Translate

रियाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रियाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

बहुत दिनों के बाद......


बहुत दिनों के बाद...
अपने शब्दों के घर लौटी...
बहुत दिनों के बाद .......
फिर से मन मचल गया...
बहुत दिनों के बाद...
फिर से कुछ लिखना चाहा....
बहुत दिनों के बाद...
कुछ ऐसा मन में आया....
 फिर इक बार
नए सिरे से
 शुरु करूँ मैं लिखना ...
अपने मन की बात !!




सोचती हूँ ब्लॉग पर नियमित न हो पाना या जीवन को अनियमित जीना न आदत है और न ही आनंद...वक्त के तेज बहाव में उसी की गति से बहते जाना ही जीना है शायद. जीवन धारा की उठती गिरती लहरों का सुख दुख की चट्टानों से टकरा कर बहते जाने में ही उसकी खूबसूरती है.  खैर जो भी हो लिखने के लिए फिर से पलट कर ब्लॉग जगत में आना भी एक अलग ही रोमाँच पैदा करता है मन में.

2012 दिसम्बर में जब पति को दिल का दौरा पड़ा तब मैं सात समुन्दर पार माँ के पास थी. फौरन पहुँची रियाद जहाँ एक हफ्ते बाद ही एंजियोप्लास्टी हुई. एक महीने बाद ही नए साल में देवर अपने परिवार समेत रहने आ गए. उनके लिए 2013 का साल खूब सारी खुशियों के साथ कुछ भी दुख लाया था. अगस्त के महीने में वे परिवार समेत कार दुर्घटना की चपेट में आ गए. देवर और उनके बेटे को हल्की चोटें आईं लेकिन देवरानी की रीढ़ की हड्डी में और एक पैर की एड़ी में 'हेयर लाइन फ्रेक्चर' आया जिस कारण उसे दो महीने के लिए बिस्तर पर सीधा लेटना पड़ा. शूगर और हाई बीपी की मरीज़ के लिए जो बहुत मुश्किल होता है इस तरह लगातार लेटना. बिजली से गतिशील हवाई गद्दे का इस्तेमाल किया गया ताकि बेडसोल्ज़ न हों. गूगल के ज़रिए पहली  बार 'कैथेटर' का इस्तेमाल करना सीखा. एक साथ सब की मेहनत और लगन से देवरानी भी उठ खड़ी हुईं. 2 अक्टूबर को फिज़ियोथैरेपी के लिए भारत लौट गईं...

अक्टूबर 10 को हम पति-पत्नी दुबई पहुँचे दोनों बच्चों से मिलने. कहते हैं जितना मिले उसी में खुश रहना आना चाहिए दस दिन की खुशी लेकर हम भारत पहुँचे जहाँ कुछ दिन बाद अमेरिका से माँ ने आना था अपने इलाज के लिए. इलाज तो वहाँ भी हुआ लेकिन सेहत ठीक न हुई.  नवम्बर 7 को माँ आईं अपने देश एक उम्मीद लेकर कि स्वस्थ होकर वापिस लौटेंगी. पति अपनी नौकरी पर रियाद लौट गए. हम माँ बेटी रह गए पीछे अपने ही देश में अकेले. अकेले इसलिए कहा क्योंकि आजकल सभी अपने अपने चक्रव्यूह में फँसे जी रहे हैं इस उम्मीद से कि कभी वे चैन की साँस लेने बाहर निकल पाएँगें.

2013 नवम्बर 7 से 2014 मार्च 4 तक लगातार हुए इलाज के दौरान कई खट्टे मीठे और कड़वे अनुभव हुए. सरकारी अस्पताल से लेकर 5 और 7 सितारा अस्पताल तक जाकर देख लिया. आठ महीने से खाँसी हो रही थी उसका इलाज तो किसी को समझ नहीं आ रहा था. दिल की जाँच के लिए बड़े बड़े टेस्ट करवा लिए गए. पानी की तरह खूब पैसा बहाया जिसके लिए माँ की डाँट भी खानी पड़ी. हम माँ बेटी दो लोग साथ थे फिर भी अकेलापन लगता. समझ नहीं आता कि किस उपाय से माँ की खाँसी और कमज़ोरी दूर हो...

पता नहीं भले स्वभाव के लोग कम क्यों होते हैं लेकिन जितने भी होते हैं वे दिल में बस जाते हैं. माँ के वापिस लौटने के दिन आ रहे थे और उधर बीमारी जाने का नाम नहीं ले रही थी. घर के नज़दीक की मदर डेरी पर बैठने वाले सरदारजी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते..यूँ ही कह गए कि अगर विश्वास हो तो गुरुद्वारे में बैठने वाले डॉक्टर को एक बार दिखा दीजिए. कभी कभी आस्था और विश्वास से भी लोग ठीक हो जाते हैं. उनकी आस्था का आदर करते हुए माँ को वहाँ दिखाया.

शायद आस्था और विश्वास का दिल और दिमाग पर असर होता है या संयोग था कि 'नेबुलाइज़र' और 'इनहेलर' की हल्की खुराक से माँ को कुछ आराम मिलने लगा...हालाँकि यह इलाज पहले भी चल रहा था लेकिन ढेर सारी दवाइयों के साथ. श्रद्धा और विश्वास के कारण ही माँ ताकत की दवा और नेबुलाइज़र और इनहेलर की एक एक डोज़ से अच्छा महसूस करने लगी. पूरे देश में तौबा की सर्दी जिस कारण घूमने फिरने का सपना सपना ही रह गया. माँ को छोड़ कर मैं कहाँ जाती...ब्लॉग जगत के मित्र , पुस्तक मेला या किसी तरह की खरीददारी माँ के साथ से कमतर लगे.

4 मार्च की रात माँ को विदा करके  10 मार्च की वापिसी तय हुई हमारी दुबई के लिए जहाँ एक रात के लिए बच्चों से मिल कर रियाद लौट आए. 11 मार्च वीज़ा खत्म होने की अंतिम तारीख़ थी इसलिए शाम तक रियाद दाख़िल होना ज़रूरी था.

तब से हम यहाँ है रियाद के घर की चार दीवारी में...यहाँ की दीवारें बहुत ऊँची होती हैं लेकिन सबसे आख़िरी मंज़िल के बाद छत से दिखने वाला नीला आसमान सारे का सारा अपना है. 
नीले आसमान पर सिन्दूरी सूरज की बिन्दिया , चमकती बिन्दिया से सुनहरी धूप, धूप से चमकती रेत से शरारत करती हवा,  चाँद का सफ़ेद टीका , नीले आसमान के काले बुरके पर टिमटिमाते टँके तारे सब अपने हैं.... ! 



मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

‘सॉरी’ कहने में सच्चाई दिख रही थी.


