Translate

बेटी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बेटी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 5 जून 2013

रिक्शावाला और उसकी लाड़ली


मोबाइल से खींची गईं तस्वीरें 
पिछले साल के कुछ यादगार पल..2012 मार्च की बात है, देर रात निकले मैट्रो स्टेशन के नीचे के स्टोर से दूध और मक्खन खरीदने के लिए... पैदल का रास्ता होने पर भी गली के कुत्तों से डर के कारण रिक्शा पर जाने की सोची वैसे रिक्शे पर हम कम ही बैठते हैं. 
इस बात का ज़िक्र करते हुए एक पुरानी घटना भी याद आ गई जो भुलाए नहीं भूलती,  उसके बाद तो सालों तक रिक्शा पर नहीं बैठे. बड़ा बेटा 9-10 साल का रहा होगा. हर बार की तरह जून जुलाई में गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में थे. ईस्ट ऑफ कैलाश से संत नगर जाने के लिए रिक्शा लिया. दोनों बेटों के साथ मैं भी रिक्शे पर बैठ गई. संत नगर के नज़दीक आते ही कुछ दूरी तक की चढ़ाई थी जिस पर रिक्शा चालक नीचे उतर कर ज़ोर लगा कर रिक्शा खींचते हुए आगे बढ़ने लगा. अचानक बेटे ने उसे रोक दिया. पहले उसे अपनी पानी की बोतल दी और फिर मुझे नीचे उतरने के लिए कहा, हालाँकि उस वक्त हम आज की तरह वज़नदार नहीं थे. बेटे खुद भी  उतरने लगे तो रिक्शेवाले ने ट्रैफिक से डरते हुए बच्चों को नहीं उतरने दिया. हैरान परेशान रिक्शा वाले ने जल्दी ही चढ़ाई पार करके मुझे भी बैठने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया.
फिलहाल द्वारका की सोसाइटी के बाहर ऑटोरिक्शा से ज़्यादा साइकिल रिक्शा दिखते हैं. किसी भी काम के लिए रिक्शे पर जाना वहाँ सबसे सुविधाजनक है. गेट के बाहर खड़े  रिक्शे पर हम बैठे ही थे कि रिक्शावाला बोल उठा, 'मेम साहब, बच्ची को आइसक्रीम खिलाने में वक्त लग जाएगा' हमें कोई जल्दी नहीं थी इसलिए हमारी हामी भरते ही वह इत्मीनान से बच्ची को आइसक्रीम खिलाने लगा. बीच बीच में उसका मुँह साफ करता हुआ प्यार से बातें भी करता जाता. 
बच्ची को गोद में लेकर जिस प्यार से वह उसे आइसक्रीम खिला रहा था किसी भी तरह वह माँ से कम ध्यान रखने वाला नहीं लग रहा था. हमसे रहा न गया तो पूछ ही लिया कि बच्ची की माँ कहाँ है. 'इसकी माँ शाम को काम करती है घरों में और मैं इसे सँभालता हूँ साथ-साथ नज़दीक ही रिक्शा भी चलाता हूँ, दो चार पैसे जोड़ लेंगे तो बेटी को कुछ पढ़ा लिखा सकेंगे.'  उसकी बात सुनकर मन खुश हो गया. आशा की किरण जाग गई कि बेटियों की कदर करने वाले ऐसे माता-पिता भी हैं जो अपनी बेटियों की  सुरक्षा पर ध्यान देते हैं, उनके सुनहरे भविष्य के सपने भी सँजोते हैं. 
आइसक्रीम खिलाने के बाद उसने लोहे की टोकरी में कपड़े को सही से बिछा कर बेटी को उसमें बड़े प्यार और ध्यान से बिठा दिया. बच्ची भी चुपचाप बैठ गई , शायद उसे आदत हो गई थी लेकिन मुझे डर लग रहा था कि कहीं उसे लोहे की टोकरी चुभ न जाए. सड़क पर लगे स्पीड ब्रेकर के कारण उछल कर नीचे न गिर जाए. बार-बार मेरे ध्यान रखने पर वह हँस दिया. 'कुछ नहीं होगा मेमसाहब' कह कर रिक्शा चलाते हुए बच्ची से बस यूँ ही बात करता जाता. हालाँकि बच्ची सयानी बन कर बैठी थी. 
चलने से पहले उसके साथ तस्वीर खिंचाने की इजाज़त माँगी तो वह बहुत खुश हो गया. बेटी आइसक्रीम खाकर टोकरी में तसल्ली से बैठी थी और पिता ने बहुत बड़ी और प्यारी मुस्कान के साथ तस्वीर खिंचवाई. 


