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मंगलवार, 21 जून 2011
'हरी मिर्च' के साथ 'स्वप्न मेरे' बन गए यादगार पल
सोमवार, 30 मई 2011
चिट्ठाकारों को शत-शत प्रणाम (बदलाव के साथ)
यह उन दिनों की पोस्ट है जब हमने अभी नया नया ब्लॉग ही बनाया था... 28 सितम्बर 2007 की लिखी इस पोस्ट में कई ब्लॉग मित्रों का ज़िक्र है लेकिन लिंक करने की तकनीक नहीं जानती थी...शुरुआती दौर की कुछ पोस्ट पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्यों न लिंक लगा कर इस पोस्ट को फिर से पब्लिश कर दिया जाए... लेकिन एक ब्लॉग मेरे लिए पहेली बन गया..समझ नहीं आया कि किसका ब्लॉग होगा इसलिए लिंक करने में असमर्थ हूँ. संजीवजी का आवाज़.....अगर आपमें से कोई पहचान ले तो बहुत अच्छा हो.....
अनिल रघुराज जी का लेख "हिचकते क्यों हैं, लिखते रहिए' पढ़कर आशा की किरण जागी कि "ब्लॉगिंग मिसफिट लोगों का जमावड़ा" नहीं है। हाँ कुछ सीमा तक बात सत्य हो सकती है क्यों कि जो पहले से ही इस क्षेत्र में अनुभव प्राप्त किए हुए हैं, वे ज़्यादा जानकार हैं । अपने बारे में यह कह सकती हूँ कि आसपास मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं, पति को शिकार बनाती , लेकिन उन पर भी प्रभू की बड़ी कृपा है। बच्चों की पढ़ाई के कारण या कहिए उनका सौभाग्य कि हम दोनों अलग- अलग देशों में हैं। अनुभव होने लगा कि सुपर वुमेन बनते बनते घर के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही है सो अध्यापन का मोह त्याग कर ईमानदारी से घर-गृहस्थी का काम सँभालने का निश्चय किया।
दोनो बेटे अपनी अपनी दुनिया में मगन , पति को काम का नशा , अब सोचिए नारी मन पर क्या बीतेगी जो बात करना चाहे , पर कोई सुनना न चाहे। नई पोशाकों पर , नए आभूषणों पर, नए नए पकवानों पर बात करने वालों की कमी नहीं पर मन का क्या जो अपनी मन-पसंद की बात करना चाहता है। डायरी पर लिखना ऐसा जैसे गूँगे से बात करना । न प्रशंसा , न आलोचना ।
मानव प्रकृति ऐसी है जो मरते दम तक कुछ नया जानने सीखने की इच्छा रखता है। "हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं।" (अनिल रघुराज) हर पल की जानकारी पाना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है या कहिए अधिकार भी है। " तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।"(अनिल रघुराज) शत प्रतिशत सच है। कम से कम मेरे लिए तो ब्लॉगिंग सफल थैरेपी है।
ब्लॉगिंग से पहले मन विचलित रहता था। बीस साल पति के साथ रियाद में रही जहाँ बाहर के काम अक्सर घर के पुरुष ही करते हैं लेकिन दुबई आकर हर तरह से मुझे पति और बच्चों के पिता के उत्तरदायित्व भी निभाने पड़े ।अतीत की यादें पीछा न छोड़तीं। घर के काम अधूरे मन से होते तो अपराध बोध सताता । अब स्थिति अलग है। सुबह ६ बजे से रात ११ बजे तक के काम बँध गए। किस्सा कुर्सी का है कि बाकि काम खत्म करके शीघ्र ही कुर्सी पर आ जमो और लेखन लोक में आनन्द से विचरो। सच मानिए पहले कभी फुर्सत ही नहीं थी कि जाना जाए कि ब्लॉगिंग का सही अर्थ क्या है। पति वर्ड प्रेस पर एक ब्लॉग बनाकर बोले थे कि कुछ लिखो तब समय नहीं था या कहिए इस बारे में गंभीरता से सोचा भी नहीं था।
चिट्ठाजगत में हर दिन नए नए विषय उपलब्ध हैं। मेरे लिए तो ऐसा है जैसे बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन एक साथ परोस दिए हों। समीर जी का लेख "गुणों की खान- मोटों के नाम" हास्य के साथ-साथ हौंसला दे देता है। "जाओ तो ज़रा स्टाईल से " पढ़ कर लगा कि हम अकेले ही नहीं है ऐसी बात करने वाले।
ईरान गए अपनी ईरानी सखी के पिता के चालीसवें पर , कब्रिस्तान की खूबसूरती देखकर अपनी विदाई का इंतज़ाम करने के लिए पूछ ही लिया कि क्या हम भी थोड़ी सी ज़मीन खरीद सकते हैं तो पता चला कि उनके पिताजी को उनकी बहन ने अपने नाम की जगह दी थी। सखी गुस्से से मेरी ओर देख कर बोली थी, 'तू बीशूर हस्त' । मैं सच में जानना चाहती थी लेकिन मुझे 'क़फेशोद' कह कर चुप करा दिया। जब इस बात की चर्चा परिवार और मित्रों में हुई तो हमें सनकी पुकारा गया। चिट्ठा जगत में कोई रोक-टोक नहीं , अपनी भावनाओं को दिखाने का पूरा अवसर मिलता है।
