Translate

यात्रा वृत्तांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
यात्रा वृत्तांत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 2 मई 2011

खूबसूरत देश का सपनीला सफ़र


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. सफ़र की पिछली (ईरान का सफ़र ,
ईरान का सफ़र , ईरान का सफ़र 3, ईरान का सफ़र 4 )इन किश्तों में अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...

पिछली पोस्ट में उन्मुक्तजी ने शीर्षक बदलने का सुझाव दिया था, असल में हम भी शीर्षक बदलने की सोच रहे थे...यात्रा वृतांत 200-250 शब्दों तक ही रहे, इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी लगा.. होता यह है कि जब यादों का बाँध टूटता है तो फिर कुछ ध्यान नही रहता.....आशीषजी ने राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा व्यक्त की....ज़िक्र करने के लिए तो बहुत कुछ है.... ग़रीबी...शोषण,...अंकुश ... दोहरा जीवन जीने को विवश लोग.... इन सब बातों का ज़िक्र बीच बीच में आ ही जाता है बस उन्हें अनुभव करने की ज़रूरत है.

ईरान पहुँच कर एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी पराए देश में है....तेहरान से रश्त.... रश्त से रामसार की सैर कर आए थे... अब लिडा के मॉमान बाबा को मिलने जाना था ... दावत के लिए उन्होंने पहले ही कह रखा था... अगले दिन कुछ तोहफे और ताज़े फूलों के साथ दोपहर के ख़ाने के लिए वहाँ पहुँचे....पहली बार मिलते ही बड़ी बेटी का ख़िताब दे दिया...लिडा पहले से ही मुझे दीदी कहती ही थी.....ताज़ी चाय..मिठाई..फल अलग अलग तरह चीज़..
सब कुछ मेज़ पर पहले से ही सजा था... उनके एक दोस्त भी आए हुए थे...मि.आसिफ..जिन्हें भारत के मसाले बेहद पसन्द हैं...उन्हें तुन्द (मिर्ची) खाना ही स्वादिष्ट लगता है... दिलचस्प यह था कि सारी बातचीत का अनुवाद लिडा बहुत खूबसूरती से कर रही थी.....जब थक जाती तो चुप रहने को कह देती... सब मुस्कुरा कर रह जाते.. हालाँकि रियाद में बोलने लायक कुछ कुछ फारसी तो सीख ली थी लेकिन फिर भी लम्बी बातचीत के लिए अली या लिडा का ही सहारा था....
वरुण के लिए खास कावियार मँग़वाया गया था... तरह तरह की चीज़ थी... अपने यहाँ की तरह प्याज़ टमाटर का तड़का नहीं था न ही दस तरह के मसाले थे..फिर भी मेज़ पर सजे पकवान मन मोह रहे थे...कभी कभी नए तरीके से पके खाने का भी बहुत अच्छा स्वाद होता है... जितनी मेहनत और दिल से उन्होंने खाना बनाया होगा उससे कहीं ज़्यादा स्वाद लेकर हम सब खा रहे थे और तारीफ़ भी कर रहे थे.... बीच बीच में विजय को याद करके दोनो मातापिता ‘जा ए विजय खाली’ कह देते..मतलब कि यहाँ एक कुर्सी विजय की खाली है... विजय की फ्लाइट हफ्ते बाद की थी, सुनकर दोनों के चेहरों पर मुस्कान आ गई...
खाने के बाद फोटो खिंचवाने का दौर चला और साथ ही अपने देश की हिन्दी फिल्मों की बातें शुरु हुई..कई फिल्मों और हीरो हिरोइन और उनके गीत आज भी याद किए जाते हैं वहाँ ....एक सवाल जो सबसे ज्यादा पूछा जाता है कि 5-6 मीटर लम्बा कपड़ा औरतें कैसे पहनती हैं ... क्या चलने में कोई मुश्किल नहीं होती....अगली पार्टी में साड़ी पहन कर आने का वादा किया.... 

मॉमान बार बार कहतीं मेरी प्यारी बेटियाँ मीनू लिडा 
 


ईरानी माता पिता के साथ, पीछे अली, लिडा, वरुण, विद्युत, मि.आसिफ़, अर्दलान 


सोमवार, 25 अप्रैल 2011

ईरान का सफ़र 3

Source Unknown
ज़िन्दगी के सफ़र के अनुभव ही मेरी धरोहर हैं.... सफ़र के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ सीखा और अपनी यादो में सहेज कर रख लिया......सफ़र की उन्हीं यादों को यहाँ उतारने की हर कोशिश बेदिली से शुरु हुई शायद.. या  बार बार कोई न कोई रुकावट आती रही ज़िन्दगी में.... जिस कारण लिखना मुश्किल होता रहा.. .... हर बार आधे अधूरे सफ़रनामे लिख कर बीच में ही छोड़ दिए...इस बार मन ही मन निश्चय किया कि ब्लॉगजगत के इस विशाल समुन्दर में अपनी ब्लॉग नैया को एक नए विश्वास के साथ उतारना ही है...कोशिश न की तो अफसोस रहेगा....आज उसी कोशिश की शुरुआत है.....बिना आलस , बिना डरे लेखन की पतवार ली और खेने लगे अपनी ब्लॉग नैया को......