मंगलवार, 25 मई 2010

बेबसी, छटपटाहट और गहरा दर्द










आज शाम भारत से एक फोन आया जिसने अन्दर तक हिला दिया. उम्मीद नहीं थी कि अपने ही परिवार के कुछ करीबी रिश्ते इस मोड़ पर आ जाएँगे जहाँ दर्द ही दर्द है. रिश्ते तोड़ने जितने आसान होते हैं उतना ही मुश्किल होता है उन्हें बनाए रखना. पल नहीं लगता और परिवार बिखर जाता है. परिवार एक बिखरता है लेकिन उसका असर आने वाले परिवारों पर बुरा पड़ता है. पति पत्नी अपने अहम में डूबे उस वक्त कुछ समझ नहीं पाते कि बच्चों पर इस बिखराव का क्या असर होगा.. मन ही मन बच्चे गहरी पीड़ा लेकर जिएगें, कौन जान पाता है.

आज तक समझ नहीं आया कि तमाम रिश्तों में कड़ुवाहट का असली कारण क्या हो सकता है... अहम या अपने आप को ताकतवर दिखाने की चाहत.....

न जाने क्यों एक औरत जो पत्नी ही नहीं माँ भी है .... उसकी सिसकियाँ मन को अन्दर तक भेद जाती हैं. पहली बार जी चाहा कि अपनी एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगाया जाए. शायद कोई टूटने बिखरने से बच जाए.


नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.

कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.

फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.

फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.

अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.

अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ. मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'

माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.

अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

रविवार, 2 मई 2010

एक घर की कहानी ऐसी भी











सुमन दमकते सूरज को देखती तो कभी कार के खराब ऐ.सी को कोसती....आज कई दिनों बाद निकले सूरज देवता जैसे अपनी मौजूदगी का एहसास कराने की ठान कर उदय हुए थे...पिछले हफ्ते हल्की फुल्की फुहार से मिली शांति आज न जाने कहाँ काफ़ूर हो गई थी.... अम्माजी के लिए आँखों की दवा और माँ का चश्मा लेने छोटे बाज़ार जाना था जहाँ पार्किंग की हमेशा से ही मुश्किल रही है.... फिर भी उसने हार न मानी और कार दूर खड़ी करके चिलचिलाती धूप में सिर को दुपट्टे से ढकती बाज़ार की ओर चल दी. सुबह स्कूल जाते वक्त अचानक दूसरे कमरे से अम्माजी की धीमी लेकिन मिश्री सी मीठी आवाज़ सुनाई दी थी.....’सुमन्न्न्न्न,,,, मेरी मुन्नो.... अखाँ दी दवाई खतम हो गई है...’ ऊँचा सुनती हैं लेकिन फिर भी अपनी आवाज़ को न जाने कैसे नीचा रख पाती हैं अम्माजी ...चार दिन से दवाई खत्म ठीक और सुमन भूल जाती...आज उसने ठान ही लिया था कि जैसे भी होगा वह आज दवाई और माँ का चश्मा लाना नहीं भूलेगी....

