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गुरुवार, 9 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)

                                                                 (चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
  सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1)    
 सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा से आज सुबह ही बात हो पाई... 2-3 दिन से तबियत खराब थी उसकी...उसकी तबियत खराब होने का मतलब होता है फिर घर-परिवार से जुड़ी किसी घटना ने उसे प्रभावित किया होगा.... हुआ भी यही था... शायद घर घर की कहानी है यह .... माता-पिता के जाने के बाद लड़की अपने आपको अकेला महसूस करती है और अगर उस पर भाई बहन किनारा कर लें तो अन्दर ही अन्दर वह टूट जाती है... चाहे पति और बच्चे कितना भी प्यार सम्मान दें लेकिन वह खालीपन कोई नहीं भर सकता... माँ के जाने के कुछ महीने बाद ही उस भाई ने किनारा कर लिया जिसने उसका कन्यादान किया था.... सुधा को यकीन नहीं आ रहा था कि जिस भाई भाभी ने  बेटी मानकर उसका कन्यादान किया था आज उन्होंने ही उसे भुला दिया... सुधा भीगी आँखों के साथ सुबक कर कह रही थी , 'दीदी,,,, जिसे मैं भाभीमाँ कहती थी उसने कहा, 'ननद हो... ननद बन कर रहो... बेटी बनने की कोशिश न करो' ....  दीदीईईई....माँ की बहुत याद आ रही है.... माँ को छोड़ कर भाभी के पास जाकर बैठती थी...आज दिल रोता है... काश माँ के पास कुछ देर बैठी होती.....'
 'एक मिनट दीदी...माँ पर कुछ लिखा है अभी भेजती हूँ ..... ' अचानक सुधा उठ कर अपनी डायरी उठा लाई और अपनी लिखी कविता सुनाने लगी.... सर्वर धीमा होने के कारण आवाज़ कट कट कर आ रही थी इसलिए उसे कहा कि लिख कर भेजे.... माँ और मायके का मोह और उससे बिछुड़ने का दर्द झलकता है उसके लिखे में....
"रब दी मर्ज़ी दे अगे कोई ज़ोर न 
माँ तू वी चली गईयों 
तेरे वरगा कोई होर न 
मावाँ धिया नूँ 
सौ सौ लाड लडान्दियाँ ने 
मावाँ बाजो धियाँ 
जग विच रुल जान्दियाँ ने 
पिता दा साया ताँ
बचपन विच सिर तौं उठ गया
पैकेयाँ दा जो असी मान करदे सी 
ओवी हथों छुट गया
ऐ रब्बा ! जग विच धियाँ 
बनाइयाँ क्यों.... 
जे जमिया सी ताँ 
दूजे हथ फड़ाइयाँ क्यों 
माँ पयो बाजो धियाँ जान किथे 
माँ बिना अपने दिल दिया
गलाँ सुनाण किथे...
ऐ रब्बा किसी दी वी 
कदे माँ न मरे 
माँ पयो दी कदी वी 
धियाँ होण न परे... !! 

