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मंगलवार, 14 जून 2016

अम्माजी के छोटे-छोटे सपने


ऑफिस से नीचे उतरते ही मैट्रो स्टेशन है. जहाँ से घर की दूरी चालीस मिनट की है. घर के पास वाला स्टेशन भी नज़दीक ही है. हर शाम पाँच बजे सीमा मदर डेरी में होती है. दूध , दही, सब्ज़ियाँ और फल लेकर ही घर जाती है. घर जाते ही फ्रेश होकर पहले अम्मा और अपने लिए चाय बनाती है. दोनों एक साथ चाय पीते हुए एक दूसरे से सारे दिन का हालचाल पूछते  हैं. 'बहू, आज भी सेब की सब्ज़ी बनाना. रात के खाने के लिए'. सास के इतना कहते ही सीमा बोल उठती है, 'अरे अम्मा कल तो कुछ था नहीं घर में. दाल से आपका यूरिक एसिड बढ़ जाता है इसलिए सेब की रसेदार सब्ज़ी बना ली थी, आज तो मैं आपकी पसन्द की सारी सब्ज़ियाँ ले आई हूँ.' अम्मा का झुर्रीदार चेहरा चमक उठता है. 'तो फिर सीताफल बनाना आज' कह कर चाय का लम्बा घूँट भरते हुए सीमा को प्यार भरी नज़र से देखती हैं.

'अम्मा, बस अभी आई, सीतफल यहीं ले आती हूँ' सीमा कहती हुई चाय के खाली प्याले लेकर किचन के सिंक में रख कर सीताफल थाली में ले आती है. इधर उधर की बातें करते हुए सीताफल कट जाता है. अम्मा को भी चाय पीते हुए सीमा से बात करना बहुत अच्छा लगता है. बुज़ुर्गों को सिर्फ इतना ही तो चाहिए कि बच्चे कुछ पल उनके साथ बैठे, यही पल उन्हें खुशी तो देते ही हैं साथ ही जीने के लिए नई उर्जा भी दे जाते हैं. आज स्कूल की पिकनिक के कारण बच्चे शाम छह बजे से पहले घर लौटने वाले नहीं थे इसलिए सीमा कुछ बेफिक्र थी .  इत्मीनान से अम्मा के पास बैठ कर बतियाते हुए सब्ज़ी काट रही थी.

सीमा के छोटे से घर परिवार में सुख-शांति है. एक दूसरे के लिए प्रेम और आदर है. सभी एक दूसरे की ज़रूरतों और सुविधाओं का ख्याल रखते हैं. इस घर में कलह होता है तो सिर्फ एक ही बात पर कि राजेश परिवार को लेकर कहीं बाहर घुमाने नहीं ले जाता. उसकी अपनी मजबूरियाँ हैं. दो साल से नई नौकरी की तलाश में जुटे राजेश को बस इंतज़ार है एक अच्छी नौकरी का. जिस दिन उसके मनपसन्द की नौकरी मिलेगी, पहली छुट्टी में सभी मनाली घूमने जाएँग़ें. सीमा भी यह जानती है इसलिए गुस्से पर जल्दी ही काबू पा लेती है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए राजेश ने पिछले साल अम्मा के जन्मदिन पर उन्हे टचपैड लेकर दिया था जिस पर वे कुछ गेम्ज़ बड़े शौक से खेलती हैं. उन्हें हिन्दी के सीरियल पसन्द नहीं. टीवी पर संगीत के कार्यक्रम अच्छे लगते हैं या नेशनल जीयोग्राफ़ी देखने का शौक रखती हैं . कुछ दिन बाद राजेश ने सीमा के लिए भी होम थिएटर खरीदा. राजेश अच्छी तरह जानता है कि संगीत सीमा में गजब की मस्ती भर देता है. उसे कितनी भी थकावट होगी अच्छे म्युज़िक सिस्टम पर संगीत सुनते ही दूर हो जाएगी.

'अम्मा, बच्चे आने वाले हैं, जल्दी से खाना पका लूँ नहीं तो उनके ऊधम से काम रुक जाएगा' सीमा कहते हुए उठ जाती है. पीछे पीछे अम्माजी भी किचन में आ जाती हैं. जानती हैं कि किचन में काम करते हुए सीमा को ऊँची आवाज़ में म्युज़िक सुनने की आदत है इसलिए अम्मा अपने कानों पर ईयर प्रोटेक्टर लगा कर म्युज़िक सिस्टम ऑन कर देती हैं. सीमा के मना करने पर भी आटा गूँदने वाली  मशीन में आटा गूँदने लगती हैं. उधर सीमा एक तरफ कुकर में दाल और दूसरी तरफ सीताफल पकने के लिए रख देती है.

ऊँची आवाज़  में संगीत सुनते हुए सीमा के हाथ फुर्ती से चलने लगते हैं. फटाफट सलाद काट कर डाइनिंग टेबल पर रखती है और अम्मा के लिए गाजर कद्दूकस करके उसमें नींबू की दो चार बूँदें भी डाल देती है. म्यूज़िक की ऊँची आवाज़ के कारण दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई नहीं देती...हमेशा की तरह राजेश कुछ कहते  उससे पहले ही सीमा खिलखिलाते हुए उसकी नकल करते हुए कहती है, " चोर की मौसी , चोरों का काम आसान कर देती हो " बेटा बहू को हँसते हुए देख कर अम्मा के मुहँ पर भी ढेर सारी हँसी फैल जाती है. बिना कुछ सुने ही बस बहू बेटा को मुस्कुराते खिलखिलाते देख उनका झुर्रीदार चेहरा भी खिल उठता है.