अम्माजी...माँ की माँ हैं....मेरी प्यारी नानी जिसके पोपले से मुहँ पर हमेशा एक प्यारी सी मुस्कान रहती पर न जाने क्यों माँ के चेहरे पर वही मुस्कान कभी न देख पाती, शायद छोटी उम्र से ही पति का साथ छूटने पर समाज में अपने आप को मज़बूत दिखाने के लिए मुस्कान को चेहरे पर आने ही न दिया हो...पढ़ी लिखी न होने पर भी माँ ज़मीनों का हिसाब किताब खूब कर लेती थीं... पापाजी तो कब का छोड़ कर जा चुके थे...माँ ने ही पुश्तैनी ज़मीन्दारी की आमदनी से तीनों भाई बहन को पाल पोसकर बड़ा किया... पढ़ाया लिखाया... और अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत दी...
माँ अपनी अम्माजी की लाड़ली थीं तो नानाजी अपने दो बेटों पर घमंड करते, उनका गुणगान करते न थकते.... नानाजी ने कभी पीछे मुड़कर न देखा था...... अम्माजी की सारी खुशियाँ, सारे शौक दोनो बेटों के साथ विदेश जाकर बस गए... नानाजी बड़े मामाजी के साथ रहने अमेरिका चले गए और छोटे मामाजी ने शुरु शुरु में नानी यानि अम्माजी को आने की खूब मिन्नतें कीं लेकिन न जाने क्यों अम्माजी अपनी इकलौती बेटी को छोड़ कर न जा पाईं या शायद अपनी मिट्टी को छोड़ पाने की हिम्मत न जुटा पाईं ...यही माँ के साथ हुआ ... वीरजी कनाडा गए ....दीदी के लिए एक अच्छा लड़का मिल गया सो उसे भी वहीं बुला कर ब्याह कर दिया उसका.... पीछे रह गई सुमन ......... अम्माजी और माँ के साथ ....
दीदी जब कनाडा गईं थी उस समय सुमन ने बारहवीं पास की थी और कॉलेज में दाखिला लेने के लिए सोच रही थी....दीदी के जाते ही घर खाली खाली सा लगने लगा....आगे की पढ़ाई के लिए घर से दूर जाना मुमकिन नहीं था इसलिए पास के कॉलेज में बी.ए. पास कोर्स के लिए फॉर्म भर दिया... खाली पीरियड में घर आकर दोपहर का खाना तैयार करने में माँ की मदद करना सुमन को अच्छा लगता. कभी कभी कपड़े निचोड़ कर तार पर भी डाल जाती.... अम्माजी सुमन को देख देख खुशी से फूली न समाती...’मेरी मुन्नो... मेरी शहज़ादी... देखना शीला...राज करेगी.... ‘ माँ को कहतीं और बलाएँ लेने लगती...सुमन मुस्कुरा कर फिर से कॉलेज भाग जाती......
देखते ही देखते कॉलेज खत्म हुआ.... अपने ही स्कूल में पढ़ाने का सपना कब से सुमन की आँखों में पल रहा था....लेकिन बी.एड करने के लिए कहाँ जाए...पढ़ाने के लिए तो टीचर ट्रेनिंग भी तो चाहिए....माँ तो दूर पढ़ने के लिए भेज भी देतीं लेकिन अम्माजी की जान तो जैसे सुमन में ही थी.... उन दिनों पत्राचार के माध्यम से रोहतक से बी.एड हुआ करती थी सो वहीं से बी.एड कर ली. ....अपने ही स्कूल में नौकरी की अर्ज़ी देते ही वहाँ गणित की टीचर भी लग गई....
अम्माजी और माँ के साथ सुमन के दिन मज़े से कट रहे थे....कुछ अपने जो सात समुन्दर पार थे, कभी उनकी याद आती लेकिन जल्दी ही उदासी दूर भी हो जाती ...यह सोचने की फुर्सत ही नहीं थी कि वे लोग इतनी दूर क्यों जा बसे..विदेश में सभी खुशहाल हैं फिर क्यों उदास होना,,यह सोच कर सुमन नानी और माँ को पल भर में बोझिल माहौल से बाहर ले आती...लेकिन कभी कभी उन दो जोड़ी बूढ़ी आँखों में एक वीराना सा इंतज़ार दिखता..वह भी कुछ पल के लिए फिर सुमन की खिलखिलाती हँसी में कहीं गुम हो जाता....
माँ की सहेली शोभा  जब भी आती सुमन को अपने घर की बहू बनाने का सपना लेकर जाती और फिर टूटे सपने के साथ फिर लौट कर आती....एक एक करके उनके दोनों बेटे विदेश जा बसे थे और वहीं अपने घर भी बसा लिए थे..... लेकिन शोभा  के जेठ जेठानी का इकलौता बेटा उन्हीं के साथ ही रहता था....कुरुक्षेत्र के एक कॉलेज में प्रोफेसर था... अपने खुद के पैसे से मकान खड़ा किया था उसने...कार और मोटर साइकल थी... दहेज के सख्त खिलाफ....लेकिन लड़की को खाली हाथ तो ले जाना नहीं था...दहेज के रूप में अम्माजी और माँ को साथ ले जाने की ज़िद...
पहली बार माँ की आँखों को डबडबाते देखा था.... उन्होंने अशोक का माथा चूम लिया था....ढेरों आशीष देकर गले से लगा लिया था....तब से लेकर आज तक माँ और अम्माजी ने कभी अशोक को दामाद नहीं माना...और अशोक भी तो सोने से खरे स्वभाव जैसे हैं...
‘बहनजी, चश्मा तैयार हो गया है... इतना इंतज़ार करवाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ’ गुप्ता ओप्टिकल के एक कर्मचारी के कहने पर सुमन के विचारों की तन्द्रा टूटी.... ओह... स्कूल से निकले पूरे दो घंटे हो गए थे...सुधा बेटी घर पहुँच चुकी होगी....और मम्मी को न देख कर सारा घर आसमान पर उठा लेगी....सोचते सोचते सुमन के पैरों में तेज़ी आ गई थी....कार के शीशे खोल कर अन्दर बैठी सुमन ने सीधा घर जाने की सोची...... एक बार ख्याल आया कि अशोक को भी कॉलेज से ले लूँ लेकिन एक और घंटे की देरी हो जाएगी....
आजकल सुधा अपने कॉलेज मोटर साइकिल पर जाती है... अशोक ने खुद ही बेटी को मोटर साइकिल चलाना सिखाया है......कभी बेटी या बेटे में फ़र्क नहीं किया.... पीयूष छोटा भाई है सुधा का....कभी कभी बड़ा भाई बनने की कोशिश करता है लेकिन सुधा उसे फिर से सीधा कर लेती है.....पीयूष भी कम नहीं है...चुप हो जाता है...जानता है कुछ दिनों के बाद मोटर साइकिल उसकी ही होने वाली है....
चार बजने वाले थे...सुमन घर पहुँची तो सुधा को माँ के साथ रसोई में देखा...आँखों ही आँखों में माँ को शुक्रिया अदा करके सुमन अम्माजी को आँखों की दवा देकर फ्रेश होने चली गई....पाँच बजे अशोक और पीयूष घर आ जाएँगे...उन दोनो के आने से पहले ही सुमन फ्रेश होकर रसोईघर में माँ का हाथ बँटाने आ गई....
कॉलेज से आकर अशोक अम्माजी और माँ के साथ बैठकर जब तक चाय की चुस्कियों के साथ कॉलेज की गपशप न कर लें...उन्हें मज़ा ही नहीं आता...इसी बीच कब सुधा और पीयूष को साथ बैठने की आदत हो गई ...पता ही नहीं चला.... दोनो भाई बहन बड़ी नानी और छोटी नानी के दीवाने हैं..
सुमन को यही शाम का वक्त सबसे अच्छा लगता है जब सब मिल कर चाय के खनकते प्यालों के साथ खिलखिलाते भी हैं, यही पल तो सारे दिन की थकान को दूर भी कर देते हैं......
सुमन सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आजकल जितना भी देखने सुनने को मिलता है.... कहाँ कुछ कमी रह जाती है कि घर के बड़े बुज़ुर्ग अपने ही बच्चों द्वारा उपेक्षित होने लगते हैं...
(सुमन की कहानी का सच वास्तविक जीवन से जुड़ा है..ऐसे बहुत से परिवार होंगे जहाँ जो है , जैसा है...उसे वैसे का वैसा ही स्वीकार किया जाता होगा....)
----

