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सोमवार, 27 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

चित्र गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)

ब्लॉग लेखन में फिर से सक्रिय होने का कारण अगर 'सुधा' है तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग जगत का मोह भी कुछ कम नहीं है.. इसका मोह भी बहुत कुछ असल दुनिया के मोह जैसा ही है जिसका मोहक रूप बार बार अपनी तरफ खींच कर वापिस बुला लेता है ... ब्लॉग़ जगत के वासियों का मोह भी कुछ ऐसा ही है लेकिन बार बार एक लम्बे अंतराल के बाद मिलना ऐसा ही जैसे 'नज़र से दूर, दिल से दूर' फिर भी इतना यकीन तो है कि जब भी मिलेंगे अपनेपन से मिलेंगे....
शादी के बाद  ससुराल के पूरे परिवार के साथ सुधा पहला फेरा डालने अपने मायके पहुँच गई थी...धीरज को देख कर तो माँ समेत सभी परिवार वाले उसके ही आगे पीछे घूम रहे थे....किसी ने एक बार भी सुधा से नहीं पूछा कि वह कैसी है...हाँ बड़ी दीदी ने धीरज को हँसी हँसी में ताना ज़रूर मार था , "पहली बार नई दुल्हन को मायके क्या इस तरह लाते हैं,  बसों के धक्के और धूल फँकवाते हुए ....!" सुनकर बस खिसियानी हँसी हँस दिए थे धीरज.... छोटी भाभी ने हँसते हुए कहा , " जीजाजी के साथ सुधा ने बाहर ही जाना है...तब तक यहाँ धक्के धूल खा लेने दो दीदी..." तब भी धीरज कुछ न  बोले कि कम्पनी में काम न होने के कारण कई लोगों को देश वापिस भेज दिया गया है. धीरज भी अनिश्चित समय के लिए फिलहाल बेरोज़ग़ार ही कहे जा सकते थे उस वक्त.....
सुधा उस वक्त धीरज के साथ से ही इतनी खुश थी कि किसी बात का उस पर कोई असर न हुआ.... सुधा के परिवार वालों ने अपनी सामर्थ्य से भी ज़्यादा स्वागत सत्कार किया फिर भी सुधा के ससुराल वालों को खुश न कर सके...अक्सर हमारे समाज में यही देखने में आता है कि जितना लेन-देन को महत्त्व दिया जाए उतनी ही मात्रा में नाराज़गी और नाखुशी भी  बढ़ती है... 
 ससुराल लौटते ही सास ने थक कर चूर सुधा को रसोईघर में मेहमानों के लिए खाना बनाने के लिए लगा दिया और कुछ मेहमानों को बस स्टॉप तक छोड़ने चली गईं...लम्बे घूँघट को सँभालती हुई सुधा ने पहले पूरे घर की सफ़ाई की फिर खाना बनाने के लिए रसोईघर आई.. गैस का चूल्हा तो वहाँ था ही नहीं जिस पर उसने पहली बार हलवा बनाया था... मिट्टी के चूल्हे को कैसे सुलगाएगी .माँ के घर में काम खूब किया था लेकिन मिट्टी के चूल्हा यहीं देखा था...... सोचती हुई वहीं पास ही चारपाई पर बैठ गई... खुले आँगन में खुली रसोईघर बनी हुई थी, जो दो तरफ से बिना छत की छोटी छोटी दीवारों से ढकी हुई थी....सुधा टकटकी लगाए कच्चे चूल्हे को देख रही थी कि बड़ी ननद आ गई उसकी मदद करने...उन्होंने चूल्हा जलाने का तरीका बताया , बातों बातों में उन्होंने यह भी बता दिया कि उनके घर से गैस का चूल्हा आया था जो वापिस भिजवा दिया गया है...उनका घर पास में ही था......
 बस स्टॉप से लौटी सास ने जब बहू को चूल्हे के साथ उलझते देखा तो अपने गुस्से पर काबू न रख पाई....."ऐसे कैसे चलेगा...अभी तक चूल्हा ही नहीं जला तो खाना कब बनेगा" सास के तीखे तेवर देख कर वह सहम गई..हाथ तेज़ी से चलने लगे... चूल्हे पर दाल रखकर आटा गूँदने लगी...लम्बे घूँघट के कारण काम करना मुश्किल लग रहा था लेकिन किससे कहती.. जेठानियाँ भी घूँघट में ही बैठी दिखीं तो वह भी मन मसोस कर रग गई....बला की गर्मी...बिजली के साथ साथ हवा भी ग़ायब थी... जैसे-तैसे खाना खत्म किया कि चाय के लिए पुकार होने लगी...