हमेशा की तरह फ्रेश होने के बाद राजेश भी किचन में आ जाता है. 'हैलो अम्मा.....ठीक हो?'  इशारे से ही मुस्कुराती अम्मा थम्ज़अप का इशारा कर देती हैं. घर आकर सीमा और राजेश ऑफिस का कम ही ज़िक्र करते हैं. बच्चों के बारे में राजेश कुछ पूछते कि डोरबेल बज उठती है... पिकनिक से थके दोनो बच्चे घर पहुँचते ही फिर से जोश में आ जाते हैंं. बड़ी पोती सारे दिन का लेखाजोखा सुनाने के लिए  दादी को उनके कमरे में खींंच कर ले जाती है. छोटी पोती भी पीछे पीछे पहुँच जाती है. राजेश तब तक हाथ मुँह धोकर वापिस किचन में आता है सीमा का हाथ बँटाने. दोनों मिल कर डाइनिंग टेबल पर खाना लगाते हैं. सीमा जानती है कि राजेश को आजकल के नए गाने बिल्कुल पसंद नहीं इसलिए खाना खाते वक्त कम आवाज़ में ग़ज़लें लगाना नहीं भूलती.
खाते हुए बोलना अम्माजी को कतई पसंद नहीं लेकिन अपनी बातों से एक दूसरे को पछाड़ती पोतियों के मुस्कुराते चेहरे देख कर खुद भी मुस्कुराने लगतींं हैं. खाने के बाद दोनों पोतियाँ बेफिक्री और मस्ती से डाइनिंग टेबल को साफ करती हैं. बचे  हुए काम को समेटते हुए बेटा बहू कब अपने कमरे में जाते हैं उन्हें नहीं पता. खाना खत्म करते ही हमेशा की तरह बच्चों को शुभरात्रि कह कर वे अपने कमरे में लौट आती हैं.  
अक्सर उदासी की चादर ओढ़े रात के अंधेरे में अकेली तन्हा कभी कभी सिसकती हैं अपने साथी को याद करते हुए फिर भी एक सुकून की नींद सोती अपने छोटे छोटे सपनों की दुनिया में खुश हैं अम्माजी  !

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

लघु कथा - महिला सम्मान


तेज़ बुख़ार में तपती मुन्नी निशा की गोद से उतरती ही न थी... दो दिन से मुन्नी बीमार है लेकिन रमन के पास वक्त ही नहीं है उसे अस्पताल ले जाने का .... दूर दूर तक कोई छोटा मोटा क्लिनिक भी नही है कि जहाँ निशा खुद ही रिक्शा करके बेटी को ले जाए... आज दिन भर मुन्नी गोद से उतरी ही नहीं थी....घंटो तक ठंडे पानी की पट्टियाँ करती रही थी...अब साँझ होते होते बुखार कुछ कम हुआ था और उसकी आँख लगी थी.

निशा का दिल धड़कने लगा था कि रमन के आने का वक्त हो गया है.. अभी दाल चढ़ानी है कुकर में... आटा गूँदना है... सब्ज़ी तो है नहीं पकाने के लिए.... मुन्नी को बिस्तर पर लिटा कर निशा किचन में जाते जाते पिछले दरवाजे तक चली गई कि कुकर की सीटी से मुन्नी उठ न जाए ... पड़ोसन सविता को पिछवाड़े के आँगन से आवाज़ देकर पूछा कि रात के लिए उसने क्या बनाया है.... सविता शायद समझ गई पहले ही मूँग दाल और आलू गोभी की सब्ज़ी के दो डोंगे भर कर ले आई... सविता एक अच्छी पड़ोसन ही नहीं निशा की पक्की सहेली भी है... दोनो एक दूसरे के सुख दुख की भागीदार हैं..

निशा की मुस्कान ने ही धन्यवाद कह दिया ... जल्दी से दोनों डोंगे लेकर निशा किचन की ओर बढ़ी ... अभी दोनों डोंगे रखे ही थे कि डोरबेल बज उठी...भागती हुई रमन के लिए दरवाज़ा खोलने गई...दरवाज़ा खोलते ही गुस्से से भरा रमन उसपर चिल्लाया कि इतनी देर क्यों लगा दी दरवाज़ा खोलने में.. .निशा कुछ कहती उससे पहले ही रमन का वज़नदार हाथ उसकी पीठ पर पड़ा .... घुटती हुई चीख को दबाते हुए किचन की ओर भागी आटा गूँदने के लिए कि कहीं रमन का गुस्सा कहर बन कर न टूट पड़े ... 

दर्द को पीते हुए आटा गूँदने लगी कि फिर से पीठ पर किसी तेज़ अंगारे को अन्दर तक जाते हुए महसूस किया...अभी आटा गूँद रही हो और मैं भूख से मर रहा हूँ,,  कहते हुए रमन ने इतनी बेरहमी से सुलगती सिगरेट को निशा की पीठ पर दागा कि उसकी चीख निकल गई ... उधर मुन्नी को रोने की आवाज़ और इधर रमन की ऊँची आवाज़ ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया और वह चक्कर खाकर गिर गई....
तेज़ बुख़ार में तपती मुन्नी के कारण वह भूल गई थी कि आज रमन को महिला सम्मान और उसकी सुरक्षा से जुड़ी रिपोर्ट तैयार करके अगले दिन कई अलग अलग आयोजनों में भाषण देना था.....निशा बस इतना ही सुन पाई कि रमन भूख और थकावट से बेहाल है........!!  

बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं  



मंगलवार, 31 मई 2011

बाड़े में बन्द जीवन


गर्मियों के दिन हैं...सूरज डूबने पर ही बाहर निकलने की सोची जा सकती हैं...शाम होते ही बाहर निकले तो लगा जैसे सूरज हवाओं में घुल कर बह रहा हो .... बला की गर्मी लेकिन उस गर्मी को मारने के लिए ही निकले थे.... इन दिनों तरबूज़ और ख़रबूज़े जैसे फल अमृत समान लगते हैं...सालों से एक ख़ास जगह से ही फल खरीदते आए  हैं...शहर से कुछ दूरी पर एक वादी की तरफ़ जाते पक्की सड़क बन्द हो जाती है उसी के किनारे एक पिकअप गाड़ी में तरबूज़ों का ढेर लगा रहता है और नीचे छोटे छोटे बक्सों में ख़रबूज़े होते हैं....उसी गाड़ी के पीछे नज़र दौडाओ तो दूर एक टैंट हैं ,,,पानी का टैंक पड़ा है और कुछ दूरी पर शौचालय है.... एक तरफ बड़ा सा बाड़ा बना है भेड बकरियों को रखने का... ग़ौर करने पर देखा कि आजकल उनका मालिक आराम से बैठा रहता है ... झुंड का झुंड साँझ होते ही खुद ब खुद बाड़े में चली जाती हैं.... पहले यही भेड़ बकरियाँ बाड़े से बहुत दूर निकल जातीं... मालिक लाठी लेकर पीछे-पीछे भागता...ऊँची आवाज़ में गाली देता हुआ किसी एक को ज़ोर से मार देता....मार खाती भेड़ बकरी की तड़पती आवाज़ से पहले मेरे मुँह से चीख़ निकल जाती .... अक्सर ऐसा ही होता.. शाम ढलने का वक्त होता....लाठी से मार मार कर भेड- बकरियों को वह बाड़े के अन्दर कर रहा होता... हम कार में ही बैठे बैठे उसके आने का इंतज़ार करते...वह हाथ से बजा बजा कर तरबूज़ छाँट कर देता जो मिशरी सा मीठा निकलता....उसके उन्हीं हाथों से मुझे चिढ़ थी जिनमें हमेशा एक लाठी भी होती भेड़ बकरियों को हाँकने के लिए.... पति मेरे दुख को देख कर बड़े आराम से कह देते .... कुछ दिनों की बात है फिर वे अपने आप ही बाहर नहीं जाएँग़ी... उन्हें यही बाड़ा प्यारा लगने लगेगा... हुआ भी यही आज मालिक के हाथ में लाठी नहीं थी... वह आराम से पिकअप के पास एक कुर्सी पर बैठा था... सारी भेड़ बकरियाँ अपने आप ही बाड़े के अन्दर जा रही थीं ....शायद अब उन्हें लगने लगा है कि इससे बढ़िया जीवन और कहीं नहीं हो सकता या सोचती होंगी कि यही उनके जीवन की नियति है.....अचानक दिल से इक आह सी उठी .......!!!!  

गुरुवार, 5 मई 2011

अजन्मी बेटी का खूबसूरत एहसास

कहीं न कहीं किसी न किसी की ज़िंदगी में ऐसा कुछ घट जाता है जो मन को अशांत कर जाता है.......मन व्याकुल हो जाता है कि क्या उपाय किया जाए कि सामने वाले का दुख दूर हो सके... लेकिन सभी को अपने अपने हिस्से का जीवन जीना है... चाहे फिर आसान हो या जीना दूभर हो जाए... सुधा की भी कुछ ऐसी ही कहानी है जिसे अपने लिए खुद लड़ना है , अपने लिए खुद फैंसला करना है....
जाने कैसे कैसे ख़्याल सुधा के मन में आ रहे थे...सुबह से ही उसका दिल धड़क रहा था....आज शाम रिपोर्ट आनी थी ... कहीं फिर से लड़की हुई तो....कहीं फिर से नन्हीं जान को विदा होना पड़ा तो....नहीं नहीं इस बार नहीं...सुधा ने मन ही मन ठान लिया कि इस बार वह ऐसा कुछ नहीं होने देगी....
उसने पति धीरज को लाख समझाया था कि इस बार लड़का या लड़की जो भी होगा उसे बिना टैस्ट स्वीकार करेंगे......लेकिन तीसरी बार फिर माँ और बेटे में एक और ख़ून करने की साजिश हो रही थी...कितना रोई थी वह क्लिनिक जाने से पहले....पर सास ने चिल्ला चिल्ला कर सारा घर सिर पर उठा लिया था...’मुझे पोता ही चाहिए.... खानदान के लिए चिराग चाहिए बस’ पति चुप... बुत से हो गए माँ के सामने.. लाख मिन्नतें करने के बाद भी उनका दिल न पिघला... आखिर रोती सिसकती सुधा को क्लिनिक जाना ही पड़ा था....
डॉ नीना ने धीरज को एक कोने में ले जाकर खूब फटकारा था. ‘कैसे पति हो.. अपनी पत्नी की तबियत का तो ख्याल करो...तीसरी बार फिर से अगर टैस्ट करने पर पता चला कि लड़की ही है फिर क्या करोगे.... उसे भी खत्म करवा दोगे....’ धीरज की माँ ने सुन लिया और एकदम बोल उठी, ‘हाँ हाँ करवा देंगे....मुझे पोता ही चाहिए बस’
डॉ नीना कुछ न बोल पाईं.....चाहती तो पुलिस में रिपोर्ट कर देतीं लेकिन डोनेशन का बहुत बड़ा हिस्सा धीरज के पिता के नाम से क्लिनिक को आता था....न चाहते हुए भी डॉ को टैस्ट करना पड़ा...
सुधा अपने पति को देख कर मन ही मन सोच रही थी... जिसके मन में अपनी पत्नी के लिए थोड़ा सा भी प्रेम नहीं...वो  इस आदमी के साथ कैसे रह पाती है  ...उसे अपने आप पर हैरानी हो रही थी...पति से ज्यादा उसे खुद पर  घिन आ रही थी ,  अपने ही कमज़ोर वजूद से वह खुद से शर्मिन्दा हो रही थी....
 नहीं.....इस बार नहीं ...इस बार वह बिल्कुल कमज़ोर नहीं पड़ेगी.... इस बार बिल्कुल नहीं गिड़गिड़ाएगी...
फोन पर जब डॉ नीला ने बताया कि इस बार भी लड़की है तो पल भर के लिए उसका सिर घूम गया था...हाथ से रिसीवर छूट कर गिर गया....टीवी देखते देखते सास ने कनखियों से सुधा को देखा... फिर अपने बेटे की तरफ देखा... दोनो समझ गए थे कि डॉ नीला का ही फोन होगा...सास सुधा की ओर देखकर बेटे से कहती हैं... ‘लगता है कि फिर से मनहूस खबर आई है’
धीरज पूछते हैं... डॉ नीला ने रिपोर्ट के बारे में क्या बताया...चुप क्यों हो ....क्या हुआ....सुधा पीली पड़ गई थी..... धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह पाई... “नहीं इस बार मैं क्लिनिक नहीं जाऊँगी...”
‘पता नहीं किस घड़ी मैं इस मनहूस को अपनी बहू बना कर लाई थी...एक पोते के लिए तरस गई...’ सास बोलती जा रही थी लेकिन सुधा के कानों में बस एक नन्हीं सी जान के सिसकने की आवाज़ आ रही थी... आँखें बन्द करके वहीं फोन के पास फर्श पर बैठ गई.....
एक बार फिर क्लिनिक चलने के लिए धीरज का आदेश...सास का चिल्लाना... सुधा पर किसी का कोई असर नहीं हो रहा था..वह सन्न सी बैठी रह गई, कुछ सोच कर वह उठी....गालों पर बहते आँसुओं को पोंछा......उसने एक फैंसला ले लिया था...इस बार वह मौत के खेल में भागीदार नहीं बनेगी , मन ही मन उसने ठान लिया , .ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरु करने का फैंसला ले लिया था उसने ... सुधा तैयार तो हुई थी...लेकिन क्लिनिक जाने के लिए नहीं..सदा के लिए उस घर को छोड़ने के लिए....
उसके हाथ में एक सूटकेस था..... धीरज को यकीन नहीं  हुआ...वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि सुधा ऐसा कोई कदम उठा पाएगी... वह उसे रोकना चाहता था लेकिन अपनी ही शर्तों पर...
आज सुधा कहाँ रुकने वाली थी....वह तेज़ कदमों के साथ घर की दहलीज पार कर गई.... अचानक मेनगेट पर पहुँच कर  रुकी...कुछ पल के लिए धीरज के चेहरे पर जीत की मुस्कान आई लेकिन अगले ही पल गायब हो गई , सूटकेस नीचे रख कर सुधा ने गले से मंगलसूत्र उतारा......पति के हाथों में थमा कर फिर वापिस मुड़ी और बढ़ गई ज़िन्दगी की नई राह पर ....... राह नई थी लेकिन इरादे मजबूत थे... अब वह अकेली नहीं थी.. अजन्मी बेटी का प्यारा सा खूबसूरत एहसास उसके साथ था.....!  