हालाँकि कहा जाता है कि किसी भी सफर को समय पर लिखित रूप में दर्ज कर लिया जाए तो अच्छा रहता है...  फिर भी पूरी कोशिश करूँगी कि पुरानी यादों को उसी खूबसूरती से यहाँ सजा सकूँ .....ईरान के सफ़र  की दो पोस्ट लिख चुकी हूँ लेकिन वह तो सिर्फ भूमिका ही थी....विस्तार तो अभी देना बाकि था.... इस  सफ़र का हर सफा खूबसूरत है....  

 मेरे लिए बहुत ज़रूरी है  अपने लोगों को उस देश के आम लोगों के दिल की खूबसूरती दिखाना ...अलग देश, धर्म , जाति, भाषा , खानपान और रहनसहन के दो इंसानों में  कुछ पलों की दोस्ती इतनी प्रगाढ़ हो जाएगी सोचा नहीं था... लेकिन दो दोस्त ही नहीं बने ... दोनों के परिवारों में भी उतना ही प्यार मुहब्बत हुआ...... 


पहली पोस्ट -
मानव मन प्रकृति की सुन्दरता में रम जाए तो संसार की असुन्दरता ही दूर हो जाए। प्रकृति की सुन्दरता मानव मन को संवेदनशील बनाती है। हाफिज़ का देश ईरान एक ऐसा देश है जहाँ प्रकृति की सुन्दरता देखते ही बनती है। सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा। एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया।

दूसरी पोस्ट -
ईरानी लोगों का लखनवी अन्दाज़ देखने लायक होता है. हर बार मिलने पर झुक कर सलाम करते-करते बहुत समय तक हाल-चाल पूछना हर ईरानी की खासियत है. 'सलाम आगा'-सलाम श्रीमान् 'सलाम खानूम'-सलाम श्रीमती 'हाले शोमा चतुरी?'-आपका क्या हाल है? 'खूबी?'-अच्छे हैं, 'शोहरे शोमा खूबी?'- आपके पति कैसे हैं?, 'खानूम खूबे?'- श्रीमती कैसी हैं?', 'बच्चेहा खूबी?'-बच्चे ठीक हैं? 'खेली खुशहाल शुदम'- बहुत खुशी हुई मिलकर 'ज़िन्दाबशी' – लम्बी उम्र हो,

पहली पोस्ट में लिखा था कि विजय ऑफिस के किसी काम से रियाद ही रुक गए थे.. ईरान के लिए पहली बार  विजय के बिना ही  दोनों बेटों के साथ  पहुँची  थी.. तेहरान एयरपोर्ट पर दोस्त अली पहले से ही इंतज़ार में खड़े थे....यहाँ बता दूँ कि अली और लिडा को पहले अपने देश में मिल चुके थे... दोनों की इच्छा थी ताजमहल देखने की ...उस सफ़र के सफ़े को फिर कभी खोलूँगी.....

कार में सामान रख कर निकले अगले सफ़र के लिए.....तेहरान से रश्त 300 किमी की दूरी कार से तय करनी थी.....रास्ते में बर्फबारी हुई तो छह सात घंटे भी लग सकते थे.....हरे भरे पहाड़.... उनमें से निकलती खूबसूरत लम्बी चौड़ी सड़कें.... बीच बीच में लम्बी लम्बी सुर्ंगे... जिनमें से गुज़रते हुए कार की लाइटस ऑन करनी पड़ती थी.... अपना कश्मीर भी कम खूबसूरत नहीं है...लेकिन एक नए अंजान देश की खूबसूरती भी मन मोह रही थी....

रास्ते में छोटे छोटे शहर आए... सड़क के किनारे अलग अलग चीज़ों से सजी दुकानें मन में उत्सुकता जगा रही थीं कि क्या क्या रखा होगा उनमें....अब पहली बार आना हुआ था सो थोड़ी झिझक भी हो रही थी कि पूछें या नहीं.....हम अभी सोच ही रहे थे कि उन्होंने खुद ही बतलाना शुरु किया...

"शीशे और प्लास्टिक की बोतलों में सिरका है और उनमें साबुत लहसुन है... जितना पुराना होगा उतना ही दवा का काम करेगा..फारसी में सिरका को सिरकेह कहते हैं और लहसुन है सीर.. .कुछ बोतलों में अखरोंट और अनार जूस के पेस्ट में बिना गुठली के जैतून हैं"..अखरोट को गेर्दु कहते हैं लेकिन अनार और जैतून हमारी भाषा जैसे ही हैं.... .दिल किया अभी खरीददारी शुरु कर दें...लेकिन कार रुकवाएँ कैसे.... खैर चुपचाप सुन कर मन ही मन कल्पना कर रहे थे करके कि कैसा स्वाद होगा.....

कार में ईरानी गीत बज रहे थे जिन्हें सुनकर दिल और दिमाग को एक अजीब सा सुकून मिल रहा था...हालाँकि बोल कुछ कुछ ही समझ आ रहे थे लेकिन कुल मिला कर ईरानी संगीत ने दिल को छू लिया.....

 सफ़र के नए सफे के खुलने तक  फिलहाल उस सफ़र के दौरान का हमारा सबसे पसन्दीदा गीत सुनिए.....

pouya - safar.mp3





शुक्रवार, 29 मई 2009

रेगिस्तान का रेतीला आँचल



धरती माँ के बेलबूटेदार हरयाले आँचल की अपनी ही सुन्दरता है....खुश्बूदार रंगबिरंगे महकते फूल, तने खड़े छायादार पेड़, आँखों को सुकून देती हरी भरी नर्म दूब धरती के आँचल की निराली छटा है....

