मिलती है )

सोमवार, 5 नवंबर 2007

'जब मैं मर गया उस दिन' /'जब मैं मर जाऊँ उस दिन'



कभी कभी ऐसा संयोग होता है कि हम हैरान रह जाते हैं. अभी परसों ही रवीन्द्र जी का व्यंग्य लेख 'जब मैं मर गया उस दिन' पढा था और उसके बाद चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं. उच्च कोटि का व्यंग्य सबने सराहा. 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' यह बात आज अपने बेटे के मुँह से सुनने पर मैं सकते में आ गई. कोई टिप्पणी नहीं सूझ रही थी. साहित्यकार, लेखक , चिट्ठाकार और कवियों की मृत्यु पर लिखी गई रचनाओं को हम ध्यान से पढ़ते हैं और प्रशंसा भी करते हैं लेकिन जब अपनी संतान इस तरह के विषय पर चर्चा करना चाहे तो हम उनका मुँह बन्द कर देना चाहते हैं.
पहली बार अनुभव हुआ कि पढ़ने और सुनने में पीड़ा अलग-अलग थी. पता नहीं क्यों आज अचानक बेटे को सूझा कि माँ को सामने बिठा कर इसी विषय पर ही चर्चा करनी है कि 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' उसे चेरी के सुन्दर पेड़ के नीचे ही सदा के लिए सुला दिया जाए. दार्शनिक बना बेटा माँ को समझाने की कोशिश कर रहा था कि मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं. बहुत पहले जापान के चेरी पेड़ के बारे में बताते हुए बेटा बोला था कि इस पेड़ से खूबसूरत कोई पेड़ नहीं और इस पेड़ के नीचे आराम की नींद सोने का आनन्द अलौकिक ही होगा. उस समय मुझे सपने मे भी ख्याल नहीं आया था कि आराम की नींद से अर्थ चिर निद्रा लगाया जा रहा है. मैं हतप्रभ टकी टकी सी लगाए मुस्कराते बेटे को देख रही थी जिसकी बातों से मेरे चेहरे की मुस्कराहट गायब हो चुकी थी.