शनिवार, 12 जून 2010

आज भी उसे इंतज़ार है .. !


















एस.एम. बेहद खुश थी...बारटैंडर ने वोडका का तीसरा गिलास उसके सामने रख दिया था... तीसरे गिलास के बाद न पीने का वादा मन ही मन किया...लज़ानिया ठंडा हो चुका था...उसने काँटे से एक टुकड़ा काटना चाहा लेकिन चीज़ का लम्बा धागा खिंचता चला गया और उसने उसे वापिस प्लेट में रख दिया...
बहुत देर से वह एम.के. को दूर से ही देख रही थी...वह भी अकेला बैठा था... एक ही गिलास कब से उसके सामने था जिसे खत्म करने का कोई इरादा नहीं लग रहा था उसका...न जाने कैसा आकर्षण था उसमें......कई बार दोनो की नज़रें मिलीं........ किसी दूसरे देश में किसी अजनबी के साथ बात करने का कोई कारण नहीं था.... इसलिए एस.एम ने अपनी आँखें बन्द कर ली और संगीत का आनन्द लेने लगी...
हमेशा की तरह संगीत सुनते ही उसकी भूख प्यास खत्म हो जाती और पैर थिरकने लग जाते......उसे संगीत के लिए किसी भाषा की ज़रूरत नहीं लगती थी.....मधुर लय पर पैर अपने आप ही थिरकने लगते.... अपनी धुन में मस्त उस पल को पूरी तरह से जीना चाहती थी.. आँखें अधखुली सी...होठों पर मुस्कान..... एक ही साँस में वोडका खत्म करके वह अकेली ही डांस फ्लोर पर जाकर खड़ी हो गई..... धीरे धीरे संगीत की धुन तेज़ होती जा रही थी....उसके पैर भी उतनी ही तेज़ी से थिरक रहे थे.......... अचानक लड़खड़ा कर गिर जाती कि अचानक किसी ने उसे सँभाल लिया....
उसकी मज़बूत बाँहों के घेरे में आते ही एस.एम को एक अजब सी कँपकँपी हुई... एम.के. ने उसे लपक कर पकड़ लिया था.....उसकी आँखों में गज़ब की कशिश थी...........उसकी आँखों की तेज़ चमक देखकर एस.एम. झेंप गई....उसे लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो....सँभलने की कोशिश में फिर से लड़खड़ा गई....एम.के. की बाँहों में आते ही जैसे उसे बहाना मिल गया अजनबियत दूर करने का...
उसने किसी तरह से अपने आप को समेटा...एम.के. ने पूछा कि वो ठीक तो है...एस,एम. ने शुक्रिया कहना चाहा लेकिन संगीत की ऊँची आवाज़ में दोनों की आवाज़ें दब रही थीं...दोनों बाहर लॉबी में आ गए... पल भर में दोनों का अजनबीपन दूर हो गया...... एम.के. व्यापार के सिलसिले में यहाँ आया था.... एस.एम. छोटी बहन के घर छुट्टियाँ बिताने आई थी...
धीरे धीरे एम.के. और एस.एम. की मुलाकातें बढ़ती गईं... दोनों आज़ाद पंछी जैसे खुले आसमान में जी भर कर उड़ने लगे थे ....दोनों के दिल और दिमाग में रंग-बिरंगी तितलियाँ बस गईं थी...एक दूसरे की खुशबू ने मदमस्त कर दिया था.... कुछ दिन जैसे कुछ पलों में बीत गए... एक दिन अचानक एम.के. वापिस आने का वादा करके चला गया......
मॉम्म्म्म्म...प्लीज़्ज़्ज़्ज़्ज़ डोंट गो आउट टुडे ..... बेटे की आवाज़ सुनकर एस.एम के बाहर जाते कदम अचानक रुक गए...लेकिन.....'आई विल कम बैक सून...माई लव' कहती हुई वह निकल जाती है.....चार साल से हर शाम एस.एम. उसी 'बार' में जाती..... एक गिलास वोडका लेती और कुछ देर बैठ कर लौट आती....
आज भी उसे इंतज़ार है एम.के. का........