अरब पहुँचते पहुँचते धरती के आँचल के रूप रंग दोनो ही बदल जाते हैं.. कहीं लाल तो कहीं सफेद कहीं भूरा सा रेतीला रूप मन को लुभाने लगता है....
दूर तक लम्बी काली सड़क बलखाती चोटी सी लगती है... उस पर लहराती रेत सा दुपट्टा सरक सरक जाता.... जिसे इंसान अपने मशीनी हाथ से एक तरफ सरका देता ....

निगाहें क्षितिज के उस छोर तक जाना चाहती हैं जहाँ आसमान रेगिस्तान की गहराई में डूबता दिखाई
देता है...उसी डूबते आसमान से सूरज कूद कर बाहर निकल आता है....

बिजली की तारों पर नट जैसे करतब दिखाता चलने लगता.... उधर रेत की नटखट लहरें चक्रवात्त सी हलचल करके सूरज को गिराने की भरपूर कोशिश करतीं.... तो कहीं रेत अपनी झोली फैला कर लपकने को तैयार दिखती.....
दौड़ता कूदता थका सूरज कब उस झोली में आ दुबकता ,,,पता ही नहीं चलता...उसी पल दिशाएँ भी शांत सी हो जाती,,, हवा भी थम जाती जैसे रुक रुक कर धीमे धीमे साँस ले रही हो... हम भी अपने सफ़र के खत्म होने और मज़िल तक पहुँचने का इंतज़ार करते करते निढाल से हो जाते लेकिन सहरा में संगीत के मधुर सुर एक नई उर्जा शक्ति देने लगे....!!

सोमवार, 18 मई 2009

अपने वजूद के होने का एहसास एक नई उर्जा भर देती है.

दुबई से निकलते वक्त हमने पति महोदय से कहा कि साउदी के बॉर्डर तक हम ड्राइव करते हैं...लेकिन मना करते हुए खुद ड्राइव करने लगे.... हमने भी बहस न करते हुए चुप रहना बेहतर समझा और दूसरी सीट पर जा बैठे... मन ही मन सोचने लगे कि यह भी एक तरह से ताकत का खेल है......हम क्यों चुप रह गए..फिर सोचा..मौन में भी ताकत होती है.... ज़रा देखे हमारा 'साइलैंस गोल्ड' का काम करता है कि नही.... उधर भी शायद मन में कुछ ऐसी हलचल हो रही थी ......
शहर से बाहर निकलते ही पैट्रोल डलवाने के बाद अचानक कार की चाबी हमें दे दी .....सच में साइलैंस गोल्ड होता है...इस बात को आप भी आजमाइए....
फौरन पति की ताकतवर कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठे..... ताकतवर कार इसलिए कि हमारी कार का इंजन कम पावर का है.... 1.3 सीसी...... और इधर 3.4 ....
हल्का सा पैर दबाते ही 140 की स्पीड..... 140...... 150....160...... हमारा इस तरह से ताकत के नशे में झूमना...... कुछ पल के लिए पति और बेटा दोनो विचलित हुए फिर हमारी विजयी मुस्कान का आनन्द लेने लगे... ......
बेटे ने तो कुछ नही कहा लेकिन विजय धीरे से बोल उठे .... 150 काफी है.... डस्ट स्ट्रोम कभी भी आ सकता था...हमारी मुस्कान थोड़ी फीकी हो गई..... लेकिन कहा मानकर फौरन स्पीड कम कर दी...
उस वक्त जो गाड़ी भगाने का आनन्द आया उसका बयान नहीं कर सकते..... ताकत का नशा ... अपने वजूद के होने का एहसास एक नई उर्जा भर देती है....यही उर्जा शक्ति हमें अपने आपको किसी से भी कमत्तर समझने नहीं देती...

शनिवार, 2 मई 2009

दिल्ली से दुबई






दुबई में हूँ छोटे बेटे के साथ ... जहाँ छोटे बेटे से मिलने की खुशी है वहीँ बड़े बेटे से बिछुड़ने का दुख भी है. माँ बनते ही औरत की बाकि सभी भूमिकाएँ धूमिल होने लगती है. शायद तभी माँ को सबसे ऊँचा दर्जा दिया जाता है. अचानक हिन्दी फिल्म 'औरत' का एक गीत याद आ गया....'नारी जीवन झूले की तरह इस पार कभी उस पार कभी' ....



