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गुरुवार, 26 जनवरी 2017

गणतंत्र दिवस 

दिल्ली से दुबई तक गणतंत्र दिवस का जश्न देखने और मनाने का आनंद अलग ही सुख दे रहा है. कई बरसों बाद पहली बार विश्व पुस्तक मेला देखा और अब गणतंत्र दिवस देखने का सौभाग्य मिला चाहे टीवी के सामने. दसवीं क्लास से कॉलेज ख़त्म होने तक हर साल परेड पर घर परिवार और मित्रों को लेकर जाने का ज़िम्मा जोश से पूरा करती थी. कॉलेज के आख़िरी साल में एन॰एन॰सी॰ की बदौलत ग़ैरिसन ग्राउंड में शामिल होने की याद भी ताज़ा हो गई.

"बादल, बिजली, बारिश
 और महफ़ूज़ घरों में हम
 सैनिक डटे सीमाओं पर
 हर पल रखवाली में व्यस्त"

 "देश महल है मेरा
 सजा सुनहरे कँगूरों से
 मेरा दिल सजदा करता
 नींव की ईंट बने वीरों का"

देश-विदेश के सभी मित्रों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ !!

रविवार, 28 अगस्त 2011

कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन ....

कल की पोस्ट करते वक्त कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन .... 
सब मिल कर गडमड हो गया.... 

अपने एक परिचित मित्र के मित्रों की दास्ताँ ने मन बेचैन कर दिया... 

लड़की 24-25 साल की है .....
28 साल के पति के साथ सालों की दोस्ती के बाद अभी छह महीने ही हुए थे शादी को...  
मस्ती करने गए थे समुन्दर में.... जो महँगी पड़ गई..... 
लड़की के पति बोट के किनारे पर बैठे अपना संतुलन खो बैठे और पीछे की तरफ़ गिर गए .... 
मित्रों ने फौरन निकाल लिया लेकिन रीढ़ की हड्डी को बहुत नुक्सान पहुँचा ......
अस्पताल में इलाज चलते पता चला कि वेजीटेबल स्टेट में हैं... 
लाइफ स्पोर्ट के यंत्र बस निकालने का फैंसला करना है......... 
लड़की अपने मन के भावों को संयत करती हुई बात करती है ... 
लेकिन जाने मन में कैसे कैसे झंझावात चल रहे होगे......!!!  

ऐसे हादसे अतीत की कड़वी यादों में ले जाते हैं..... 
मन अशांत हो जाता है....
मन अशांत हो तो जीवन ढोने जैसा लगता है....
समझो तो जीवन बुलबुले जैसा हल्का और क्षणभुंगुर भी लगता है ..... 

माँ से बात होती है तो मन बच्चे जैसा फिर से सँभलने लगता है .... 
बच्चा सा बन कर पल में रोते रोते फिर से हँसने लगता है.... 

अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियों बार बार याद आती हैं और  मन गुनगुनाने लगता है ...... 



"साँसों का पैमाना टूटेगा, 
पलभर में हाथों से छूटेगा
सोच अचानक दिल घबराया,
ख़्याल तभी इक मन में आया  
जाम कहीं यह छलक न जाए, 
छूटके हाथ से बिखर न जाए
क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ, 
जीवन का मधुरस मैं पी लूँ." 





रविवार, 26 जून 2011

पलाश




लाल फूलों से दहकता पलाश
जैसे पछतावे की आग में जलता हो...
कभी उसने शिव पार्वती के
एकांत को भंग किया था





शांति दूत सा सफेद पलाश
खड़ा मेरे आँगन में ...
कभी निहारती उसे
कभी अपने आप को
वर्षों तक अपने शरीर को उसके आग़ोश में
सरंक्षित रखने की इच्छा जाग उठी ...


बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं  



गुरुवार, 24 मार्च 2011

इंतज़ार है बस
























भरम में खड़े हैं शायद वो चलेंगे साथ दो कदम
तन्हा बुत से बने हैं उस पल का इंतज़ार है बस 
रुके हैं वहीं जहाँ से शुरु किया था सपनों का सफ़र
हो जाए शायद उनपर मेरी सदाओं का कुछ असर 
न हुए न होंगे कभी हमारे थे वो संगदिल सनम
दीवाने हुए थे यकीं था हमें भी मिलेंगे अगले जनम















सब्र कर लिया जब्त कर लिया बहते जज़्बातों को
पर कैसे रोकें दिल की दरारों से रिसते इस दर्द को........! 
                 

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

एक कोशिश



महीनो से ब्लॉग बैराग ले कर उचटते मन को सही राह दिखाने में ब्लॉग जगत के कई मित्रों ने कोई कसर नही छोड़ी... आज अनायास ही मन में लहर उठी, शायद संगीत सुरा का सुरूर ..... चिट्ठाचर्चा पढ़ने लगे और मन में आया कि टिप्पणी देने की बजाए एक पोस्ट ही लिख दी जाए....

"तात्कालिक अवसाद तो व्यस्त होकर दूर किया जा सकता है। लेकिन जब अवसाद का दौर लम्बा चलता होगा तो क्या हाल होते होंगे?" इन पंक्तियों को पढ़ कर लगा कि बेहाल मन को कुछ लिखने का काम देकर कुछ देर के लिए व्यस्त क्यो न कर दिया जाए।

अक्सर हम वक्त को खुली हथेली में लेकर ऐसे बैठे रहते हैं कि एक पल भी हाथ से जाने न पाए ... होता यह है कि हमारी आँखों के सामने ही वह भाप बन कर जाने कहाँ गायब हो जाता है।








ज़िन्दगी की आइस पाइस में एक एक दिन जब रेत की तरह हथेली से निकलता जाता है तो लगता है जैसे लाइफ की छुपम छुपाई में हमारा बहुत कुछ गुम हो गया है तब ज़िन्दगी की खूबसूरती का एहसास होता है और उसे पूरे मन से जीने की कोशिश में जुट जाते हैं.... शायद मौत भी उसी खूबसूरती को पाने के लिए ज़िन्दगी के पीछे पीछे साए की तरह लगी रहती है...