रविवार, 2 मई 2010

एक घर की कहानी ऐसी भी











सुमन दमकते सूरज को देखती तो कभी कार के खराब ऐ.सी को कोसती....आज कई दिनों बाद निकले सूरज देवता जैसे अपनी मौजूदगी का एहसास कराने की ठान कर उदय हुए थे...पिछले हफ्ते हल्की फुल्की फुहार से मिली शांति आज न जाने कहाँ काफ़ूर हो गई थी.... अम्माजी के लिए आँखों की दवा और माँ का चश्मा लेने छोटे बाज़ार जाना था जहाँ पार्किंग की हमेशा से ही मुश्किल रही है.... फिर भी उसने हार न मानी और कार दूर खड़ी करके चिलचिलाती धूप में सिर को दुपट्टे से ढकती बाज़ार की ओर चल दी. सुबह स्कूल जाते वक्त अचानक दूसरे कमरे से अम्माजी की धीमी लेकिन मिश्री सी मीठी आवाज़ सुनाई दी थी.....’सुमन्न्न्न्न,,,, मेरी मुन्नो.... अखाँ दी दवाई खतम हो गई है...’ ऊँचा सुनती हैं लेकिन फिर भी अपनी आवाज़ को न जाने कैसे नीचा रख पाती हैं अम्माजी ...चार दिन से दवाई खत्म ठीक और सुमन भूल जाती...आज उसने ठान ही लिया था कि जैसे भी होगा वह आज दवाई और माँ का चश्मा लाना नहीं भूलेगी....