दिल्ली हवाई अड्डे पर हम दोनों एक साथ अन्दर दाखिल हुए थे लेकिन दोनों को अलग अलग देशों में जाना था. बेटे ने गल्फएयर से बेहरीन जाना था और हमने एयर अरेबिया से शारजाह. दिल्ली ऐयरपोर्ट दाखिल होते ही पहले हमारा काउंटर आया सो हमने फट से अपना सामान बुक करवा दिया. वरुण धीरे धीरे गल्फ ऐयर के काउंटर की तरफ जाने लगा।
अपना सामान बुक कराने के बाद जब हम गल्फएयर के काउंटर पर पहुँचे. तो काउंटर पर बैठे लोग परेशान हो गए कि हम अन्दर कैसे आ गए. सवाल पर सवाल करने लगे. पूरी कहानी कुछ उलझी हुई थी सो बस इतना ही बता पाए कि हम दुबई छोटे बेटे के पास जा रहे हैं और यह बेटा अपने पापा के पास साउदी अरब जा रहा है. उत्सुकता थी सब कुछ जानने की लेकिन पीछे के मुसाफिरों को देखकर जल्दी से वरुण की मन पसन्द सीट दे दी ...
कुछ देर में हम दोनों वेटिंग लॉंज में थे... हम दोनों की ही फ्लाइट गेट न. 9 से जानी थी.... काफी वक्त होने के कारण एक तरफ कोने की कुर्सियों पर जा बैठे... किसी मुसाफिर की आँखें अभी भी भीगी थी तो कोई मोबाइल पर अपने प्रियजनों से बात करता करता रो रहा था... किसी के चेहरे पर अपने बिछुड़ों से मिलने की खुशी थी.... एयरपोर्ट भी एक अजब जगह है जहाँ कुछ लोग मिलते हैं और कुछ लोग बिछुड़ते हैं... आँखें सब की गीली होती हैं.
हम दोनों मुस्कुरा रहे थे...कुछ ज़्यादा ही ... दोनों ही एक दूसरे को दिखाना चाहते थे कि इस विपरीत परिस्थिति में भी हम सामान्य हैं.. कुछ ही देर में वरुण अपनी फ्लाइट की ओर रवाना हो गया...हमारी निगाहें स्क्रीन पर टिकी थीं जहाँ 'डिपार्टड' लिखा देख कर समझ गए कि अब जहाज़ उड़ चुका है. एक घंटे बाद हमारी फ्लाइट थी. बेटे के बिना एक घंटा भारी लगने लगा...ऐसे में डयूटी फ्री शॉप घूम कर वक्त आसानी से कट गया और घोषणा होते ही हम भी जहाज़ की ओर बढ़ गए...
सालों से सफ़र करते हुए भी जहाज़ में दाखिल होते ही दिल कुछ तेज़ी से धड़क उठता है. वरुण के दादाजी ने एक बार अपने पास बिठाकर कहा था कि देखता हूँ कि तुम पूजा पाठ नहीं करती हो लेकिन एक बात मेरी मानना कि महामृत्युंजय मंत्र का पाठ ज़रूर किया करो, सफ़र में चलते हुए तो ज़रूर करना बस तब से हमेशा सीट पर बैठते ही
'महा मृत्युंजय' का पाठ करने लगते हैं...कब आँख लगी पता नहीं चला, लैंडिंग के वक्त ही आँख खुली.
एयरपोर्ट उतरते ही पहले विद्युत को फोन लगाया, उसका हालचाल पूछने की बजाए पहले वरुण के खैरियत से पहुँचने की खबर जाननी चाही. दोस्त 'अर्बुदा' जिसे हम स्लीपिंग ब्लॉगर कहते हैं उसके पति गौरव वरुण को घर ले जा चुके थे. अगले दिन पति आकर ले जाएँगे यह पता लगने पर शांत मन से एयरपोर्ट से बाहर निकली.
बाहर निकलते निकलते आधी रात हो चुकी थी. विद्युत को कह चुके थे कि हम टैक्सी से घर पहुँच जाएँगें. जैसे ही हम टैक्सी स्टैंड तक पहुँचे , हमें फिलीपीनो ड्राइवर, जो 30-35 साल की लग रही थी , उसकी टैक्सी में बैठने को कहा. लेडी ड्राइवर ने बड़ी फुर्ती से हमारा सामान कार में रखा और घर का पता पूछने लगी।
दुबई के उस पार का पता जान कर दूरी के कारण कुछ पल के लिए वह झिझकी लेकिन फिर एक बड़ी मुस्कान के साथ बिस्माल्लाह कह कर टैक्सी स्टार्ट कर दी. टैक्सी 120 की स्पीड पर सड़क पर दौड़ने तो लगी लेकिन लगा कि हवाई जहाज़ के सफ़र में तो हम बच गए ...कहीं ऐसा न हो यह लेडी ड्राइवर हमें ज़मीन पर पटक दे सदा के लिए.... डर तो बहुत रहे थे लेकिन फिर हमने महामृत्युंजय का मंत्र पढ़ना शुरु कर दिया. सोचने लगे शायद देर रात की सवारी की उम्मीद न थी लेकिन अब इतनी दूर जाना पड़ गया.
कुछ देर बाद रहा न गया ,,, आखिर पूछ ही लिया, 'हैलो मिस, आर यू ओके?' 'यस यस मदाम,,,आइ एम ओके...' कुछ देर बाद फिर से अपने आप ही बोल उठी कि चार साल से ड्राइविंग करते हुए उसे कमर में दर्द रहने लगा इसलिए वह वापिस अपने देश लौट जाएगी. सड़क पर दौड़ती टैक्सी की जितनी स्पीड थी उससे कहीं ज़्यादा हमारे दिल की धडकन थी, असल में जब तक हमें ड्राइविंग नहीं आती तब तक तो हम किसी के साथ भी आराम से बैठ सकते हैं लेकिन जब खुद गाड़ी चलाने लगो तो दूसरे पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल लगने लगता है.
खैर अपने घर पहुँच ही गए, बेटा पहले से ही बाल्कनी में खड़ा इंतज़ार कर रहा था, फौरन आकर गले लग गया, (पैर छूना भूल गया और हम गले लगते ही बताना भूल गए) इस बार घर पहले से बहुत साफ सुथरा था बस कपड़े ही कपड़े दिखाई दे रहे थे.
मेरे पहुँचने से पहले डिनर मँगवा लिया था. दोनो ने एक साथ खाना खाया. कुछ ही देर में बेटा चाय भी बना कर ले आया. सारी थकान , सारी चिंता दूर हो गई. अगले दिन बेटे का आखिरी एग्ज़ाम था सो जल्दी ही सो गए कि सुबह कॉलेज छोड़ने जाना है. अगले दिन एक नई दिनचर्या का स्वागत करना था...!

