चित्र गूगल के सौजन्य से
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है.... मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)
अच्छी तरह से जानती हूँ कि रश्मि रविजा की कहानी लिखने का कोई सानी नहीं, सिर्फ कहानी ही नहीं उनकी हर विधा का लेखन प्रभावित करता है. जया की कहानी भुलाए नहीं भूलती लेकिन सुधा से वादाख़िलाफ़ी करना उसकी तौहीन होती. इसलिए इतने लंबे अंतराल के बाद भी सुधा की कहानी लेकर आना कोई आसान नहीं था जबकि पाठक उस ब्लॉग का रास्ता ही भूल चुके होते हैं जो लम्बे अरसे तक बन्द रहता है. कहीं पढ़ा भी है कि "A post without comments is like that abandoned house down the end of your street" ऐसे में सुधा की मुस्कान मेरे लिए अनमोल उपहार है.
सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे.
मझली जेठानी और बड़ी ननद के समझाने पर माताजी ने सुधा को अस्पताल ले जाने की इजाज़त दे दी. आनन-फानन उसे सरकारी अस्पताल ले गए जहाँ आम सुविधाओं का तो अभाव होती ही है , रोगी को इंसान भी नहीं समझा जाता. एक स्ट्रेचर पर लेटी सुधा दर्द से तड़पती रही लेकिन ग्लूकोस चढ़ाने के बाद कोई भी उसका हाल पूछने न आया. दर्द में पड़ी सुधा का बच्चे की साँसें पल पल धीमी होती जा रही थीं लेकिन डॉक्टर उसके साथ आए परिवार को कोसने के अलाव कुछ नहीं कर रहे थे. 11 महीने बाद तो माँ और बच्चे की सलामती के लिए फौरन सिज़ेरियन होना चाहिए था. सुधा उन दिनों को याद करके ही सिहर उठती है कुछ कहना उसके मुश्किल था. स्वाभाविक ही था क्यों कि बच्चा पैदा हुआ जिसने बाहर आकर जीने के लिए कुछ पल संघर्ष भी किया लेकिन शायद माँ के गर्भ में इतना दर्द झेल चुका था कि अब उसमें ज़िन्दा रहने की ताकत ही खत्म हो चुकी थी. माँ को कभी न भूलने वाला दर्द देकर वह सदा के लिए इस बेदर्द दुनिया को छोड़कर चला गया.
सुधा का दर्द 11 महीनों के उस दर्द से कहीं ज़्यादा गहरा था. दिखना अभी भी बन्द था. बढ़े हुए रक्तचाप के कारण आँखों के आगे का अंधेरा अभी वैसा ही बना हुआ था लेकिन ससुराल वालों को उसकी रत्तीभर भी चिंता नहीं थी. तीसरे दिन ही उसे अस्पताल से छुट्टी दिला कर घर ले जाने के लिए डॉक्टरों से कहा जाने लगा. उस वक्त सुधा की माँ का सब्र का बाँध टूट गया. 'मार दो , उसी यहीं गला घोट कर मार दो' कह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. काश ऐसा उसने उन 11 महीनों में किया होता जब सुधा को डॉक्टर की सख़्त ज़रूरत थी. सुधा के ससुरालवाले चुपचाप घर वापिस लौट गए.
बार बार एक ही ख्याल मन में आता है कि लड़की के माता-पिता अपने आप को इतना असहाय और लाचार क्यों बना लेते हैं. एक बेटी अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर सदा के लिए अजनबी घर में आती है अपना नाम तक बदल लेती है. अजनबी जीवन-साथी को ही नहीं उसके पूरे परिवार को अपना मान लेती है. घर-गृहस्थी के अनगिनत काम, वंश बढ़ाने के अलावा पति और उसके परिवार के लिए अपने माता-पिता तक को भूल जाती है. शायद ससुराल वाले डरते हैं कि कहीं उनकी बेगार बहू उनके हाथ से निकल न जाए. इसी डर के कारण वे बहू से जुड़े हर रिश्ते को उससे दूर रखने की कोशिश करते हैं. सुधा के साथ भी कुछ ऐसा ही था.
22 दिन अस्पताल रहने के बाद सुधा घर लौटी थी लेकिन किसी ने भी उसका हाल पूछना तो दूर एक नज़र देखा भी नहीं. घर का आख़िरी कमरा उसका अपना था जिसे वह खुद ही साफ करती. उस दिन भी उसने ही कमरा साफ़ किया और सिसकियाँ लेती हुई लेट गई. एक अजीब सा खालीपन था जिसे भरने के लिए उसके आँसू भी कम पड़ रहे थे. उधर सास थी कि उसे रोते देख सहानुभूति देने की बजाए और भी आग-बबूला हो जाती. 'अब बस कर रोना-धोना, बहुत हुआ.... हमारे बच्चे भी जाया हुए पर ऐसी नौटंकी कभी नहीं की....ससुर के सामने रो-रो कर नाटक करते शर्म नहीं आती......' इस तरह के कई नश्तर सुधा को चीर जाते लेकिन एक आह न निकलती.
