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रविवार, 2 जून 2013

माथे पर सूरज

माथे पर सूरज का टीका सजा कर
रेगिस्तानी आंचल से मुंह को छिपा कर
मुस्काई सब दिशाओं को गरमा कर
अपनी ओर झुके आकाश को भरमा कर
तपते रेतीले टीलों के उभार को छिपा कर
तपती धरती सोई न अपनी पीड़ा दिखा कर

तारों से चमकती मांग निशा की
चदां संग में लाया ।
तपती धरती को अपनी
शीतलता से सहलाया ।
रात की रानी ने धरती का
तन जो महकाया
अंगड़ाई लेकर हरसिंगार का आचंल ढलकाया ।।

मनमोहिनी माया का मनमोहक रूप 
जो मैंने देखा ।
मदमस्त पवन सी संग मैं खेलूं उसके
मेरा भी मन ललचाया ।

पर देखूं 
बिन बुलाए मेहमान सी गर्म हवा ने आकर
पांव पसारे अपना प्रभुत्व जमा कर ।
उगंली थामे धूल महीन जो आई 
उसने भी रौब जमाया सारे घर में छाकर ।
अपने होने का एहसास खूब जताया
मुस्काई घर के हर कोने कोने जा कर ।

तेज़ रेतीली हवाएं छेड़ाख़ानी करती 
दरवाज़ा खटका कर ।
धीमे से आती नींद की रानी 
छुप जाए घबरा कर ।
पांव पटकती गरमी ठण्डक पा जाती 
मुझको बेचैनी में पाकर ।।

बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा



मंगलवार, 8 जुलाई 2008

बादलों की शरारत

खिलखिलाती धूप से
बादलों ने छेड़ाखानी की
धरा की ओर दौड़ती किरणों का
रास्ता रोक लिया ....
इधर उधर से मौका पाकर
बादलों को धक्का देकर
भागी किरणें...
कोई सागर पर गिरी
तो कोई गीली रेत पर
हाँफते हाँफते किरणों ने
आकुल होकर छिपना चाहा ....
बादलों की शरारत देख
लाल पीली धूप तमतमा उठी
अब बादलों की बारी थी
दुम दबा कर भागने छिपने की
चिलचिलाती धूप से छेड़ाखानी
मँहगी पड़ी
अपने ही वजूद को बचाने की
नौबत आ पड़ी.... !

शनिवार, 5 जुलाई 2008

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..!

गन्दे लोगों से छुड़वाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ...
खत पढ़कर घर भर में छाया था मातम....

पापा की आँखों से आँसू रुकते थे....
माँ की ममता माँ को जीते जी मार रही थी ....

मैं दीदी का खत पढ़कर जड़ सी बैठी थी...
मन में धधक रही थी आग, आँखें थी जलती...
क्यों मेरी दीदी इतनी लाचार हुई...
क्यों अपने बल पर लड़ पाई...

माँ ने हम दोनों बहनों को प्यार दिया ..
पापा ने बेटा मान हमें दुलार दिया....
जूडो कराटे की क्लास में दीदी अव्वल आती...
रोती जब दीदी से हर वार में हार मैं पाती...

मेरी दीदी इतनी कमज़ोर हुई क्यों....
सोच सोच मेरी बुद्धि थक जाती...

छोटी बहन नहीं दीदी की दीदी बन बैठी...
दीदी को खत लिखने मैं बैठी..

"मेरी प्यारी दीदी.... पहले तो आँसू पोछों...
फिर छोटी की खातिर लम्बी साँस तो खीचों..
फिर सोचो...
क्या तुम मेरी दीदी हो...
जो कहती थी..
अत्याचार जो सहता , वह भी पापी कहलाता...
फिर तुम.....
अत्याचार सहोगी और मरोगी...
क्यों .... क्यों तुम कमज़ोर हुई...
क्यों... अत्याचारी को बल देती हो....
क्यों.... क्यों... क्यों...

क्यों का उत्तर नहीं तुम्हारे पास...
क्यों का उत्तर तो है मेरे पास....

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....

दीदी बनके खत लिखा है दीदी तुमको...
छोटी जानके क्षमा करो तुम मुझको....

सोमवार, 22 अक्टूबर 2007

करुणा भर दो !



पृथ्वी के होठों पर पपड़ियाँ जम गईं
पेड़ों के पैरों मे बिवाइयाँ पड़ गईं.

उधर सागर का भी खून उबल रहा
और नदियों का तन सुलग रहा.