अम्माजी...माँ की माँ हैं....मेरी प्यारी नानी जिसके पोपले से मुहँ पर हमेशा एक प्यारी सी मुस्कान रहती पर न जाने क्यों माँ के चेहरे पर वही मुस्कान कभी न देख पाती, शायद छोटी उम्र से ही पति का साथ छूटने पर समाज में अपने आप को मज़बूत दिखाने के लिए मुस्कान को चेहरे पर आने ही न दिया हो...पढ़ी लिखी न होने पर भी माँ ज़मीनों का हिसाब किताब खूब कर लेती थीं... पापाजी तो कब का छोड़ कर जा चुके थे...माँ ने ही पुश्तैनी ज़मीन्दारी की आमदनी से तीनों भाई बहन को पाल पोसकर बड़ा किया... पढ़ाया लिखाया... और अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत दी...
माँ अपनी अम्माजी की लाड़ली थीं तो नानाजी अपने दो बेटों पर घमंड करते, उनका गुणगान करते न थकते.... नानाजी ने कभी पीछे मुड़कर न देखा था...... अम्माजी की सारी खुशियाँ, सारे शौक दोनो बेटों के साथ विदेश जाकर बस गए... नानाजी बड़े मामाजी के साथ रहने अमेरिका चले गए और छोटे मामाजी ने शुरु शुरु में नानी यानि अम्माजी को आने की खूब मिन्नतें कीं लेकिन न जाने क्यों अम्माजी अपनी इकलौती बेटी को छोड़ कर न जा पाईं या शायद अपनी मिट्टी को छोड़ पाने की हिम्मत न जुटा पाईं ...यही माँ के साथ हुआ ... वीरजी कनाडा गए ....दीदी के लिए एक अच्छा लड़का मिल गया सो उसे भी वहीं बुला कर ब्याह कर दिया उसका.... पीछे रह गई सुमन ......... अम्माजी और माँ के साथ ....
दीदी जब कनाडा गईं थी उस समय सुमन ने बारहवीं पास की थी और कॉलेज में दाखिला लेने के लिए सोच रही थी....दीदी के जाते ही घर खाली खाली सा लगने लगा....आगे की पढ़ाई के लिए घर से दूर जाना मुमकिन नहीं था इसलिए पास के कॉलेज में बी.ए. पास कोर्स के लिए फॉर्म भर दिया... खाली पीरियड में घर आकर दोपहर का खाना तैयार करने में माँ की मदद करना सुमन को अच्छा लगता. कभी कभी कपड़े निचोड़ कर तार पर भी डाल जाती.... अम्माजी सुमन को देख देख खुशी से फूली न समाती...’मेरी मुन्नो... मेरी शहज़ादी... देखना शीला...राज करेगी.... ‘ माँ को कहतीं और बलाएँ लेने लगती...सुमन मुस्कुरा कर फिर से कॉलेज भाग जाती......
देखते ही देखते कॉलेज खत्म हुआ.... अपने ही स्कूल में पढ़ाने का सपना कब से सुमन की आँखों में पल रहा था....लेकिन बी.एड करने के लिए कहाँ जाए...पढ़ाने के लिए तो टीचर ट्रेनिंग भी तो चाहिए....माँ तो दूर पढ़ने के लिए भेज भी देतीं लेकिन अम्माजी की जान तो जैसे सुमन में ही थी.... उन दिनों पत्राचार के माध्यम से रोहतक से बी.एड हुआ करती थी सो वहीं से बी.एड कर ली. ....अपने ही स्कूल में नौकरी की अर्ज़ी देते ही वहाँ गणित की टीचर भी लग गई....
अम्माजी और माँ के साथ सुमन के दिन मज़े से कट रहे थे....कुछ अपने जो सात समुन्दर पार थे, कभी उनकी याद आती लेकिन जल्दी ही उदासी दूर भी हो जाती ...यह सोचने की फुर्सत ही नहीं थी कि वे लोग इतनी दूर क्यों जा बसे..विदेश में सभी खुशहाल हैं फिर क्यों उदास होना,,यह सोच कर सुमन नानी और माँ को पल भर में बोझिल माहौल से बाहर ले आती...लेकिन कभी कभी उन दो जोड़ी बूढ़ी आँखों में एक वीराना सा इंतज़ार दिखता..वह भी कुछ पल के लिए फिर सुमन की खिलखिलाती हँसी में कहीं गुम हो जाता....
माँ की सहेली शोभा  जब भी आती सुमन को अपने घर की बहू बनाने का सपना लेकर जाती और फिर टूटे सपने के साथ फिर लौट कर आती....एक एक करके उनके दोनों बेटे विदेश जा बसे थे और वहीं अपने घर भी बसा लिए थे..... लेकिन शोभा  के जेठ जेठानी का इकलौता बेटा उन्हीं के साथ ही रहता था....कुरुक्षेत्र के एक कॉलेज में प्रोफेसर था... अपने खुद के पैसे से मकान खड़ा किया था उसने...कार और मोटर साइकल थी... दहेज के सख्त खिलाफ....लेकिन लड़की को खाली हाथ तो ले जाना नहीं था...दहेज के रूप में अम्माजी और माँ को साथ ले जाने की ज़िद...
पहली बार माँ की आँखों को डबडबाते देखा था.... उन्होंने अशोक का माथा चूम लिया था....ढेरों आशीष देकर गले से लगा लिया था....तब से लेकर आज तक माँ और अम्माजी ने कभी अशोक को दामाद नहीं माना...और अशोक भी तो सोने से खरे स्वभाव जैसे हैं...
‘बहनजी, चश्मा तैयार हो गया है... इतना इंतज़ार करवाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ’ गुप्ता ओप्टिकल के एक कर्मचारी के कहने पर सुमन के विचारों की तन्द्रा टूटी.... ओह... स्कूल से निकले पूरे दो घंटे हो गए थे...सुधा बेटी घर पहुँच चुकी होगी....और मम्मी को न देख कर सारा घर आसमान पर उठा लेगी....सोचते सोचते सुमन के पैरों में तेज़ी आ गई थी....कार के शीशे खोल कर अन्दर बैठी सुमन ने सीधा घर जाने की सोची...... एक बार ख्याल आया कि अशोक को भी कॉलेज से ले लूँ लेकिन एक और घंटे की देरी हो जाएगी....
आजकल सुधा अपने कॉलेज मोटर साइकिल पर जाती है... अशोक ने खुद ही बेटी को मोटर साइकिल चलाना सिखाया है......कभी बेटी या बेटे में फ़र्क नहीं किया.... पीयूष छोटा भाई है सुधा का....कभी कभी बड़ा भाई बनने की कोशिश करता है लेकिन सुधा उसे फिर से सीधा कर लेती है.....पीयूष भी कम नहीं है...चुप हो जाता है...जानता है कुछ दिनों के बाद मोटर साइकिल उसकी ही होने वाली है....
चार बजने वाले थे...सुमन घर पहुँची तो सुधा को माँ के साथ रसोई में देखा...आँखों ही आँखों में माँ को शुक्रिया अदा करके सुमन अम्माजी को आँखों की दवा देकर फ्रेश होने चली गई....पाँच बजे अशोक और पीयूष घर आ जाएँगे...उन दोनो के आने से पहले ही सुमन फ्रेश होकर रसोईघर में माँ का हाथ बँटाने आ गई....
कॉलेज से आकर अशोक अम्माजी और माँ के साथ बैठकर जब तक चाय की चुस्कियों के साथ कॉलेज की गपशप न कर लें...उन्हें मज़ा ही नहीं आता...इसी बीच कब सुधा और पीयूष को साथ बैठने की आदत हो गई ...पता ही नहीं चला.... दोनो भाई बहन बड़ी नानी और छोटी नानी के दीवाने हैं..
सुमन को यही शाम का वक्त सबसे अच्छा लगता है जब सब मिल कर चाय के खनकते प्यालों के साथ खिलखिलाते भी हैं, यही पल तो सारे दिन की थकान को दूर भी कर देते हैं......
सुमन सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आजकल जितना भी देखने सुनने को मिलता है.... कहाँ कुछ कमी रह जाती है कि घर के बड़े बुज़ुर्ग अपने ही बच्चों द्वारा उपेक्षित होने लगते हैं...
(सुमन की कहानी का सच वास्तविक जीवन से जुड़ा है..ऐसे बहुत से परिवार होंगे जहाँ जो है , जैसा है...उसे वैसे का वैसा ही स्वीकार किया जाता होगा....)
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बुधवार, 13 अगस्त 2008

