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बुधवार, 5 जून 2013

रिक्शावाला और उसकी लाड़ली


मोबाइल से खींची गईं तस्वीरें 
पिछले साल के कुछ यादगार पल..2012 मार्च की बात है, देर रात निकले मैट्रो स्टेशन के नीचे के स्टोर से दूध और मक्खन खरीदने के लिए... पैदल का रास्ता होने पर भी गली के कुत्तों से डर के कारण रिक्शा पर जाने की सोची वैसे रिक्शे पर हम कम ही बैठते हैं. 
इस बात का ज़िक्र करते हुए एक पुरानी घटना भी याद आ गई जो भुलाए नहीं भूलती,  उसके बाद तो सालों तक रिक्शा पर नहीं बैठे. बड़ा बेटा 9-10 साल का रहा होगा. हर बार की तरह जून जुलाई में गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में थे. ईस्ट ऑफ कैलाश से संत नगर जाने के लिए रिक्शा लिया. दोनों बेटों के साथ मैं भी रिक्शे पर बैठ गई. संत नगर के नज़दीक आते ही कुछ दूरी तक की चढ़ाई थी जिस पर रिक्शा चालक नीचे उतर कर ज़ोर लगा कर रिक्शा खींचते हुए आगे बढ़ने लगा. अचानक बेटे ने उसे रोक दिया. पहले उसे अपनी पानी की बोतल दी और फिर मुझे नीचे उतरने के लिए कहा, हालाँकि उस वक्त हम आज की तरह वज़नदार नहीं थे. बेटे खुद भी  उतरने लगे तो रिक्शेवाले ने ट्रैफिक से डरते हुए बच्चों को नहीं उतरने दिया. हैरान परेशान रिक्शा वाले ने जल्दी ही चढ़ाई पार करके मुझे भी बैठने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया.
फिलहाल द्वारका की सोसाइटी के बाहर ऑटोरिक्शा से ज़्यादा साइकिल रिक्शा दिखते हैं. किसी भी काम के लिए रिक्शे पर जाना वहाँ सबसे सुविधाजनक है. गेट के बाहर खड़े  रिक्शे पर हम बैठे ही थे कि रिक्शावाला बोल उठा, 'मेम साहब, बच्ची को आइसक्रीम खिलाने में वक्त लग जाएगा' हमें कोई जल्दी नहीं थी इसलिए हमारी हामी भरते ही वह इत्मीनान से बच्ची को आइसक्रीम खिलाने लगा. बीच बीच में उसका मुँह साफ करता हुआ प्यार से बातें भी करता जाता. 
बच्ची को गोद में लेकर जिस प्यार से वह उसे आइसक्रीम खिला रहा था किसी भी तरह वह माँ से कम ध्यान रखने वाला नहीं लग रहा था. हमसे रहा न गया तो पूछ ही लिया कि बच्ची की माँ कहाँ है. 'इसकी माँ शाम को काम करती है घरों में और मैं इसे सँभालता हूँ साथ-साथ नज़दीक ही रिक्शा भी चलाता हूँ, दो चार पैसे जोड़ लेंगे तो बेटी को कुछ पढ़ा लिखा सकेंगे.'  उसकी बात सुनकर मन खुश हो गया. आशा की किरण जाग गई कि बेटियों की कदर करने वाले ऐसे माता-पिता भी हैं जो अपनी बेटियों की  सुरक्षा पर ध्यान देते हैं, उनके सुनहरे भविष्य के सपने भी सँजोते हैं. 
आइसक्रीम खिलाने के बाद उसने लोहे की टोकरी में कपड़े को सही से बिछा कर बेटी को उसमें बड़े प्यार और ध्यान से बिठा दिया. बच्ची भी चुपचाप बैठ गई , शायद उसे आदत हो गई थी लेकिन मुझे डर लग रहा था कि कहीं उसे लोहे की टोकरी चुभ न जाए. सड़क पर लगे स्पीड ब्रेकर के कारण उछल कर नीचे न गिर जाए. बार-बार मेरे ध्यान रखने पर वह हँस दिया. 'कुछ नहीं होगा मेमसाहब' कह कर रिक्शा चलाते हुए बच्ची से बस यूँ ही बात करता जाता. हालाँकि बच्ची सयानी बन कर बैठी थी. 
चलने से पहले उसके साथ तस्वीर खिंचाने की इजाज़त माँगी तो वह बहुत खुश हो गया. बेटी आइसक्रीम खाकर टोकरी में तसल्ली से बैठी थी और पिता ने बहुत बड़ी और प्यारी मुस्कान के साथ तस्वीर खिंचवाई.