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

तस्वीरों में सफर की कहानी





साउदी अरब में कुछ बड़े बड़े कम्पाउंड छोड़कर अधिकतर घर कुछ इस तरह माचिस की डिब्बी से होते हैं. जिसका कुछ हिस्सा खोलकर धूप और ताज़ी हवा का थोड़ा मज़ा लेने की कोशिश की जाती है.


धूप का एक भी टुकड़ा घर के अन्दर आ जाए तो समझिए कि हम बहुत भाग्यशाली हुए अन्यथा पति की दया पर निर्भर कि किसी दोपहर को धूप लगवाने परिवार को बाहर ले जाएँ.
हमने अपने घर के एक कमरे में जैसे ही सूरज के सुनहरे आँचल को फैलते देखा.... हाथ जोड़कर सर झुका दिया......






नाश्ते में चटकदार रंग के ताज़े फल खाने से पहले तस्वीर लेना न भूलते. हर बार अलग अलग ऐंगल से तस्वीर खींच कर फिर ही खाते.
उसके बाद घर के कोने कोने से यादों की बेरंग धूल को ढूँढ ढूँढ कर साफ करते.
बन्द घर में भी ऐसी महीन धूल कहीं न कहीं से दनदनाती हुई आ ही जाती है... सुबह भगाओ तो दोपहर को फिर आ धमकती है...दोपहर अलसाई सी धूल शाम तक फिर कोने कोने पर चढ़ जाती है.... लकड़ी का कुत्ता जो अम्बाला शहर से कुछ दूर एक गाँव नग्गल की कोयले की एक टाल से लाया गया है, जिसके पैरों तले धूल बिछी पड़ी है...

जिस तरह रेतीली हवाएँ कभी आहिस्ता से आकर सहला जाती हैं तो कभी तेज़ी से आकर झझकोर जाती हैं , उसी तरह हरा भरा पेड़ जब ठूँठ हो जाता है तो दिल को झझकोर डालता है... लगता जैसे पेड़ का अस्थि पंजर अपनी बाँहें फैला कर शरण माँग रहा हो....






जड़ में भी चेतन का अनुभव होता है....
चित्त को चंचल करती इस जड़ को ही देखिए...
आपको क्या दिखता है.....


बस इसी तरह घर भर में डोलते सुबह से शाम
हो जाती. दोनों बेटे तो अपने कमरे में अपनी अपनी पढ़ाई में मस्त रहते. हम कभी मोबाइल पर उर्दू रेडियो का स्टेशन पकड़ने की कोशिश करते तो कभी अंग्रेज़ी और अरबी गाने सुनकर मन बहलाते. किताबें तो आत्मा में उतरने वाला अमृत रस जो जितना पीते उतना ही प्यास और बढ़ती...
एक हाथ में 'दा सीक्रेट' तो दूसरे हाथ में 'वुमेन इन लव' ..... एक रोचक तो दूसरी नीरस....लेकिन पढ़ना दोनो को है सो पढ़ रहे हैं. जल्द ही उस विषय पर कुछ न कुछ ज़रूर लिखेंगे.
सुबह से जलती मोमबत्ती आधी हो चुकी थी ...... लौ का रंग भी गहरा हो गया था .... नई मोमबत्ती की तलाश शुरु हुई ... !
हमें ही नहीं बेटों को भी अपनी अपनी मेज़ पर जलती मोमबत्ती रखना अच्छा लगता है. मन में कई बार सवाल उठता है कि तरह तरह की मोम बत्तियाँ जलाने के पीछे क्या कारण हो सकता है... !!

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

सपनों की नगरी मुम्बई में छह दिन 2 (कुछ बोलती तस्वीरें)

मुम्बई में चलती कार से , होटल की या अस्पताल की खिड़की से ली गई तस्वीरों में से कुछ तस्वीरें त्रिपदम कहें ---














गौर से देखो

अक्स में दिल मेरा

देश में छोड़ा











इतने एसी
कितना प्रदूषण
दिल धड़का
























राह चलते
किताबें खरीदीं थी
सस्ती दो तीन














ध्यान में लीन
कबूतर सोच में
मन मोहता





















गहरा कुँआ
जल-जीवन भरा
मन भी वैसा














प्यारे बालक
देश-प्रेम दर्शाएँ
रिपब्लिक डे










रस्ता देखूँ मैं
कोई मीत मिलेगा
आशा थी बस






देखे किसको
कागा पीठ दिखाए
गीत सुनाए












मीत को पाया
वट-वृक्ष का साया
मन भरमाया

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007

ईरान का सफर (2)