अब तो ऐसा लगता है जैसे अंर्तजाल आभासी दुनिया का दीवान-ए-आम है। जहाँ रोज़ सभा में कोई भी आकर बैठ सकता है । विचारों के आदान-प्रदान का स्वागत होता है। एक टिप्पणी मिलने की देर है आपको ढेरों रचनाएँ पढ़ने का अवसर मिल जाएगा।
अभी कुछ देर पहले मेरी रचना पर टिप्पणी करने वालों के चिट्ठे पर जाना हुआ। श्री हरे प्रसाद उपाध्याय के चिट्ठे में लेख 'कवि एथुदास' पढा , बस कुछ पंक्तियाँ मन को छू गईं - "मान-सम्मान और स्थापित होने की चिंता में तुम अमानवीय होकर रह गये हो। दिन-रात अपना झंडा गाड़ने की फिराक में लगे तुम कितने हास्यास्पद हो गये हो, इसका पता भी है तुझे! चिड़िया, फूल, पत्ते सबसे तुम जुड़े, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा साथ लेकर। महत्वाकांक्षा लेकर प्यार नहीं किया जाता कवि। समर्पण के साथ प्यार होता है। खुद को मिटाना पड़ता है। और तुम हो कि दुनिया को मिटाना चाहते हो खुद के लिए।"
संजीँव जी के ब्लॉग 'आवाज़' में लेख "दुनिया को जीत लेने का जज्बा रखने वाला शख्स जिंदा लाश बन गया है" पढ़ा। उन्हें कैसे बताऊँ कि इस रोग के कई मरीज़ देवेन्द्र जी से भी बुरी स्थिति में है।
डिवाइन इंडिया ब्लॉग में दिनकर जी की एक सुंदर पंक्ति पढ़कर मन में कुछ करने की ललक जाग उठी।
"इच्छा है, मैं बार-बार कवि का जीवन लेकर आऊँ,
अपनी प्रतिभा के प्रदीप से जग की अमा मिटा जाऊँ॥"
संजीत जी 'आवारा बंजारा ब्लॉग में 'कुछ अपनी' में एक ही क्लिक से अपने देश के बारे में इतना कुछ पढ़ने को मिल गया कि आनन्द आ गया।
अभिनव जी की निनाद गाथा में रेडिया सलाम नमस्ते सुनकर तो हम दंग रह गए। पारुल जी ने अपने लेखन से ही नहीं अपनी मधुर आवाज़ से भी मन जीत लिया। अर्बुदा की कविता में छायावाद का सुन्दर रूप दिखने पर युनिवर्सिटी के पुराने दिन याद आने लगे जब कवि जयशंकर प्रसाद की कविताओं का पाठ किया करते थे। देवाशीष जी की बुनो कहानी में जाकर कहानी लिखने का पुराना शौक जाग उठा। यही नहीं वहाँ सभी लिखने वालों को पढ़ा । लगा कि अभी बहुत कुछ जानना सीखना है।
संजय पटेल जी का लेख 'फब्तियाँ कसने वाले भूल जाते हैं कि जीत दिलाने वाला एक मुसलमान भी है' पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। "राजनीति से जितना दूर रहें..वही बेहतर है आज के माहौल में... लेकिन गर हर आदमी यही सोचेगा तो भी कुछ भला नहीं होने वाला है...कीचड़ साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ही होगा" राजीव तनेजा जी की टिप्पणी ने ही सोचने पर विवश कर दिया कि किसी हद तक हम भी दोषी हैं।
यतीष जैन जी का क़तरा-क़तरा में कई अच्छी कविताओं ने मन पर निशाँ छोड़ दिए उनमें से 'खाली है पोस्ट' अच्छा हास्य व्यंग्य है और हम सब को संदेश भी मिलता है कि ज़ीरो को चिड़ाने का अवसर नहीं देना चाहिए। शास्त्री जी का सारथी ही नहीं , उनसे जुड़े कई चिट्ठों से दुनिया भर की जानकारी मिलती है।
मन मेँ उठे भाव तो उन्हें आपके साथ बाँट लिया अगर बेकार लगें तो पढ़ना बन्द कर दें पर नाराज़ न हों।
मंगलवार, 15 मार्च 2011
ब्लॉग जगत के सभी नए पुराने मित्रों को प्रणाम !
मानव प्रकृति ऐसी है कि एक बार जिससे जुड़ जाए फिर उससे टूटना आसान नहीं होता चाहे फिर 7 महीने और 10 दिन का अंतराल ही क्यों न आ जाए.... इससे पहले भी लम्बे अंतराल आए लेकिन घूम फिर कर फिर आ पहुँचते इस विराट वट वृक्ष की छाया तले..... जड़े गहरी हैं... शाखाएँ अनगिनत...हर बार नन्हीं नन्हीं नई शाखाएँ उभरती दिखाई देतीं.... पुरानी और भी मज़बूत होती , जड़ों से जुड़ती दिखती हैं.....
आजकल एकांतवास में हैं...सहेज कर रखे हुए अपने ब्लॉग को एक अरसे बाद जतन से खोला....एक अजब सा भाव मन को छू गया.....उदास , ख़ामोश और खाली खाली सा लगा.... पहले सोचा वादा करते हैं कि अब नियमित आते रहेंगे, फिर सोचा नहीं नहीं.... अगर न पाए तो....... कितनी बार ऐसा हो चुका है कि नियमित होने का वादा निभा नहीं पाए......
जब भी मौका मिलेगा ज़िन्द्गी के इस सफ़र की छोटी छोटी यादों का ज़िक्र करने आते रहेगे.....