घाटियों का तन-बदन भी झुलस रहा
और झीलों का आँचल भी सिकुड़ रहा.

धूप की आँखें लाल होती जा रहीं
हवा भी निष्प्राण होती जा रही.

तब

अम्बर के माथे पर लगे सूरज के
बड़े तिलक को सबने एक साथ

निहारा ---
और उसे कहा ---
काली घाटियों के आँचल से
माथे को ज़रा ढक लो .
बादलों की साड़ी पर
चाँद सितारे टाँक लो

और फिर

मीठी मुस्कान की बिजली गिरा कर
प्यार की , स्नेह की वर्षा कर दो

धरती को हरयाले आँचल से ढक दो
प्रकृति में, इस महामाया में करुणा भर दो .....!

बुधवार, 10 अक्टूबर 2007

निराश न हो मन।

अकेला ही चलना होगा जीवन-पथ पर
अकेला ही बढ़ना होगा मृत्यु-पथ पर।।
निराश न हो मन।

इस दुनिया में भटक रहा तू व्याकुल होकर
रिश्तों के मोह में उलझा तू आकुल होकर
उस दुनिया में जाएगा तू निष्प्राण होकर
नवरूप पाएगा प्रकाशपुंज से प्रकाशित होकर
निराश न हो मन।

जननी ने जन्म दिया स्नेह असीम दिया
रक्त से सींचा रूप दिया आकार दिया
बहती नदिया सा आगे कदम बढ़ा दिया
ममता ने मुझे निपट अकेला छोड़ दिया
निराश न हो मन।

जन्म के संगी साथी मिल खेले हर पल
जीवन के कई मौसम देखे हमने संग-संग
पलते रहे हम नया-नया लेकर रूप-रंग
बढ़ते-बढ़ते अनायास बदले सबके रंगढंग
निराश न हो मन।

नवजीवन शुरू हुआ जन्म-जन्म का साथी पाकर
नवअंकुर फूटे, प्यारी बगिया महकी खुशबू पाकर
हराभरा तरूदल लहराया, मेरे घर-आंगन में आकर
जीवन-रस को पर सोख लिया पतझर ने आकर
निराश न हो मन ।

(निराशा के दिनों में लिखी गई रचना अनुभूति में छ्पी )

रविवार, 7 अक्टूबर 2007

किनारे से लौट आई

समुद्र में दूर तक तैरना चाहा 
लहरों से दूर तक खेलना चाहा 
पर किनारे से लौट आई। 
वारिधि की गहराइयों में उतरना चाहा 
भँवरों में उसकी डूबना चाहा 
पर किनारे से लौट आई। 
रत्नाकर की गर्जना को सुनना चाहा 
सिन्धु तल की थाह को पाना चाहा 
पर किनारे से लौट आई। 
सागर में रवि को उतरते देखना चाहा 
चन्द्र-किरणों औ' लहरों से मिल खेलना चाहा
पर किनारे से लौट आई। 
उसके प्यार की गंभीरता को परखना चाहा
अपने आसितत्त्व को उस पर मिटाना चाहा 
पर किनारे से लौट आई।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

वासन्ती वैभव


वात्सल्यमयी वसुधा का वासंती वैभव निहार
गगन प्यारा विस्मयविमुग्ध हो उठा।
धानी आँचल में छिपे रूप लावण्य को
आँखों में भर कर बेसुध हो उठा।

सकुचाई शरमाई पीले परिधान में
नवयौवना का तन-मन जैसे खिल उठा।
गालों पर छाई रंग-बिरंगे फूलों की आभा
माथे पर स्वेदकण हिमहीरक सा चमक उठा।

चंचल चपला सी निकल गगन की बाँहों से
भागी तो रुनझुन पायल का स्वर झनक उठा।
दिशाएँ बहकीं मधुर संगीत की स्वरलहरी से
मदमस्त गगन का अट्ठहास भी गूंज उठा।

महके वासंती यौवन का सुधा-रस पीने को
आकुल व्याकुल प्यासा सागर भी मचल उठा।
चंदा भी निकला संग में लेके चमकते तारों को
रूप वासंती अम्बर का नीली आभा से दमक उठा।

कैसे रोकूँ वसुधा के
जाते वासंती यौवन को
मृगतृष्णा सा सपना सुहाना
सूरज का भी जाग उठा
पर बाँध न पाया रोक न पाया
कोई जाते यौवन को
फिर से आने का स्वर किन्तु
दिशाओं में गूंज उठा ।।