चाय के इंतज़ार में कुछ मेहमान सुस्ताने लगे और कुछ अपना सामान बाँधने लगे.. तभी दिल्ली शहर से खबर आई कि धीरज के चचेरे भाई सागर का बेटा हुआ है. सुधा किस्मत वाली थी कह कर सभी उसे और एक दूसरे को  मुबारकवाद देने लगे. धीरज और सागर कुवैत  में एक ही कम्पनी में काम करते हैं.....सागर भैया कुवैत में ही थे लेकिन अणिमा भाभी अपने मायके में थी. सास-ससुर ने तय किया सभी बड़े  बेटे के घर जाएँग़े जहाँ सागर के बेटे का नामकरण किया जाएगा. एक खास बात दिखी थी यहाँ कि चाचा ताऊ के बच्चों में कोई फर्क नहीं समझा जाता.
सुधा पहली बार दिल्ली शहर आई थी. दिल्ली में घर खरीदना आसान नहीं,  किराए के घर भी कबूतरखाने जैसे होते हैं.,धीरज के बड़े भैया का घर बहुत छोटा था जिसमें दो भाई और उनके परिवार एक साथ रहते थे.  एक ही कमरे में दरियाँ बिछीं थीं और घर के सभी लोग एक साथ बैठे बातचीत में मगन थे.  घूँघट की ओट से सुधा सबको देख रही थी... सुन रही थी सबकी बातें जिनमें अणिमा भाभी का बार-बार ज़िक्र हो रहा था. आधी बात समझ आ रही थी और आधी बात सिर के ऊपर से निकल रही थी.
ससुरजी ने तय कर लिया था कि अगर अणिमा बच्चे के चोले की रस्म के लिए बड़े भैया के घर नहीं आएगी तो कोई उसके मायके नहीं जाएगा. परिवार के कुछ आदमी जाएँगें बस औपचारिकता निभाने के लिए. बात सिर्फ इतनी थी कि अणिमा भाभी और बच्चे की तबियत ठीक नहीं थी और 11 दिन के बच्चे को लेकर वे सफ़र नहीं करना चाहती थीं. उनकी 'न' ने घर भर में हंगामा खड़ा कर दिया . सभी भाभी को बुरा भला कहने लगे.
मन ही मन सुधा अणिमा भाभी और उनके बेटे को देखने के लिए उत्सुक थी.
धीरज चुप थे. एक पल के लिए नहीं सोचा कि सागर भैया को कितना बुरा लगेगा. उनकी खातिर एक बार साथ चलने के लिए कहते लेकिन न कुछ कह पाए और न ही साथ गए. सुधा ने महसूस किया कि उसके पति अपने माता-पिता से बहुत डरते हैं. वे चाहकर भी साथ चलने की बात नहीं कर पाए.
आदर और डर में फ़र्क होता है , अक्सर हमारे समाज के बुज़ुर्ग डर को आदर समझने की भूल कर बैठते हैं. कई बार घर के बड़ों के सामने बच्चे अपने मन की बात नहीं रख पाते.. उनके डर के कारण  ग़लत को ग़लत कहने से घबराते हैं. सभी नहीं तो अधिकाँश लोग इस त्रासदी को झेल रहे हैं. यही कारण है कि कभी बुज़ुर्गों की तानाशाही बच्चों को उग्र बना देती है तो कभी एक दम दब्बू. 
सुधा का बचपन भी ऐसे ही परिवार में बीता था जहाँ छोटी छोटी गलतियों पर साँकल से बाँध दिया जाता या कपड़े धोने वाले डंडे से पीट दिया जाता था. सुधा समेत सभी बेटियों को दसवीं के बाद सिलाई कढ़ाई सिखा कर घर बिठा दिया गया था. शादी के सपने देखते हुए सोचती थी कि पति के घर में आज़ादी मिलेगी. कुछ हद तक मिली भी लेकिन जंजीरें यहाँ भी थी.
दिल्ली से लौट कर अभी 15 दिन भी नहीं हुए थे कि सुधा को फिर दिल्ली जाने का आदेश हुआ. बिना कुछ सवाल जवाब किए अपनी दुल्हन को धीरज दिल्ली छोड़ आए अपनी मझली भाभी की सेवा के लिए जिन्हें अभी चौथा महीना शुरु हुआ था. सुधा का तो दिल ही बैठ गया क्योंकि उसे समझ आ गई थी कि बच्चा होने तक  उसे वहीं ठहरना होगा. वे दिन भी भुलाए नहीं भूलते. दो जेठानियों के बीच में पिसती सुधा ने कैसे अपने दिन बिताए, वही जानती है.
