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बुधवार, 17 जुलाई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (समापन किश्त )

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ)  (नौ) 

सुधा की कहानी चाहे आज यहाँ खतम हो जाए लेकिन असल ज़िन्दगी में तो उसका हर दिन एक नई कहानी के साथ शुरु होता है और आगे भी होता रहेगा...देखा जाए तो हम सब की ज़िन्दगी का हर दिन नई कहानी के साथ शुरु होता है. पिछले दिनों हम भी बच्चों के साथ थे. मिलना जितना आनन्द देता है बिछुड़ना उतना ही दुख. सुधा का छोटा बेटा जो पिछले दिनों दिल्ली अकेले रह कर नौकरी की तलाश कर रहा था, धीरे धीरे 'डिप्रेशन' में जाने लगा था. वही नहीं उसके कई दोस्त बेरोज़गारी के शिकार तनाव में डूबते उतरते जी रहे थे या कहूँ कि जी रहे हैं. अच्छी पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी अगर नौजवानों को नौकरी नहीं मिलती तो उनकी ज़िन्दगी अच्छी बुरी किसी भी दिशा की ओर बढ़ेगी, इसके बारे में वे खुद भी नहीं जान पाते. 
सुधा के पति ने छोटे बेटे को अपनी ही कम्पनी में लगवा लिया और अब वह अपने माता-पिता के साथ खुश है. जितना खुश अपने लिए है उतना ही दुखी है अपने बेरोज़गार दोस्तों के लिए. अपने बेटे के मुँह से जब सुधा उसके दोस्तों की कहानियाँ सुनती है तो उसे अपना अतीत याद आ जाता है कि अपने देश में नौकरी की तलाश करते हुए धीरज कैसे हिम्मत हार बैठे थे. बूढ़े माँ बाप और पत्नी को अकेला छोड़ना आसान नहीं था लेकिन जीने के लिए जो साधन चाहिए होते हैं उसके लिए पैसे की ज़रूरत होती है. दोस्त , रिश्तेदार और समाज बोलने को बड़ा सा मुँह खोलकर ऊँची ऊँची बातें तो करेंगे लेकिन आगे बढ़ कर कोई मदद नहीं करेगा. 
भूखे पेट भजन न होए ..... पेट भरा हो तो उपदेश देना भी आ जाता है. उस वक्त भी सुधा ने ही निर्णय लिया था कि घर परिवार की खातिर धीरज को अगर विदेश में नौकरी मिलती है तो निश्चिंत होकर जाए. उस वक्त सुधा ने सोचा नहीं था कि जो समाज बड़ी बड़ी बातें करता है वही छोटी छोटी ओझी हरकतों से जीना हराम भी कर देगा. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अकेली औरत का मनोबल तोड़ने के लिए समाज के सफ़ेदपोश छिपकर वार करते हुए अचानक सामने आकर डराने लगते हैं. अपने आप को देशभक्त कहने वाले लोग नेताओं को कोसने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते. हाँ वक्त के मारे लोगों पर तानाकशी करने से बाज़ नहीं आएँगें. सुधा के मन में कई सवाल उठते हैं .... तीखे सवाल जिनका जवाब किसी के पास नहीं है. सबके पास अनगिनत उपदेशों का पिटारा है. 
एक नहीं हज़ारों सुधाएँ हैं हमारे देश में. जिन्हें बचपन से ही दबा दबा कर दब्बू बना दिया गया. पैदा होते ही उसे ऐसी शिक्षा दी गई कि पुरुष पिता, भाई , पति और पुत्र के रूप में उसका स्वामी है. धर्म से उसका ऐसा नाता जोड़ दिया जाता है कि कोई कदम उठाने से पहले वह सौ बार सोचती है कि अगर आवाज़ उठाने से पुरुष का कोई रूप उससे नाराज़ या दुखी हो गया तो वह पाप होगा और वह नरक में जाएगी. उनकी दासी बन कर ही जीना उसकी नियति है. 
सुधा के विचार में आजकल की पढ़ी लिखी आज़ाद ख्याल औरतें भी कहीं न कहीं उसी दासत्व की शिकार हैं तभी बार बार आज़ादी की बातें करतीं हैं. बूढ़े लाचार माता-पिता को बेसहारा छोड़कर अगर सुधा अपने बच्चों को लेकर मायके चली जाती तब भी समाज के ठेकेदार बुरा भला कहने से बाज़ न आते. सुधा की ज़ुबानी  "औरत की आज़ादी की बात करने वाले लोग मेरी जगह खड़े होकर सोचें कि पति के बूढ़े माँ बाप की सेवा करना उचित है या अपनी आज़ादी...उस आज़ादी का क्या करना जिसका आनन्द लेते हुए बूढ़े माता-पिता को बेसहारा और अकेला छोड़ दिया जाए चाहे उनकी तानाशाही ही क्यों न सहनी पड़े हैं वे अपने बड़े ही जिनको मान सम्मान देंगे तो आने वाली पीढ़ी भी वही सीखेगी." 
सुधा का विश्वास है कि बड़ों की सेवा का फल है जो आज उसके दोनों बच्चे अच्छे संस्कारों के धनी हैं. वे भी अपने माता-पिता की सेवा के लिए हर पल तत्पर हैं. यही नहीं बहू कोमल भी बेटी बनकर परिवार में रच बस गई है. सुधा के सेवाभाव से उसके भरे पूरे परिवार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है.  
इतने दिनों बाद समापन किश्त लिखते हुए मेरे मन में भी सुधा को लेकर हज़ारों सवाल थे जिनके सवाल पाने के लिए सुधा के मन को बहुत टटोला. बहुत कुछ समझा जाना.  लेकिन यहाँ रखकर उसका दिल दुखी नहीं करना चाहती. सुधा को एक औरत की जगह अगर इंसान के रूप में देखा जाए तो इंसान तो अनगिनत चाहतों का भंडार है. बहुत कुछ पाकर भी बहुत कुछ पाने की चाहत उसे चैन से जीने नहीं देती. सब कुछ पाकर भी उसे लगता है कि उसने बहुत कुछ खो दिया है जिसे पाने की चाहत इस जीवन में तो पूरी होगी नहीं. देखा जाए तो हम सब अपने अपने मन के गहरे और अथाह समुन्दर में उठने वाली अनगिनत लहरों की चाहतों में डूबते उतरते हैं...बस इसी डूबने उबरने में ज़िन्दगी तमाम हो जाएगी...!! 

