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मंगलवार, 18 नवंबर 2025

डाक बक्सा ( To Letter Box)

To Letter Box 

तेरा लाल रंग कहीं पीला पड़ा 

तो कहीं काला और बदरंग हुआ 

और तू 

खाली खाली वीरान सा 

खामोश खड़ा 

शायद सोचता होगा 

एक दिन 

कोई तो आएगा और 

ज़ंग लगा ताला तोड़ कर 

फिर से आबाद कर देगा तुझे 

लो आज तुम्हारी तम्मना पूरी हुई 

आज सरहद को भुला कर 

एक मियां बीबी आए 

अपने  खत औ खिताबत के साथ 

प्यार मुहब्बत का पैगाम लेकर 

सरहद वागा भी जी उठा

डाकिया बन कर 

खतों  की खुशबू फैलाने लगा 

उनमें कहीं आंसुओं का खारापन 

तो कहीं इश्क की खुशबू महकने लगी 

यही नहीं हुआ डाक बक्से 

अनगिनत एहसासों में डूबे लफ़्ज 

भी जी उठे 

और छा गई रौनक तुझ पर 

सुर्ख हुआ समूचा वजूद तेरा 

हो सके तो बताना , एहसास कराना 

मुझे ही नहीं सारी कायनात को 

खतो  के जरिए मुहब्बत जगाना 

इसे कहते हैं 

खतो  के जरिए मुहब्बत जगाना 

इसे कहते हैं 


इंतज़ार में 

मीनाक्षी धन्वंतरि 


सोमवार, 18 मई 2020

ताउम्र भटकना



आज भी माँ कहती है-
“बेटी, कल्पनालोक में विचरण करना छोड़ दे, 
क्रियाशील हो जा, ज़िन्दगी और भी खूबसूरत दिखेगी” 
और मैं हमेशा की तरह सच्चे मन से माँ से ही नहीं 
अपने आप से भी वादा करती हूँ
कि धरातल पर उतर कर 
ज़िन्दगी के नए मायने तलाश करूँगीं  
लेकिन ये तलाश कहाँ पूरी होती है. 
ताउम्र चलती है और हम भटकते हैं 
हर पल इक नई राह पर चल कर 
जाने क्या पाने को....  

शुक्रवार, 15 मई 2020

मस्त रहो 


महामारी के इस आलम में 
मन पंछी सोचे अकुला के 
छूटे रिश्तों  की याद सजा के
ख़ुद ही झुलूँ ज़ोर लगा के  
 आए अकेले , कोई ना अपना  
 साथ निभाते भरम पाल के ! 
 ख़ुद से रूठो ख़ुद को मना के  
 स्नेह का धागा ख़ुद को बाँध के  
 यादों का झोंका आकर कहता   
 मस्त रहो ख़ुद से बतिया के !! 
 मीनाक्षी धनवंतरि 

बुधवार, 6 जून 2018

अनायास 

आभासी दुनिया में ब्लॉग जगत की अपनी अलग ही खूबसूरती है जो बार बार अपनी ओर खींचती है

अनायास..
पुरानी यादों का दरिया बहता  
 चट्टानों सी दूरी से जा टकराता  
 भिगोता उदास दिल के किनारों को  
 अंकुरित होते जाते रूखे-सूखे ख़्याल  
 अतीत की ख़ुश्क बगिया खिल उठी 
 और महक उठी छोटी-छोटी बातों से  
 यादों के रंग-बिरंगे फूलों की ख़ुशबू से  
 मेरी क़लम एक बार फिर से जी उठी  
 बेताब हुई लिखने को मेरा इतिहास  
 भुला चुकी थी जिसे मैं 
या भूलने का भ्रम पाला था 
शायद !!

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

सीमा का रखवाला

बादल, बिजली, बारिश घनघोर
और महफ़ूज़ घरों में हम

सैनिक डटे सीमाओं पर
हर पल रखवाली में व्यस्त
रखवाली में व्यस्त, कभी ना होते पस्त
दुश्मन हो,  या हो क़ुदरत का अस्त्र

अचल-अटल हिमालय जैसे डटे हुए
 बर्फ़ीले तूफ़ानों में गहरे दबे हुए
आकुल-व्याकुल से नीचे धँसे हुए
घुटती साँसों से लड़ते बर्फ़ में फँसे हुए

उठती गिरती साँसों का क्रम  रुक जाता
सीमा पर लडते लड़ते ग़र गोली खाके मरता
दुश्मन को मार के मरता अमर कहाता
अकुला के सोचे तड़पे,  सीमा का रखवाला

निष्ठुरता क़ुदरत की हो या हो मानव की
करुणा में बदले, स्नेहमयी सृष्टि हो जाए
सीमाहीन जगत के हम  प्रेमी हों जाएँ
दया भाव हो सबमें हर कोई ऐसा सोचे !!