'अब खाना तुम्हारे मायके से आएगा क्या.....' कहती हुई सास अपने कमरे से बाहर निकली. ससुरजी की हिम्मत नहीं थी अपनी पत्नी के सामने कुछ बोलने की फिर भी धीरे से बोले, 'बच्चे , उठ कर बस एक दाल और दो दो चपातियाँ ही बना ले.' बुखार में तपती हुई सुधा चूल्हा सुलगाने के लिए रसोईघर आई. बड़ी मुश्किल से वह खाना बना पाई. पड़ोसन शीला चाची ने अपनी छत से ही उसे खाना बनाते हुए देख लिया था. रसोईघर आकर उसे गले से लगा कर उसके दुख को दूर करने की कोशिश में सुधा के तपते बदन ने उसे बेचैन कर दिया. सुधा की सास को वहीं से आवाज़ देती हुए बोली , ' क्या भाभी .. बिटिया तो बुखार में तप रही है और तुम उससे रोटियाँ बनवा रही हो....?' कह कर धीरज को आवाज़ दी कि फौरन गाँव के डॉक्टर को बुला लाए.
उस वक्त तो सुधा के सास-ससुर चुप लगा गए. खाना खाकर दवा लेनी थी इसलिए जबरदस्ती कुछ कौर निगलने पड़े सुधा को... सिसकियाँ दबाती हुए अपने कमरे में चली गई. सुधा अपने पति को समझ न पाती जो अपने माता-पिता के डर से या किसी उपेक्षा भाव से उसके पास न आते. मन की बात बिना कहे चुपचाप पति को परमेश्वर मान कर उसके प्यार को जीतने की चाहत और भी बढ़ती जाती. फिर भी अन्दर बहते दर्द को रोकने के लिए बाँध बनाती काग़ज़ के टुकड़ों पर ... एक एक शब्द में रिसता दर्द बाहर निकलता तो कुछ राहत पा जाती सुधा....
"मेरी अर्थी को काँधे से इक पल में उतारो ....
आप समझेंगे कि मैं ज़िन्दा हूँ तो फिर ऐसा क्यों
अरे समझो मेरी हालत को, मैं तो एक ज़िन्दा लाश हूँ ....
जिसे हर पल अपने ही काँधों पर उठाए घूम रही हूँ ...
अब इस लाश के वज़न को और ढोया नहीं जाता
ये भीगी आँखे रो-रो कर फरियाद करती है तुमसे
इन्हें चैन दो, मुक्ति दो, जला कर श्मशान में
हमेशा के लिए चैन से सो जाऊँ बस यह खुशी दो
चैन से सोकर रूह तो मुस्कुराएगी
तिल-तिल मरकर जीने से अच्छा है
ज़िन्दगी भर सोने की खुशी मुझे मिल जाएगी..... !" (सुधा)
माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा सख्ती ही शायद बच्चों को डरपोक बना देती है और यही डर उन्हें झूठ बोलने पर मजबूर करता है. बचपन से शुरु हुआ यह सिलसिला शादी के बाद तक चलता रहता है. पति-पत्नी में संवाद की कमी का कारण भी कुछ हद तक वही रहता है.
इन सबमें डूबती उबरती सुधा अपनी ज़िन्दगी की नाव को खेती जा रही थी. धीरज को भी कुवैत में दुबारा नौकरी मिल गई थी. मन ही मन चैन की साँस लेकर धीरज सुधा के साथ हमदर्दी करने लगा था. पति की हमदर्दी पाकर भी सुधा निहाल हो जाती. बच्चे का जाने का ग़म गहरा था लेकिन उस पर वक्त की पट्टी बँधने से रिसना बन्द हो गया था. नए सिरे से ज़िन्दगी शुरु करने के लिए वह फिर तैयार थी. खुशी-खुशी धीरज को विदेश के लिए विदा करके सुधा बहुत रोई थी. सूजी हुई आँखें उसके मन की सारी कहानी कह जाते लेकिन सिवाय आईने के और कोई न देख समझ पाता. धीरज के दो बड़े भाई कभी कभी आते लेकिन भाभियों के पास न आने का बहुत बड़ा कारण होता बच्चों की पढ़ाई लिखाई. बहनों के अपने-अपने परिवार थे. सुधा इन सब बातों से अंजान बनकर सास-ससुर का ख्याल रखती.
सुधा ने धीरज से वादा लिया था कि वह हर रोज़ उसे एक खत लिखेगा लेकिन शायद ऐसा मुमकिन नहीं था. गाँव का डाकिया अक्सर नज़र चुरा कर निकल जाता लेकिन जब चिट्ठी आती तो गली के मुहाने से ही शोर मचाते हुए आता, 'चाय मिलेगी तो खत दूँग़ा' और सुधा खिलखिलाती हुई झट से चाय बना लाती चाहे बाद में सास-ससुर के ताने सहने पड़ते. 'दूध चीनी तो शायद तुम्हारी माँ दे जाती' 'बेचारा बेटा विदेश में कमाइयाँ कर रहा है और यह यहाँ लुटाने में लगी है' सुधा सफ़ाई में कुछ कहने की हिम्मत न जुटा पाती.