यहाँ अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्से को अपनी ज़ुबानी कह कर  सुधा का दिल कुछ हलका हुआ फिर भी जानती हूँ उसके तन-मन की कभी न खतम होने वाली तिश्नगी को.......

मेरी पसन्द का एक गीत सुधा के नाम...... 



सोमवार, 17 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (8)

गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह),  (सात) 

सुधा को लगता है कि ज़िन्दगी की कुछ खास बातों का ज़िक्र रह गया है जिन्हें दर्ज करना ज़रूरी है. उसी के लिखे में कुछ संशोधन करके जस का तस यहाँ उतार रही हूँ ---- 

जब पहली बार मुझे अकेला छोड़ कर ये विदेश गए थे तो मन में बच्चे के जाने का गहरा दुख था. दूसरी ओर अपने माता-पिता के सहारे मुझे छोड़ गए थे या मुझ पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी, ऐसे में समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वक्त गुज़रेगा. अकेलेपन का दर्द और घर के हालात देख कर हँस कर विदा करना पड़ा. माता-पिता का स्वभाव भी समझ में आ रहा था परंतु जिन माता-पिता ने जन्म दिया है उनके प्रति फ़र्ज़ अदा करना हर बेटे का कर्म है सो मुझे माता-पिता के पास रहना स्वाभाविक ही था. अपने माता-पिता के सख्त स्वभाव के कारण अगर हम उन्हें नहीं छोड़ पाते तो फिर पति के माता-पिता को कैसे छोड़ा जाए. ऐसा करना मर्यादा से बाहर जाना होता, यही सोच कर पति के माता-पिता को अपना मान कर उनकी सेवा करना अपना फ़र्ज़ समझा.   माँ का स्वभाव नहीं बदला, मुझे अकेले देख कर भी उसे तरस नहीं आता, बात बात पर गुस्सा करती. घर के किसी अकेले कोने में रो लेती फिर उन्हें आकर प्यार करती, गलती हो या न हो उन्हें खुश करने के लिए उनके गले से लग जाती. 

वक्त बीतता गया तब तो गाँव में फोन भी नहीं होते थे सिर्फ खत ही लिखे जाते थे, 15-20 दिन में मुश्किल से एक खत आता. घर के गेट पर खड़े होकर डाकिए की बाट जोहती कि मेरा खत लेकर आएगा लेकिन वह तो आता मेरा खत न आता. मन बहुत उदास हो जाता. बाऊजी नरम दिल के थे सिर पर हाथ फेर कर कहते रोना नहीं बच्चू... कल तेरी चिट्ठी ज़रूर आएगी. उनका इतना कह देना ही मन को हौंसला दे जाता कि बाऊजी तो मेरे दिल का दर्द समझते हैं. 
दिल के दर्द को हलका करने के लिए उसे काग़ज़ पर उड़ेल देती -- 

"आस का दीपक जलते जलते सुबह से हो गई शाम 
अब तो थक कर बैठ गए हैं क्या होगा अंजाम 
इस दीपक की लौ है धीमी, शायद इसमें तेल नहीं है
विरह अग्नि में जलते रहेंगे होगा जब तक मेल नहीं 
कुदरत की करनी है ऐसी जिस्म से जान अलग न हो 
मन से दूर नहीं वो लेकिन तन की दूरी चाहे हो 
साया बनकर साथ चलें वो इन पलकों की छाँव में 
देंगे आकर वही सहारा काँटा चुभे जो पाँव में 
आस का दीपक जलेगा फिर भी चाहे खत्म हो जाए तेल 
दिल में प्यार अगर है सच्चा जल्दी होगा अपना मेल !"

जब भी मन उदास होता ऐसे ही मन के भाव लिख कर अपने आँसुओं को रोक लेती --- 

" उस माँ ने किया है न जाने क्यों मुझसे मज़ाक , 
अश्क देकर ज़िन्दगी से मुस्कान छीन ली 
चुलबुली बुलबुल थी मैं छोटी सी थी बगिया मेरी,
 हँसती खेलती ज़िन्दगी की हर कहानी छीन ली 
तन-मन-धन से की सेवा जो भी मुझसे बन सका, 
पर मिला क्या इस जहाँ में एक नफ़रत के सिवा 
जिससे भी की दोस्ती उसने ही धोखा दे दिया, 
आगे क्या हो ज़िन्दगी में ये भी कुछ पता नहीं 
अब तो दिल में ये तमन्ना है के वो मुझसे मिले,
हाथ देकर हाथ में प्यार से बस ये कहें 
मैं ही तेरी ज़िन्दगी हूँ मैं ही तेरा प्यार हूँ ,  
मायूस ना हो मेरी जाँ बस मैं ही तेरा यार हूँ 
मैं तुझे दूँगा सहारा दुख में घबराना नहीं, 
तेरी बगिया में खुशी है कोई वीराना नहीं 
मुस्कुराहट तेरी तेरे होंठो पर ले आऊँगा, 
बस मेरी जाँ अब ना घबराना मैं जल्दी आऊँगा !! " 

एक साल के लम्बे इंतज़ार के बाद धीरज घर आते. खुशी मिलती लेकिन घर का बोझिल माहौल न बदलता. माँ बाऊजी का स्वभाव उन दिनों और भी तीखा हो जाता. दोनों अपनी अपनी ज़रूरतों की बात करते तो धीरज घर से बाहर भागते. दोनों बच्चों के जन्म के बाद से ही बाऊजी ने बिस्तर पकड़ लिया था. दिन ब दिन चलना-फिरना, उठना-बैठना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था. इनकी छुट्टियाँ पंख लगा उड़ जातीं और लगता कि अभी कल ही तो आए थे और फिर वापिसी की तैयारी शुरु हो जाती. ये वापिस लौट जाते और मैं फिर पुरानी दिनचर्या में जुट जाती. छोटा बेटा बीमार उधर से बुज़ुर्ग सास-ससुर. लगता था कि दो नहीं मेरे चार बच्चे हैं. दो छोटे-छोटे बच्चे और दो बुज़ुर्ग जो बच्चों की तरह ही थे. 