"मीनाक्षी धंवंतरि" 

रविवार, 24 अगस्त 2014

फूल और पत्थर




मेरे घर के गमले में 
खुश्बूदार फूल खिला है
सफ़ेद शांति धारण किए 
कोमल रूप से मोहता मुझे .... 
छोटे-बड़े पत्थर भी सजे हैं 
सख्त और सर्द लेकिन
धुन के पक्के हों जैसे 
अटल शांति इनमें भी है 
मुझे दोनों सा बनना है 
महक कर खिलना 
फिर चाहे बिखरना हो 
सदियों से बहते लावे में 
जलकर फिर सर्द होकर 
तराशे नए रूप-रंग के संग 
पत्थर सा बनकर जीना भी है !!

सोमवार, 30 जून 2014

इक नए दिन का इंतज़ार


हर नया दिन सफ़ेद दूध सा
धुली चादर जैसे बिछ जाता 
सूरज की  हल्दी का टीका सजा के
दिशाएँ भी सुनहरी हो उठतीं  
सलोनी शाम का लहराता आँचल
पल में स्याह रंग में बदल जाता  
वसुधा रजनी की गोद में छिपती 
चन्दा तारे जगमग करते हँसते
मैं मोहित होकर मूक सी हो जाती 
जब बादल चुपके से उतरके नीचे 
कोमल नम हाथों से गाल मेरे छू जाते 
और फिर होने लगता 
इक नए दिन का इंतज़ार .....! 

सोमवार, 12 मई 2014

सुबह का सूरज




ऊँची ऊँची दीवारों के उस पार से 
विशाल आसमान खुले दिल से 
मेरी तरफ सोने की गेंद उछाल देता है 
लपकना भूल जाती हूँ मैं 
 टकटकी लगाए देखती हूँ
नीले आसमान की सुनहरीं बाहें 
और सूरज की सुनहरी गेंद 
जो संतुलन बनाए टिका मेरी दीवार पर 
   पल में उछल जाता फिर से आसमान की ओर
छूने की चाहत में मन पंछी भी उड़ता
खिलखिलातीं दिशाएँ !!





गुरुवार, 8 मई 2014

नो वुमेन नो क्राई..नो नो...वुमेन नो ड्राइव

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
बला की खूबसूरत हो तुम
चेहरा ढक कर रखो हमेशा
बुर्के में रहो बिना मेकअप के
आँखों पर भी हो जालीदार पर्दा
काजरारी आँखें लुभाती हैं ............
मर्द मद में अंधा हो जाता है
ग़र कोई मर्द फिसल गया
अपराधी कहलाओगी

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
तुम घर के अंदर महफ़ूज़ हो
तुम्हारे पैर बेहद नाज़ुक हैं
दुनिया की राहें हैं काँटों भरी
मैं हूँ न तुम्हारा रक्षक
बाकि सारी दुनिया है भक्षक ..........
घर की चारदीवारी में रहो
पति परिवार की प्यारी बनकर
मेरे वारिस पैदा करो बस

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
मैं शौहर हूँ और शोफ़र भी
कार की पिछली सीट पर बैठी
राजरानी पटरानी हो तुम मेरी
औरत के लिए ड्राइविंग सही नहीं ...........
डिम्बाशय गर्भाशय रहेंगे स्वस्थ
मुश्किलें और भी कई टलेगीं
ड्राइव करना ही आज़ादी नहीं
मर्द ही निकलते हैं सड़कों पर

ऐ औरत ! ख़ामोश रहो !
आज़ादी की बेकार बातें न करो
सौ दस कोड़े खाकर क्या होगा
जेल जाकर फिर बाहर आओगी
फिर आज़ादी का सपना लोगी
हज़ारों हक पाने को मचलोगी ............
हसरतों की  रंगबिरंगी पर्चियाँ
बनाओ दफ़नाओ,बनाओ दफ़नाओ
बस यही लिखा है तुम्हारे नसीब में

आख़िरी साँस तक लड़ने की ठानी .........
क्या है आज़ादी  समझ गई औरत !