मंगलवार, 1 जून 2010
काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता
ज़रूरी नहीं कि जो कहते नहीं,,,बोलते नहीं... या ब्लॉग पर लिखते नहीं...उन्हें समाज में हो रही घटनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता.... सब अपने अपने तरीके से उन घटनाओं के प्रति अपने भाव प्रकट करते हैं...उन घटनाओं को देखते सुनते हुए कभी मौन धारण कर लेते हैं तो कभी बहस और वाद विवाद करने लगते हैं. कभी वही विवाद किसी ‘वाद’ का बदसूरत रूप लेकर चारों तरफ अशांति फैला देते हैं...
कुछ विदेशी दोस्तों ने नक्सलवाद के बारे में पूछा तो विकीपीडिया का लिंक भेज दिया लेकिन खुद भी पढने बैठ गए... अचानक अपने देश के नक्शे पर नज़र गई तो फिर हटी नही...... जिस तरह से लाल,पीले और संतरी रंगों से नक्सलवाद के छाए आंतक को दिखाया गया था उसे देख कर एक अजीब सा दर्द महसूस होने लगा....
नक्शा घायल शरीर जैसा दिखने लगा..... नक्शे पर फैले लाल पीले रंग को देख कर लगने लगा जैसे ज़ख़्म हों जो नासूर बन कर रिस रहे हों.......घाव इतने गहरे लग रहे थे जैसे कि उनका इलाज सम्भव ही न हो.....समूचा वजूद तेज़ दर्द की लहर से तड़प उठा.....
अचानक नादान मन सोचने लगता है ....काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता तो कितना अच्छा होता.....‘वाद’ शब्द ही नहीं होगा तो फिर किसी तरह का कोई विवाद खड़ा न हो सकेगा... बेकार की बहसबाज़ी न होगी.....दलबाज़ी और गुटबाज़ी न होगी.... झग़ड़ा फ़साद न होगा... मासूमों का ख़ून न बहेगा... नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद, पूँजीवाद , समाजवाद जातिवाद आदि का झगडा भी नही रहेगा.........!
सबसे खास बात होगी अपने देश का नक्शा घायल जैसा न दिखेगा....!!!!
शनिवार, 29 मई 2010
गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड है
इस पोस्ट का शीर्षक फुरसतिया ब्लॉग़ की पोस्ट ‘एक ब्लॉगर की डायरी’ से लिया गया है. नेट की परेशानी के कारण कुछ रचनाओं के प्रिंट आउट करवा कर पढ़ते हैं सो फुरसतिया पोस्ट को तो फुरसत होने पर ही पढ़ा जा सकता है.. पढती जा रही हूँ और सोचने के लिए कई विषय मिलते जा रहे हैं...
सबसे रोचक लगा ‘गुस्सा डीलर’ के बारे मे जानकर.... जब पढ़ा कि गुस्सा बुद्धि का आइडेंटिटी कार्ड हो गया है तब से सोच रहे हैं कि जितना गुस्सा कम, उतनी बुद्धि कम .... अब क्या करें कैसे उबाल आए कि हम भी बुद्धिजीवी बन जाएँ एक दिन में... गुस्सा होने की लाख कोशिश करने लगे...... पहले अपने ही घर से शुरु किया....पति शाम को ऑफिस से आते हैं...जी चाहता है कि बाहर घूम आएँ ...ताज़ी हवा में टहल आएँ ...इंतज़ार करने लगे कि आज तो बाहर बाहर से ही निकल जाएँग़े...आदत से मजबूर दरवाज़ा खोल दिया...मुस्कुरा कर स्वागत भी किया... हम कुछ कहते उससे पहले ही महाशय के चेहरे पर मन मन की थकावट देख कर चुप रह गए ... गुस्सा भी अन्दर ही अन्दर मन मसोस कर रह गया कि थके मानुस को क्यों परेशान करना....
बच्चों की बारी आई... उन पर आजमाना चाहा ...युवा लोग तो वैसे भी बुर्ज़ुगों के कोप का निशाना बने ही हुए है....दोनो बच्चे दुबई में हैं..अकेले रहने का पूरा मज़ा ले रहे हैं... दो दो दिन बीत जाते हैं बात किए हुए...आधी आधी रात तक घर से बाहर होते हैं लेकिन न जाने चिल्ला नहीं पाते कि शादी हो जाएगी तब तो बिल्कुल नहीं पूछोगे.... अभी से यह हाल है....फोन किया...बात सुनी..छोटे ने कहावत एक बार सुनी थी नवीं या दसवीं की हिन्दी क्लास में कि ‘बेटा बन कर सबने खाया बाप बन कर किसी नहीं’ बस तो ऐसा मीठा बन जाता है कि प्यार आने लगता है....गुस्सा कहाँ आता... बल्कि सोचने लगेगी कि यही वक्त है उनका मस्ती करने का..क्या करते हैं, कहाँ जाते हैं इतनी खबर ही बहुत है....
दोस्तों और रिश्तेदारों की बारी आई....कोई तो भला मानुस हो जो गुस्सा दिलवा दे ताकि बुद्धिजीवी होने का सपना इसी जन्म मे पूरा हो सके.... स्काइप, जीमेल, फेसबुक आदि पर कई रिश्तेदार और दोस्त होते हैं जो नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं......हरी बत्ती हो तो बड़ों को नमस्कार कर देते हैं लेकिन छोटों की नमस्ते का इंतज़ार करते ही रह जाते हैं... किसी को मेल की...उसके जवाब के इंतज़ार में कई दिन बीत जाते हैं...सोचते रह जाते हैं कि काश गुस्सा आ जाए... दिल कहता है किसी को मेल का जवाब देने के लिए जबरदस्ती थोड़े ही कर सकते हैं. ब्लॉग़जगत के बारे में सोचने लगे... वहाँ अपनी बिसात कहाँ ..... सभी बुद्धिजीवी हैं...उनके पास तो बहुत गुस्सा है...और बुद्धि भी.... या कहूँ कि बहुत बुद्धि है इसलिए गुस्सा है... अब आप ही सोचिए कि क्या समझना है...