ईरानी लोगों का लखनवी अन्दाज़ देखने लायक होता है. हर बार मिलने पर झुक कर सलाम करते-करते बहुत समय तक हाल-चाल पूछना हर ईरानी की खासियत है. 'सलाम आगा'-सलाम श्रीमान् 'सलाम खानूम'-सलाम श्रीमती 'हाले शोमा चतुरी?'-आपका क्या हाल है? 'खूबी?'-अच्छे हैं, 'शोहरे शोमा खूबी?'- आपके पति कैसे हैं?, 'खानूम खूबे?'- श्रीमती कैसी हैं?', 'बच्चेहा खूबी?'-बच्चे ठीक हैं? 'खेली खुशहाल शुदम'- बहुत खुशी हुई मिलकर 'ज़िन्दाबशी' – लम्बी उम्र हो,
यदि धन्यवाद 'मरसी' कहा जाए तो फिर एक और जुमला सुनने को मिलता है. 'ख्वाहिश मीकोनाम' या 'काबिल न दरे'. कहने का मतलब है कि हर ईरानी आपसे हाल-चाल पूछता पूछता आधा समय गुज़ार देगा और प्यारी सी मुस्कान के साथ झुक कर सलाम करता रहेगा. आप न चाहते हुए भी मुस्कराएँगें और उनके जाने के बाद अपने दुखते गालों को दबाएँगें.
बाज़ार चलते समय हर मिलने वाले को मुस्कुरा कर , झुक कर सलाम करना जैसे एक रिवाज़ है वहाँ. अगर आप भारत के हैं तो बस एक लम्बी सी लिस्ट की चर्चा शुरु हो जाएगी. वे कहाँ-कहाँ जाना चाहते हैं; उन्हें भारत की फिल्में, वहाँ के पहनावे बहुत अच्छे लगते हैं. जल्दी ही आपसे पूछ लेंगे कि यदि आप साड़ी लाएँ हैं तो उनकी बेटी को एक बार पहना कर तस्वीर खींच दें.
किसी के घर जाने पर सबसे पहले काली चाय चीनी के टुकड़े के साथ (जिसे मिशरी नहीं 'गन्द' कहा जाता है) परोसी जाती है.चाय बनाने का भी उनका एक अलग ही तरीका होता है. केतरी(केतली) जिसमे पानी उबाला जाता है और उस पर उससे छोटी कूरी जो केतरी का ही छोटा रूप होता है , रखी जाती है , जिसमे चाय की पत्ती होती है. साथ मे वहाँ की अलग अलग की तरह की मिठाइयाँ और ताज़े फल परोसने का बहुत चलन है. केतरी और कूरी को कश्मीर मे अलग नाम से जाना जाता है , काफी कुछ मिलते-जुलते रिवाज़ और खान-पान हैं. एक व्यंजन है जिसे ईरान में आब ए गुश्त कहा जाता है, कश्मीर मे गुश्ताबा कहा जाता है. कुछ व्यंजनों की कुछ तस्वीरें हैं जिन्हें देख कर किसी के भी मुहँ में पानी आ जाए.













तीन तरह की रोटी जिन्हें बारबरी, संगक और लवश कहा जाता है. कबाब और चावल सबसे प्रिय व्यंजन होते हैं. इसके अलावा हर प्रदेश के अपने अलग-अलग कई व्यंजन होते हैं. केसर और गुलाब जल से बनाई गई मिठाइयाँ इतनी स्वादिष्ट होती हैं कि खाए चले जाओ बस मुहँ में घुलती जाती हैं. भारत का काजू जिसे वहाँ बादाम ए हिन्द कहा जाता है सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. अखरोट डाल कर कई व्यंजन बनाए जाते हैं. कैसपियन सागर की विशेष प्रकार की मछली स्वादिष्ट ही नहीं, सेहत के लिए भी अच्छी होती है. मछली के अण्डे खाने को मिल जाएँ तो और भी अच्छा. हर भोजन के साथ ताजे हरे पत्ते भी खाए जाते हैं. उत्तरी ईरान की खुशमज़ा गज़ा (स्वादिष्ट भोजन) ही नहीं , वहाँ की आबोहवा भी सेहत के लिए बहुत ही मुफीद है. एक बार जाना हो जाए तो बार-बार जाने का मन करता है.



भोजन के बाद संगीत का स्थान आता है. संगीत के प्रेमी बड़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे भी होते हैं. भोजन के बाद जैसे ही संगीत की आवाज़ कानों मे पड़ती है , बच्चे, बूढ़े , जवान सभी के पैर थिरकने लगते हैं. मर्यादा के दायरों में रहकर जीवन की विषमताओं से जूझते हुए कुछ देर के लिए सब कुछ भुला कर जैसे वही कुछ पल जी लेते हैं.










शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2007

ईरान का सफर

(तेहरान से गिलान (रश्त) जाते हुए)


मानव मन प्रकृति की सुन्दरता में रम जाए तो संसार की असुन्दरता ही दूर हो जाए। प्रकृति की सुन्दरता मानव मन को संवेदनशील बनाती है। हाफिज़ का देश ईरान एक ऐसा देश है जहाँ प्रकृति की सुन्दरता देखते ही बनती है। सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा। एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया।

कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जा सकता है। सबसे पहला सुखद अनुभव हुआ रियाद के ईरानी दूतावास जाकर । भारत के प्रति अपना स्नेह दिखा कर उन्होंने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। हमारे देश की पुरानी हिन्दी फिल्में आज भी याद की जाती हैं। राजकपूर की 'संगम' , अमिताभ बच्चन की 'मर्द' , 'कुली' किसी भी विडियो लाइब्रेरी में आसानी से मिल जाती है। आजकल शाहरुख खान के भी बहुत चर्चें हैं.कई लोगों का सपना है कि अवसर मिलने पर वे भारत ज़रूर देखने जाएँगें.मेरे विचार में मध्य-पूर्वी देशों के लोग भी प्रेम और भाईचारे में किसी से कम नहीं हैं बस आगे बढ़कर हाथ मिलाने की देर है फिर देखिए कैसे दोस्ती निभाते हैं ।