‘मैम,,,आपने पलट के जवाब नहीं दिया...क्यों?’ पोस्ट को लिखने का कोई न कोई कारण रहा होगा...उस पर ज़िक्र की ज़रूरत नहीं है...... बहरहाल इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों को पढकर लगा कि उस घटना से जुड़ी दो और घटनाओं का ज़िक्र भी करना चाहिए.....वैसे भी आजकल रियाद में पुरानी यादों ने पूरी तरह से घेर रखा है.... पीछा ही नहीं छोड़तीं....
चार छात्र जो  हिन्दी पढने के लिए बैठे थे...उनमें से एक छात्र को तीन दिन पहले एक अंग्रेज़ी अध्यापक के साथ बुरा बर्ताव करने पर बहुत बुरी तरह से डाँटा गया था.... उसके बाद भी उसने उन अध्यापक से सॉरी नहीं कहा था,,,,सभी बच्चों के मुताबिक टीचर की गलती थी......
हुआ यह था कि कोर्स पूरा कराने के लिए उन्होंने चार पीरियड एक साथ पढ़ाने की सोची....पढ़ाने के बाद जब वे दूसरी क्लास में पहुँचे तो वहाँ पिछली क्लास के एक छात्र को देख कर भड़क गए कि कैसे इसने बंक किया....बस आव देखा न ताव कॉलर पकड़ कर क्लास से बाहर ले आए और.... “हाऊ डेयर यू.... यू ब्ल.....बा.....तुम लोगों के लिए सिर खपाओ और तुम ऐश करो” कह कर उसे लगा दिए दो तमाचे.....गुस्से में और मारते उससे पहले ही लड़के ने हाथ पकड़ लिया....बस फिर क्या था..... तहलका मच गया.....
तब्बू टीचर का भी रवैया कुछ ऐसा ही रहता है.... बच्चे अपमानित महसूस करते हैं और गुस्से में कुछ का कुछ कर बैठते हैं......
“कोई भी टीचर क्लास के अन्दर दाखिल हों तो खड़े होकर विश करना ज़रूरी है...हर रोज़ कहती हूँ फिर भी कान पर जूँ नहीं रेंगती........अपने सहकर्मी के लिए बुरा भला सुनकर कहना चाहती थी....’माइंड योर ऑन बिज़नेस’ ... उस वक्त अगर कुछ भी कहती तो बच्चों के भन्नाए दिमाग पर कोई असर नहीं होता सो चुप्पी लगाना सही समझा था .......
बच्चों को काम देकर मैं स्टाफरूम चली गई थी... एक घंटे बाद जब वापिस आई तो सभी लड़के एक साथ बोल उठे..... “सॉरी मैम.... वी आर रीयली सॉरी... आपसे हमें ऐसे नहीं बोलना चाहिए था....”
मुझे उनके ‘सॉरी’ कहने में सच्चाई दिख रही थी.... जानती हूँ आजकल के बच्चे हमारी हरकतों की ज़रूरत से ज़्यादा स्क्रूटनी करते हैं....उन्हें सब समझ आता है....यह अलग बात है कि जो उन्हें भाता नहीं या जिसका लॉजिक समझ नहीं आता उसे नज़रअन्दाज़ कर देते हैं....
उनमें से एक चुपचाप नज़रें नीची किए खड़ा रहा...उसके पास पहुँची.....’क्या हुआ शोहेब... समथिंग इज़ बॉदरिंग यू? प्लीज़ शेयर विद मी...’ पूछने पर धीरे से बोला....’मैम... डू यू थिंक आई शुड गो टू इंग्लिश टीचर एंड से सॉरी...?’
सुनकर मुझे जितनी खुशी हुई ...उसकी कोई इंतहा नहीं थी.... 

रविवार, 17 अप्रैल 2011

मैम.. आपने पलट के जवाब नहीं दिया...क्यों ?


’बस भी करो, जल्दी आओ स्टाफरूम में...सारा साल पढे नहीं तो अब क्या तीर मार लेंगे....’ आदत से मजबूर तब्बू ऊँची आवाज़ में बोलती हुई इधर ही आ रही थी... 
मैं मुस्करा रही थी लेकिन लड़कों के चेहरों के बदलते रंग भी देख रही थी...राघव कुछ कहते कहते चुप रह गया.... चारों छात्र सिर झुकाए अपनी अपनी किताबों पर नज़र गड़ाए चुप बैठे रहे....
दसवीं के क्लास रूम में तब्बू दाखिल हुई, मेरे साथ ही सीनियर सेक्शन को सोशल पढ़ाती थी....हम दोनों एक ही स्टाफरूम में बैठते थे.. उसे अनदेखा करके बच्चों के सिर नीचे ही झुके रहे... 
एक टीचर को विश न करना अच्छा तो नहीं लगा लेकिन उस वक्त डाँटना भी सही नहीं लगा सो चुप लगा गई....

उधर तब्बू बोले जा रही थी.....’इन पर मेहनत करके कुछ नहीं मिलेगा...इन्हें तो बस टीचर को बिज़ी करने का बहाना चाहिए.....और पैरेंटस को बेवकूफ बनाने का....तुम्हें बड़ा शौक है अपना वक्त इन पर बरबाद करने का’

‘तुम चलो....मैं अभी आती हूँ बस दस मिनट और’ मुस्कुराते हुए हल्की आवाज़ में कहा.....

‘टेबल लग चुका है.... सब तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे हैं, जल्दी आओ’ कह कर वह निकल गई....

तब्बू के बाहर निकलते ही शोहेब से रहा नहीं गया..... ‘वाय मैम...वाय... होऊ कैन यू बीयर हर?’

(विदेशों के बाकि स्कूलों का तो पता नहीं लेकिन यहाँ के स्कूलों में टीचर और स्टूडैंट्स में बहुत अपनापन होता है. टीचर, अभिवावक और दोस्त सभी उन्हें एक ही टीचर में चाहिए..... वन इन वन इंट्रैक्शन - जिससे वह उन सभी अभावों को भूल पाएँ जो अपने देश में आराम से पा सकते हैं.)

राघव भी बोल उठा...’ मैम... तब्बू टीचर आपको इतना कुछ कह गईं और आपने पलट के जवाब नहीं दिया...क्यों’
चुप रहने वाला जमाल भी बोल उठा... ‘कम से कम हमारे लिए ही बोलना था.....दसवीं बोर्ड के एग्ज़ाम्ज़ में तो सभी टीचर हैल्प करते हैं.’
राघव बड़े दार्शनिक अन्दाज़ में बोला....’मैम, यू शुड लर्न हाऊ टू से ‘नो’’ सच कह रहा हूँ ....आप कभी किसी भी स्टूडैंट को ‘ना’ नहीं बोलतीं...’ 
’हाँ मैम...आज अगर स्टाफ पार्टी थी तो मना कर देतीं....’ अमित बोला.
राघव ‘सॉरी मैम’ कह कर उठ गया....उसी के साथ ही बाकि तीन बच्चे भी सॉरी कहते हुए उठ खड़े हुए...

अच्छी तरह से जानती थी कि तब्बू कभी किसी स्टूडैंट को एक्स्ट्रा नहीं पढ़ाती और न ही नोटस बनाने या चैक करने में मदद करती...बिन्दास वह शुरु से ही थी....बिना सोचे समझे किसी के लिए भी कभी भी कुछ भी कह देती.... कुछ लोग बहस करने से रोक नहीं पाते लेकिन कुछ चुप लगाना सही समझते ..... खासकर मुझे तो समझ नहीं आता कि रिऐक्ट किया कैसे किया जाए....!  
मन ही मन गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन जाने क्यों उस वक्त मैं कुछ बोल न पाई....कभी कभी अपने आप पर ही मन खीजता है कि एक दम पलट कर वैसी ही तीखी प्रतिक्रिया क्यों नहीं कर पाती...

लेकिन जो अपने आप को कंट्रोल नही कर पाते और बात को तूल दे देते हैं... उन्हें इच्छा होती है कि काश वे अपने आप को काबू में कर पाएं.....
दरअसल दोनों तरह के रिएक्शन ही गलत हैं....सही वक्त पर सही जवाब देना और नज़ाकत समझ कर चुप रहना....दोनों तरह का संतुलन बनाना ज़रूरी होता है.....

बच्चों के साथ दोस्ताना बर्ताव मुझे उनकी दुनिया में घूमने की इजाज़त दे देता है.... सरल मन के बच्चे सहज भाव से दोस्ती कर लेते हैं और अपने मन के अंजाने कोनों को भी दिखाने में झिझकते नहीं... खेल खेल में बहुत कुछ सीखना सिखाना हो जाता है....बस यही कारण है कि सख्ती से पेश आने की बात कभी सोची ही नहीं....

जाने अनजाने यही आदत धीरे धीरे व्यक्तित्त्व का हिस्सा बन गई शायद !  


गुरुवार, 24 मार्च 2011

स्वार्थी मन कुछ कहता है ....


