गाँव से दूर बीमार बेटे को लेकर जाने किस किस शहर घूमती उसके इलाज के लिए. दुनिया का कोई इलाज नहीं छोड़ा. बीमार बेटे को लेकर निकलती तो गाँव की औरतें तरह तरह की बातें बनातीं. 'पता नहीं कैसा इलाज है हर आए दिन शहर चल देती है' कोई कहता, 'पति घर पर नहीं है और ये बूढ़े सास-ससुर को छोड़ कर घर से निकल जाती है' 'बेशर्म कहीं की, अकेले घर से बाहर निकलते हुए शर्म भी नहीं आती' एक औरत ने तो रास्ता रोककर एक बार मुँह पर ही कह दिया, 'सुधा, तेरी तो मौज है, घर वाले घर नहीं हमें किसी का डर नहीं' सुन कर सन्न रह गई. बच्चे की हालत दिखाकर एक बद्दुआ सी निकली मुँह से कि बीमार बच्चे के साथ ऐसे अकेले घूमना सब को नसीब हो. अकेली औरत घर परिवार बच्चे और बूढ़े सँभाल रही है चाहे कैसे भी उसकी तारीफ़ कोई नहीं कर सकता तो किसी को निन्दा करने का भी हक नहीं. माँ थी मैं जो भी जहाँ भी इलाज के लिए जाने को कहता चल देती. एक माँ के लिए बच्चे की सेहत सबसे अहम बात होती है. 

कहते हैं माता-पिता 10 बच्चों को पाल सकते हैं लेकिन 10 बच्चे माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकते क्योंकि सबके अपने अपने परिवार होते हैं. कोई अपने छोटे घर होने का रोना रोता है तो कोई पैसा न होने का. सभी के अपने अपने कारण होते हैं. कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ रखना भी चाहें तो वहाँ के नियम-कानून ऐसा करने से रोक देते. बात सिर्फ इतनी सी है कि जो आस-पास रहते हैं वे ही अगर वक्त वक्त पर आकर माता-पिता की सुध लें तो सेवा करने वाले बेटे-बहू को हौंसला मिल जाता है. 

मेरे ससुराल का हाल कुछ उलटा था. माँ-बाऊजी का जब भी दिल उदास होता तो खत लिख कर दिल्ली से दोनों बेटों को बुला लेते. वे भी औपचारिकता निभाते हुए आते, एक दो रात रह कर घर का माहौल और भी बिगाड़ कर चले जाते. मेरी छोटी-छोटी गलती को पकड़ कर आरोप लगा दिया जाता कि मुझे बुज़ुर्गों का ख्याल रखना नहीं आता. यही नहीं माँ-बाऊजी को मेरे खिलाफ़ भड़का कर घर के माहौल को और भी बोझिल बना कर चल देना सब को खुश कर देता. दूसरी तरफ विदेश से  बेटा-बहू आते तो घर की रौनक ही कुछ और हो जाती. मस्ती, हँसी और खुशहाली से दो चार दिन भी बहुत अनमोल लगते. उनका कुछ दिन का रहना कई कई दिनों तक माँ बाऊजी के चेहरों पर यादों की मुस्कान बिखेरे रखता जिससे मेरा जीना आसान हो जाता. मेरे दोनों बच्चे भी खुश होकर उनके आने का इंतज़ार करते और उनके जाने पर उदास हो जाते.

बीमार बच्चे के साथ साथ बाऊजी भी बिस्तर पकड़ चुके थे. अचानक माँ को दिल का दौरा पड़ गया. फौरन उन्हें शहर के अस्पताल ले गए जहाँ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि घर पर ही उनकी सेवा की जाए. उन दिनों नवरात्रे चल रहे थे, मन ही मन माँ से विनती करने लगी, 'हे माँ, अगर मेरे मन में आपके प्रति सच्ची लगन  है तो मेरी सासू माँ की ज़िन्दगी बख्श दो ताकि मेरे ऊपर कलंक न लगे कि मैंने उनकी सेवा नहीं की. चाहती हूँ इनका बेटा इनके पास हो, कोई ये न कह सके कि चार बेटों के होते हुए एक भी पास नहीं था. इस परिवार की और मेरी इज़्ज़त आपके हाथ है देवी माँ. जैसे तुम मेरी माँ हो इस माँ को भी मैं ऐसे ही पूजती हूँ. अगर ये स्वस्थ हो जाएँ तो इनके चरण धोकर चरणामृत पीऊँगी. उस जगत माता ने मेरी पुकार सुन ली और माँ का स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधरने लगा. मन को हौंसला मिला लेकिन फिर भी एक बात मन को कचोटती रहती कि सेवा करने के लिए कोई भी बेटा उनके पास नहीं है. 

धीरज विदेश में थे फिर भी पैसे की तंगी रहती ही थी. बच्चे स्कूल जाने लगे थे. दो बुज़ुर्ग और दो बच्चे स्कूल जाने वाले उनमें से एक बच्चा बीमार जिसकी देखरेख के लिए पैसे की ज़रूरत लगी रहती है. सोचा कुछ करूँ ताकि घर खर्च में कुछ मदद हो सके. कहते हैं हाथ का हुनर काम आता है. घर पर ही गाँव की लड़कियों को पेटिंग सिखाना शुरु कर दिया. हाथ का हुनर काम आया और दो पैसे भी बनने लगे. सब ठीक होने लगा कि माँ फिर से बीमार पड़ गईं. उनकी सेवा के लिए पेटिंग सिखाना बन्द करना पड़ा. माँ की सेवा , बिस्तर पर पड़े बाऊजी की देखभाल उस पर बीमार बेटे का ख्याल इतना व्यस्त कर देता कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं होता. माँ बाऊजी लगभग दोनों ही मेरे लिए बच्चों जैसे थे. माँ ने कभी पहले भी काम नहीं किया था अब तो चारपाई पर बैठे बैठे साग सब्ज़ी काट छील देती तो वही बहुत लगता. बाऊजी के सारे काम बिस्तर पर ही होते. इतना कुछ होते हुए भी कुछ करने की चाह से थकावट दूर हो जाती. मनियारी का सामान रख लिया जब भी कोई आएगा तो बस सामान देना है उस वक्त. इन्हीं छोटे छोटे कामों से मन बहल जाता और दो पैसे भी जुड़ जाते.

