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बुधवार, 13 मई 2020

पुस्तक से ब्लॉग तक - अनमोल वचन


एक पुस्तक प्रेमी पाठक का कहना था - दूरदर्शन तो आँख को टिकने नहीं देता, किताब की पंक्ति पर तो आँखें रुक सकती हैं , पीछे पलट कर देख सकती हैं , पढ़ते पढ़ते आँखें नम हो जाए तो किताब तो प्रतीक्षा कर सकती है,  दूरदर्शन यंत्र कहाँ करेगा...

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साहित्य देश को गति देता है, उसे जीवन्त बनाने की कोशिश करता है. लेकिन आज के पाठयक्रम में साहित्य
का स्थान नगण्य है, है भी तो कोई पढ़ने वाला नहीं, पढ़े पढाए क्यों..... साहित्य से तो जीवन चलता नहीं, साहित्य तो अब मनोरंजन भी नहीं है.
साहित्य का मनोरंजन योग्य पदार्थ श्रव्य - दृश्य संचार साधनों ने गहरी हंडिया में पका कर भपके से खींच लिया है. मेरा विचार है साहित्य के प्रति चाव अभी भी है, विरल हो ...यह अलग बात है.
किताब की दुकान पर जब लोगो को नई किताब खोजते हुए देखो तो लगता है कि साहित्य के प्रति चाव संस्कार अभी बना हुआ है...

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पुरुस्कार की कामना

जो कुछ तुम करो, उसके लिए किसी प्रकार की प्रशंसा अथवा पुरुस्कार की आशा मत रखो. ज्यों ही हम कोई
सत कार्य करते हैं, त्यों ही हम उसके लिए प्रशंसा की आशा करने लगते हैं . ज्यों ही हम किसी सत कार्य में
चन्दा देते हैं त्यों ही हम चाहने लगते हैं कि हमारा नाम अखबारों मे खूब चमक उठे... ऐसी कामनाओं का फल दुख के अतिरिक्त और क्या होगा.

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इसमें सन्देह नहीं कि 'करने' की अपेक्षा 'कहना' अत्यंत सरल होता है परंतु जो 'कहना' छोड़ कर 'करने' में जुट
जाते हैं ऐसे व्यक्ति इतिहास के उज्ज्वल हस्ताक्षर बन जाते हैं.
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए संत कबीर ने कहा है ----

" कथनी मीठी खाँड सम , करनी विष की लोय
कथनी छड़ करनी करे, विष से अमृत होए !! "

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गुरुवार, 24 मार्च 2011

स्वार्थी मन कुछ कहता है ....


















सुबह की दिनचर्या से फुर्सत पाते ही पहला काम  होता है देश विदेश के समाचार जानना.. ताज़ी खबरों के साथ साथ पुरानी खबरों को दुबारा पढ़ना कम रोमांचक नहीं होता...जिस देश में रहते हैं पहले वहाँ की खबर जानने की उत्सुकता रहती है.
मध्यपूर्व देशों की अशांति देख कर एक अंजाना सा डर लगा ही रहता है कि कभी यहाँ भी ऐसा कुछ हो गया तो क्या करेंगे... कुछ असर तो साउदी अरब पर होना ही था .. असर देखा गया काले लबादो से ढकी 20-30 औरतों पर जो गृह मंत्रालय के बाहर अपने रिश्तेदारों की रिहाई की गुहार लगाने आ पहुँची थीं. कैदी जिस कारण से भी अन्दर हों या बिना ट्रायल सालों से कैद में हों...वह बाद की बात थी....
हैरानी इस बात की थी कि औरतें कानून तोड़ कर घरों से अकेली बाहर निकली थी.  ...जिन्हें अकेले घर से निकलने का अधिकार नहीं है.., ड्राइव करने का हक नहीं है..... उन्हें वोट देने का अधिकार कब मिलेगा, यह तो ऊपर वाला ही जाने.....लेकिन फिर भी उनमें से कुछ निडर औरतें बिना मर्दों के रियाद पहुँच गईं थी. सरकार गुस्से में थी कि बिना किसी इजाज़त के इस तरह धरने पर बैठने की हिम्मत कैसे हुई उन औरतों की. सरकार औरतों की आर्थिक मदद करती है जिनके भी मर्द किसी न किसी कारण जेल में बन्द होते हैं... अधिकतर लोग आतंकवाद से जुड़े होने के शक के कारण ही पकड़े जाते रहे हैं..
इसी तरह की हिम्मत देश के और भी कई इलाकों में देखने सुनने को मिली.. पिछले कुछ सालों से जद्दा में आई बाढ़ के कारण लाखों का नुक्सान हुआ..उससे नाराज़ लोगों ने आवाज़ उठाई कि राजा को इस बारे में कुछ सोचना चाहिए... बेरोज़गारी के कारण घर जुटाना भी एक आम अरबी के लिए बहुत मुश्किल काम है.... उनकी आवाज़ अभी उठी ही थी कि राजा के कान खड़े हो गए....
इतने सालों से जो नहीं हुआ था , आज अरब देशों में हो रही खतरनाक हलचल के कारण हो गया. अमेरिका में इलाज कराने गए किंग ने फौरन मिलियन बिलियन डॉलरज़ लोगों को दिए जाने का एलान कर दिया...खरीदे गए घरों की बाकि बची किश्तें माफ कर दी गई... रीयल एस्टेट्स को नए घर बनाने का आदेश दिया गया..क्यों कि 76% साउदी लोगो के पास रहने के लिए घर नहीं है और हर घर में कम से कम एक तो बेरोज़गार है ही.(यह आँकड़े फेसबुक के ज़रिए निकाले गए थे). बेरोज़गारों को मिलने वाला पैसा  बढ़ा दिया गया..... वेतन दुगुने कर दिए गए...बोनस भी साथ दिया गया....
बन्दर के मुँह में केला देकर कुछ वक्त के लिए तो मदारी उसे अपने बस में कर सकता है लेकिन कब तक....आग तो लग चुकी है.... गर्मी भी महसूस होने लगी है ... बस लपटों के आने का इंतज़ार है...
स्वार्थी मन कहता है पहले अपना हित फिर परहित.... मन ही मन दुआ करते हैं कि अभी यहाँ एक दो साल शांति रहे तो अच्छा है अपने लिए... !