सुबह की दिनचर्या से फुर्सत पाते ही पहला काम  होता है देश विदेश के समाचार जानना.. ताज़ी खबरों के साथ साथ पुरानी खबरों को दुबारा पढ़ना कम रोमांचक नहीं होता...जिस देश में रहते हैं पहले वहाँ की खबर जानने की उत्सुकता रहती है.
मध्यपूर्व देशों की अशांति देख कर एक अंजाना सा डर लगा ही रहता है कि कभी यहाँ भी ऐसा कुछ हो गया तो क्या करेंगे... कुछ असर तो साउदी अरब पर होना ही था .. असर देखा गया काले लबादो से ढकी 20-30 औरतों पर जो गृह मंत्रालय के बाहर अपने रिश्तेदारों की रिहाई की गुहार लगाने आ पहुँची थीं. कैदी जिस कारण से भी अन्दर हों या बिना ट्रायल सालों से कैद में हों...वह बाद की बात थी....
हैरानी इस बात की थी कि औरतें कानून तोड़ कर घरों से अकेली बाहर निकली थी.  ...जिन्हें अकेले घर से निकलने का अधिकार नहीं है.., ड्राइव करने का हक नहीं है..... उन्हें वोट देने का अधिकार कब मिलेगा, यह तो ऊपर वाला ही जाने.....लेकिन फिर भी उनमें से कुछ निडर औरतें बिना मर्दों के रियाद पहुँच गईं थी. सरकार गुस्से में थी कि बिना किसी इजाज़त के इस तरह धरने पर बैठने की हिम्मत कैसे हुई उन औरतों की. सरकार औरतों की आर्थिक मदद करती है जिनके भी मर्द किसी न किसी कारण जेल में बन्द होते हैं... अधिकतर लोग आतंकवाद से जुड़े होने के शक के कारण ही पकड़े जाते रहे हैं..
इसी तरह की हिम्मत देश के और भी कई इलाकों में देखने सुनने को मिली.. पिछले कुछ सालों से जद्दा में आई बाढ़ के कारण लाखों का नुक्सान हुआ..उससे नाराज़ लोगों ने आवाज़ उठाई कि राजा को इस बारे में कुछ सोचना चाहिए... बेरोज़गारी के कारण घर जुटाना भी एक आम अरबी के लिए बहुत मुश्किल काम है.... उनकी आवाज़ अभी उठी ही थी कि राजा के कान खड़े हो गए....
इतने सालों से जो नहीं हुआ था , आज अरब देशों में हो रही खतरनाक हलचल के कारण हो गया. अमेरिका में इलाज कराने गए किंग ने फौरन मिलियन बिलियन डॉलरज़ लोगों को दिए जाने का एलान कर दिया...खरीदे गए घरों की बाकि बची किश्तें माफ कर दी गई... रीयल एस्टेट्स को नए घर बनाने का आदेश दिया गया..क्यों कि 76% साउदी लोगो के पास रहने के लिए घर नहीं है और हर घर में कम से कम एक तो बेरोज़गार है ही.(यह आँकड़े फेसबुक के ज़रिए निकाले गए थे). बेरोज़गारों को मिलने वाला पैसा  बढ़ा दिया गया..... वेतन दुगुने कर दिए गए...बोनस भी साथ दिया गया....
बन्दर के मुँह में केला देकर कुछ वक्त के लिए तो मदारी उसे अपने बस में कर सकता है लेकिन कब तक....आग तो लग चुकी है.... गर्मी भी महसूस होने लगी है ... बस लपटों के आने का इंतज़ार है...
स्वार्थी मन कहता है पहले अपना हित फिर परहित.... मन ही मन दुआ करते हैं कि अभी यहाँ एक दो साल शांति रहे तो अच्छा है अपने लिए... !

शनिवार, 19 मार्च 2011

विदेश में बसना : चाहत या ज़रूरत









‘’बाऊजी, अब पूरी तरह से चारपाई पर हैं, उनका सब काम बिस्तर पर ही होता है. माताजी जल्दी ही थक जाती हैं. उनका चश्मा भी टूट गया है. बड़का शरारती होता जा रहा है. मेरी तो बिल्कुल नहीं सुनता और बाऊजी के बार बार बुलाने पर ही उनकी बात सुनता है. छोटे की तबियत वैसी ही है, धन्नीराम कम्पाउडर की दवाई से भी कोई असर नहीं हो रहा... आप बस जल्दी से आ जाइए... रूखा सूखा खाकर ही पेट भर लेंगे लेकिन रहेंगे तो एक साथ “

अमर अपनी पत्नी सरोज का ख़त पढ़ कर अतीत की यादों में डूब गया... एक बार पहले भी वह नौकरी छोड़ कर घर वापिस गया था.... दो साल तक कोई नौकरी नहीं मिली थी.... बैंक बैलेंस खत्म होता जा रहा था मुट्ठी से जैसे रेत खिसकती जाती हो.... सब रिश्तेदार जो मदद करने की बात करते थे सब मुँह मोड़ चुके थे.... व्यापार करने की सोची तो हिस्सेदार ने 50,000 लिखा पढ़ी से पहले ही हजम कर लिए थे.... गैस ऐजेंसी लेने की सोची थी तो 10,000 रिश्वत देकर भी काम नहीं बना था.... मजबूरन फिर वापिस आना पड़ा था.

“मेरी प्यारी बन्नो, खुशखबरी मिली कि मुन्नी अपने ससुराल में खुश है, वह अपना मायका भूल गई है...यह तो बड़ी खुशी की बात है... तसल्ली हुई ... अपने बेटे को भी अच्छी नौकरी मिल गई है..अपनी मनपसन्द लड़की से उसने शादी भी कर ली....चलो कोई बात नहीं....बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी है.... दोनों खुश रहें बस यही दुआ है. सुना है उसे कम्पनी की तरफ से घर और कार भी मिली है....

अब हम दोनों के बनवास के दिन पूरे हो गए....जैसा तुम चाहती थी....हमारा सपनों का घर भी बन कर तैयार हो गया है...उम्मीद है कि तुमने अपनी पसन्द से उसे सजा भी लिया होगा...”

एक महीने बाद लाल सिंह को खबर मिलती है कि सब कुछ बेच बाच कर बेटा बहू इंगलैंड चले गए..माँ से धोखे से काग़ज़ों पर साइन करवा लिए थे... माँ को गाँव बुआ के पास छोड़ गया...विधवा बुआ जिसकी कोई औलाद नहीं थी ,,,वह खुद ही खस्ताहाल में थी... दोनों औरतें अपनी अपनी किस्मत पर रोतीं दिन गुज़ार रही थी... लाल सिंह को अब नए सिरे से पैसा जमा करने हैं...गाँव के उस घर की कच्ची छत की जगह पक्का लंटर डलवाना है...इस्तीफा देने की बात उसे न चाहते हुए भी भुलानी पड़ी...

परिवार की ज़रूरते इतनी होती हैं कि न चाहते हुए भी अपने घर परिवार से दूर होना पड़ता है... अपने देश में 5000 रुपए महीना की कमाई अगर विदेश में 40,000 रुपए के रूप में मिले तो ज़रूरतमन्द विदेश का ही रुख करेगा...

ऐसी हज़ारों कहानियों का ठिकाना साउदी अरब ही नहीं है...शायद हर वह देश है जहाँ लोग आ बसे हैं अलग अलग कारणों से.... यहाँ सबकी नहीं तो अधिकतर लोगों की यही कहानी है.....’’पेट जो कराए सो थोड़ा”

कुछ लोग गलती से आ बसे तो फिर बुरी तरह से जकड़े गए... घर परिवार होने के कारण खतरा मोल लेने का जोख़िम न उठा पाए.... चुपचाप किस्मत का लिखा मान कर कोल्हू के बैल की तरह परिवार को पालने पोसने में लगे रहे... पैसा कमाना कहीं भी आसान नहीं ... चाहे देश हो या विदेश .... मेहनत मशकत तो हर जगह एक जैसी है.... थोड़ी बहुत सुख सुविधाएँ हर देश के रहन सहन के स्तर के कारण मिल पाती हैं....

जहाँ तक सुख सुविधाओं की लालसा है....उसका कोई पार नहीं...जब भी गाँव जाती हूँ तो वहाँ के लोगों की नज़र शहर की ओर होती है...स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे इसी इंतज़ार में अपनी पढ़ाई खत्म करने के लिए बेसब्र हुए जाते हैं कि कब वे शहर जा पाएँगे क्योंकि उनके मातापिता की भी यही चाहत होती है.... शहर में आकर ऐसे परिवार दिखते हैं जो बच्चों को विदेश भेजने की तैयारी में जुटे हैं....बुढ़ापे में चाहे वही फिर अपने बच्चों को कोसने से भी नहीं हिचकते..... यहाँ विदेश में दिखता है कि ज़्यादातर लोगों में दुनिया के अलग अलग देशों में जाने की होड़ सी लगी है.....

विदेश में रहना किसी के लिए ज़रूरत हो सकती है...किसी के लिए चाहत हो सकती है..... इस बात को भी नहीं नकार सकते कि किस्मत का भी कुछ न कुछ हाथ तो होता ही है.....कुछ लोग न चाह कर भी विदेश में रह रहे हैं...और कुछ चाह कर भी विदेश नहीं जा पाते...इसे शायद “अन्न जल की माया” कहते हैं.....

ऐसे में अगर कोई यह कह दे कि आपको तो अपने देश से प्रेम ही नहीं है, विदेश में ठाठ से रहिए तो दिल दर्द से सुलगने लगता है...!