सब कहते हैं लड़की अपने पाँवों पर खड़ी हो तभी उसकी शादी करनी चाहिए. नौकरी या लघु व्यवसाय किसी भी काम में जाना मुश्किल नहीं लेकिन अगर ऐसे परिवार में शादी हो जाए जहाँ पति विदेश में हो और उसके बुज़ुर्ग माता-पिता और दो बच्चे जिनमें से एक बच्चा बीमार हो तो क्या किया जाए. फिर भी औरत इन हालातों से जूझती हुई जीवन बसर करती रहती है. मैं भी जी रही थी जीवन की हर मुश्किल को अकेले झेलने की आदत सी हो गई थी. अचानक माँ को फिर से दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया. उन दिनों धीरज छुट्टी पर आए हुए थे. माँ को अपने हाथों विदा करके भारी मन से ये फिर चले गए. 

किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता क्योंकि एक बार फिर घर से शुरु किया काम बन्द करना पड़ा. बाऊजी अब पूरी तरह से बिस्तर पर थे. घर से बाहर निकलने का तो सवाल ही नहीं था. बाऊजी को सूसू पॉटी और नहाने के बाद कपड़ बदलने तक का जिम्मा मेरा था. बहू नहीं उनकी बेटी बन कर सेवा करती थी. बच्चे की तरह गोद में उठा कर आँगन में जहाँ भी धूप होती वहीं चारपाई पर बिठा देती. बुज़ुर्गों की सेवा करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन औरत होने के नाते कई  बार मुश्किल लगता. सोचती काश कि धीरज मेरे साथ होते या कोई बेटा महीने में एक बार कुछ दिन के लिए ही आ जाता. कभी कभी बाऊजी अपनी लाचारी पर रोने लगते. उन्हें देख कर मुझे रोना आता कि बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी कैसी होती है. धीरे धीरे अपने ही शरीर से लाचार हो जाते हैं. चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते. 

गाँव वाले सब देखते और मेरी मिसाल देते कि बहू हो तो ऐसी लेकिन घर परिवार के लोग उतना ही मुझसे चिढ़ते. मुझ पर आरोप लगाते कि दो रोटी खिलाना ही सेवा नहीं है. माँ के देहांत के बाद बाऊजी एक साल भी न रह पाए और वे भी हमें छोड़ कर चले गए. 84 साल की माँ और 92 साल के बाऊजी के जाने के बाद भी यही सुनने को मिलता कि सुधा माँ बाऊजी को वक्त पर रोटी नहीं देती थी इसलिए वे जल्दी चल बसे. मेरे मासूम बच्चे मेरे सेवाभाव को अपनी आँखों से देखते और समझते. कई बार बच्चों ने भी मेरी मदद करते हुए अपने दादाजी की पॉटी रूई से साफ की. उन्हें कपड़े पहनने में मदद की. 

माँ बाऊजी के गुज़रने के बाद 3 साल तक गाँव में ही रही फिर बच्चों की बड़ी पढ़ाई के लिए शहर आना पड़ा. एक छुट्टी में आकर धीरज ने शहर में घर खरीदा और हम गाँव से शहर आ गए. बच्चे अभी स्कूल में ही थे लेकिन अब एक नई जिम्मेदारी सिर पर थी. दो बेटों को अच्छे संस्कार देने का काम भी मुझ पर आ गया था. अब मैनें बच्चों को माँ की ममता और पिता का अनुशासन देने के लिए कमर कस ली थी अकेले ही." 

क्रमश: 





सोमवार, 10 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (7)

चित्र गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6) 