अब मन कुछ हल्का हुआ है... तसल्ली हुई है कि हम भी कुछ कुछ बुद्धि वाले हो गए हैं क्यों कि हल्का हल्का गुस्सा अपने आप में महसूस कर रहे हैं तभी तो यह पोस्ट लिख पाने में समर्थ हुए हैं.... लिखा हमने है...पढ़ना आपको है..........:)
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
भूली बिसरी यादों की खुशबू....

भूली बिसरी यादों की खुशबू फिर से मन को महकाने लगी.... भूली बिसरी यादें ! नहीं नहीं.......... यादें तो बस यादें होती हैं..शायद यादें कभी भुलाई ही नही जा सकती........खूबसूरत यादें...ज़िन्दगी की दिशाओं को महकाती यादें.... पिछले दिनों जाना कि जीवन प्याला जो साँसों के अमृत रस से भरा है आधा छलक गया .... छलका उस पथ पर जिस पर अपने ही चल रहे थे....उन्ही अपनों ने आधे भरे प्याले का आनन्द उठाने की दुआएँ दीं.....
उन्ही अपनों का आभार कैसे और किन शब्दों में व्यक्त करें... गर वे अपने हैं तो फिर वे मन के भाव अपने आप ही समझ जाएँगे..... !
एक अर्से के बाद लौटे हैं ब्लॉग जगत में.... यहाँ की यादों को फिर से तरो ताज़ा कर लें फिर अपने बारे में कुछ कहेंगे....
गुरुवार, 27 अगस्त 2009
'प्रेम ही सत्य है' ब्लॉग का जन्मदिवस

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009
लिंक्स टू दिस पोस्ट !
पारुल और कंचन दोनो ही प्यारी लगती हैं ....पारुल छोटी बहन जैसी और कंचन बिटिया जैसी.... कंचन जैसे दिल वाली कंचन की काँच सी खनकती चूड़ियों जैसी आवाज़ फोन के ज़रिए कानों में पड़ती है तो दिल चाहता है कि बस बात होती ही रहे... बेटे वरुण को कंचन दीदी से मिलाने का वादा तो किया है लेकिन कब.... नहीं पता...खैर कंचन का लिंक खोला जिसे पढ़कर आँखें नम हो गईं...नम आँखों में अटके आँसू गालों में ढुलकने लगे.
17 मार्च 2003 का दिन नहीं भूलता जब मैं अपने बीमार पिता का हाथ छुड़ाकर अपने बच्चों के पास लौट गई थी... 19 मार्च को वे हमें सदा के लिए छोड़ गए....'मैं कहना चाहता हूँ "पापा आई लव यू " पर कह नही पाता' अनुरागजी के इस भाव को पढ़ कर बार बार मन ही मन अपने पापा से माफी माँग रही हूँ और पुकार रही हूँ कि बस एक बार फिर से वापिस लौट आएँ तो हाथ छुड़ा कर कहीं न जाऊँगी...
लावण्यजी के ब्लॉग पर जाकर जहाँ पापा के साथ बिताए बचपन के दिन याद आ गए तो वहीं युनूस जी द्वारा पोस्ट किए गए गीत को बचपन में कई बार गा गाकर टूर पर गए पापा को याद किया जाता था.
दिल और दिमाग बेचैन हो उठे ...जैसे अन्दर ही अन्दर बेबसी का धुँआ भरने लगा हो... सामने दीवार पर टँगी तस्वीर में मुस्कुराते पापा को देखते ही चेतना लौटने लगी...
इन्हीं विचारों में डूबते उतरते पारुल के लिंक को क्लिक किया तो गज़ल के बोल बार बार पढ़ने लगे और सुनकर तो मन शांत स्थिर झील सा होने लगा... एड्रेस बार में नीरजजी का ब्लॉग अभी दिख रहा था जिसे पढ़ना बाकि था...जिसे खोलते ही जयपुर में किताबों की दुनिया की जानकारी मिली... किताबों की बात आते ही जयपुर में कुश से मुलाकात और उनसे भेंट में मिली दो किताबों की याद आ गई जिन्हें पढ़ना अभी बाकि है.... वैसे कल ही उनके ब्लॉग़ की नई पोस्ट पढ़ी, अमीना आलम ने तो सच में नींद उड़ा दी...
तीसरे लिंक को खोला तो शब्दों के सफ़र में खानाबदोश और मस्त कलन्दरों के बारे में पढ़ने को मिला... खानाबदोश तो आजकल हम भी बने हुए हैं... फिलहाल 22-23 साल से इस जीवन शैली में मस्त कलन्दर बनने की कोशिश में लगे है.... !