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

एक नया सफ़रनामा








एक हफ्ते से सोच रहे हैं कि कैसे पतिव्रता नारी बन कर दिखाएँ... इतने दिनों बाद रियाद लौटे हैं.... पतिदेव की कुछ सेवा की जाए...... लेकिन साहब हैं कि हम से पहले ही उठ कर तैयार हो कर ..नाश्ता वाश्ता करके हमें ‘गुड मॉर्निग’ कह कर निकल जाते हैं....नींद को झटका देकर जब तक आँख खुलती है तो वे निकल चुके होते हैं....

सारा दिन इसी सोच में गुज़र जाता है कि अगले दिन पक्का उठेंगे....

अभी तक तो सफ़लता मिली नहीं ,,,, जाने कल .......

घर के सामने ही मस्ज़िद है... फ़ज़र की अज़ान बहुत ज़ोरों से होती है लेकिन न जाने क्यों हमें ही सुनाई नहीं देती..विजय के लिए अज़ान सुनते ही फौरन उठ जाते हैं...आँखों पर सूरज की तेज़ किरणें दस्तक देतीं हैं तो नींद खुलती है.......खिड़की खोलते हैं तो उसी मस्ज़िद की मीनार के पीछे से चिलकता सूरज आग उगलता सा घूरता सा देख रहा होता है..... सूरज को प्रणाम करके वहीं खिड़की की ओट में बैठ जाते हैं..प्रणाम करते ही सूरज देवता प्रसन्न हो जाते हैं....ताज़ी हवा का झोंका और सूरज की मुस्कुराहट तन मन को गहरे तक तरो ताज़ा कर देती हैं... बरसों बाद ऐसा मौका मिला है कि बिस्तर पर बैठे बैठे ही उदय होते सूरज को निहारने का मौका मिल रहा है...

वहीं बैठ कर सुबह की पहली चाय की चुस्कियाँ लेती हूँ... कभी कभी यह एकांतवास भी मन को अच्छा लगता है ....दिल्ली में काम वाली बाई की खटपट , धोबी और कूड़ा ले जाने वाले की आवाज़ें... कबाड़ी और सब्ज़ीवाले की सुरीली तानें ...कुछ भी तो नहीं सुनाई देता.... चार पाँच बार अज़ान की सदा और आती जाती कारों की आवाज़ें .... बस...इतना ही.... हॉर्न तो यहाँ बजता ही नहीं....

विजय जानते हैं कि यहाँ आकर हम लिखने पढने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकते.... इसलिए अपना लैपटॉप घर पर रख कर जाते हैं... मेरा लैपटॉप रिपेयर के लिए गया हुआ है... खैर...... लिखने से ज़्यादा पढने का भूत सवार रहता है ...... जाने क्यों.... शायद अपने ही मन की बात किसी न किसी ब्लॉगर के लेखन में पढ़ कर महसूस होता है कि यही तो था मेरे मन में...उन्हें पढ़कर बेहद सुकून मिलता है....


मंगलवार, 15 मार्च 2011

ब्लॉग जगत के सभी नए पुराने मित्रों को प्रणाम !

मानव प्रकृति ऐसी है कि एक बार जिससे जुड़ जाए फिर उससे टूटना आसान नहीं होता चाहे फिर 7 महीने और 10 दिन का अंतराल ही क्यों न आ जाए.... इससे पहले भी लम्बे अंतराल आए लेकिन घूम फिर कर फिर आ पहुँचते इस विराट वट वृक्ष की छाया तले..... जड़े गहरी हैं... शाखाएँ अनगिनत...हर बार नन्हीं नन्हीं नई शाखाएँ उभरती दिखाई देतीं.... पुरानी और भी मज़बूत होती , जड़ों से जुड़ती दिखती हैं.....

आजकल एकांतवास में हैं...सहेज कर रखे हुए अपने ब्लॉग को एक अरसे बाद जतन से खोला....एक अजब सा भाव मन को छू गया.....उदास , ख़ामोश और खाली खाली सा लगा.... पहले सोचा वादा करते हैं कि अब नियमित आते रहेंगे, फिर सोचा नहीं नहीं.... अगर न पाए तो....... कितनी बार ऐसा हो चुका है कि नियमित होने का वादा निभा नहीं पाए......

जब भी मौका मिलेगा ज़िन्द्गी के इस सफ़र की छोटी छोटी यादों का ज़िक्र करने आते रहेगे.....

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

रेप फिश



मौसम बदलने की इस प्रक्रिया में ऐसे लगता है जैसे जलते तपते सूरज से बचने के लिए धरती रेत का आँचल ओढ़े इधर से उधर भाग रही हो... तेज़ धूप में झुलसते पेड़ पौधों को भी उसी आँचल से छुपा लेती है जैसे कोई माँ अपने बच्चे को अपनी गोद में ले लेती है...... उसी तरह हरेक पर अपना आँचल फैलाने की कोशिश में जलने तपने की सब पीड़ा भूल जाती है, तभी तो इसे धरती माँ कहते हैं....

शुक्रवार (जुमे) का दिन... यही एक छुट्टी का दिन होता है जब बाहर के काम निपटाए जाते हैं.
नाश्ते में ज़ातर और जैतून के तेल के साथ एक चौथाई खुब्ज़ लिया. वरुण के हाथ की बनी स्पैशल मसालेदार(काली मिर्च और अदरक पाउडर) चाय का आनन्द लिया. कुछ देर अपने देश की राजनीति-आर्थिक व्यवस्था पर बातचीत हुई. धर्म और पाखंडों पर भी बहस हुई ...इन विषयों पर जितनी बेबाक चर्चा अपने किचन की मेज़ पर हो सकती है और कहीं नहीं की जा सकती...
उसी दौरान निश्चित हुआ कि किचन का सामान खरीदने के लिए सबसे नज़दीक के ऑथेम मॉल में जाया जाए, जो हमारे लिए नया था. जब हम मॉल में दाख़िल हुए तो आखिरी सला (इशा) पढ़ी जा रही थी. उस वक्त सब दुकानें बन्द थी.. हर सला पर अक्सर आदमी नमाज़ पढने निकल जाते हैं और औरते वहीं बैठ कर नमाज़ खत्म होने का इंतज़ार करती हैं, कुछ औरतें भी दुआ पढ़ती नज़र आ जाती हैं. ऐसा दिन में चार बार होता है.. खरीददारी का समय ऐसा तय किया जाता है कि दो नमाज़ों के बीच में ज़ब ज़्यादा समय मिलता है या आखिरी सला के बाद ही बाहर निकला जाता है...


इस दौरान हमने खूबसूरत मॉल का एक चक्कर लगाने की सोची... जिसमें एक तरफ ‘बिग बाज़ार’ की तरह बहुत बड़ा स्टोर दिया और दूसरी तरफ़ होम सेंटर...दूसरी मज़िल पर कुछ खास दुकानें जिसमें कपड़े, जूते, पर्स और मेकअप का सामान था...तीसरी मंज़िल पर ‘फूड कोर्ट’ और बच्चों के खेलने बहुत बड़ा ‘फन एरिया’. पैसा खर्च न हो इसलिए शायद आदमी लोगों को शॉपिंग से कोसों दूर भागते हैं लेकिन अपने बच्चों के साथ फूड कोर्ट या फन लैंड में दिख जाते हैं. औरतें ब्यूटी पार्लर में या शॉपिंग में मशगूल....
हर बार रियाद आने पर कुछ न कुछ बदलाव दिखता है... धीरे धीरे ही सही लेकिन बदलाव होता तो है...इस धीमे बदलाव से भी लोगों के मन में आशा की किरण जागती है और जीना आसान हो जाता है.
फूड कोर्ट में औरतों के लिए भी अलग काउंटर्ज़ थे जहाँ कुछ औरतों को खाना खरीदते हुए देखा...


एक और जो बात हमें पसन्द आई कि पर्दे से ढके केबिन के अलावा खुले में भी परिवारों के बैठने का प्रबन्ध था... अपनी इच्छा से पर्दे में या बाहर खुले में बैठने की सुविधा देखकर हमने बाहर ही बैठने का निश्चय किया हालाँकि उस जगह को भी चारों तरफ से नकली पौधों से ढका गया था...