ईरान के लिए वीज़ा आसानी से मिल गया । किसी कारणवश पति को रियाद ही रुकना पड़ा । मैं बच्चों के साथ ईरान के सफ़र पर निकल पड़ी। बच्चे भी कम उत्साहित नहीं थे। ईरानी मित्रों के साथ कुछ ऐसा नाता बन गया था जो अपने नज़दीकी रिश्तेदारों से भी बढ़कर था। ईरान की यात्रा से पहले ही अंर्तजाल के माध्यम से हम उस देश के बारे में बहुत कुछ जान गए थे। रियाद के ईरानी दूतावास की अध्यापिका से ईरानी भाषा सीख कर मैं अपने मित्रों को हैरानी में डाल देना चाहती थी।

यात्रा का दिन आ गया । रियाद से तहरान की हवाई यात्रा ३-४ घंटे की ही थी लेकिन उससे आगे ४-५ घंटे का सफर हमें कार से ही तय करना था। विजय के मित्र अली पहले से ही हवाई अड्डे पर हमारा इन्तज़ार कर रहे थे । समय कैसे कट गया , पता ही नहीं चला । जहाज से उतरते ही स्वागत के लिए खड़े एक अफसर ने मुस्कान के साथ हाथ जोड़कर मुझे सिर ढकने के लिए कहा। मैं भूली नहीं थी, बुरका मेरे हैंड बैग में ही था लेकिन यह नहीं मालूम था कि उतरते ही कोई टोकेगा। खैर मैंने तुरन्त अपना दुपट्टा सिर पर ले लिया। इमिग्रेशन से पहले ही मैंने अपना बुरका निकाला जो सालों से मैं रियाद में पहनती आई हूँ । बुरका पहनते ही मैं जैसे आज़ाद हो गई। "जैसा देश, वैसा भेस" उक्ति सोलह आने सच है। जिस देश में हम रहते हैं , उस देश के कायदे कानून को मान देने से ही अपना मान बढ़ता है।

एयरपोर्ट पर सभी अफसरों और कर्मचारियों ने अपने मीठे व्यवहार से हमें अपनेपन का एहसास कराया। ईरान एक सुन्दर देश तो है ही , वहाँ के लोग भी अच्छे मेहमान नवाज़ हैं। समय अच्छा गुज़रे , ऐसी कामना करते हुए अफसर ने पासपोर्टस हाथ में दे दिए और हम सामान की बैल्ट की ओर रवाना हुए। मित्र पहले से ही वहाँ खड़े इन्तज़ार कर रहे थे । सामान लेकर शीघ्र ही कार की ओर चले क्योंकि आगे की यात्रा हमारे लिए रोमांचक थी ।उत्तरी ईरान का गिलान क्षेत्र कश्मीर की तरह पहाड़ी है और जिस रास्ते से हमें गुज़रना था , वह बर्फ से ढका हुआ था। पहली बार हमें इस तरह नज़दीक से बर्फ देखने का मौका मिला था ।

रास्ते में क्वीन पड़ता है जहाँ का ऑमलेट जिसे 'नीम्ब्रू' कहा जाता है, जिसे 'लवाश' नाम की रोटी और काली चाय के साथ परोसा जाता है। 'गज़ा खेली खुशमज़ा हस्त' मेरे बोलने पर मित्र ही नहीं आसपास के लोग भी हैरानी से देखने लगे। माथे पर बिन्दी देखकर पहले ही सब लोग समझ गए थे कि हम 'मुसाफिर ए हिन्द' हैं। दरअसल इस नाम का एक टी०वी० सीरियल उन दिनों चल रहा था, जिसमें भारतीय लड़की बनकर सीता का रोल अदा करने वाली अदाकारा ईरानी ही थी, उसकी बिन्दी से लोगों को पहचान हो गई कि बिन्दी लगाने वाले लोग भारतीय होते हैं, हालाँकि आजकल कई देशों के लोग फैशन के लिए बिन्दी लगाते हैं।

चाय खत्म होते ही १०-१५ 'लवाश' रोटी साथ बाँध कर हम चल पड़े। प्रकृति का यह सुन्दर रूप कुछ अलग ही था। बर्फ से ढके पहाड़ ऐसे लग रहे थे जैसे ईरान की धरती सफेद आँचल से सिर ढके बैठी हो। कहीं कहीं सफेद आँचल पर हरे रंग का 'पैच वर्क' किया हो या यों कहें कि सफेद आँचल पर हरी टाकियाँ लगी हों।

गुरुवार, 30 अगस्त 2007

रियाद के उस पार....