सोचा नहीं था कि पोस्ट और टिप्पणियों के नीचे दिए गए लिंक्स से एक पोस्ट तैयार हो जाएगी... लेकिन पढ़ने और फिर लिखने के बाद अच्छा लग रहा है....... शुभ रविवार :)
गुरुवार, 29 जनवरी 2009
आपकी अभिव्यक्ति पर मेरे भाव
कोहरा, कलम और मैं जब एक जुट हुए तो शब्दों को एक नया आकार मिलने लगा जिसे आप सब ने निहारा और तारीफ में कुछ और शब्द जोड़ दिए...
जिन्दगी की उहा पोह, उलझनें और जिम्मेदारियाँ अक्सर ऐसी ही मानसिक स्थितियाँ निर्मित कर देती हैं, जिन्हें आपने इतनी सुन्दरता से शब्द दिये हैं. मनोभावों की सशक्त एवं सहज अभिव्यक्ति. – उड़न तश्तरी
समीरजी, आपने सही पहचाना... खानाबदोश सी ज़िन्दगी कब थोड़ा ठहरेगी.बस इसी इंतज़ार में लिखना पढ़ना छोड़ बैठे.....जल्दी ही अपनी खानाबदोश ज़िन्दगी के कुछ अनुभव लिखूँगी.
कलम की जय हो! - अनूप शुक्ल
अनूप जी , कलम में सर कलम करने की ताकत भी है और समाज को बदलने का कमाल भी कलम ही कर सकती है. तभी तो उसकी जय जयकार होती है.
कीबोर्ड पर ऊंगलियों के
थिरकने से निकलते
नये तराने हैं – अविनाश वाचस्पति
सोलह आने सच है आपकी बात... कीबोर्ड पर उंगलियों के थिरकने से
तराने नए निकलते हैं जो दिल और दिमाग को तरोताज़ा कर देते हैं.
Fog Is A Tunnel
Life Is A Train
At The End Of The Tunnel
There Is Light Always
Keep The Train Of Life
Chugging On - रचनाजी
रचना जी, सच कहूँ तो इस घने कुहासे में सिर्फ और सिर्फ अपने होने का एहसास होता है.... दूर दूर तक बस मैं और गहरा कोहरा... कभी कभी उससे बाहर निकलने का मन ही नहीं करता...
आपकी आमद हमेशा सुखद रहती है....इस कलम को छोडियेगा नही....ये कई दर्द से मुक्ति दिलाती है - डा. अनुराग
डा. अनुराग , कलम को छोड़ने का सोच भी नहीं सकते , हाँ कभी दर्द हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तो उंगलियाँ सुन्न सी हो जाती हैं.... और कलम हाथ से छूट जाती है....
हमारी भी दशा कोहरामय है। बस आप कलम की बात कर रही हैं - मैं रेलगाडी की! – ज्ञानदत्त जी
ज्ञानजी, इसमें कोई शक नहीं कि हम सब के जीवन में कोहरामय कोहराम मचा है...
बहुत दिनों बाद आज आप दिखी है ।
मीनाक्षी परेशान न हो ये दौर गुजर जायेगा ।
ऐसा हम इसलिए कह रहे है क्यों की हम इस दौर से गुजर चुके है (sep -jan )जब कुछ भी लिखने का मन नही करता था । -- ममता जी
ममताजी, कभी कभी इस दौर से गुज़रने का अपना एक अलग ही अनुभव होता है। मौका पाते ही आपसे ज़रूर बाँटूगी।
हिन्दी ब्लोग जगत मेँ तशरीफ रखिये स्वागतम ~~~ Where have you been ? :)- लावण्या
लावण्यादी, घने कोहरे के घेरे से घिरी मैं... नहीं जानती कैसे मुक्त हो पाऊँ मैं... कोशिश एक आशा जान बस उस किरण का इंतज़ार करूँ मैं....
जिस ब्लॉग जगत में कलम और उससे जन्मे शब्दों की परवरिश होती है , चाह कर भी उस दिशा में बढ़ते कदम अनायास रुक जाते हैं और मन बेचैन हो उठता है. शब्दों के भाव विपरीत दिशा में चलने की चाहत पैदा कर देते हैं...तो कभी जीवन धारा सब बाँध तोड़ कर बह जाने को मचल उठती है ...
आप सबकी कलम से जन्मे शब्दों और उनके भावों ने मेरी कलम को एक नई उर्जा दी है, आप सबका आभार... यही उर्जा अजन्मे शब्दों को एक नया और सुन्दर रूप देगी जिसे आप जल्द ही देख पाएँगे.
बुधवार, 28 जनवरी 2009
कोहरा, कलम और मैं

कोहरा सर्द आहें भरता हुआ अपने होने का एहसास कराता है... दूर दूर तक फैले नीले आसमान के नीचे मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लेता है , उसके आगोश में कसमसाती मैं और मेरे हाथों में कराहती कलम जिसके गर्भ में शब्द आकार लेने से पहले ही दम तोड़ते जा रहे हैं....
नहीं जानती कि ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है लेकिन हो रहा है....
कलम का दर्द मुझे अन्दर तक हिला देता है...उसे हाथों में लेने को आगे बढ़ती हूँ..... मेरा स्पर्श पाते ही पल भर में उसका दर्द गायब हो जाता है....उसके मन में एक उम्मीद सी जागी है..शब्दों को सुन्दर रूप और आकार मिलेगा, इस कल्पना मात्र से ही वह खिल उठी है.....
मंगलवार, 4 नवंबर 2008
नेह निमंत्रण सस्नेह स्वीकर...! ...