पहली बार जैसे खुले मे साँस लेते हुए खाने का आनन्द आएगा, यह सोचकर हम उस काउंटर पर पहुँचे जहाँ ‘सी फूड’ था. वहाँ के बोर्ड पर लज़ीज़ खाने की तस्वीरों को देख कर भूख और भी बढ़ रही थी... ‘रेप फिश’ का नाम पढ़ कर हम चौंक गए.. सोचा काउंटर पर जाकर इस बारे में पूछे पर उन महोदय को तो अंग्रेज़ी का ए,बी,सी भी नहीं आता था और हम इतने सालों यहाँ रह कर भी अरबी में कच्चे ही रहे....(हिन्दी में लेख होने के कारण अरेबिक की जगह अरबी लिखना ही सही लगा)


रेप फिश पर बहस होने लगी कि शायद लोकल फिश मोस्टल है जिसे बनाने में रेपसीड के तेल का प्रयोग किया होगा... रेपसीड सरसों के ही परिवार का सदस्य है. कहीं कहीं तो इसके फल फूल और डालियाँ भी खाई जाती हैं..वरुण बोला कि शायद स्पैनिश तरीके से बनाई गई फिश हो जिसे ‘रेप अल लिमून’ या ‘फिश इन लेमन सॉस’ कहा जाता है जो मैडिटेरियन सी में पाई जाती है।


दस मिनट पूरे हो चुके थे सो बेटा खाने की ट्रे लेने पहुँचा....उसने दुबारा काउंटर पर खड़े लड़के से पूछने की कोशिश की लेकिन वह कुछ न बता पाया...खैर हमने मछली का आनन्द लिया जिसमें कुछ अलग ही स्वाद था शायद रेपसीड तेल या नीम्बू या सिरके की खटास के कारण.....मुँह के स्वाद को बदलने के लिए वरुण ने पैशन फ्रूट आइसक्रीम खाई. चखने पर बचपन याद आ गया जब गर्मी के दिनों मे हम खट्टे मीठे शरबत फ्रीज़र मे जमने के लिए रख देते थे....दोपहर के खाने के बाद खूब शौक से खाते और गर्मी भगाते.....खाना पीने का आनन्द लेकर घर के खाने-पीने का सामान लेने निकल पड़े...!
(अपने मोबाइल से कुछ तस्वीरें लेने का मोह न रोक सके हालाँकि तस्वीरे लेने की मनाही है)












शनिवार, 30 मई 2009

रियाद की शान -- बुलन्द ईमारतें


खाड़ी के देशों में साउदी अरब सबसे अलग अपने ही कानूनों के साथ चलने वाला देश है. मक्का-मदीना जैसे पवित्र तीर्थ स्थान वाले इस देश में दुनिया भर से हज करने के लिए लोग आते हैं...यहाँ पर्यटन के लिए वीज़ा की कोई गुंजाइश नहीं है.. हज और उमरा के अलावा लोग यहाँ सिर्फ नौकरी के लिए आते हैं...आसानी से वीज़ा न मिलने के कारण इस देश के बारे में जानने की जिज्ञासा लोगों मे बनी रहती है....

होटल की खिड़की से फैसलिया टॉवर और किंग़डम सेंटर दिखा तो सोचा कि आज इन बुलन्द ईमारतों की ही चर्चा की जाए.. यू.के. बेस्ड आर्चिटेक्ट फॉस्टर एंड पार्टंनर्ज़ द्वारा डिज़ाईन किया गया फैसलिया टॉवर रियाद की शान माना जाता है.. साउदी अरब की राजधानी रियाद के बीचों बीच बना यह टॉवर व्यापार का केन्द्र तो है ही इसमें शॉपिंग मॉल भी है जिसमें दुनिया भारत के मशहूर ब्रैंडज़ देखने को मिलते हैं...

दूर से यह ईमारत एक बॉलपॉएंट पेन की तरह दिखता है...जिसके चार मज़बूत बीम सबसे ऊपर पहुँच कर एक गोल्डन टिप से जुड़े दिखते हैं... एक गोल्डन टिप एक बॉल है..या कहिए कि एक ग्लोब है जो एक रिवोलविंग रेस्टोरेंट है....जिसमें बैठकर पूरे रियाद की खूबसूरती देखी जा सकती है...वहीं से रियाद की दूसरी खूबसूरत ईमारत किंगडम सेंटर दिखाई देता है....
किंग़डम सेंटर को बुर्ज अल ममलका भी कहा जाता है... 311 मीटर ऊँची ईमारत दुनिया की 45वीं ऊँची ईमारत है जिसे बेस्ट स्काईस्क्रेपर का एवार्ड भी मिला है... 99 फ्लोर्ज़ में 4 बेसमेंट भी हैं...व्यापार के इस केन्द्र में भी खूबसूरत शॉपिंग मॉल है..सबसे ऊपर 100 मीटर लम्बा डैक है, जहाँ से खड़े होकर पूरे रियाद को देखा जा सकता है... एक और खास बात है इस टॉवर में.... इसकी दूसरी मज़िल को लेडीज़ किंगडम कहा जाता है, जहाँ पुरुष दाखिल नहीं हो सकते...अल ममलका शॉपिंग मॉल और सिर्फ और सिर्फ औरतों के लिए है... जहाँ जाने माने 40 स्टोर्ज़ है ...लगभग 160 शोरूम्ज़ हैं जो औरतों द्वारा ही मैनेज किए जाते हैं... साम्बा बैंक की लेडीज़ ब्रांच ...लेडीज़ मॉस्क...रेस्टोरेंट ...कुल मिला कर औरतों से जुडी हर ज़रूरत को पूरा करता हुआ फ्लोर एक अलग ही मस्ती का माहौल दिखाता है....

शुक्रवार, 29 मई 2009

रेगिस्तान का रेतीला आँचल



धरती माँ के बेलबूटेदार हरयाले आँचल की अपनी ही सुन्दरता है....खुश्बूदार रंगबिरंगे महकते फूल, तने खड़े छायादार पेड़, आँखों को सुकून देती हरी भरी नर्म दूब धरती के आँचल की निराली छटा है....

अरब पहुँचते पहुँचते धरती के आँचल के रूप रंग दोनो ही बदल जाते हैं.. कहीं लाल तो कहीं सफेद कहीं भूरा सा रेतीला रूप मन को लुभाने लगता है....
दूर तक लम्बी काली सड़क बलखाती चोटी सी लगती है... उस पर लहराती रेत सा दुपट्टा सरक सरक जाता.... जिसे इंसान अपने मशीनी हाथ से एक तरफ सरका देता ....

निगाहें क्षितिज के उस छोर तक जाना चाहती हैं जहाँ आसमान रेगिस्तान की गहराई में डूबता दिखाई
देता है...उसी डूबते आसमान से सूरज कूद कर बाहर निकल आता है....

बिजली की तारों पर नट जैसे करतब दिखाता चलने लगता.... उधर रेत की नटखट लहरें चक्रवात्त सी हलचल करके सूरज को गिराने की भरपूर कोशिश करतीं.... तो कहीं रेत अपनी झोली फैला कर लपकने को तैयार दिखती.....
दौड़ता कूदता थका सूरज कब उस झोली में आ दुबकता ,,,पता ही नहीं चलता...उसी पल दिशाएँ भी शांत सी हो जाती,,, हवा भी थम जाती जैसे रुक रुक कर धीमे धीमे साँस ले रही हो... हम भी अपने सफ़र के खत्म होने और मज़िल तक पहुँचने का इंतज़ार करते करते निढाल से हो जाते लेकिन सहरा में संगीत के मधुर सुर एक नई उर्जा शक्ति देने लगे....!!

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सफ़र के कुछ सफ़े - 1



ब्लॉग जगत के सभी मित्रों को नमस्कार.... !

6 अक्टूबर 2008 को अपने देश की ज़मीन पर पैर रखते ही सोचा था कि हर दिन का अनुभव आभासी डायरी में उतारती जाऊँगी लेकिन वक्त हथेली से रेत की तरह फिसलता रहा....आज पूरे चार महीने हो गए घर छोड़े हुए...

घर कहते ही मन सोच में पड़ जाता है कि कौन से घर की बात की जाए... पति और बच्चों के साथ बीस साल जहाँ बिताए वह घर या फिर बच्चों की खातिर दूसरी जगह आकर रहना पड़ा , उस घर की बात की जाए.....या अपने देश के घर की जहाँ रोज़ नित नए अनुभव बहुत कुछ सिखा रहे हैं....

