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गुरुवार, 23 मई 2013

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना !


अक्सर सोचती हूँ कि सोचूँ नहीं ..सोचों को मन के पिंजरे में कैद रखूँ लेकिन फिर भी कहीं न कहीं से किसी न किसी तरीके से वे कभी न कभी बाहर आ ही जाती हैं ज़ख़्मी...कमज़ोर...लेकिन साँसें लेतीं हुईं......

आज भी कुछ सोचें छटपटाती हुई बाहर निकल ही आईं.... दुनिया का कोई कोना नहीं जहाँ सुख के साथ साथ दुख न हो लेकिन कुछ देशों का इतना बुरा हाल है कि भूले से वहाँ की खबर पढ़ लो तो फिर रातों की नींद उड़ जाती है...जिन देशों में गृह युद्ध चल रहे हैं वहाँ के बारे में जानकर तो यकीन होने लगता है कि इंसान पर हैवानियत की जीत हो रही है ...  ...एक ही देश के लोग एक दूसरे के दुश्मन होकर आपस में ही कट मरते हैं लेकिन इस मारकाट में भी दुश्मन को हराने का सबसे सस्ता उपलब्ध साधन जब 'औरत' बनती है तो उस समय दिल और दिमाग में जैसे ज़हरीला धुँआ सा भरने लगता  है कि बस अभी साँस रुकी ....आज सीरिया की खबर पढ़ कर सुबह से ही मन बेचैन था... सोचा ....ओह..फिर सोच... लेकिन नहीं मुमकिन नहीं सोच को कैद करना...जो कैद से निकली कुछ यहाँ आ पहुँची....ज़मीन और जूता भी ऐसी ही एक सोच थी जिसे याद करके आज भी रूह काँप जाती है.....

 

धरती धीरे धीरे घूम रही है
उसपर रहने वाले लोग दौड़ रहें हैं...

जाने किधर का रुख किए हैं...
शायद उन्हें खुद पता नहीं..

मैं अक्सर एक कोने में रुक जाती हूँ
उन्हें दौड़ते देख रोकना चाहती हूँ

अगले ही पल डर से सहम जाती हूँ
सभी के सभी मुझे वनमानुष से लगते हैं 

आँखें बन्द कर लेती हूँ कबूतर की तरह
तभी एक मासूम आ बैठती है मेरे पास

अपनी सोच को पिंजरे में बंद रखना
कहकर सिसकियों से रोने लगती है

सवालभरी नज़र से देखती हूँ उसे
अपनी सोच को उसने पंख दिए थे

सोच समेत उसे कैद कर लिया था   
जहाँ उसे कई ज़िन्दा लाशें दिखीं थीं.

जिन्हें बार बार रौंधा जाता बेदर्दी से  
पैरों तले कुचली साँसें फिर चलने लगतीं 

उनकी पुकार...उनकी चीखें जो कैद थी
उस मासूम के साथ बाहर आ गईं थी...


उनके ज़ख़्मी चेहरे उसका पीछा करते हैं..
उनका दर्द कानों में लावे सा बहता है

अब मेरे कानों में उनका दर्द ठहर गया है
मेरी पलकों में उनकी दर्दभरी पुकार छिपी है...!!