निमंत्रण जो पाया
छाया उल्लास
उर्जा पाऊँगी
हर एक स्त्रोत से
नए भाव की
सौहार्द चर्चा के लिये नेह निमन्त्रण
सभी ब्लॉग लिखती महिला को नेह निमन्त्रण हैं सौहार्द चर्चा मे आने का । मिलने का दिन रविवार ९ नवम्बर तय किया गया हैं । समय और स्थान पता करने के लिये रंजना भाटिया अथवा रचना सिंह से संपर्क करे ।
अब तक जिन लोगो की स्वीकृत मिल गयी हैं
अनुराधा
मिनाक्षी
सुनीता शानू
मनविंदर
रंजना भाटिया
रचना
4 comments:
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
रविवार, 7 सितंबर 2008
एक साल का नन्हा सा चिट्ठा
आसमान में उड़ने को जैसे ललचाए ....
की-बोर्ड का मन भी मस्ती से लगा मचलने
जड़ सी उंगलियाँ मेरी तेज़ी से लगीं थिरकने ....
मेरा चिट्ठा जैसे अभी कल ही जन्मा था
आज एक साल और दस दिन का भी हो गया........
घुटनों के बल चलता बालक जैसे रूठे, फिर ठिठके
वैसे ही खड़ा रहा थामे वक्त को .....
एक कदम भी आगे न बढ़ा
बस
अपने जैसे नन्हे बालक को देखता रहा
मुग्ध होता रहा ......
मोहित तो मैं भी थी उस नन्हे बालक पर
जो आया था ईरान से .....
तीन साल का नन्हा आर्यान हिन्दी से प्यार करता
हाथ जोड़कर नमस्ते कहता तो सब मंत्रमुग्ध हो जाते......
बड़ा बेटा वरुण भी उन्हीं दिनों इंजिनियर की डिग्री लाया
छोटे बेटे विद्युत ने अपने मनपसन्द कॉलेज में प्रवेश पाया ....
अर्दलान जो नन्हे आर्यान का बड़ा भाई , उसे भी नई दिशा मिली
गीत गाते गाते अपने देश से दूर विदेश में पढ़ने की सोची.....
बच्चों के उज्ज्वल भविष्य में व्यस्त माता-पिता
पल भर भी न रुकते , बस चलते ही जाते जीवन पथ पर
एक सितम्बर आई तो दोनों हम साथी इक पल को रुके .....
जीवन पथ पर जीवन साथी बन कर बाईस साल चले हम
चलते चलते कब और कैसे इक दूजे के सच्चे दोस्त बने हम .....
और जीने का मकसद पाया, रोते रोते हँसने का हुनर भी आया .......
एक साल का नन्हा सा चिट्ठा भी मुस्काया
छोटे छोटे पग भरता मेरी बाँहों में दौड़ा आया .....
गुरुवार, 10 जुलाई 2008
दिल कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पाता....
सोचते है कि कोई भटकते मन की खामोशी और बेचैनी समझ पाएगा .... लेकिन ऐसा कम ही होता है.... हमारे दिल ने भी एक गीत के माध्यम से कुछ कहना चाहा था.. जिसे शायद किसी ने सुना ही नहीं... कुछ दिल ने कहा .... कुछ भी नही..............
मन को समझाने के लिए मन ही मन यह गीत गुनगुनाते हैं...
बुधवार, 4 जून 2008
बेतरतीब सोच के कई चेहरे ...

मंगलवार, 20 मई 2008
चिट्ठी न्यारी मेरे नाम ....
अन्धकार के गहरे सागर में
अकेलेपन की शांत लहरें
जिनमें हलचल सी हुई . .....
शायद सपनों की दुनिया
शायद कल्पना का लोक
ताना बाना बुना गया.....
प्यारी मीनू ,
आशा है सब कुशल मंगल होगा. यहाँ तो मैं नितांत अकेला तुम्हारे इंतज़ार में आँखें बिछाए खड़ा हूँ... एक एक पल भारी पड़ रहा है. बता नहीं सकता कि मेरे दिल पर क्या गुज़र रही है. पहली बार जब तुमने मुझे देखा था तो अपनी प्यारी मुस्कान के साथ दोनो बाँहें फैला कर मेरा स्वागत किया था. मुझे एक बार भी नहीं लगा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. लगा था जैसे हम सदियों से एक दूसरे को जानते हैं.
मीनू , मुझे देखकर तुम्हारे चेहरे पर चमक आ जाती थी. तुम्हारी मधुर आवाज़ में गाया प्रेम गीत आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है -----
मेरा चिट्ठा मेरा चित्तचोर
चुराके चित्त को बना चित्तेरा
जादू से अपने मुझे लुभाए
बार-बार मुझे पास बुलाए
पहरों बैठके उसे निहारूँ
कलम से अपनी उसे रिझाऊँ !
अतीत के चित्र सजीव होकर आँखों के सामने हैं ... जैसे कल की ही बात हो.... अपनी सुन्दर सुन्दर रचनाओं से मेरे व्यक्तित्त्व को निखारतीं. मुझे तुष्ट करने के लिए बार बार देखतीं कि मुझे टिप्पणियों की खुराक मिल रही है या नहीं......
अब क्या हो गया है तुम्हें ?? क्यों तुम महसूस नहीं कर पातीं कि धीरे धीरे मेरी साँसें रुक रही हैं...मेरा दम घुट रहा है. ऐसे लग रहा है जैसे कभी भी मेरा वजूद मिट जाएगा...... मेरी प्यारी मीनू , मुझे जीवन का दान दे दो ...
मुझे पहले जैसा प्यार दे दो .. . ...