रविवार, 2 दिसंबर 2007

कल और आज



कल
माँ की सुन पुकार मैं उठ जाती
चूल्हा सुलगाती भात बनाती
ताप से मुख पर रक्तिम आभा छाती
मुस्कान से सबका मन मैं लुभाती !


माँ की मीठी टेर सुनाई देती
झट से गोद में वह भर लेती
जैसे चिड़िया अंडों को सेती !
लोरी से आँखों में निन्दिया भर देती !


नन्हे भाई का रुदन मुझे तड़पाता
मन मेरा ममता से भर जाता
नन्हीं गोद मेरी में भाई छिप जाता
स्नेह भरे आँचल में आश्रय वह पाता !


सोच सोच के नन्हीं बुद्धि थक जाती
क्यों पिता के मुख पर आक्रोश की लाली आती
क्रोध भरे नेत्रों में जब स्नेह नहीं मैं पाती
मेरे मन की पीड़ा गहरी होती जाती !


आज

मेरी सुन पुकार वह चिढ़ जाती
क्रोध से पैर पटकती आती
मेरी पीड़ा को वह समझ न पाती
माँ बेटी का नाता मधुर न पाती !


स्वप्न लोक की है वह राजकुमारी
नन्हीं कह मैं गोद में भरना चाहती
मेरा आँचल स्नेह से रीता रहता
उसका मन किसी ओर दिशा को जाता !


भाई की सुन पुकार वह झुँझलाती
तीखी कर्कश वाणी में चिल्लाती
पश्चिमी गीत की लय पर तन थिरकाती
करुण रुदन नन्हें का लेकिन सुन न पाती !


पढ़ना छोड़ पिता के पीछे जाती
प्रेम-भरी आँखों में अपनापन पाती
पिता की वह प्रिय बेटी है
कंधा है , वह मनोबल है !


माँ की सुन पुकार मैं उठ जाती थी
मेरी सुन पुकार वह चिढ़ जाती है
कल की यादें थोड़ी खट्टी मीठी थी
आज की बातें थोड़ी मीटी कड़वी हैं !

बुधवार, 12 सितंबर 2007

खिलने दो खुशबू पहचानो



खिलने दो, खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे
न तोड़ो, खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो।

खिलती कलियों की मुस्कान को जानो
आकाश को छूते उनके सपनों को मानो
खिलने दो खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे।

कण्टक-कुल से भरे कठिन रस्ते हैं इनके
फिर भी कुछ करने की चाह भरी है इनमें
न तोड़ो खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो।

जीवनदान मिले तो जड़ भी चेतनमन पाए
जगती का कण-कण शक्तिपुंज बन जाए
खिलने दो खुशबू पहचानो
महकी बगिया कहती है सबसे।

न तोड़ो खिल जाने दो
इस जग में पहचान बनाने दो
महकी बगिया कहती है सबसे
खिलने दो, खुशबू पहचानो।