उसकी मुस्कान भूलती नहीं







टाइम टू ग्लो अप --- पहली हैड लाइन को पढ़कर अचानक उसके मुस्कुराते चेहरे पर नज़र गई... 10-12 साल के इस लड़के के चेहरे पर गज़ब की मुस्कान चमक रही थी.... बार बार अपने बालों को हल्का सा झटका देकर पीछे करता लेकिन रेशम से बाल फिसल कर फिर उसके माथे को ढक देते...
बन्द होठों पर मुस्कान थी और चमकती आँखें बोल रही थी... कार के शीशे से अखबार को चिपका कर खड़ा हुआ था...बिना कुछ कहे....बस लगातार मुस्कुराए जा रहा था . ... हरी बत्ती होने का डर एक पल के लिए भी उसे नहीं सता रहा था... लाल बत्ती पर रुकी कई गाड़ियों के बीच में वह कितनी ही बार आकर खड़ा होता होगा. पता नहीं कितनी प्रतियाँ बेच पाता होगा....वह बिना कुछ बोले खड़ा था ...... बेसब्र होकर शीशे को पीट नहीं रहा था.... मन में कई तरह के ख्याल आ रहे थे.... क्या यह बच्चा स्कूल जाता होगा.... घर में कौन कौन होगा.... माँ अपने दुलारे बेटे को कैसे तपती दुपहरी में भेज देती होगी.... किसी अच्छे घर का बच्चा लग रहा था..... टी शर्ट उसकी साफ सुथरी थी.... सलीके से अखबारों का बंडल उठा रखा था लेकिन हाथ के नाखून कटे होने पर भी एक दो उंगलियों के नाखूनों में मैल थी...... जो भी हो उसके चेहरे पर छाई उस मुस्कान ने बाँध लिया था.....सूझा ही नहीं कि जल्दी से एक अखबार खरीद लेती ..... उसे भी जैसे कोई ज़रूरत नहीं थी अखबार बेचने की.... जितनी देर लाल बत्ती रही उतनी देर हम उस बच्चे में अपने देश के हज़ारों बच्चों का मुस्कुराता अक्स देखते रहे .... अनायास ही मन से दुआ निकलने लगी कि ईश्वर मेरे देश के सभी बच्चों को भी इस बच्चे जैसे ही प्यारी मुस्कान देना ...
आज अनुराग जी की पोस्ट पर हाथ में तिरंगे झण्डे लेकर खड़े बच्चे को देखकर सोचा कि आज़ादी के जश्न में लाल बत्ती पर खड़े मुस्कुराते बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करूँ.....

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अपने हिस्से की छोटी सी खुशी....

आज फ़िर उसकी आंखें नम थी... आँसू के दो मोती दोनों आंखों के किनारे अटके पड़े थे..गिरते तो टूट कर बिखर जाते लेकिन मैं ऐसा कभी न होने दूँगी.... . मैं चाहती तो क्लास टीचर होने के नाते उसके घर फ़ोन कर सकती थी कि स्कूल के फन फेयर में शीमा की ज़रूरत है लेकिन ऐसा करने का मतलब था शीमा को अपने घर में अजनबी बन कर रहने देना... अपने हिस्से की छोटी छोटी खुशियों को चुनने का मौका न देना.... आजकल वह अपने कमरे में ही बैठी रहती है.. दसवीं क्लास की पढ़ाई के बहाने ... न अम्मी के काम हाथ बंटाने की चाहत , ना अब्बा को सलाम का होश... छोटे भाई बहनों से खेलना तो वह कब का भूल चुकी थी... शायद इस उम्र में हर बच्चे का आक्रोश बढ़ जाता है...किशोर उम्र...पल में गुस्सा पल में हँसी... पल में सारा जहान दुश्मन सा दिखता और पल में सारी दुनिया अपनी सी लगती........ भाई अकबर शाम की मग़रिब के बाद खेलने जाता है तो देर रात तक लौटता है.... उस पर ही क्यों इतनी पाबंदी.सोच सोच कर शीमा थक जाती लेकिन उसे कोई जवाब न मिलता..... आज भी वह अम्मी अब्बू से बात करने की हिम्मत नही जुटा पायी थी ...
'मैम्म ,,, नही होता मुझसे... मैं बात नही कर पाउंगी...आप ही फोन कर दीजेये न...प्लीज़ ....' इतना कहते ही शीमा की आंखों से दोनों मोती गालों से लुढ़कते हुए कहीं गुम हो गए .... मेरा कलेजा मुंह को आ गया... अपने आप को सयंत करते हुए बोली... 'देखो शीमा ,, अपने पैरेंट्स से तुम्हें ही बात करनी होगी,,,,अगर अभी तुम अपने मन की बात न कह सकीं तो फिर कभी न कह पाओगी... अम्मी के काम में हाथ बँटाओ...सभी कामों में हाथ बँटाती हूँ, शीमा ने फौरन कहा... .. अब्बू से कभी कभी बात करो... चाहे अपनी पढ़ाई की ही....यह सुनते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया... अब्बू से सलाम के बाद हम सब भाई बहन अपने अपने कमरों में चले जाते हैं...यह सुनकर भी हर रोज़ क्लास में आने के बाद मुझे शीमा से बात करके उसे साहस देना होता... हर सुबह मैं सोचती कि आज शीमा दौड़ी दौड़ी आएगी और खिलखिलाते हुए कहेगी.... ''मैम्म.... अम्मी अब्बू ने फन फेयर में आने की इजाज़त दे दी.... " ऐसा करना ज़रूरी था...घर से स्कूल ..स्कूल से घर...बस यही उसकी दिनचर्या थी... कभी कभार कुछ सहेलियाँ घर आ जातीं लेकिन हर किसी में कोई न कोई खामी बता कर अगली बार से उससे मिलने की मनाही हो जाती... उसका किसी सहेली के घर जाना तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी.... मैं चाहती थी कि किसी तरह से कभी कभी वह अपने मन की बात अपने माता-पिता से कर पाए... कहीं न कहीं एक उम्मीद कायम थी कि कभी कुछ पलों की आज़ादी....कभी कुछ पलों के लिए पँख फैलाने की चाहत पूरी हो सके.... मन को मज़बूत करके उसमें अपने लिए थोड़ी आज़ादी खुद हासिल करने की चाहत भरने की कोशिश मेरी थी....सोचती थी शायद एक दिन शीमा कह पाएगी कि अपने हिस्से की थोड़ी सी खुशी लेने मे वह सफल हुई......
फन फेयर का दिन भी आ गया...प्रवेश द्वार पर ड्यूटी होने पर भी मन शीमा की ओर था... आँखें उसी को खोज रही थीं... ..मेरी शिफ्ट खत्म होते ही गेम्स एरिया की ओर बढ़ते हुए क्लास की दूसरी लड़कियों से शीमा के बारे में पूछा लेकिन किसी को कुछ पता नही था....
अचानक पीछे से किसी ने आकर मुझे अपनी बाँहों में ले लिया.... मैम्ममममममम ....मैं आ गई.... अम्मी अब्बू ने आखिर भेज ही दिया..कल शाम की चाय बनाकर अम्मी को दी और उसी वक्त ही फन फेयर पर जाने की बात की... अब्बू से बात करने को कहा... पूरे हिजाब में जाने की कसम खाई.... मामू को जासूसी करने की दुहाई भी दी.... पता नहीं अम्मी को क्या हुआ कि अब्बू से हमारी वकालत कर दी..... पूरे हिजाब में आने की शर्त कबूल.... कोई फर्क नही पड़ता .... मुझे तो सब दिख रहा है न.... उसकी चहकती आवाज़ ने मुझे नई ज़िन्दगी दे दी हो जैसे .... मेरी आँखों से गिरते मोती मेरे ही गालों पर ढुलक रहे थे....ये खुशी के चमकते मोती थे...