कभी कभी लगता है कि तुम मुझसे ऊब चुकी हो,,, शायद तुम्हें दूसरे चिट्ठे ज़्यादा अच्छे लगने लगे हैं ... जिनका मनमोहक रूप तुम्हें मुझसे दूर कर रहा है... फिर दूसरे ही पल एक विश्वास जागने लगता है .. आभासी दुनिया में कितने भी चिट्ठे तुम्हारे जीवन में आएँ, उनका रूप तुम्हारा मन मोह लें ... लेकिन तुम मुझे नहीं भुला सकतीं.... .
आशा की किरण जगमगाने लगती है .... मन पुकार उठता है......
मेरे आगोश में फिर से आओ
प्रेम गीत तुम फिर से गाओ .
नई रचना के तोहफे लाओ
सुख की नई अनुभूति पाओ.
कभी तो तुम्हारी नज़र फिर से मुझ पर पड़ेगी... फिर से पुराने दिन लौटेगे...
सदा तुम्हारे इंतज़ार में.....
सिर्फ तुम्हारा चिट्ठा चित्तेरा
'प्रेम ही सत्य है'
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008
लौट आए हैं फिर से ...
लेकिन लगा कि ....
कोई सागर दिल को बहलाता नहीं....
फिर थोड़ा रुके... शब्दों का सफर में एक कविता पढ़ी, पारुल के ब्लॉग पर अपनी मन-पसन्द गज़ल सुनी तो मन में इक लहर सी उठी. और हलचल सी हुई....होश आया कि बहुत दिनों से कुछ लिखा ही नहीं है लेकिन शुक्र है कि किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया....
उनको ये शिकायत है कि हम..... (यह गीत कुछ प्यारी यादों के साथ जुड़ा है)
सोमवार, 14 जनवरी 2008
मैं भी आवारा बंजारन थी, आज भी हूँ !
टिप्पणी के रूप में शुभकामनाएँ भेजने के बाद मुझे जहाँ उनके मस्ती भरे मनचले स्वभाव की याद आई, वहीं याद आ गया अपना जन्मदिन. पन्द्रह साल पूरे हुए थे और मम्मी डैडी ने वादा किया था कि दो महीने की छुट्टियों में मुझे दीदी के पास कश्मीर भेजा जाएगा. यह तोहफा तो मेरे लिए अनमोल था. एक महीने बाद ही वह दिन भी आ गया. मुझे कहा गया कि रात जम्मू तवी जाने वाली ट्रेन से मुझे श्रीनगर के लिए रवाना होना है. यकीन ही नहीं हुआ कि मम्मी डैडी मुझे अकेला भेजने को तैयार हो जाएँगें. दादी ने भी कुछ नहीं कहा. आप सोच सकते हैं कि हम बिन पंखों के कैसे उड़ रहे होंगें उस समय.
आवारा बंजारन का ट्रेन का सफ़र कल लिखूँगी. आज तो संजीत जी के जन्मदिन पर कुछ गीत सुनिए.
कुछ दिन पहले संजीत जी ने एक बच्चा 'पारटी' पर पोस्ट लिखी थी..उसमें एक नन्ही सी गुड़िया को याद करके यह गीत चुना... 'हैप्पीबर्थ डे टू यू'
यह गीत उस समय का जब हमारे जन्मदिन पर अकेले कश्मीर जाने का तोहफा मिला था...
'दीवाना मस्ताना हुआ दिल'
शनिवार, 5 जनवरी 2008
हे मेरे मन, आशा का दीप जला !
बहता पानी साफ रहता है, रुके हुए पानी से अपने लिए ही नहीं आसपास के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है. कई दिनों से ब्लॉग जगत में बहुत कुछ पढ़ते रहने के बाद लगने लगा कि बस बहुत हो चुका. ज़्यादा पढ़ना भी मुसीबत बन सकता है. अलग अलग ब्लॉगज़ द्वारा बहुत से विचार एक साथ दिल और दिमाग में उतर रहे थे. चाह कर भी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखने का समय निकालना सम्भव नहीं लग रहा था. इस समय को भी दूसरे कामों से आँख चुराकर ही निकाल पाएँ हैं.
मानव समाज में अलग अलग रूप से क्लेश, अशांति, वहशीपन, आक्रोश की बहती हवा का प्रभाव ब्लॉग जगत पर भी दिखाई देता है कुछ चिट्ठाकार इन मुद्दों पर लिखकर चिंतन करने को बाध्य करते हैं. कुछ अपनी तीखी प्रतिक्रिया द्वारा समाज और सरकार को जगाने का प्रयास करते हैं, कुछ सीमा तक सफल भी हो जाते हैं.
ब्लॉगर की ताकत का अन्दाज़ा इसी से लगता है कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखते ही फौरन हरकत में आ जाती है, उसे अपना आस्तित्व हिलता सा दिखाई देने लगता है.
दिसम्बर की 10 तारीख को एक साउदी ब्लॉगर फुयाद अल फरहान को पुलिस पकड़ कर ले गई क्योंकि ब्लॉगिंग के माध्यम से वह समाज के विकास में आने वाली बाधाओं की अपने ब्लॉग पर चर्चा कर रहा था. दूसरे ब्लॉगरज़ को भी इस ओर ध्यान देने को कह रहा था. पच्चीस दिन से फरहान जेल में है.