 मन ही मन माँ  शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में...........
फिर से सुधा की ज़िन्दगी में बहार आ गई जब धीरज कुवैत से 45 दिन की छुट्टी पर घर आया...खट्टे मीठे पलों में अमृत फल मिलने की ख़बर से ही दोनों खुशी से झूम उठे. धीरज में अभी भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपने माता-पिता के आगे कुछ कह पाता. दिल्ली वाले भैया समझ रहे थे इस बात को इसलिए उन्होंने ही फैंसला लिया था कि बच्चा होने तक सुधा दिल्ली में ही रहेगी. धीरज के 45 दिन फुर्र से उड़ गए.. धीरज को एयरपोर्ट छोड़ने के बाद वहीं से ही धीरज के बड़े भैया सुधा को अपने साथ घर ले आए. उन दिनों की सेवा को सुधा कभी नहीं भुला पाएगी जिनके कारण उसे  अपने दूसरे बेटे का प्यारा सा चेहरा देखना नसीब हुआ था. बड़े भैया भाभी की सेवा और देखरेख को याद करके आज भी सुधा की आँखें भीग जाती हैं. 
अतीत को वह आज भी नहीं भुला पाती. पहले बच्चे के वक्त पति के साथ होने पर भी उसे बचा न पाए थे दोनों. यह घाव बार बार हरा हो जाता है. उसे गुस्सा आता है अपने माता-पिता पर जिनके लिए लड़की बोझ होती है जिसे वे जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं. अपना बोझ उतार कर दूसरे परिवार पर डाल देते हैं. दूसरा परिवार चाहे तो बोझ समझे या कुछ आज़ादी देकर उससे उम्र भर की ग़ुलामी करवाए. पर कटे पंछी की तरह मायके से निकल कर ससुराल में आ जाती है.  पिंजरा बदल जाता है बस. 
लाख बुरा करे कोई, अगर उसकी एक अच्छाई को भी याद किया जाए तो रिश्ते ज़िन्दा रहते हैं. सुधा आज भी यही सोच कर उनके घर परिवार के लिए खुशहाली की दुआएँ माँगती है. चाँद जैसा बेटा पाकर सुधा धन्य हो गई. सब दुख भुला कर फिर से वह चहकने लगी. धीरज और सुधा ने बेटे का नाम सौरभ रखा जिसकी महक से घर परिवार की बगिया महक उठी. सास ससुर भी बहुत खुश थे प्यारे से पोते को देख देख कर खुश होते. सौरभ की किलकारियाँ सुन सुनकर सुधा सास-ससुर की सेवा करती धीरज का इंतज़ार कर रही थी. धीरज भी अपने बेटे को देखने के लिए बेचैन था. सुधा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. पहली बार धीरज अपने दस महीने के बेटे को देखेंगे तो कैसा लगेगा सोच कर ही उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती. धीरज के मन की बात तो वह ही जाने लेकिन सुधा मिलन के मीठे सपनों में खोई हुई थी. 
धीरज का भी धीरज छूटा जा रहा था. जल्दी ही घर पहुँच कर वह अपने बेटे को अपनी गोद में लेना चाहता था. वह पल भी आ गया जब उसका दस महीने का बेटा उसकी गोद में था. सौरभ अपनी बड़ी बड़ी गोल आँखों से पिता को देखने लगा. पहली बार गोद में आकर कुछ देर के लिए सहम गया लेकिन पिता की गीली आँखों में अपने लिए प्यार देख कर मुस्कुराने लगा. कभी उनकी कमीज़ की जेब में हाथ डालता तो कभी मूँछ को पकड़ने की कोशिश करता. 
मन ही मन सुधा डर रही थी कि कहीं उसकी खुशहाल ज़िन्दगी को किसी की नज़र न लग जाए. जिस बात से डरते हैं वही होता है. धीरज के वापिस लौटने का वक्त नज़दीक आ रहा था कि तभी उसके पिता सीढ़ियाँ उतरते हुए ऐसे गिरे कि फिर बिस्तर से उठ न पाए. कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. उनके इलाज के लिए धीरज को रुकना पड़ा. 
हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है कि माता-पिता के साथ या तो बड़ा बेटा रहता है या सबसे छोटा. घर में सबसे छोटा होने के कारण धीरज अपने माता-पिता के साथ ही रहा था. उसे घर से दूर कभी नहीं भेजा गया था. माता-पिता हर ज़रूरत के लिए उसकी तरफ देखते. पिता को ऐसी हालत में छोड़ कर जाने की हिम्मत धीरज में नहीं थी.   
अपने परिवार के साथ रह कर नौकरी या कुछ अपना काम करने की सोच कर धीरज हर दिन कुछ नया सोचता रहता. एक बार फिर विदेश की जमा पूँजी पर घर गृहस्थी चलने लगी. परिवार के जो लोग धीरज को वापिस आकर कुछ काम करने की सलाह देते थे अब उससे नज़रें चुराने लगे. परिवार के किसी भी सदस्य ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ न रखा. सुधा फिर से माँ बनने वाली थी. एक बार फिर धीरज साथ था लेकिन फिर भी माता-पिता के खिलाफ जाकर सुधा को डॉक्टर के पास ले जाने की हिम्मत नहीं थी. 
सुधा को हाई ब्लडप्रेशर और शूगर के साथ साथ तनाव की भी शिकायत रहती. इस बीच अगर धीरज कुछ सहायता करने की कोशिश भी करता तो माँ का पारा सातवें आसमान को छूने लगता. 'जोरू का गुलाम..घुटने से जुड कर बैठ जा.. हमने तो जैसे बच्चे पैदा ही नहीं किए थे'...और जाने क्या क्या कह कर हंगामा करती कि सारा गाँव इक्ट्ठा हो जाता. माँ के ऐसे बर्ताव को देख कर धीरज कई बार घर छोड़ कर बड़ी बहन के घर जा बैठता. शायद इसी डर से चाह कर भी वह कुछ नहीं कर पाता था. 
माता-पिता का ऐसा व्यवहार बच्चों के मन से उनके लिए प्यार और आदर को कम ही नहीं करता बल्कि वक्त आने पर बच्चे माता-पिता को दुत्कारने से भी बाज़ नहीं आते. अक्सर ऐसा देखा गया है कि माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा दख़लअन्दाज़ी को बच्चे एक सीमा तक सहने के बाद अपनी सारी हदें पार कर जाते हैं. शायद इसी कारण आए दिन हमें ऐसी ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं कि बच्चे अपने माता-पिता का ख्याल नहीं रखते या उन्हें अकेला छोड़ कर दूर जा बसते हैं. 
धीरज और सुधा का पालन-पोषण ऐसे माहौल में हुआ था जहाँ माता-पिता के आगे मुँह खोलने का तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. गलत होने पर भी वे बड़े हैं ऐसा सोच कर उनके मान-सम्मान में कोई कमी न होती. पहले बच्चे के वक्त जैसा हुआ था वैसा ही इस बार भी हो रहा था लेकिन इस बार नौवें महीने में अस्पताल जाने का इंतज़ाम कर लिया गया था. सुधा की हालत अब भी बेहद नाज़ुक थी. डॉक्टरों ने फौरन सिज़ेरियन करके सुधा और बच्चे की जान बचाई. 
मुझे हैरानी इस बात की होती है कि लड़का-लड़की शादी के लिए तो तैयार हो जाते हैं लेकिन शादीशुदा ज़िन्दगी और बच्चों को पैदा करने की जानकारी नाममात्र को होती है. शादी के लिए तैयार जोड़े के सामने सेक्स की बात करने की भी मनाही होती है. आजकल भी ऐसे युवा लड़के-लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें शादी से पहले बिल्कुल तैयार नहीं किया जाता. लड़की को तो अपने पैरों पर खड़ा करने तक की सोच को नकार दिया जाता है. लड़के को भी इस तरह से तैयार किया जाता है जो माता-पिता की बताई राह पर ही चलता है, जिसे एक पल के लिए भी महसूस नहीं होता कि एक लड़की उसी के सहारे अपना सब कुछ छोड़कर एक नए माहौल में हमेशा के लिए आ बसती है. 
सुधा और धीरज दूसरे बेटे को लेकर अस्पताल से घर लौटते हैं जिसकी तबियत नाज़ुक है. गर्भवती औरत और साथ ही गर्भ में पल रहे शिशु की अगर सही देखरेख न हो तो ऐसा ही होता है जैसे सुधा और उसके नवजात बच्चे के साथ हुआ. आखिरी वक्त तक घर के कामकाज करना अगर होने वाली माँ और बच्चे की सेहत के लिए सही हैं तो एक सीमा के बाद उसके लिए आराम, पौष्टिक आहार और ताकत की दवाइयों के साथ साथ नियमित चैकअप भी ज़रूरी है. उससे भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है गर्भवती को खुश रखना. यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था. 
मुझे तो लगता है कि हमारे देश में हर दूसरी औरत सुधा ही है जिसके साथ बार-बार ऐसा होता  है. 
छोटे से मासूम बच्चे की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया गया. दो महीने का होते-होते वह कई बार बीमार हुआ. उधर धीरज के हालात को देखते हुए एक बार फिर सागर भैया ने उसे कुवैत वापिस नौकरी पर लगवा लिया था. धीरज की सारी जमा-पूँजी खतम हो चुकी थी और एक साल में कई बार नौकरी के आवेदन और अपना काम शुरु करने के सारे सपने चूर-चूर हो चुके थे. पत्नी और दो बच्चों के साथ-साथ बूढ़े माता-पिता भी थे जिनके लिए उसे किसी न किसी काम में लगना ही था. भाई-बहन माता-पिता के लिए कुछ भी सहायता करते लेकिन उसके परिवार के लिए उसे खुद ही अपने पैरों पर खड़े होना था. 
कुवैत से नौकरी का बुलावा आते ही धीरज ने वापिस लौटने की ठान ली. सुधा का मन डूब रहा था लेकिन धीरज का मनोबल ऊँचा करने में उसने कोई कसर न छोड़ी. पति को खुशी खुशी विदा किया यह भरोसा देकर कि वह उसे शिकायत का कोई मौका नहीं देगी. धीरज वापिस लौट गया था और सुधा रह गई थी फिर से अकेली. धीरज के माता-पिता और दो बच्चों के साथ. घर-गृहस्थी के बोझ को उसने कभी बोझ माना ही नहीं था. उसकी तो एक ही इच्छा रहती कि जिस तरह वह धीरज को तन-मन से प्रेम करती है , वह भी उसे वैसा ही प्रेम करे. इसी एक इच्छा को पूरी करने की  चाहत में उसने अपना जीवन होम कर दिया. 