सोमवार, 5 मई 2014

अपनापा




रोज़ की तरह पति को विदा किया
दफ़तर के बैग के साथ कचरे का थैला भी दिया
दरवाज़े को ताला लगाया
फिर देखा आसमान को लम्बी साँस लेकर
सूरज की बाँहें गर्मजोशी से फैली हैं
बैठ जाती हूँ वहीं उसके आग़ोश में..  
जलती झुलसती है देह
फिर भी सुकूनदेह है यूँ बाहर बैठना
चारदीवारी की कैद से बाहर 
ऊँची दीवारों के बीच 
नीला आकाश, लाल सूरज, पीली किरणें 
बेरंग हवा बहती बरसाती रेत का नेह 
गुटरगूँ करते कबूतर, बुदबुदाती घुघुती 
चहचहाती गौरया 

यही तो है अपनापा !!

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

स्याह चेहरे वाली चिमनी



खिड़की के उस पार 
अचानक नज़र चली गई
दीवार पर खड़ी थी 
स्याह चेहरे वाली चिमनी
सिसकती सी काला धुआँ उगलती
तनी खड़ी तिकोनी टोपी पहने
देर तक काला गहरा धुआँ उगलती
फिर एक खूबसूरत एहसास जैसे
अनदेखी खुशबू फैला देती चारों ओर
महकती रोटियाँ जन्म लेतीं उसकी कोख से
जीवनदान देती, भूख मिटाती सबकी
स्याह चेहरे वाली चिमनी
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी
जलती रहेगी आग उसके भीतर
उसका स्याह चेहरा याद दिलाता है 
अनेकों स्याह चेहरे जिनके अंतस में
धधकती रहती है आग 
कैद से निकलने की छटपटाहट
आज़ाद होने की चाहत 
स्याह चेहरे वाली चिमनी 
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी !  





गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

खुले आसमान में उड़ने का ख़्वाब



घर के अन्दर पसरी हुई ख़ामोशी ने
मुझे अपनी बाँहों में जकड़ रखा है...
छिटक कर उससे आज़ाद होना चाहती हूँ
घबरा कर घर से  बाहर भागती हूँ .
वहाँ भी धूप सहमी सी है आँगन में
सूरज भी खड़ा है बड़ी अकड़ में
मजाल नहीं हवा की
एक सिसकी भी ले ले...
हौंसला मुझे देते हैं कबूतर के जोड़े
दीवारों पर आ बैठते हैं मेरा साथ देने
घुघुती भी एक दो आ जाती हैं
सुस्ताती हुई बुदबुदाती है जाने क्या
गौरेया को देखा छोटी सी है
निडर फुदकती इधर से उधर
उसकी चहक से ख़ामोशी टूट जाती है
उससे हौंसला पाकर नज़र डालती हूँ
अपनी ठहरी हुई ज़िन्दगी पर
ज़िसके अन्दर कुछ जम सा गया है
सोचती हूँ रगड़ रगड़ कर उतार दूँ
उस पर जमी डर की काई को
फिर से परवाज़ दूँ अपने जमे पंखों को
खुले आसमान में उड़ने का आग़ाज़ करूँ ....




रविवार, 2 जून 2013

माथे पर सूरज

माथे पर सूरज का टीका सजा कर
रेगिस्तानी आंचल से मुंह को छिपा कर
मुस्काई सब दिशाओं को गरमा कर
अपनी ओर झुके आकाश को भरमा कर
तपते रेतीले टीलों के उभार को छिपा कर
तपती धरती सोई न अपनी पीड़ा दिखा कर

तारों से चमकती मांग निशा की
चदां संग में लाया ।
तपती धरती को अपनी
शीतलता से सहलाया ।
रात की रानी ने धरती का
तन जो महकाया
अंगड़ाई लेकर हरसिंगार का आचंल ढलकाया ।।

मनमोहिनी माया का मनमोहक रूप 
जो मैंने देखा ।
मदमस्त पवन सी संग मैं खेलूं उसके
मेरा भी मन ललचाया ।

पर देखूं 
बिन बुलाए मेहमान सी गर्म हवा ने आकर
पांव पसारे अपना प्रभुत्व जमा कर ।
उगंली थामे धूल महीन जो आई 
उसने भी रौब जमाया सारे घर में छाकर ।
अपने होने का एहसास खूब जताया
मुस्काई घर के हर कोने कोने जा कर ।

तेज़ रेतीली हवाएं छेड़ाख़ानी करती 
दरवाज़ा खटका कर ।
धीमे से आती नींद की रानी 
छुप जाए घबरा कर ।
पांव पटकती गरमी ठण्डक पा जाती 
मुझको बेचैनी में पाकर ।।

बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा



गुरुवार, 23 मई 2013

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना !


अक्सर सोचती हूँ कि सोचूँ नहीं ..सोचों को मन के पिंजरे में कैद रखूँ लेकिन फिर भी कहीं न कहीं से किसी न किसी तरीके से वे कभी न कभी बाहर आ ही जाती हैं ज़ख़्मी...कमज़ोर...लेकिन साँसें लेतीं हुईं......