आकाश के आँचल में सोया सूरज अभी निकला भी न था कि हम निकल पड़े अपने नीड़ से। अपने हरे-भरे कोने में खिले फूलों को मन ही मन अलविदा कर के मेनगेट को बन्द किया।
बड़ा बेटा वरूण वॉकमैन और कैमरा हाथ में लेकर पिछली सीट पर बैठा। छोटा बेटा निद्युत अभी नींद की खुमारी में था, फिर भी अपनी सभी ज़रूरत की चीज़ों पर उसका ध्यान था। नींद से बोझिल आँखों में उमंग और उल्लास की लहरें हिलोरें मार रही थी।
बच्चों की प्यारी मुस्कान मेरा मन मोह रही थी। पतिदेव विजय भी सदा लम्बी ड्राइव के लिए तैयार रहते हैं लेकिन दुबई की यात्रा का यह पहला अनुभव था। कब शहर से दूर रेगिस्तान में आ गए पता भी न चला। दूर तक जाती काली लम्बी सड़क पर बढ़ती कार क्षितिज को छूने की लालसा में भागी चली जा रही थी। कुछ ही पल में सूरज बिन्दिया सा धरती के माथे पर चमक उठा और चारों दिशाएँ क्रियाशील हो उठी।
बॉर्डर पर औपचारिकताएँ निभाकर हमने चैन की साँस ली। सोचा अब दुबई दूर नहीं। दुबई देखने की भूख ने पेट की भूख को मिटा दिया था। रेगिस्तान पार करके पहुँचे समुन्दर के किनारे किनारे और आनन्द लेने लगे हरे-भरे दृश्यों का। मैं हमेशा सोचती हूँ कि रेगिस्तान को हरा करके इन्सान ने प्रमाणित कर दिया कि वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता। "चिलचिलाती धूप को भी चाँदनी देवें बना"
आबू धाबी शहर को पार करते ही दुबई का वैभव बाँहें फैला कर स्वागत के लिए खड़ा था। ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ गर्व से सिर उठाए अपने रूप से सबका मन मोह रही थी। जंतर-मंतर की भूल-भुलैया जैसी दुबई की सड़कें जो घुमा-फिरा वापिस एक ही जगह पहुँचा रही थीं। हवाई अड्डे के आसपास ही होटल था लेकिन हम वहाँ पहुँच ही नहीं पा रहे थे।
पेट में चूहे कूदने लगे और हमने करांची रेस्टोरेंट में बैठ कर गोल-गप्पे , भेलपूरी और समोसे का स्वाद लेने का निश्चय किया। नीले आकाश के नीचे खुले में खाने का मज़ा ही अलग आ रहा था। अपने देश की याद आने लगी और गिनने लगे दिन कि कब फिर जाना होगा।
खोज पूरी हुई और हमें दुबई इन्टरनेशनल एयरपोर्ट के पास ही दुबई ग्रैन्ड होटल मिल गया, जहाँ हमारे रहने का प्रबन्ध था। अगले दिन एक ने उल्लास के साथ हम निकले। वन्डरलैन्ड में पहला दिन झूलते-झूलते ही गुज़र गया लेकिन कुछ नया अनुभव नहीं हुआ।


हाँ, दुबई की लम्बी सुरंगों के दोनों ओर प्रकाश की कतारें बरबस एक सुन्दर सजीली दुल्हन की माँग का आभास करा देती थी जिसको अपने कैमरे में कैद करने का मोह हम नहीं छोड़ पाए।
शापिंग सेन्टरों में नया कुछ नहीं था और गोल्ड बाज़ार तो जाने का कदापि मन नहीं था। मन को बाँधा तो ग्लोबल विलेज ने, जहाँ हम दो बार गए। लगभग चौबीस देशों की सांस्कृतिक और व्यापारिक प्रदर्शनी एक साथ देख कर हमने दाँतों तले उंगली दबा ली। सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह थी कि पुलिस के कम से कम प्रबन्ध में सब कुछ शान्ति से चल रहा था। अलग-अलग देशों के लोगों को एक साथ आनन्द लेते देखा तो मन कह उठा कि दुबई अरब देशों का स्विटज़रलैंड है जहाँ दुनिया के कोने-कोने से लोग घूमने आते हैं और मधुर मीठी यादें लेकर आते हैं।
दुबई के ग्लोबल विलेज में रात की चहल-पहल का एक विहंगम दृष्य जिसे जायंट व्हील के ऊपर से अपने कैमरे में कैद किया।
दुबई जाकर कुछ खरीददारी न की जाए यह तो सम्भव नहीं था। हमने भी कुछ न कुछ खरीदा और मित्रों के लिए भी कुछ खरीदा। लेकिन मन में एक कसक रह गई कि एक प्रिय मित्र से मुलाकात न हो पाई। होटल के कर्मचारियों ने किसी के भी फोन आने का सन्देश नहीं दिया कि शारजाह से हमारे किसी मित्र का फोन आया था। शायद हमारी भी गलती थी जो हमने बिना सोचे-समझे निर्णय ले लिया कि हमारा स्वागत न होगा या हम किसी पर बोझ बन कर समय नष्ट करेंगे।
खै़र इस पीड़ा को भुलाने के लिए हमने मनोरंजन का एक नया साधन चुना। भोजन के बाद हमने सोचा कि क्यों न खुले आकाश के नीचे बैठ कर चित्रपट पर एक हिन्दी फिल्म देखी जाए। बच्चों के लिए भी यह एक नया अनुभव था । कार में बैठ कर या बाहर कालीन कुर्सी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जा सकता था। "चोरी-चोरी चुपके-चुपके" फिल्म बच्चों को कम आनन्द दे पाई थी लेकिन आकाश के नीचे बैठ कर लोगों का खाना-पीना और मीठी सी सर्दी में कम्बलों में दुबक कर बैठना उन्हें अधिक अच्छा लग रहा था।
अगले दिन रियाद लौटने की तैयारी होने लगी पर मन दुबई में ही रम गया। होटल के स्विमिंग पूल से बच्चे निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। फिर से आने का वादा कर उन्हें कार में बिठाया किन्तु प्यास अभी भी थी दुबई को सिर्फ चार दिन में देखना सम्भव नहीं था। घूंघट की ओट से जैसे दुल्हन के रूप की हल्की सी झलक देखकर लौट जाना , वैसे ही हम दुबई के रूप की हल्की से झलक देख कर लौट आए, फिर से उसके सौन्दर्य के देखने की लालसा पाल कर।