शनिवार, 19 मार्च 2011

विदेश में बसना : चाहत या ज़रूरत









‘’बाऊजी, अब पूरी तरह से चारपाई पर हैं, उनका सब काम बिस्तर पर ही होता है. माताजी जल्दी ही थक जाती हैं. उनका चश्मा भी टूट गया है. बड़का शरारती होता जा रहा है. मेरी तो बिल्कुल नहीं सुनता और बाऊजी के बार बार बुलाने पर ही उनकी बात सुनता है. छोटे की तबियत वैसी ही है, धन्नीराम कम्पाउडर की दवाई से भी कोई असर नहीं हो रहा... आप बस जल्दी से आ जाइए... रूखा सूखा खाकर ही पेट भर लेंगे लेकिन रहेंगे तो एक साथ “

अमर अपनी पत्नी सरोज का ख़त पढ़ कर अतीत की यादों में डूब गया... एक बार पहले भी वह नौकरी छोड़ कर घर वापिस गया था.... दो साल तक कोई नौकरी नहीं मिली थी.... बैंक बैलेंस खत्म होता जा रहा था मुट्ठी से जैसे रेत खिसकती जाती हो.... सब रिश्तेदार जो मदद करने की बात करते थे सब मुँह मोड़ चुके थे.... व्यापार करने की सोची तो हिस्सेदार ने 50,000 लिखा पढ़ी से पहले ही हजम कर लिए थे.... गैस ऐजेंसी लेने की सोची थी तो 10,000 रिश्वत देकर भी काम नहीं बना था.... मजबूरन फिर वापिस आना पड़ा था.

“मेरी प्यारी बन्नो, खुशखबरी मिली कि मुन्नी अपने ससुराल में खुश है, वह अपना मायका भूल गई है...यह तो बड़ी खुशी की बात है... तसल्ली हुई ... अपने बेटे को भी अच्छी नौकरी मिल गई है..अपनी मनपसन्द लड़की से उसने शादी भी कर ली....चलो कोई बात नहीं....बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है.... दोनों खुश रहें बस यही दुआ है. सुना है उसे कम्पनी की तरफ से घर और कार भी मिली है....

अब हम दोनों के बनवास के दिन पूरे हो गए....जैसा तुम चाहती थी....हमारा सपनों का घर भी बन कर तैयार हो गया है...उम्मीद है कि तुमने अपनी पसन्द से उसे सजा भी लिया होगा...”

एक महीने बाद लाल सिंह को खबर मिलती है कि सब कुछ बेच बाच कर बेटा बहू इंगलैंड चले गए..माँ से धोखे से काग़ज़ों पर साइन करवा लिए थे... माँ को गाँव बुआ के पास छोड़ गया...विधवा बुआ जिसकी कोई औलाद नहीं थी ,,,वह खुद ही खस्ताहाल में थी... दोनों औरतें अपनी अपनी किस्मत पर रोतीं दिन गुज़ार रही थी... लाल सिंह को अब नए सिरे से पैसा जमा करने हैं...गाँव के उस घर की कच्ची छत की जगह पक्का लंटर डलवाना है...इस्तीफा देने की बात उसे न चाहते हुए भी भुलानी पड़ी...

परिवार की ज़रूरते इतनी होती हैं कि न चाहते हुए भी अपने घर परिवार से दूर होना पड़ता है... अपने देश में 5000 रुपए महीना की कमाई अगर विदेश में 40,000 रुपए के रूप में मिले तो ज़रूरतमन्द विदेश का ही रुख करेगा...

