रोज़ की तरह पति को विदा किया
दफ़तर के बैग के साथ कचरे का थैला भी दिया
दरवाज़े को ताला लगाया
फिर देखा आसमान को लम्बी साँस लेकर
सूरज की बाँहें गर्मजोशी से फैली हैं
बैठ जाती हूँ वहीं उसके आग़ोश में..
जलती झुलसती है देह
फिर भी सुकूनदेह है यूँ बाहर बैठना
चारदीवारी की कैद से बाहर
ऊँची दीवारों के बीच
नीला आकाश, लाल सूरज, पीली किरणें
बेरंग हवा बहती बरसाती रेत का नेह
गुटरगूँ करते कबूतर, बुदबुदाती घुघुती
चहचहाती गौरया
यही तो है अपनापा !!