क्रमश: 


रविवार, 24 अप्रैल 2011

आफ़ताब और अज़ान








आज भी हर रोज़ की तरह खिड़की से बाहर उगते सूरज को देखा....साथ ही नज़र गई मस्जिद की ऊँची मीनार पर ...जाने क्यों उस खूबसूरत नज़ारे ने दिल मोह लिया...झट से कैमरे में कैद कर लिया उस खूबसूरती को .
मन में कुछ भाव उठे.....जी ने चाहा कि आप संग बाँटू उन भावों को इसलिए उतार दिया यहाँ ..... 

मस्जिद की ऊँची मीनार..... आफ़ताब के निकलने से पहले ही जाग जाती है.... हर रोज़...पाँच वक्त आवाज़ देकर हमें भी जगाती है.....जैसे कहती हो फज़र हुई... सूरज के आने से पहले उठो.... नया सवेरा हुआ...उस शक्तिपुंज का नाम लो जिसने यह दुनिया  बनाई... दिनचर्या शुरु करो.... 
दोहर होते ही ऊँची मीनार फिर से आवाज़ देकर हमें काम रोक कर आराम करने का सन्देश देती है..... सब तरफ ख़ामोशी..... फुर्सत के पल..... उन पलों में खो न जाएँ..इसलिए  असर के वक्त आवाज़ आती कि उठो उठो ....फिर से काम शुरु करो.... तब तक काम करो जब तक सन्ध्या न हो जाए... 
उधर सूरज डूबा इधर महगरिब की अज़ान होती है.....यह आवाज़ सन्देश देती है कि साँझ हुई...अब घर की ओर चलो....अपने अपने घर पहुँच कर सब मिल जुल कर सारे दिन का लेखा जोखा सुनो सुनाओ....एक साथ बैठ कर रात का खाना खाओ.....अगले दिन की तैयारी में जुट जाओ...  

मीनार से आखिरी आवाज़ सुनाई देती ईशा की......आज के सब काम सम्पन्न हुए.... शुक्र करो उस शक्ति का जिसने हमें मानव के रूप में इस धरती पर उतारा..... और फिर नए दिन की खूबसूरत शुरुआत की आशा लेकर मीठे सपनों की नींद में डूब जाओ......
बचपन तो लगभग ऐसा ही था....स्कूल जाने के लिए सुबह सवेरे उठ कर तैयार होना... मम्मी और दादी के भजनों की  आवाज़ कानों में पड़ती तो एक अजीब सा सुकून मिलता.....स्कूल में दोपहर का खाना खाने से पहले हाथ धोकर भोजन मंत्र पढ़े जाते.... सन्ध्या का दीप जलता तो पूरे परिवार के साथ मिल कर  आरती गाई जाती ... सूरज डूबने से पहले खाना तैयार हो जाता.... आठ बजते ही चटाई बिछाकर सब एक साथ रसोई में बैठ कर साथ साथ खाना खाते.... घर के बाहर गली में सैर करते हुए स्कूल और ऑफिस की बातें करते... सब कुछ अब जैसे सपने सा हो गया है लेकिन मीठे सपने सा....

आफ़ताब और अज़ान






आज भी हर रोज़ की तरह खिड़की से बाहर उगते सूरज को देखा....साथ ही नज़र गई मस्जिद की ऊँची मीनार पर ...जाने क्यों उस खूबसूरत नज़ारे ने दिल मोह लिया...झट से कैमरे में कैद कर लिया उस खूबसूरती को .
मन में कुछ भाव उठे.....जी ने चाहा कि आप संग बाँटू उन भावों को इसलिए उतार दिया यहाँ ..... 
 
मस्जिद की ऊँची मीनार..... आफ़ताब के निकलने से पहले ही जाग जाती है.... हर रोज़...पाँच वक्त आवाज़ देकर हमें भी जगाती है.....जैसे कहती हो फज़र हुई... सूरज के आने से पहले उठो.... नया सवेरा हुआ...उस शक्तिपुंज का नाम लो जिसने यह दुनिया  बनाई... दिनचर्या शुरु करो.... 
दोहर होते ही ऊँची मीनार फिर से आवाज़ देकर हमें काम रोक कर आराम करने का सन्देश देती है..... सब तरफ ख़ामोशी..... फुर्सत के पल..... उन पलों में खो न जाएँ..इसलिए  असर के वक्त आवाज़ आती कि उठो उठो ....फिर से काम शुरु करो.... तब तक काम करो जब तक सन्ध्या न हो जाए... 
उधर सूरज डूबा इधर महगरिब की अज़ान होती है.....यह आवाज़ सन्देश देती है कि साँझ हुई...अब घर की ओर चलो....अपने अपने घर पहुँच कर सब मिल जुल कर सारे दिन का लेखा जोखा सुनो सुनाओ....एक साथ बैठ कर रात का खाना खाओ.....अगले दिन की तैयारी में जुट जाओ...  