ऐसी हज़ारों कहानियों का ठिकाना साउदी अरब ही नहीं है...शायद हर वह देश है जहाँ लोग आ बसे हैं अलग अलग कारणों से.... यहाँ सबकी नहीं तो अधिकतर लोगों की यही कहानी है.....’’पेट जो कराए सो थोड़ा”

कुछ लोग गलती से आ बसे तो फिर बुरी तरह से जकड़े गए... घर परिवार होने के कारण खतरा मोल लेने का जोख़िम न उठा पाए.... चुपचाप किस्मत का लिखा मान कर कोल्हू के बैल की तरह परिवार को पालने पोसने में लगे रहे... पैसा कमाना कहीं भी आसान नहीं ... चाहे देश हो या विदेश .... मेहनत मशकत तो हर जगह एक जैसी है.... थोड़ी बहुत सुख सुविधाएँ हर देश के रहन सहन के स्तर के कारण मिल पाती हैं....

जहाँ तक सुख सुविधाओं की लालसा है....उसका कोई पार नहीं...जब भी गाँव जाती हूँ तो वहाँ के लोगों की नज़र शहर की ओर होती है...स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे इसी इंतज़ार में अपनी पढ़ाई खत्म करने के लिए बेसब्र हुए जाते हैं कि कब वे शहर जा पाएँगे क्योंकि उनके मातापिता की भी यही चाहत होती है.... शहर में आकर ऐसे परिवार दिखते हैं जो बच्चों को विदेश भेजने की तैयारी में जुटे हैं....बुढ़ापे में चाहे वही फिर अपने बच्चों को कोसने से भी नहीं हिचकते..... यहाँ विदेश में दिखता है कि ज़्यादातर लोगों में दुनिया के अलग अलग देशों में जाने की होड़ सी लगी है.....

विदेश में रहना किसी के लिए ज़रूरत हो सकती है...किसी के लिए चाहत हो सकती है..... इस बात को भी नहीं नकार सकते कि किस्मत का भी कुछ न कुछ हाथ तो होता ही है.....कुछ लोग न चाह कर भी विदेश में रह रहे हैं...और कुछ चाह कर भी विदेश नहीं जा पाते...इसे शायद “अन्न जल की माया” कहते हैं.....

ऐसे में अगर कोई यह कह दे कि आपको तो अपने देश से प्रेम ही नहीं है, विदेश में ठाठ से रहिए तो दिल दर्द से सुलगने लगता है...!

बुधवार, 6 अगस्त 2008

प्रेम चमकते हीरे सा.. !













प्रेम का भाव, उस भाव के आनन्द की अनुभूति...इस पर बहुत कुछ लिखा गया है.. अक्सर बहस भी होती है लेकिन बहस करने से इस विषय को जाना-समझा ही नही जा सकता ... केवल प्रेम करके ही प्रेम को जाना जा सकता है।
प्रेम करते हुए ही प्रेम को पूरी तरह से जाना जा सकता है... नदी में कूदने की हिम्मत जुटानी पड़ती है तभी तैरना आता है ... प्रेम करने का साहस भी कुछ वैसा ही है.. किसी के प्रेम में पड़ते ही हम अपने आप को धीरे धीरे मिटाने लगते हैं...समर्पण करने लगते हैं..अपने आस्तित्त्व को किसी दूसरे के आस्तित्त्व में विलीन कर देते हैं... यही साहस कहलाता है...
प्रेम का स्वरूप विराट है...उसके अनेक रूप हैं... शिशु से किया गया प्रेम वात्सल्य है जिसमे करुणा और संवेदना है तो माँ से किया गया प्रेम श्रद्धा और आदर से भरा है...उसमें गहरी कृतज्ञता दिखाई देती है... यही भाव किसी सुन्दर स्त्री से प्रेम करते ही तीव्र आवेग और पागलपन में बदल जाते हैं.. मित्र से प्रेम का भाव तो अलग ही अनुभूति कराता है, उसमें स्नेह और अनुराग का भाव होता है...
प्रेम के सभी भाव फूलों की तरह एक दूसरे से गुँथे हुए हैं...हमारा दृष्टिकोण , हमारा नज़रिया ही प्रेम के अलग अलग रूपों का अनुभव कराता है।

मेरे विचार में प्रेम चमकते हीरे सा समृद्ध है.... कई रंग हैं इसमें और कई ठोस परतें हैं . हर परत की अपनी अलग चमक है जो अदभुत है... अद्वितीय है !!!

(घुघुतीजी के स्नेह भरे आग्रह का परिणाम है यह पोस्ट... प्रेम भाव को शब्दों का रूप देने के लिए वक्त चुराना पड़ा नहीं तो इस वक्त हम कोई ब्लॉग़ पढ़ रहे होते )

सोमवार, 26 नवंबर 2007

नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !



मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.
कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.
फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.
फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.
अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.
अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.
शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ.
मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'
माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.
अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.

http://es.youtube.com/watch?v=CRr9eubXo68&feature=related

http://es.youtube.com/watch?v=e5n78sw8t9Q&feature=related

(ईरानी फिल्म 'मिम मिसले मॉदर' के छोटे छोटे दो क्लिपस हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे. यहाँ भाषा नहीं लेकिन भाव आप ज़रूर अनुभव कर पाएँगें.)