दिसम्बर जाते जाते एक और दर्द दे गया जिसे पाकर मन सोचने पर विवश हो गया कि क्यों ...? ऐसा क्यों होता है ? हमारे अन्दर मानव और दानव दोनों का निवास है, इस बात को हम नकार नहीं सकते लेकिन जब मानव दानव के हाथों पराजित होता दिखाई देता है तो मन विचलित हो जाता है. क्यों हम अपने अन्दर के दानव को बाहर आने देते हैं ? मन सोचने पर विवश हो जाता है कि किस प्रकार मानव और दानव के बीच तालमेल बिठाकर मानव समाज को नष्ट होने से बचाया जाए.
मेरे विचार में ब्लॉग जगत से जुड़ा हर लेखन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज के हित की ही सोचता है. सभी अपनी अपनी सोच के अनुसार अच्छी बुरी घटनाओं पर अपने अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी करते हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि हर कोई एक ही जैसा सोच कर हर विषय पर अपने विचार प्रकट करे.
अखबारों में, टीवी में या अंर्तजाल पर भ्रष्टाचार के प्रति जो इतना आक्रोश दिखाई देता है, यही साबित करता है हम समाज से बुरे तत्त्वों को निकाल बाहर करना चाहते हैं.
"दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है. बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोदघाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है. बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है. सैंकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है." यह पंक्तियाँ श्री हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख "क्या निराश हुआ जाए' से ली गई हैं.
जीवन में कितने धोखे मिले, कितनी बार किसी ने ठगा, कितनी बार किसी ने विश्वासघात किया. समाज के घिनौने रूप को देख कर पीड़ा होती है, भुलाए नहीं भूलती. यदि इन्हीं बातों का हिसाब किताब लेकर बैठेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा.
प्रेम ही सत्य है – इस मूल-मंत्र को हम जान लें तो जीना आसान ही नहीं खूबसूरत भी हो जाए. प्रेम अपने आप से , प्रकृति से , जीव-जंतुओं से और फिर मानव-मानव से, बस फिर अपने महान भारत देश को ही नहीं, विश्व को पाने की भी संभावना हो जाएगी.
आज से कोशिश करूँगीं कि अपने ब्लॉग में गद्य को भी उतना ही महत्व दूँ जितना कि पद्य को देती आई हूँ.
गुरुवार, 3 जनवरी 2008
आप सबके बड़प्पन को प्रणाम !
कल शाम एक जन्मदिन की पार्टी पर छोटे बेटे को लेकर अजमान जाना पड़ा, लौटते लौटते रात के दो बज गए.
आज सुबह बड़े बेटे को लेकर कॉलेज गई जहाँ मुझे ठहरना था क्योंकि अक्सर एग्ज़ाम के दिनों में बेटे पर दर्द कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो जाता है. दोपहर एक बजे घर आते ही दोपहर खाना बनाया , खाया और खिलाया. न चाह कर भी नींद को अपने करीब आने से रोक नहीं पाए. अच्छी तरह मालूम है कि भोजन करने के एकदम बाद सोना ज़हर का काम करता है, फिर भी सो गए थे. उठने के बाद हालत खराब होनी ही थी सो हो गई.
तब सोचा कि अर्बुदा के हाथ की चाय पी जाए और नन्हे-मुन्ने जुड़वाँ इला इशान से खेला जाए तो तन-मन दोनो प्रफुल्लित हो जाएँगें. मीनू आटीं मीनू आटीं कहते हुए दोनों की होड़ लग जाती है कि सबसे ज़्यादा कौन अपनी बातों से लुभाएगा. एक मज़ेदार खेल होता है वहाँ. दोनो बच्चे अपनी प्यारी प्यारी बातों से हम दोनों को बात करने का अवसर ही नहीं देते लेकिन हम भी मौका पाकर अपनी बात कर ही लेते हैं.
वहाँ भी पैगी डॉट कॉम पर चर्चा हुई. सोचा कि चाय पीने के बाद तो ज़रूर इस विषय पर लिखना ही है.
जब सेहतनामा के संजय जी का मेल आया कि एक डोमेन का आमंत्रण मिला है तो हमारा माथा ठनका क्योंकि उससे पहले उस डोमेन पर विकास जी से भी बात हुई तब तक हम कुछ समझ नहीं पाए थे कि वे हमारे ब्लॉग परिवार के सदस्य हैं या कोई और .. आशा जी से निमंत्रण मिला था जिसे हमने उनकी साइट समझी और पैगी की पगली पढ़ लिया.
नहीं अब इस विषय पर बात करने का जोश ठंडा सा पड़ता जाता है . अब सोचते हैं "बीती बात बिसार दे , आगे की सुध ले" सो कल की बातें भुलाकर आज इस समय हमारे साथ कुछ गीतों का आनन्द लीजिए जो अभी मैं सुन रही हूँ --
दीवाना मस्ताना हुआ दिल........
जाता कहाँ है दीवाने ......
हूँ अभी मैं जवाँ ए दिल ......
जानूँ जानूँ रे ......


Is it for woman leaving at certain place? If so I hope full coverage will be here. One suggestion if possible please do complete videography of the meeting. In my opininon it is history making event. - Amita
amita as of now we are getting together in delhi but every woman who blogs is invited
please get in touch with us
Thats great, I have followed the Kavi Sammelan available as "Video In Internet" the first one, made a history in Internet, a Brave Heart Kavitri Sunita Shanoo.
Now it is great and pleasing news from you about the Nari Blogger. It is again a History in making from Delhi.
बहुत दूर होने के कारण आपके इस आयोजन में भाग नहीं ले सकूँगी परन्तु मेरी शुभकामनाएं ।
घुघूती बासूती