मंगलवार, 28 अगस्त 2007

भूख


नई दिल्ली के एयरपोर्ट पर उतरते ही अपने देश की माटी की मीठी सी सुगन्ध ने तन-मन को मोहित कर दिया। हमेशा जुलाई अगस्त की गर्मी साँस लेना दूभर कर देती थी लेकिन इस बार मार्च में आने का अवसर मिला। विदेशों में रहने वालों के लिए शादी में जाना सबसे मिलने का सबसे अच्छा अवसर बन जाता है। १७ मार्च की सुबह हम दिल्ली से अम्बाला की ओर रवाना हो गए। जेठ जी के पहले बेटे की शादी थी । उनका बेटा और उसका एक मित्र जो कार चला रहा था, हम दस बजे घर से निकले।
दिल्ली से अम्बाला चार घंटे का सफ़र आसानी से काटा जा सकता था लेकिन अचानक कार का एसी ख़राब हो गया। दोपहर का सफ़र बिना एसी के काटना कठिन लगने लगा तो हम एक अच्छे से ढाबे के सामने जा रूके। ढाबा बहुत सुन्दर सजा रखा था । थोड़ी थोड़ी दूर पर चारपाइयाँ बिछा रखी थीं, केन की कुर्सियाँ और लकड़ी के छोटे छोटे मेज़ भी थे। अलग अलग दिशाओं में पंखें चल रहे थे । कुछ लोग सुस्ता रहे थे और कुछ दोपहर का खाना खा रहे थे।
हमने भी खाना मँगवाया और अभी शुरू भी नहीं किया था कि मेरी नज़र एक बूढ़े पर गई जो गेट के पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठा मेज़ पर पड़े पानी से भरे जग को देख रहा था। बैरे ने उसके नज़दीक जाकर उससे कुछ कहा और वह गिलास उठा कर पानी पीने लगा। बीच बीच में नज़र उठा कर वह इधर उधर देखने लगता, चेहरे पर भूख की बेहाली साफ़ दिखाई दे रही थी लेकिन उसकी आँखों में लालच का नाम नहीं था जैसे पानी ही उसका भोजन था।
गर्मागर्म ताज़ी तन्दूरी रोटी लेकर बैरा पहुँचा तो मुझसे रहा न गया। पूछने पर पता चला कि हर रोज़ वह आता और पानी पीकर चला जाता , जिस दिन पैसे होते तो कुछ खा लेता नहीं तो बिना कुछ कहे या माँगे पानी पीकर चला जाता। ढाबे के मालिक का कहना है कि पानी पीने से किसी को मना नहीं करना चाहिए, पानी कुदरत की नियामत है।
मैंने बैरे को बुला कर एक प्लेट में दो रोटी और दाल देने को कहा। दाल रोटी देखकर बूढ़े ने बैरे को सवाल करती निगाहों से देखा तो बैरे ने हमारी तरफ़ इशारा कर दिया। उसने देखा पर उसकी आँखों में शून्य था। प्लेट में पड़ी दाल रोटी को पलभर देखा फिर खाने की ओर हाथ बढ़ाया। उसने अभी निवाला मुँह में डालना ही चाहा था कि फटे पुराने मैले कपड़ों में दस-बारह साल के लड़के ने भूखी निगाहों से बूढ़े को देखा और हाथ पसार दिया। बूढ़े का हाथ वहीं रुक गया , पथराई सी आँखों से उसने लड़के को देखा और एक रोटी को कटोरी बना कर उसमें थोड़ी दाल डाल कर दे दी। लड़का जैसे कई दिनों से भूखा था। देखते ही देखते पलभर में उसने रोटी चट कर ली। उसकी आँखों की भूख और तेज़ चमक उठी। हाथ पसारे फिर वहीं खड़ा था। वास्तव में बूढ़े ने एक भी निवाला मुँह में नहीं डाला था। भूख किस तरह से बालक को अपने चँगुल में जकड़े खड़ी थी , यह मज़र देखकर बूढ़ा जड़ हो चुका था , जब तक उसे होश आता , लड़के की रोटी खत्म हो चुकी थी।
एक भूख दूसरी भूख को देखकर हैरान थी । बूढ़े ने दूसरी रोटी की भी कटोरी बनाई और दाल उसमें डाल कर लड़के को दे दी। एक भूख ने दूसरी भूख के सामने घुटने टेक दिए। बूढ़े ने फिर से दो गिलास पानी पिया और वहाँ से चल दिया। मैं यह देखकर सुन्न रह गई।
बूढ़ा निस्वार्थ प्रेम का पाठ पढ़ा कर एक चाँटा भी लगा गया था।