उन्हीं दिनों सुधा को पथरी का तेज़ दर्द उठा. देसी दवाइयों से इलाज चलता रहा लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा. इस बार सुधा के बड़े भैया हिम्मत करके उसे घर ले आए. सुधा की हालत सही नहीं थी इसलिए वहीं रहकर इलाज कराने की सोची गई. अभी डॉक्टर को एक बार ही दिखाया था कि तीसरे दिन ससुर जी और छोटी ननद गुस्से में उबलते हुए सुधा के मायके पहुँच गए. 'क्या समझ रखा है अपने आपको..... बेटी को लाने की हिम्मत कैसे की.... मेरे माँ-बाप की सेवा कौन करेगा... ' छोटी ननद बिना रुके गुस्से में बोलती जा रही थी. ससुरजी गुस्से में भरे चुप बैठे रहे. सुधा के भाई अन्दर ही अन्दर उबल रहे थे लेकिन माँ डर रही थी कि कहीं सुधा को माँ के घर बैठना पड़ेगा तो समाज को क्या मुँह दिखाएगी. उसी पल सुधा को उनके साथ लौटा दिया. मन ही मन माँ शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में.
जब ज़िन्दा थे तो किसी ने प्यार से अपने पास न बिठाया
अब मर गए तो चारों ओर बैठे हैं !
पहले किसी ने मेरा दुख मेरा हाल न पूछा
अब मर गई तो पास बैठ कर आँसू बहाते हैं !
एक रुमाल तक भी भेंट न दी जीते जी किसी ने
अब गर्म शालें औ’ कम्बल ओढ़ाते हैं !
सभी को पता है ये शालें ये कम्बल मेरे किसी काम के नहीं
मगर बेचारे सब के सब दुनियादारी निभाते हैं !
जीते जी तो खाना खाने को कहा नहीं किसी ने
अब देसी घी मेरे मुँह में डाले जाते हैं !
जीते जी साथ में एक कदम भी चले नहीं हमारे साथ जो
अब फूलों से सजा कर काँधे पर बिठाए जाते हैं !
आज पता चला कि मौत ज़िन्दगी से कितनी अच्छी नेमत है
हम तो बेवजह ही ज़िन्दगी की चाहत में वक्त गँवाए जाते थे..!(सुधा)
बात करते-करते सुधा चुप हो गई लेकिन मेरे दिल और दिमाग में कई सवाल सिर उठाने लगे.. क्या कहूँ सुधा को अबला या सबला...!!
क्रमश:
7 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(1-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
बहुत ही बढिया कड़ी चल रही है।
अगली कड़ी का इंतजार
बहुत अच्छी कहानी चल रही है
फिर भी अपने हालत से लड़ रही है तो मेरे ख्याल से तो उसे सबला ही कहना चाहिए!!
@वन्दनाजी, इतने लम्बे अरसे बाद आने पर भी ऐसा हौंसला लिखने को प्रेरित करता है..शुक्रिया.
@श्रीवास्तवजी,, आभार
@अरुणाजी, अच्छा लगा आपका इस ओर आना.
@अभि..तुमने मेरा लिखा सफल कर दिया सुधा को सबल कह कर .. खुद को जो अबला मानती रही शायद इसके बाद से उसमें आत्मविश्वास पैदा हो सके.
पहले तो ढेर सारा सॉरी , मैंने आपसे कहा था ,वक्त निकाल कर आराम से पढूंगी आपकी लिखी कहानी की किस्तें,पर वक़्त जैसे भागता जा रहा है...अपने ब्लॉग पर भी कब से कुछ नहीं लिख पायी हूँ ..पर रचना जी का थैंक्स कि आज उन्होंने इस पोस्ट का लिंक भेजा...और मैंने ऑनलाइन आते ही सबसे पहले ये ब्लॉग खोला...
यहाँ तो आपने बेकार ही मुझे चने की झाड़ पे चढ़ा दिया है.वो तो बस आपलोगों का प्यार है जो आपलोग इतने मन से मेरी कहानियां पढ़ लेती हैं और मुझे और लिखने का उत्साह मिल जाता है.
अब सुधा की बात करते हैं, सुधा का हाल देखकर लगता है, जैसे हर घर एक यातनागृह है.आखिर औरतों की सहनशक्ति की सीमा क्या है? सिर्फ इसलिए कि वे दो रोटी कमा कर नहीं लातीं,इसलिए ये नथीं पीड़ा सहती जाती हैं.
बहुत दुखद है यह सब पर अनेक औरतों का सच भी है.
अंतहीन पीड़ा *
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