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मंगलवार, 1 जून 2010

काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता







ज़रूरी नहीं कि जो कहते नहीं,,,बोलते नहीं... या ब्लॉग पर लिखते नहीं...उन्हें समाज में हो रही घटनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता.... सब अपने अपने तरीके से उन घटनाओं के प्रति अपने भाव प्रकट करते हैं...उन घटनाओं को देखते सुनते हुए कभी मौन धारण कर लेते हैं तो कभी बहस और वाद विवाद करने लगते हैं. कभी वही विवाद किसी ‘वाद’ का बदसूरत रूप लेकर चारों तरफ अशांति फैला देते हैं...

कुछ विदेशी दोस्तों ने नक्सलवाद के बारे में पूछा तो विकीपीडिया का लिंक भेज दिया लेकिन खुद भी पढने बैठ गए... अचानक अपने देश के नक्शे पर नज़र गई तो फिर हटी नही...... जिस तरह से लाल,पीले और संतरी रंगों से नक्सलवाद के छाए आंतक को दिखाया गया था उसे देख कर एक अजीब सा दर्द महसूस होने लगा....

नक्शा घायल शरीर जैसा दिखने लगा..... नक्शे पर फैले लाल पीले रंग को देख कर लगने लगा जैसे ज़ख़्म हों जो नासूर बन कर रिस रहे हों.......घाव इतने गहरे लग रहे थे जैसे कि उनका इलाज सम्भव ही न हो.....समूचा वजूद तेज़ दर्द की लहर से तड़प उठा.....

अचानक नादान मन सोचने लगता है ....काश.... शब्दकोष में ‘वाद’ शब्द ही न होता तो कितना अच्छा होता.....‘वाद’ शब्द ही नहीं होगा तो फिर किसी तरह का कोई विवाद खड़ा न हो सकेगा... बेकार की बहसबाज़ी न होगी.....दलबाज़ी और गुटबाज़ी न होगी.... झग़ड़ा फ़साद न होगा... मासूमों का ख़ून न बहेगा... नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद, पूँजीवाद , समाजवाद जातिवाद आदि का झगडा भी नही रहेगा.........!

सबसे खास बात होगी अपने देश का नक्शा घायल जैसा न दिखेगा....!!!!