मीनार से आखिरी आवाज़ सुनाई देती ईशा की......आज के सब काम सम्पन्न हुए.... शुक्र करो उस शक्ति का जिसने हमें मानव के रूप में इस धरती पर उतारा..... और फिर नए दिन की खूबसूरत शुरुआत की आशा लेकर मीठे सपनों की नींद में डूब जाओ......
बचपन तो लगभग ऐसा ही था....स्कूल जाने के लिए सुबह सवेरे उठ कर तैयार होना... मम्मी और दादी के भजनों की  आवाज़ कानों में पड़ती तो एक अजीब सा सुकून मिलता.....स्कूल में दोपहर का खाना खाने से पहले हाथ धोकर भोजन मंत्र पढ़े जाते.... सन्ध्या का दीप जलता तो पूरे परिवार के साथ मिल कर  आरती गाई जाती ... सूरज डूबने से पहले खाना तैयार हो जाता.... आठ बजते ही चटाई बिछाकर सब एक साथ रसोई में बैठ कर साथ साथ खाना खाते.... घर के बाहर गली में सैर करते हुए स्कूल और ऑफिस की बातें करते... सब कुछ अब जैसे सपने सा हो गया है लेकिन मीठे सपने सा....


शुक्रवार, 4 जून 2010

मेरे घर के आँग़न में









एक जून , मंगलवार की रात शारजाह एयरपोर्ट उतरे.. ज़मीन पर पैर रखते ही जान में जान आई... जब भी हवाई दुर्घटना की खबर पढ़ते तो एक अजीब सी बेचैनी मन को घेर लेती... फिर धीरे धीरे मन को समझा कर सामान्य होने की कोशिश करते.... लेकिन रियाद से दुबई आने से पहले एक बुरा सपना देखा था जिसमें दो हवाई जहाज आसमान में आपस में टकरा कर गिर जाते हैं और हम कुछ नहीं कर पाते...जड़ से आकाश की ओर देखते रह जाते हैं...

पैसे की बचत की दुहाई देकर हमने पतिदेव से कहा कि बस से चलते हैं जो बहुत आरामदायक होती हैं...लेकिन 12 घंटे के सफ़र की बजाए डेढ़ घंटे का सफ़र ज़्यादा सही लगा उन्हें और अंत में हवाई यात्रा ही करनी पड़ी.... सालों से सफ़र करते हुए हमेशा ईश्वर पर विश्वास किया ..ऐसे कम मौके आए जब हमने विश्वास न किया हो और बाद में लज्जित होना पड़ता...सोचते सोचते दुखी हो जाते कि कितने एहसानफ़रामोश हैं जो उस पर शक करके भी सही सलामत ज़मीन पर उतर आते हैं...

मंगलवार की रात नीचे उतरे तब भी ऐसा ही महसूस हुआ... फिर से उस असीम शक्ति से माफ़ी माँगी और छोटे बेटे को गले लगा लिया जो लेने आया था.....एयरपोर्ट शारजाह में और घर दुबई में ...दूरी लगभग 35-40 किमी....पहली बार बेटा ड्राइविंग सीट पर था और पिता पिछली सीट पर मेरे साथ बैठे थे.....120-130 की स्पीड पर कार भाग रही थी लेकिन डर नहीं लगा शायद धरती का चुम्बकीय आकर्षण....ममता की देवी माँ की गोद में बच्चे को बिल्कुल डर नहीं लगता लेकिन पिता की गोद में बच्चा फिर भी डरता है... उसका अतिशय बलशाली होना भी शायद बच्चे को असहज कर देता है, शायद मुझे धरती माँ भोली भाली से लगती है और आसमान गंभीर पिता जैसे लगते....

11 बजे के करीब घर पहुँच गए....अपनी तरफ से दोनो बच्चों ने घर को साफ सुथरा रखा हुआ था... बड़े बेटे के हाथ की चाय पीकर सारी थकान ग़ायब हो गई....फिर सिलसिला शुरु हुआ छोटी छोटी बातों पर ध्यान देने का.... डिनर का कोई इंतज़ाम नहीं था... बड़े ने लेबनानी खाना और छोटे ने 'के.एफ.सी' पहले ही खा लिया था...छोटा बेटा हमें घर छोड़ कर किसी काम से बाहर निकल गया, यह कह कर कि वह जल्दी ही खाना लेकर लौटेगा लेकिन महाशय पहुँचे देर से....

जब भी आवाज़ ऊँची होने को होती है तो जाने कैसे दिल और दिमाग में चेतावनी की घंटी बजने लगती है और हम दोनो ही शांत हो जाते हैं.... बच्चे खुद ब खुद समझ कर माफ़ी माँगने लगते हैं....मुस्कुरा कर हमारी ही कही बातें हमें याद दिलाने लगते हैं कि इंसान तो कदम कदम पर कुछ न कुछ नया सीखता ही रहता है और माहौल हल्का फुल्का हो जाता .... मुक्त भाव से खिलखिलाते परिवार को देख कर मुक्त छन्द के शब्द भी भावों के साथ मिलजुल कर खिलखिला उठते......


मेरे घर के आँगन में...

छोटी छोटी बातों की नर्म मुलायम दूब सजी

कभी कभी दिख जाती बहसों की जंगली घास खड़ी

सब मिल बैठ सफ़ाई करते औ’ रंग जाते प्रेम के रंग....


मेरे घर के आँगन में......

नन्हीं मुन्नी खुशियों के फूल खिले हैं..

काँटों से दुख भी साथ लगे हैं...

खुशियाँ निखरें दुख के संग ...


मेरे घर के आँगन में .....

नहीं लगे हैं उपदेशों के वृक्ष बड़े..

छोटे सुवचनों के हरे भरे पौधे हैं....

खुशहाली आए सुवचनों के संग..


मेरे घर के आँगन में...

पता नहीं क्यों बड़ी बड़ी बातों के

खट्टे खट्टे नीम्बू नहीं लगते..

छोटी छोटी बातों की खुशबू तो है...