अरब खाड़ी में रहने वाले लगभग सभी परिवारों के साथ एक बात कॉमन है.....बच्चों की स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही एक अभिवावक खासकर माँ को अपने देश आना पड़ता है .... कुछ बच्चे विदेश चले जाते हैं...कुछ बच्चे अपने देश के अलग अलग प्रदेशों में कॉलेज में दाखिला पा लेते हैं... जन्म से लेकर बाहरवीं तक की पढ़ाई के बाद कुछ बच्चे तो अपने देश में फौरन ही रच बस जाते हैं और कुछ बच्चों को वक्त लगता है...उन्हें परिस्थितियों से मुकाबला करने की कला सिखाने के लिए माँ को ही आगे आना पड़ता है। कुछ सालों की मेहनत के बाद बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और बस निकल जाते हैं अपनी मंज़िल की ओर....

वरुण की पढाई खत्म होते ही वीज़ा भी खत्म..... स्टडी वीज़ा खत्म होने के कारण वरुण को दुबई छोड़ना पड़ा... वैसे भी इलाज के लिए अपने देश से बढ़िया का कोई जगह नहीं है... देश विदेश से लोग इलाज के लिए भारत आते हैं सो हमने भी दिल्ली का रुख किया..... छोटे बेटे ने कॉलेज में दाखिला अभी लिया ही था , न चाहते हुए भी उसे अकेले ही दुबई छोड़ना पड़ा .... खैर अब हम दिल्ली में है .... श्री तजेन्द्र शर्मा जी की कहानी 'पासपोर्ट के रंग' उनकी ज़ुबानी सुनते सुनते अपने बारे में सोच रहे थे कि 'शेर वाला नीला पासपोर्ट' होते हुए भी हम अरब देश से बाहर 6 महीने से अधिक नहीं रह सकते... छह महीने के अंतराल में एक बार खाड़ी देश में जाना लाज़िमी है... सफ़र ज़ारी है कभी यहाँ , कभी वहाँ ... लेकिन सर्दी का मौसम सफ़र में थकान होने ही नहीं देता...

पहली बार अक्टूबर में भारत का आनन्द ही अलग लगा... मीठी मीठी धूप में तीखी तीखी मूली खाने का खूब मज़ा ले रहे हैं..इसके अलावा क्या क्या गिनाए.... राजधानी दिल्ली में अलग अलग राज्यों के अलग अलग स्वादिष्ट पकवान सोचते ही बस आपके सामने..... ठंड के मौसम में खाने पीने का अलौकिक आनन्द अभी ले ही रहे थे कि अचानक आईने पर नज़र गई तो चौंक गए...पहले से ही अरब देश का खाना पीना ही नहीं हवा भी खूब लग रही थी .... इधर अपने देश के छ्प्पन भोग से जी था कि भरने का नाम ही नही ले रहा था लेकिन अभी और जीना है यह सोचकर अपने ऊपर पाबन्दी लगाने की बात कुछ इस तरह सोची.........


रे मन अब तू धीरज धर ले !


चिकन मटन को छोड़ के अब तो

घास फूस पर जी ले अब तू ...... रे मन .... !


चिकनी चुपड़ी भूल जा अब तो

रूखी सूखी ही खा ले अब तू .... रे मन .... !


चना-भटूरा, आलू-छोले से कर तौबा अब तो

धुली मूँग पर सबर बस करले अब तू .... रे मन .... !


भरवाँ-पराठाँ, आलू-गोभी मिले न अब तो

फुलका फुलकी में ही मन को लगाले अब तू ... रे मन .... !


मखनी-दाल, नवरतन कोरमा को विदा कर अब तो

अंकुरित दाल, सलाद को अपना ले अब तू ... रे मन ... !


स्थूल काया कम होगी कैसे यही फिकर है अब तो

कृशकाया कैसे फिर आए, यही सोच बस अब तू... रे मन ...!


फिकर फिगर का धीरे धीरे बढ़ता जाता अब तो

खोई हुई फिगर का सपना फिर से देखले अब तू... रे मन ... !


(पतंजलि योगपीठ का सफ़र अगले सफ़े में .........)


मंगलवार, 17 जून 2008

बंद कमरे की एक छोटी सी खिड़की ...!

कई दिनों से दमाम में हूँ , दोनों बेटे और हम घर में रहते हैं...नया शहर होने के कारण कोई मित्र भी नही... हाँ पति के सहकर्मी बार बार कहते हैं कि अपनी पत्नी को कभी भी उनके यहाँ भेज दें… साहब फिलस्तीनी हैं और पाँच बेटियों के पिता हैं सो इशारे में ही कह देते हैं बेटे नही जा सकते. बस यही सोच कर हमारा जाना टल रहा है... अब घर में वक्त गुजारने के लिए किताबें और इंटरनेट या फ़िर अतीत की दुनिया में यादों के साथ.... कल पुरानी तस्वीरे निकाल ली और बस दिन कैसे गुज़रा पता ही नही चला....
२० साल एक ऐसे समाज में गुज़रे जिसकी मानसिकता ने नारीवाद और नारी सशक्तिकरण की सोच को बेमानी माना... यह अनुभव हुआ कल रात नारी के लिए एक पोस्ट लिखते समय ... यहाँ सिर्फ़ ५ % औरतें ही काम के लिए घर से बाहर जाती हैं लेकिन घर से बाहर निकलने के लिए कोई न कोई साथ हो , इसका ध्यान रखा जाता है... १०-१२ साल की लड़की बुरका पहनना शुरू कर देती है... लेकिन बुरका पहन कर भी कुछ जगह ऐसी हैं जहाँ औरतों का जाना मना है जैसे कि वीडियो शॉप, नाई की दुकान , इसी तरह जहाँ पुरूष अधिकतर देखें जायें वहां मतुआ पुलिस आकर देखती है... रेस्तरां में फेमिली सेक्शन बने हैं , जिनके अन्दर पति और बच्चो के साथ ही बैठ सकती हैं ...

वोट देने का अधिकार तो पुरुषो को ही नही है तो औरतों की बात ही नही है फ़िर भी उनकी उम्मीद कायम है कि राजनीति में उन्हें भी शामिल किया जाएगा. किंग फैसल ने जब लड़कियों को शिक्षा देने का ऐलान किया तो इसके खिलाफ धरना देने वालों को हटाने के लिए किंग को सेना भेजनी पडी थी... आज शिक्षा पाने का अधिकार मिलते ही साउदी औरत पुरूष से आगे निकल गयी... किसी भी देश के शिक्षा संस्थान के आंकडे देखें.. लडकियां शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों से हमेशा आगे रही हैं .... यहाँ भी ऐसा ही है... सामाजिक जीवन में हलचल इसी कारण से शुरू हो जाती है ... पुरूष इस हार को सहन नही कर पाता, कही कमज़ोर पड़ जाता है तो कहीं तिलमिला कर ग़लत रस्ते पर भटक जाता है. आजकल साउदी में तलाक का रेट इतना बढ़ गया है कि सरकार और समाज दोनों ही चिंतित हैं...

अभिव्यक्ति की आजादी जो किसी के लिए भी सबसे अधिक महत्त्व रखती है , उसे न पाकर जो दर्द होता होगा , उसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है.... लेकिन इन सब के बाद भी साउदी औरत पश्चिम की दखलंदाजी पसंद नही करती , अपने बलबूते पर ही अपना अधिकार पाना चाहती है... साउदी लेखिका जैनब हनीफी जिनती बेबाकी से लिखना पसंद करती थी उतना ही किंगडम इस बात की इजाज़त नही देता था...अपने कलम की आग से विचारों में गर्मी पैदा करने के लिए लिखना ज़रूरी समझा इसलिए ब्रिटेन जाकर रहने लगी... यूं ट्यूब पर इस इंटरव्यू को दिखने का एक मुख्य कारण है जैनब का निडर होकर बात करना... वही कह सकती हैं कि औरतों के पक्ष में कही हदीस मर्दों को सही नही लगती या उनका कोई वजूद ही नही है


मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007

M.P. सिर्फ मध्य प्रदेश नहीं, 'मेरे प्यारे' भारत का ह्रदय है !