आज भी कुछ सोचें छटपटाती हुई बाहर निकल ही आईं.... दुनिया का कोई कोना नहीं जहाँ सुख के साथ साथ दुख न हो लेकिन कुछ देशों का इतना बुरा हाल है कि भूले से वहाँ की खबर पढ़ लो तो फिर रातों की नींद उड़ जाती है...जिन देशों में गृह युद्ध चल रहे हैं वहाँ के बारे में जानकर तो यकीन होने लगता है कि इंसान पर हैवानियत की जीत हो रही है ...  ...एक ही देश के लोग एक दूसरे के दुश्मन होकर आपस में ही कट मरते हैं लेकिन इस मारकाट में भी दुश्मन को हराने का सबसे सस्ता उपलब्ध साधन जब 'औरत' बनती है तो उस समय दिल और दिमाग में जैसे ज़हरीला धुँआ सा भरने लगता  है कि बस अभी साँस रुकी ....आज सीरिया की खबर पढ़ कर सुबह से ही मन बेचैन था... सोचा ....ओह..फिर सोच... लेकिन नहीं मुमकिन नहीं सोच को कैद करना...जो कैद से निकली कुछ यहाँ आ पहुँची....ज़मीन और जूता भी ऐसी ही एक सोच थी जिसे याद करके आज भी रूह काँप जाती है.....

 

धरती धीरे धीरे घूम रही है
उसपर रहने वाले लोग दौड़ रहें हैं...

जाने किधर का रुख किए हैं...
शायद उन्हें खुद पता नहीं..

मैं अक्सर एक कोने में रुक जाती हूँ
उन्हें दौड़ते देख रोकना चाहती हूँ

अगले ही पल डर से सहम जाती हूँ
सभी के सभी मुझे वनमानुष से लगते हैं 

आँखें बन्द कर लेती हूँ कबूतर की तरह
तभी एक मासूम आ बैठती है मेरे पास

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना
कहकर सिसकियों से रोने लगती है

सवालभरी नज़र से देखती हूँ उसे
अपनी सोच को उसने पंख दिए थे

सोच समेत उसे कैद कर लिया था   
जहाँ उसे कई ज़िन्दा लाशें दिखीं थीं.

जिन्हें बार बार रौंधा जाता बेदर्दी से  
पैरों तले कुचली साँसें फिर चलने लगतीं 

उनकी पुकार...उनकी चीखें जो कैद थी
उस मासूम के साथ बाहर आ गईं थी...


उनके ज़ख़्मी चेहरे उसका पीछा करते हैं..
उनका दर्द कानों में लावे सा बहता है

अब मेरे कानों में उनका दर्द ठहर गया है
मेरी पलकों में उनकी दर्दभरी पुकार छिपी है...!! 

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

काली होती इंसानियत....



अन्धेरे कमरे के एक कोने में दुबकी सिसकती
बैठी सुन्न सहम जाती है फोन की घंटी से वह

अस्पताल से फोन पर मिली उसे बुरी खबर थी
जिसे सुन जड़ सी हुई वह उठी कुछ सोचती हुई

एक हाथ में दूध का गिलास दूसरे में छोटी सी गोली
कँपकँपाते हाथ ...थरथर्राते होंठ , आसुँओं से भीगे गाल

नन्ही सी अनदेखी जान को कैसे बचाएगी इस जहाँ से
खुद को  बचा न पाई थी उन खूँखार दरिन्दों से....

कुछ ही पल में सफ़ेद दूध ....लाल हुआ फैलता गया
एक कोने से दूसरे कोने तक टूटे गिलास का काँच बिखरा
और  फ़र्श धीरे धीरे लाल से काला होता गया....

शायद इंसानियत भी ....... !!!

शनिवार, 24 सितंबर 2011

भटक क्यों जाते हैं हम


पिछले कुछ दिनों से व्यस्त हूँ अपने पुराने दोस्तों के संग हूँ ..... आज फुर्सत के कुछ पल मिले तो चाय का एक कप लेकर बैठी हूँ ..... मन को बेहद भाता है शीशे की दीवार से उस पार जब भी देखती हूँ ....  और मुग्ध भाव से बस कुछ लिख जाती हूँ ......  

