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गुरुवार, 6 सितंबर 2007

हरी भरी दूब


हरी-हरी दूब पर इधर-उधर भागते बच्चों को कभी देखती तो कभी व्यास नदी के किनारे छप-छप करते नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से एक-दूसरे पर पानी उछालते बच्चों की मधुर मुस्कान को देखती जो मन-मोहिनी थी। कितनी ही बार झुक-झुक कर बच्चे नदी की बहती शीतल धारा के मीठे पानी को अंजुलि से मुँह में भरने की कोशिश कर रहे थे, दो बूँद पानी मुँह में जाता बाकि नदिया में फिर से बह जाता , पर बच्चों को झुकने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी । काश मेरा बचपन लौट आए तो मैं भी उन जैसे ही खेल-खेल में ही ठंडे पानी से खेलती और पीकर अपनी प्यास बुझाती। शायद बुढ़ापा आ रहा है या मेरा अहम् मुझे झुकने से मना कर रहा है । मानव की प्रकृति भी अद्भुत है , प्रेम पाने की लालसा सदा रहती है लेकिन आत्मसमर्पण करना कठिन लगता है । मैं टूट सकती हूँ लेकिन झुक नहीं सकती। झुकने का डर कायरता की निशानी है । वास्तव में झुकने से कुछ मिलेगा ही , कुछ भी खोने का भय होना ही नहीं चाहिए। बच्चों को देख रही हूँ जो हरी मुलायम घास पर दौड़ रहे हैं लेकिन आश्चर्य हो रहा है घास का व्यवहार देखकर जो अपना हरयाला आँचल बिछाए बच्चों को हँसते मुस्कराते देख खुशी से झूम रही है । दूर-दूर तक नज़र गई तो देखा कि पिछले हफ्ते आए तूफ़ान से कितने ही पेड़ जड़ समेत धराशायी हो गए। तूफ़ान के सामने बड़े-बड़े पेड़ हार गए, टूट गए, अब उनमें दुबारा खड़े होने की ज़रा सा भी शक्ति नहीं रही । दूसरी तरफ हरी दूब को जीने की कला आती है , तूफ़ान आया , चला गया पर दूब और भी अधिक निखर गई , जैसे सोना आग में तप निखर जाता है हरी मुलायम दूब और भी निखर उठी।

सोच रही हूँ कि प्रकृति कितना कुछ सिखाती है लेकिन हम अपने अहम् में डूबे , अपने अन्दर की लड़ाइयों में व्यस्त अनदेखा कर जीवन की डगर पर बढ़ने की कोशिश में लगे रहते हैं।