यह उन दिनों की बात है जब मैं रियाद के इंटरनेशनल इंडियन स्कूल में पढ़ाया करती थी. स्कूल की एक अध्यापिका का हम पर असीम प्रेम था और आज भी है. एक बार उन्होंने बड़े प्यार से एक दावत पर बुलाया , वहाँ पहुँच कर पता चला कि मध्य प्रदेश की एक एसोशियसन 'मिलन' की पार्टी चल रही है. हमें वहाँ देख कर सभी जानने के लिए उत्सुक हो उठे कि हम उस 'मिलन' की पार्टी में पहुँचे कैसे ! इसके पीछे उनके मन में हमारे लिए न कोई दुराव था न बैर-भाव , यह हम जानते थे. कुछ चेहरे चमक उठे और कुछ भावहीन से हो गए.
पता नहीं क्यों हमें ही कुछ अटपटा सा लगने लगा था कि मध्य प्रदेश में न जन्में, न शिक्षा पाई , न ससुराल फिर हम इस एसोशिएसन की पार्टी में क्या कर रहे हैं. सब लोग इस बारे में पूछ रहे थे और हमसे कोई जवाब देते नहीं बन रहा था. हम दिल्ली मे जन्में, पले-बढ़े, पता चलने पर उनकी आँखों में प्रश्न चिन्ह सा दिखाई देता कि फिर यहाँ क्या कर रहे हैं !
क्या कहें कि हम कैसे किसी का प्रेम और आदर से दिया गया निमंत्रण ठुकरा दें.
शेरो-शायरी , खेल और भोजन के बाद हम वहाँ से निकले तो अपने आप ही दिल और दिमाग से कविता के रूप मे शब्द उमड़-घुमड़ करने लगे. आज इस घटना को याद करने का कारण संजीत जी की छत्तीसगढ़ पर लिखी पोस्ट और उस चार चाँद लगाती टिप्पणियाँ हैं. अब छत्तीसगढ़ अलग अंग है लेकिंन सन 2000 से पहले मध्य प्रदेश का ही अंग था और मध्य प्रदेश भारत में ...भारत हमारा, तो मध्य प्रदेश भी प्यारा और अब छत्तीसगढ़ भी प्यारा है.

M.P. सिर्फ मध्य प्रदेश नहीं
'मेरे प्यारे' भारत का ह्रदय है !

M.P. सिर्फ वहाँ के लोगों का नहीं
'मेरा प्यारा' प्रदेश सबका अपना है !

एम पी हमारा जन्म स्थल नहीं
एम पी हमारा कर्म स्थल नहीं !

एम पी प्यारा फिर भी हम सबका है
एम पी प्यारा भारत का अपना है !

इसलिए

अपनी बाँहो का घेरा बढ़ा लो
अपने आँचल की स्नेही छाया दो !

हर मानव को प्यार से अपना लो
'मिलन' को प्यारा दुलारा बना दो !

क्योंकि

मिलन होगा जब यहाँ मानव मानव का
मिलन होगा जब यहाँ भाषा भाषा का !

मिलन होगा जब यहाँ भिन्न धर्मो का
मिलन होगा जब यहाँ की जातियों का !

मन पपीहा(M.P) तब मस्त होगा सभी का
मुख प्यारा (M.P) तब खिल उठेगा सभी का !

मधु प्याला(M.P) प्रेम-रस का मिलेगा सभी को
मीत प्यारे(M.P) तब मिलेगे हम सभी को !!

शनिवार, 29 सितंबर 2007

वसुधा की डायरी ३



जब काले बादल मँडराते हैं , बिजली चमकती है , बादलों की गर्जना से धरती हिलने लगती है , जीवन में ऐसी स्थिति आने पर लगता है जैसे बिखरने में पल भी नहीं लगेगा लेकिन वही एक पल है जब अपने आप को बिखरने से बचाना है । काले बादलों में चमकती, कड़कती बिजली को आशा की किरण मानकर तूफ़ान से निकलना ही अन्दर की ताकत है । कहना आसान है लेकिन करना उतना ही कठिन पर कुछ उक्तियाँ बिल्कुल सही हैं । 'नो पेन, नो गेन' या 'जहाँ चाह है , वहाँ राह है' जीवन प्रकृति का एक सुन्दर कोना भी है , सुन्दर रंग-बिरंगे खिलते फूलों के साथ काँटे भी हैं, झाड़-झँखार भी हैं। बोर्ड के पेपर खत्म हो चके थे और अब रिज़ल्ट का इन्तज़ार था। यही सोचते हुए वसुधा ने देखा सामने से वैभव चला आ रहा है, 'मम्मी, क्या हुआ, क्या सोच रही हो?' वैभव के पूछने पर वसुधा ने चेहरे के भाव बदल कर कहा, ' सोच रही हूँ कि शाम के लिए क्या ,,,, बीच में ही वसुधा की बात काटते हुए बेटा बोल उठा, 'बात को बदलिए नहीं , आपका चेहरा ही बता रहा है कि मन में कुछ उथल-पुथल चल रही है।' 'कुछ नहीं बेटा, कुछ भी तो नहीं' नज़रे चुराते हुए वसुधा बात को बदलना चाहती थी लेकिन वैभव समझ रहा था कि कोई बात है जो माँ को अन्दर ही अन्दर खाए जा रही है। 'आप मेरे लिए परेशान हैं या कोई और बात है, बताइए ना,,, ' वैभव के ज़ोर देने पर वसुधा को कहना पड़ा कि सागर को लेकर वह परेशान है । 'तुम बच्चों के लिए कुछ ज़्यादा ही भावुक हैं तुम्हारे पापा' वसुधा के कहते ही वैभव हँस कर बोला, 'मॉम, आप की वाक-पटुता ने मुझ जैसे लँगड़दीन को भगवान का फेवरेट चाइल्ड बना कर सीधा कर दिया तो पापा को समझाना आपके लिए कोई मुश्किल नहीं होगा।' वसुधा के कंधों को पीछे से दबाते हुए बोला, ' मम्मी, दर्द तो अब मेरा साथी है, धीरे-धीरे बैसाखियों के साथ रहने की भी आदत पड़ जाएगी। ' वसुधा अन्दर ही अन्दर अपने आँसू पी रही थी लेकिन होठों पर मुस्कान थी ।
रात के खाने पर डाइनिंग टेबल पर खाना खाते वक्त विलास वैभव से पूछने लगा कि फिज़िक्स लैब के बाहर खड़े होकर वैभव लैब असिसटेंट से क्या बातें कर रहा था । पूछने पर वैभव खिलखिला कर हँस पड़ा । सागर और वसुधा भी उत्सुक हो उठे। वैभव बताने लगा कि अहमद सर ने पूछा कि जब क्लास के सारे बच्चे फुटबॉल खेलते हैं तो उसका दिल नहीं करता कि वह भी उनके साथ खेले? उनके पूछने पर मैंने जवाब दिया कि नहीं, खेल ही नहीं सकता तो क्यों सोचे। जो वो कर रहे हैं , मैं नहीं कर सकता लेकिन जो कुछ मैं कर सकता हूँ वो नहीं कर सकते। भगवान कुछ लेता है तो कुछ देता भी है, मेरी यह बात सुनकर सर कहने लगे, 'मान गए उस्ताद, वाह क्या बात कह दी'।'
वसुधा ने अनुभव किया कि वैभव ने दर्द के साथ धीरे-धीरे रिश्ता जोड़ लिया है । बहुत दिनों बाद वसुधा ने घर में वही पुराना मस्ती भरा माहौल देखा। सच में जीने का मज़ा ज़िन्दादिली में है। वसुधा के परिवार ने सीख लिया कि जीवन में आने वाली सभी बाधाओं के साथ , मिलने वाली हार के साथ ही चलना है , चलना ही नहीं है , दौड़ना है। हेलन केलर के अनुसार सूरज की तरफ अपना चेहरा रखो और तुम छाया नहीं देख पाओगे। वसुधा सोच रही थी कि गहन अंधकार में डूबने का अनुभव न हो तो सूरज का प्रकाश अर्थहीन हो जाता है। जीने का आनन्द लेना है तो सुखों के साथ दुखों का भी स्वागत करना होगा।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

आवाज़

आवाज़ सृष्टि का अनमोल वरदान है
आवाज़ से ही सम्पूर्ण जगत में प्राण हैं
आवाज़ में तेरी आन और शान है
आवाज़ से ही तेरी  पहचान है !

धूप में लहराती गेहूँ की बालियों सी
सोने की चमक और पैनापन लिए सी
ज़मीन पर पड़ी गुड़ की डली ढली सी
मीठी बहुत कोमल मिठास लिए सी
आवाज़ से ही तेरी  पहचान है !