मेरे घर के आँगन में....

उड़ उड़ आती रेत जलन चुभन की

टीले बनने न देते घर भर में

बुहारते सरल सहज गुणों से


मेरे घर के आँग़न में

उग आते मस्ती के फूल स्वयं ही

उड़ उड़ आते आज़ादी के पंछी

आदर का दाना देते सबको


मेरे घर के आँग़न में

विश्वास का पौधा सींचा जाता

पत्तों को गिरने का डर नहीं होता

प्रेम से पलते बढ़ते जाते..


मेरे घर के आँगन में....

बहुत पुराना प्रेम वृक्ष है छायादार

सत्य का सूरज जगमग होता उस पर

देता वो हम को शीतलता का सम्बल हर पल


मंगलवार, 25 मई 2010

बेबसी, छटपटाहट और गहरा दर्द










आज शाम भारत से एक फोन आया जिसने अन्दर तक हिला दिया. उम्मीद नहीं थी कि अपने ही परिवार के कुछ करीबी रिश्ते इस मोड़ पर आ जाएँगे जहाँ दर्द ही दर्द है. रिश्ते तोड़ने जितने आसान होते हैं उतना ही मुश्किल होता है उन्हें बनाए रखना. पल नहीं लगता और परिवार बिखर जाता है. परिवार एक बिखरता है लेकिन उसका असर आने वाले परिवारों पर बुरा पड़ता है. पति पत्नी अपने अहम में डूबे उस वक्त कुछ समझ नहीं पाते कि बच्चों पर इस बिखराव का क्या असर होगा.. मन ही मन बच्चे गहरी पीड़ा लेकर जिएगें, कौन जान पाता है.

आज तक समझ नहीं आया कि तमाम रिश्तों में कड़ुवाहट का असली कारण क्या हो सकता है... अहम या अपने आप को ताकतवर दिखाने की चाहत.....

न जाने क्यों एक औरत जो पत्नी ही नहीं माँ भी है .... उसकी सिसकियाँ मन को अन्दर तक भेद जाती हैं. पहली बार जी चाहा कि अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगाया जाए. शायद कोई टूटने बिखरने से बच जाए.


नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.

कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.

फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.

फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.

अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.

अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ. मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'

माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.

अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

रविवार, 9 मई 2010

मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं..!

आज न जाने क्यों सुबह नींद ही नहीं खुली.... विजय ऑफिस चले गए..बच्चे भी कब उठ गए पता ही नहीं चला.... छोटे की आवाज़ से नींद खुली कि चाय नाश्ता तैयार है मम्मी.... फ्रेश होकर किचन में गई तो मुस्कुराते हुए बच्चों ने ‘हैप्पी मदर्ज़ डे’ कह कर स्वागत किया... मन ही मन मैं सोच रही थी कि मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं.... !

पिछले कुछ दिनों से सुबह आठ बजे विजय ऑफिस के लिए निकलते तो मैं भी उनके साथ हो लेती.... मुझे सहेली के घर छोड़ते हुए विजय ऑफिस निकल जाते और शाम को घर लौटते हुए ले लेते..इस बीच दोनो बेटे खुशी खुशी अपनी पसन्द का नाश्ता बनाते खाते और मस्ती करते....दोपहर के खाने में सूप, मैकरोनी या अंडे लेते लेकिन सबसे आसान और बढ़िया लगता रोटी पर जैतून का तेल डाल कर उसपर ज़ातर (अरब का खास मसाला) लगा कर खाते. कौन जान सकता है माँ के अलावा कि यह दिन उनके सबसे मज़ेदार दिन होते हैं...

‘बच्चे बेचारे खुद ही कैसे खाना बनाते और खाते हैं?’ दो तीन करीबी रिश्तेदार ऐसा पूछ चुके हैं... हालाँकि जानते हैं कि बच्चे अब बड़े हो चुके हैं.. बड़ा बेटा इंजिनियरिंग करके मास्टर्ज़ करने की सोच रहा है और छोटे ने कॉलेज का दूसरा साल अभी खत्म किया है और समर जॉब तलाश कर रहा है.

ज्यों ज्यों बच्चे बड़े होते हैं... अपनी एक अलग दुनिया बनाने में जुट जाते हैं...वे चाहते हैं कि उन पर विश्वास किया जाए कि वे अपनी दुनिया अपने बलबूते पर बना सकते हैं...लेकिन अगर उन्हें हमारी ज़रूरत है तो हम उनकी मदद के लिए तैयार भी रहें... हम हैं कि इसी भुलावे में रहते हैं कि हमारे बिना बच्चों का गुज़ारा कैसे होगा.....

खैर....जिस सहेली के घर गई थी...उसके दो छोटे छोटे बेटे हैं. बड़ा बेटा ढाई साल का और छोटा बेटा अभी पाँच महीने का है.. हम दोनो सहेलियाँ एक साथ रियाद स्कूल में पढ़ाया करतीं थीं, अब दोनों ही नौकरी छोड़ चुके हैं. जब भी रियाद आना होता है तो मिल बैठकर ज़िन्दगी की अनबूझ पहेली को सुलझाने की बातें होती तो कभी ज़िन्दगी को उस्ताद मान कर उससे जो भी सीखा उस पर बातचीत होती...,,,,

बीच बीच में दोनों बच्चों के साथ बच्चे बनकर खेलना शुरु करते तो वक्त का पता ही नहीं चलता....कब सुबह से शाम हो जाती और विजय पहुँच जाते लेने...शाम को घर आते तो गर्मागर्म चाय के साथ बच्चे स्वागत करते....चारों साथ मिल कर चाय पीते और इधर उधर की गपशप करते....

अपनी कई छोटी बड़ी समस्याओं को सुलझाने का सबसे बढिया उपाय है एक साथ बैठकर खुलकर बातचीत करना .....लम्बे अर्से के बाद परिवार एक हुआ है तो जितना भी वक्त मिलता है , साथ साथ गुज़ारते हैं... एक दूसरे की सुनते हैं, समझते हैं.... माता-पिता का सम्मान और बच्चों से प्यार परिवार का आधार तो है ही लेकिन अगर एक और रिश्ता ‘दोस्ती’ का बना लिया जाए तो एक दूसरे को और भी ज़्यादा सम्बल मिलता है.