प्रेम का भाव, उस भाव के आनन्द की अनुभूति...इस पर बहुत कुछ लिखा गया है.. अक्सर बहस भी होती है लेकिन बहस करने से इस विषय को जाना-समझा ही नही जा सकता ... केवल प्रेम करके ही प्रेम को जाना जा सकता है।
प्रेम करते हुए ही प्रेम को पूरी तरह से जाना जा सकता है... नदी में कूदने की हिम्मत जुटानी पड़ती है तभी तैरना आता है ... प्रेम करने का साहस भी कुछ वैसा ही है.. किसी के प्रेम में पड़ते ही हम अपने आप को धीरे धीरे मिटाने लगते हैं...समर्पण करने लगते हैं..अपने आस्तित्त्व को किसी दूसरे के आस्तित्त्व में विलीन कर देते हैं... यही साहस कहलाता है...
प्रेम का स्वरूप विराट है...उसके अनेक रूप हैं... शिशु से किया गया प्रेम वात्सल्य है जिसमे करुणा और संवेदना है तो माँ से किया गया प्रेम श्रद्धा और आदर से भरा है...उसमें गहरी कृतज्ञता दिखाई देती है... यही भाव किसी सुन्दर स्त्री से प्रेम करते ही तीव्र आवेग और पागलपन में बदल जाते हैं.. मित्र से प्रेम का भाव तो अलग ही अनुभूति कराता है, उसमें स्नेह और अनुराग का भाव होता है...
प्रेम के सभी भाव फूलों की तरह एक दूसरे से गुँथे हुए हैं...हमारा दृष्टिकोण , हमारा नज़रिया ही प्रेम के अलग अलग रूपों का अनुभव कराता है।
मेरे विचार में प्रेम चमकते हीरे सा समृद्ध है.... कई रंग हैं इसमें और कई ठोस परतें हैं . हर परत की अपनी अलग चमक है जो अदभुत है... अद्वितीय है !!!
(घुघुतीजी के स्नेह भरे आग्रह का परिणाम है यह पोस्ट... प्रेम भाव को शब्दों का रूप देने के लिए वक्त चुराना पड़ा नहीं तो इस वक्त हम कोई ब्लॉग़ पढ़ रहे होते )