खिड़की के बाहर
नीला आसमान
उस पर छपे हरे रंग के पेड़
हिलते मिलते जुलते
खूबसूरत हैं लगते
उन्हें एक दूसरे से मिला रही है
नम्र, नम और गर्म हवा
मस्ती में झूमते हैं पत्ते
सूरज की सुनहरी किरणें
सजाती हैं उन्हें
दे देती हैं सुनहरी रूप अपना
बिना कुछ माँगे बदले में..
संध्या होगी, चन्दा आएगा
शीतलता देगा धरती को
धरती के हर जन को
वह भी कुछ न चाहेगा
बदले में...
प्रकृति परिवार है निराला
सूरज, चाँद , सितारे
धरती, आसमान और
हवा,  जल
सभी का अपना इक कोना
करते अपना काम सदा सुचारु
नित नियम से ....
फिर हम क्यों भटक जाते 
सीधी राह चल  न पाते...!! 


शनिवार, 10 सितंबर 2011

चलती क़लम को रोक लिया 2

(करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान - और अगर अभ्यास ही न रहे तो सिल पर निसान कैसे पड़े. कल ऊपर लिखी कविता को रीपोस्ट करते हुए पुरानी पोस्ट को खो दिया था जिसे ढूँढने का रास्ता(गूगल) शुक्लजी ने बताया जिसे हम  हमेशा  से ही इस्तेमाल करते हैं... भूलने की बीमारी हो गई है लेकिन इसे उम्र का तकाज़ा तो कतई नहीं कहेंगे ...हाँ यह कह सकते हैं कि इंसान गलतियों का पुतला है और ताउम्र सीखता रहता है  ...उसी दौरान पता ही नहीं चला कि कुछ ऐसा क्लिक हुआ है जो टिप्पणी देने के ऑप्शन को बन्द कर देता है..आज खुद ही ढूँढने की कोशिश की कि कहाँ गलती कर गए...और अंत में टिप्पणी का ऑप्शन खोल ही दिया...) 

अपने मन की हलचल को अपने ही ब्लॉग़ के मन से बाँट लेने से बढ़ कर और कोई बात नहीं... अतीत की यादों को कविता में उतारा था कभी... आज कुछ फिर ऐसा हुआ कि उस कविता की याद आ गई सो रीपोस्ट कर रही हूँ .......... !!  

छोटे बेटे द्वारा बनाया यह चित्र मुझे बहुत पसन्द है 




पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.


दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.


नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.


सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.


साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.


सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.



शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जीवन का ज्वार-भाटा


नर और नारी

सागर किनारे बैठे थे 
झगड़ा करके ऐंठे थे 
रेत पर नर नारी लिखते 
लम्बे वक्त से मौन थे
नर ने मौन तोड़ा
नारी को लगा चिढ़ाने
दो मात्राओं की बैसाखियाँ
लिए हर दम चलती नारी
मै बिन मात्रा के हूँ नर
बिना सहारे चलता हरदम
नारी कहाँ कम थी
झट से बोल उठी
दो मात्राओं से ग़रीब
बिन आ-ई के फक़ीर
कमज़ोर हो तुम
बलशाली होने का
नाटक करते हो 
सुन कर नर भड़का
नारी का दिल धड़का
तभी अचानक लहरें आईं
रेत पर लिखे नर नारी को
ले गई अपने साथ बहा कर
गुम हो गए दोनों सागर में
जीवन का ज्वार-भाटा भी
ऐसा ही तो होता है .... !! 


मंगलवार, 2 अगस्त 2011

सूरज, साया और सैर

नियमित सैर के लिए किसी गंभीर बीमारी का होना ज़रूरी नहीं है...बस यूँ ही नियम से चलने की कोशिश है एक. आजकल सुबह सवेरे भी निकलते हैं सैर के लिए... सुबह सवेरे मतलब साढ़े सात आठ बजे......दोष हमारा नहीं...सूरज का है..(दूसरों पर दोष डालना आसान है सो कह रहे हैं) ... उसे ही जल्दी रहती है निकलने की... जाने क्यों कभी आलस नहीं करता.... निकलता भी है तो खूब गर्मजोशी से .... हम भी उसी गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए सैर करते हैं लेकिन साया बेचारा....बस उसे देखा और कुछ लिखा दिया कविता जैसा..... 

सुबह सवेरे सूरज निकला
मैं और मेरा साया भी निकला
सूरज पीछे....साया आगे
हम सब मिल कर सैर को भागे
देखूँ साए को आगे चलता
पीछे मेरे सूरज है चलता
ज्यों ज्यों मेरी दिशा बदलती
त्यों त्यों साए की छाया चलती
आगे सूरज पीछे साया
पीछे सूरज आगे साया
आते जाते पेड़ों की छाया में
छिपता उनमें मेरा साया
आगे पीछे मेरे होता
सूरज की गर्मी से बचता
लुकाछिपी का खेल था न्यारा
साया मेरा मुझको प्यारा