चिट्ठाचर्चा का शुक्रिया जिसके माध्यम से पहली बार गौतम जी का पढ़ने का अवसर मिला . ज़िन्दगी से प्यार करने वाले सिपाही मौत को भी अपना ही एक साथी मानते हैं जो बर्फीली सरहद पर नई नवेली दुल्हन के सपने में खोए पूरन को भी बड़ी चतुरता से वापिस ले आते हैं..गौतम जी की भाषा शैली सरल होते हुए भी अपना गहरा असर छोड़ जाती है।

कभी कभी भावों का ऐसा अन्धड़ चलने लगता है जिसमें शब्द सूखे पत्तों जैसे उड़ते उड़ते दूर जा गिरते हैं जहाँ से उन्हें चुनना आसान नहीं लगता है... फिर भी उन्हें चुनने की एक कोशिश ...... !

सोमवार, 1 अक्टूबर 2007

'जय जवान, जय किसान'


तीन महीने का नन्हा सा शिशु माँ की गोद से छूट कर गाय चराने वाले की टोकरी में गिर गया। भगवान का प्रसाद मानकर चरवाहा खुशी-खुशी बालक को घर ले गया क्योंकि उसकी अपनी कोई सन्तान नहीं थी। माता-पिता ने पुलिस में रिपोर्ट कराई तो बच्चा ढूँढ लिया गया।(इस घटना का मेरे पास कोई प्रमाण नहीँ है,बचपन मेँ नाना जी से सुनी थी) वह बच्चा और कोई नहीं हमारे देश के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री थे जिनका जन्म २ अक्टूबर के दिन हुआ। गाँधी जी का जन्मदिन भी 'गाँधी जयंती' के रूप में हर साल मनाया जाता है।
शास्त्री जी के पिता श्रद्धा प्रसाद एक स्कूल टीचर थे, कुछ समय बाद अलाहाबाद में कलर्क बन गए। लाल बहादुर जब डेढ़ साल के ही थे तो पिता का साया सिर से उठ गया। माँ और बहनों के साथ दादा हज़ारी लाल के पास आकर रहने लगे। गाँव में हाई स्कूल न होने के कारण दस साल के लाल बहादुर को मामा के पास वाराणसी भेज दिया गया , जहाँ हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में पढ़ने लगे। काशी विद्यापीठ मेँ उन्हेँ 'शास्त्री' की उपाधि मिली.
'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले नेता धरती से जुड़े महामानव सादा जीवन, उच्च विचार पर विश्वास करते थे. 17 साल की उम्र से ही गाँधी जी से प्रभावित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम मेँ कूद गए थे. पण्डित नेहरू के निधन के बाद देश की बागडोर शास्त्री जी के हाथ मेँ सौपीँ गई थी. हमारे देश के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप मेँ अपने कार्य काल मेँ उन्होँने अपनी आत्मशक्ति का , दृढ़ निश्च्यी होने का परिचय दिया. रेल मंत्री हुए या गृह मंत्री हुए. राजनीति से जुड़े जीवन की चर्चा करना मेरा उद्देश्य नहीँ है.
मुझे याद आ रहा है कि जब वे 'होम मिनिस्टर' थे तो लोग उन्हेँ 'होम लेस होम मिनिस्टर' कह कर चिढ़ाया करते थे. जब वे रेल मिनिस्टर थे तो रेल दुर्घटना होने के कारण त्याग पत्र दे दिया था. जेल के दिनोँ मेँ एक बेटी की बीमारी पर 15 दिनोँ के पैरोल पर घर आए पर दुर्भाग्यवश बेटी परलोक सिधार गई तो वापिस जेल लौट गए , यह कह कर कि अब बेटी तो रही नहीँ तो रुक कर क्या करेगेँ.
जीवन मेँ आने वाली कठिनाइयोँ ने उन्हेँ अपनी आग मेँ तपाकर खरा सोना बना दिया था. हरी हरी दूब की तरह दिल के नरम और अपनी मीठी मुस्कान से सब का दिल जीत लेने वाले महापुरुष से हम बहुत कुछ सीख सकते हैँ. बड़े से बड़ा तूफान आने पर हरी भरी घास वहीँ की वहीँ रहती हैँ.
शास्त्री जी एक ऐसा ही एक व्यक्तित्व हैँ जिनके पद-चिन्होँ पर चलने की कोशिश रही है.
भारत रतन शास्त्री जी के आंतरिक गुणोँ को याद करके उन पर अमल करने का प्रयास ही उन्हेँ मेरी श्रद्धाजंलि है.

कुछ पंक्तियाँ श्रद्धाजंलि के रूप मेँ शास्त्री जी के नाम :

शहद की धार को देखा जो इक तार सा
मीठा ख्याल आया इक किरदार का ..
शहद की धार या चलते दरिया की धार
देखा उस धार को बहते इक सार सा ..
तस्सवुर उभरता है एक ही शख्स का
सादा सा पुलिन्दा था ऊँचे विचारोँ का ..
चर्चा की, याद किया बस थोड़ा सा
दर्जा देती हूँ मैँ उसे महामानव का ...