चूड़ी की नहीं खनक, है सोने के कंगन की धमक
बिछुओं की नहीं आवाज़,  है पायल की सुरीली छनक
डफली का नहीं राग,  है ढोलक की ढमक ढम-ढम
साँसों की तेरी सरगम पर वीणा के तार बजें पल पल
आवाज़ से ही तेरी  पहचान है !

भीनी-भीनी बसंती हवा से महकते सुर तेरे
शीत-ऋतु की पवन जैसे थरथराते सुर तेरे
ग्रीष्म-ऋतु से गर्मी पाकर तापित सुर तेरे
पतझर के सूखे पत्तों से झरते कभी सुर तेरे
आवाज़ से ही तेरी पहचान है !

तेरी आवाज़ में सूरज की तपिश  है
चंदा की आब है और शीतलता भी है
तेरी आवाज़ में तारों की मद्धिम आभा है
ओस में भीगी हरी दूब की कोमलता भी है
आवाज़ से ही तेरी पहचान है !

वर्षा की रिम-झिम बूंदों सा इक-इक अक्षर तेरा
पहाड़ी झरने सा झर-झर करता स्वर तेरा
चंचल नदी की नटखट धारा सा सुर तेरा
भेद भरे गहरे सागर का गांभीर्य लिए हर शब्द तेरा
आवाज़ से ही तेरी पहचान है !

आवाज़ सृष्टि का अनमोल वरदान है
आवाज़ से ही सम्पूर्ण जगत में प्राण हैं
आवाज़ में तेरी आन और शान है
आवाज़ से ही तेरी पहचान है !


रियाद में आयोजित मुशायरे में श्री बशीर बदर और श्री मंज़र भोपाली जी के साथ कविता-पाठ करने का सौभाग्य मिला तो 'आवाज़' कविता पढ़ी , उनके द्वारा सराहे जाने पर बाल-सुलभ खुशी से आज भी मन झूम उठता है।

गुरुवार, 30 अगस्त 2007

रियाद के उस पार....




आकाश के आँचल में सोया सूरज अभी निकला भी न था कि हम निकल पड़े अपने नीड़ से। अपने हरे-भरे कोने में खिले फूलों को मन ही मन अलविदा कर के मेनगेट को बन्द किया।
बड़ा बेटा वरूण वॉकमैन और कैमरा हाथ में लेकर पिछली सीट पर बैठा। छोटा बेटा निद्युत अभी नींद की खुमारी में था, फिर भी अपनी सभी ज़रूरत की चीज़ों पर उसका ध्यान था। नींद से बोझिल आँखों में उमंग और उल्लास की लहरें हिलोरें मार रही थी।
बच्चों की प्यारी मुस्कान मेरा मन मोह रही थी। पतिदेव विजय भी सदा लम्बी ड्राइव के लिए तैयार रहते हैं लेकिन दुबई की यात्रा का यह पहला अनुभव था। कब शहर से दूर रेगिस्तान में आ गए पता भी न चला। दूर तक जाती काली लम्बी सड़क पर बढ़ती कार क्षितिज को छूने की लालसा में भागी चली जा रही थी। कुछ ही पल में सूरज बिन्दिया सा धरती के माथे पर चमक उठा और चारों दिशाएँ क्रियाशील हो उठी।
बॉर्डर पर औपचारिकताएँ निभाकर हमने चैन की साँस ली। सोचा अब दुबई दूर नहीं। दुबई देखने की भूख ने पेट की भूख को मिटा दिया था। रेगिस्तान पार करके पहुँचे समुन्दर के किनारे किनारे और आनन्द लेने लगे हरे-भरे दृश्यों का। मैं हमेशा सोचती हूँ कि रेगिस्तान को हरा करके इन्सान ने प्रमाणित कर दिया कि वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता। "चिलचिलाती धूप को भी चाँदनी देवें बना"
आबू धाबी शहर को पार करते ही दुबई का वैभव बाँहें फैला कर स्वागत के लिए खड़ा था। ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ गर्व से सिर उठाए अपने रूप से सबका मन मोह रही थी। जंतर-मंतर की भूल-भुलैया जैसी दुबई की सड़कें जो घुमा-फिरा वापिस एक ही जगह पहुँचा रही थीं। हवाई अड्डे के आसपास ही होटल था लेकिन हम वहाँ पहुँच ही नहीं पा रहे थे।
पेट में चूहे कूदने लगे और हमने करांची रेस्टोरेंट में बैठ कर गोल-गप्पे , भेलपूरी और समोसे का स्वाद लेने का निश्चय किया। नीले आकाश के नीचे खुले में खाने का मज़ा ही अलग आ रहा था। अपने देश की याद आने लगी और गिनने लगे दिन कि कब फिर जाना होगा।
खोज पूरी हुई और हमें दुबई इन्टरनेशनल एयरपोर्ट के पास ही दुबई ग्रैन्ड होटल मिल गया, जहाँ हमारे रहने का प्रबन्ध था। अगले दिन एक ने उल्लास के साथ हम निकले। वन्डरलैन्ड में पहला दिन झूलते-झूलते ही गुज़र गया लेकिन कुछ नया अनुभव नहीं हुआ।


हाँ, दुबई की लम्बी सुरंगों के दोनों ओर प्रकाश की कतारें बरबस एक सुन्दर सजीली दुल्हन की माँग का आभास करा देती थी जिसको अपने कैमरे में कैद करने का मोह हम नहीं छोड़ पाए।
शापिंग सेन्टरों में नया कुछ नहीं था और गोल्ड बाज़ार तो जाने का कदापि मन नहीं था। मन को बाँधा तो ग्लोबल विलेज ने, जहाँ हम दो बार गए। लगभग चौबीस देशों की सांस्कृतिक और व्यापारिक प्रदर्शनी एक साथ देख कर हमने दाँतों तले उंगली दबा ली। सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह थी कि पुलिस के कम से कम प्रबन्ध में सब कुछ शान्ति से चल रहा था। अलग-अलग देशों के लोगों को एक साथ आनन्द लेते देखा तो मन कह उठा कि दुबई अरब देशों का स्विटज़रलैंड है जहाँ दुनिया के कोने-कोने से लोग घूमने आते हैं और मधुर मीठी यादें लेकर आते हैं।
दुबई के ग्लोबल विलेज में रात की चहल-पहल का एक विहंगम दृष्य जिसे जायंट व्हील के ऊपर से अपने कैमरे में कैद किया।
दुबई जाकर कुछ खरीददारी न की जाए यह तो सम्भव नहीं था। हमने भी कुछ न कुछ खरीदा और मित्रों के लिए भी कुछ खरीदा। लेकिन मन में एक कसक रह गई कि एक प्रिय मित्र से मुलाकात न हो पाई। होटल के कर्मचारियों ने किसी के भी फोन आने का सन्देश नहीं दिया कि शारजाह से हमारे किसी मित्र का फोन आया था। शायद हमारी भी गलती थी जो हमने बिना सोचे-समझे निर्णय ले लिया कि हमारा स्वागत न होगा या हम किसी पर बोझ बन कर समय नष्ट करेंगे।
खै़र इस पीड़ा को भुलाने के लिए हमने मनोरंजन का एक नया साधन चुना। भोजन के बाद हमने सोचा कि क्यों न खुले आकाश के नीचे बैठ कर चित्रपट पर एक हिन्दी फिल्म देखी जाए। बच्चों के लिए भी यह एक नया अनुभव था । कार में बैठ कर या बाहर कालीन कुर्सी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जा सकता था। "चोरी-चोरी चुपके-चुपके" फिल्म बच्चों को कम आनन्द दे पाई थी लेकिन आकाश के नीचे बैठ कर लोगों का खाना-पीना और मीठी सी सर्दी में कम्बलों में दुबक कर बैठना उन्हें अधिक अच्छा लग रहा था।
अगले दिन रियाद लौटने की तैयारी होने लगी पर मन दुबई में ही रम गया। होटल के स्विमिंग पूल से बच्चे निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। फिर से आने का वादा कर उन्हें कार में बिठाया किन्तु प्यास अभी भी थी दुबई को सिर्फ चार दिन में देखना सम्भव नहीं था। घूंघट की ओट से जैसे दुल्हन के रूप की हल्की सी झलक देखकर लौट जाना , वैसे ही हम दुबई के रूप की हल्की से झलक देख कर लौट आए, फिर से उसके सौन्दर्य के देखने की लालसा पाल कर।