सुधा घर में सबसे छोटी थी लेकिन लाड़ली नहीं थी किसी की... बड़े भैया जो लाड़ करते थे उन्हें घर से निकाल दिया गया तो  वे  दुनिया ही छोड़ कर चले गए ... सबसे बड़ी बहन के साथ भी  मायके वालों ने नाता तोड़ लिया था.... 'इतनी बड़ी दुनिया में कोई नहीं जो मुझे मेरे मायके से मिला दे' कहती और अन्दर ही अन्दर घुलती दिल के दौरे से चल बसी....दो भाई अपने अपने परिवार में मस्त हो गए...लाचार विधवा माँ  के जी का हाल किसी ने न  जाना......बेटे बहुओं के अधीन  बेबस  बूढ़ी माँ बेटियों को कोसती.... बेटियाँ समझ न पातीं  कि माँ अपना ठिकाना बनाए रखने के लिए ऐसा करती है.......जाने क्या क्या दर्द लेकर उसने चारपाई पकड़ ली और जल्दी ही सबसे मोह त्याग कर स्वर्ग सिधार गई.....!  
मुझे लगता है कि हर घर परिवार में कुछ न कुछ ऐसा घटता है जो भुलाए नहीं भूलता लेकिन हमेशा की तरह आज भी मेरी यही सोच है कि अगर हम अपने से ज़्यादा सताए लोगों को देखें तो अपना दर्द कम लगता है जिस कारण जीना आसान हो जाता है .... जब जब हम अपने दुख को सबसे बड़ा मानेंगे तब तब मन चंचल हो कर बेचैन होगा... दुखी होगा... रोएगा... 
बोझिल माहौल को बदलने के लिए सुधा को बीच में रोक कर पूछने लगी, ' सुधा , यह तो बताओ कि अमिताभ जया की जोड़ी कैसे बनी, किसने बनाई ? ' सुनते ही एक पल के लिए सुधा रुकी फिर बोली. 'दीदी , वैसे आप हो बहुत चालाक...बात बदलने की कला तो कोई आपसे सीखे '  कहते ही उसके चेहरे पर शर्मीली मुस्कान फैल गई... मैं चुप थी...उत्सुक थी कि वह वहीं से अपने नए जीवन की शुरुआत की कहानी कहे.... हम दोनों चाय का कप लेकर स्काइप पर फिर से आ बैठीं..... 
अक्सर दूर के रिश्तेदार किसी के घर आते जाते ध्यान से देखते हैं कि शादी लायक बच्चें हो तो बात की जाए..सुधा के साथ भी ऐसा हुआ...घर आए मेहमानों के लिए चाय लेकर गई तो वे उसे गौर से देखने लगे... 'पता नहीं उन आँटी अंकल को मुझमें क्या दिखा कि माताजी से अपने छोटे भाई के लिए मेरा हाथ माँगने लगीं.....' मेरा भाई घर का सबसे छोटा और लाड़ला बेटा है.... बहुत शरीफ़ और सेवादार .. माता-पिता का तो श्रवण कुमार है...विदेश में काम करता है लेकिन रत्ती भर भी बाहर की हवा नहीं लगी.........' आँटी बोलती जा रहीं थीं...माताजी ने बीच में उनकी बात काट कर कहा, 'फिर भी मुझे किसी बड़े बुज़ुर्ग से मिलकर बात तो करनी ही है कि वह घर देखा भाला है और  परिवार और खानदान शरीफ है... ' माताजी का इतना सुनते ही उन्होंने अपने घर आने का न्यौता दे दिया... अपने सास-ससुर से घर-परिवार और भाई की वकालत करवा कर रिश्ता पक्का कर लिया... एक दूसरे की तस्वीरें दिखा कर ही रिश्ता पक्का कर दिया गया..
+सुधा की भाभी ने बिना बात किए ही चुपचाप लड़के की तस्वीर उसके सिरहाने के नीचे रख दी  ... अगले दिन सुधा की भाभी ने शरारत भरी मुस्कान के साथ उससे पूछा, ' सुधा ... लड़का कैसा लगा?'  सुधा सवाल करती उससे पहले ही भाभी बोल उठी, ' अरे , कल सुबह ही तुम्हारे सिरहाने के नीचे एक तस्वीर रखी थी...' बोलते बोलते कमरे में आ गईं... सिरहाने के नीचे ...इधर उधर ढूँढने पर नीचे गिरी तस्वीर उठाकर सुधा के हाथ में थमा दी....भाभी की नज़र सुधा के चेहरे पर थी और सुधा की नज़र उस तस्वीर पर जड़ सी हो गई..... सपनों का राजकुमार जैसे उसी को देख कर मुस्कुरा रहा हो....उसके दिल की धड़कन बढ़ गई....चेहरा शर्म से लाल हो गया....भाभी समझ गई लेकिन फिर भी सुधा से पूछने लगी कि तस्वीर अच्छी लगी कि नहीं..... सिर झुका खड़ी सुधा ने धीरे से 'हाँ' कहा तो भाभी ने उसे अपने गले से लगा लिया...
तस्वीर लेकर भाभी तो चली गई लेकिन सुधा की तो आँखों में बस गई थी वह सूरत....खुली आँखों से सुधा सपने देखने लगी....सपनों में ऐसा ही सुन्दर वर देखती थी अपने लिए...... सपनों के सुन्दर राजकुमार के साथ उसकी शादी होगी... पहनने को नए कपड़े और गहने लेंगे....अपने पति के साथ विदेश में अपना घर  बसाएगी.......घूमने फिरने की आज़ादी होगी... सुधा जैसी हज़ारों लड़कियाँ ऐसे ही सपने देख कर जीतीं हैं....
 माता-पिता के घर में कैद सभी लड़कियों के लिए हज़ारों तरह के नियम कानून होते हैं लेकिन लड़कों को उतना ही खुला छोड़ दिया जाता है... सुधा और उसकी दो बहनों को दसवीं करवा के सिलाई कढ़ाई का कोर्स करवा दिया गया लेकिन लड़कों को कॉलेज जाने की छूट थी....अच्छी पढ़ाई लिखाई के कारण भाई अच्छी नौकरियों पर लग गए... लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना तो दूर अकेले घर से बाहर जाने की भी मनाही थी ...
समाज की ऊपरी सतह को देख कर लगता है कि सोच बदल रही है लेकिन सच तो यह है कि आज भी हम इसी  भ्रम में जी रहे हैं कि सोच बदल रही है...बदलाव हो रहा है......बदलाव हो भी रहा है तो कितना....!! 

क्रमश:

8 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

रोचक चल रही है कहानी आगे का इंतज़ार है

Unknown ने कहा…

बहुत रोचक और मर्म स्पर्शी ........

बांच रहा हूँ और उतर रहा हूँ शब्दों के सागर में
सौ सौ लाड लडान्दियाँ ने
मावाँ बाजो धियाँ
जग विच रुल जान्दियाँ ने
पिता दा साया ताँ
बचपन विच सिर तौं उठ गया
पैकेयाँ दा जो असी मान करदे सी
ओवी हथों छुट गया
ऐ रब्बा ! जग विच धियाँ
बनाइयाँ क्यों....

__वाह वाह ....जय हिन्द !

संगीता पुरी ने कहा…

अच्‍छी चल रही है ये कहानी ..
अगली कडी का इंतजार है !!

नुक्‍कड़ ने कहा…

जीवन से जुड़ी संवेदित करती और झकझोरती कथा

vandana gupta ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(11-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कहानी की तीनों कड़ियाँ एक साथ पढ़ीं ....जिज्ञासा पूर्ण चल रही है कहानी .....

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बढिया कहानी, बहुत सुंदर

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही अच्छी जा रही है, कहानी .
सुधा की शादी तो बहुत पहले हो गयी थी,पर अब भी ज्यादा कुछ नहीं बदला ..लडकियां शादी के इंतज़ार में ही पढ़ती जाती हैं और अपनी आँखों में सुनहरे सपनों के बीज बो लेती हैं...जो हकीकत में कांटे बन उग आते हैं