छोटी होने के कारण सुधा पर दोनों जेठानियाँ बड़े  रौब से हुक्म चलातीं. बड़ी  का काम अधूरा छोड़कर छोटी के काम को पूरा करती तो बड़ी नाराज़ हो जाती... बड़ी का काम करके आती तो छोटी का मुँह बना होता. कभी कभी तो दोनों की नाराज़गी में उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता. शर्म के कारण दोनों में से किसी एक को भी कह न पाती कि उसे भूख लगी है. उस वक्त धीरज की याद आती कि क्या उन्हें भी उसकी याद आती होगी. एक बार भी आकर नहीं पूछा कि क्या हाल है, कैसे दिन कट रहे हैं. आए तो पूरे छह महीने बाद चाचा बनने के बाद.
सुधा की खुशी का ठिकाना नहीं था. धीरज के साथ बस पर बैठने के बाद ही उसे यकीन हुआ कि सच में वह ससुराल लौट रही है.
धीरज के चेहरे को एक पल देखते हुए सर झुकाकर सुधा ने पूछा, 'आपको मेरी एक बार भी याद नहीं आई इतने महीनों में' 'आई, पर क्या करता.' कह कर धीरज दूसरी तरफ देखने लगे. मन ही मन कितने ही सवाल लेकर सुधा ने सफर पूरा किया. उसके मन में एक गाँठ थी जो खुलने का नाम न लेती. तस्वीर से रिश्ता पक्का होने के बाद धीरज ने एक बार भी अकेले मिलने की कोशिश नहीं की थी. दो तीन बार कोशिश करने पर अकेले बाहर जाने की बजाए परिवार के साथ वक्त गुज़ारा.  सास-ससुर के पाँव छूकर अन्दर जाने ही लगी थी बैग रखने कि पीछे से आवाज़ आई, 'बहू मुँह हाथ धोकर चाय बना ले.'  लेटे लेटे ही सास ने कहा था. सुधा सास ससुर को खुश रखने के लिए कोई कसर न छोड़ती. फटाफट कपड़े बदल कर मुहँ हाथ धोकर चूल्हा जला कर चाय का पतीला रख दिया.
नौकरी थी नहीं. जमापूंजी से घर चल रहा था. आने वाले बच्चे के लिए कोई भी तैयार नहीं था. धीरज तो बिल्कुल नहीं. शादी करके घर बसाना, पत्नी का ख्याल रखना , बच्चे पैदा करते वक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखना , ऐसा कुछ भी नहीं था धीरज में. सुधा फिर भी उसे पति परमेश्वार मान कर उसकी ही नहीं उसके माता-पिता की जी जान से सेवा करती. उसे अपना बचपन याद आ जाता जब माँ को खुश करने के लिए वह घर के कई काम जल्दी से खतम करके माँ की गोद में जा बैठती, 'माताजी, मैंने इतने सारे कपड़े धो दिए. मुझे प्यार करो न' और माँ उसके सिर पर हाथ फेर देती. सुधा उसी में ही खुश हो जाती. यहाँ भी वह उसी जोश से काम करके सोचती कि कभी तो धीरज , सास-ससुर प्यार से उसकी पीठ थपथपाएँगें. लेकिन हर शाम उसकी चाहत भी अंधेरों में गुम हो जाती. इस तरह हर सुबह नई उमंग और आशा के साथ वह काम में जुट जाती और शाम होते होते सूरजमुखी के फूल जैसे मुरझा जाती.
तीसरा महीना भी खतम हो गया लेकिन किसी ने भी अस्पताल में उसका नाम लिखवाने की नहीं सोची. गाँव के अस्पताल से नर्स आती पूछताछ के लिए लेकिन उसे बाहर से भेज दिया जाता. गाँव की दाई के भरोसे छोड़ कर सास निश्चिंत हो गई थी. धीरे धीरे अंदर का जीव आकार लेने लगा जिसका असर सुधा के ऊपर साफ दिखने लगा था. अब उससे गाय का दूध निकालने के लिए बैठा न जाता, बड़ी मुश्किल से चारा पानी दे पाती. धीरज होते तो कोई मुश्किल न होती लेकिन रसोई तो खुद ही बनानी पड़ती. अगर किसी दिन सुधा की सास धीरज को सुधा की मदद करते देख लेती तो आसमान सिर पर उठा लेती. 'हे भगवान, हमने तो जैसे बच्चे जने ही नहीं थे' 'तेरी बीवी तो अनोखा बच्चा पैदा कर रही है' 'बीवी के घुटनों के साथ जुड़ कर बैठ जा' ऐसी बातें सुनकर धीरज घर देर से ही लौटता. उस दौरान सुधा की हालत और भी बुरी हो जाती. नीचे बैठकर रसोई पकाना अब उसके लिए अज़ाब होने लगा था.
दसवाँ महीना खतम होने को था. दिन ब दिन सुधा की तबियत बिगड़ती जा रही थी.  तब भी उसकी सास उसे कोसने से न चूकती. 'इसे अक्ल तो है नहीं...दिन गिनने कहाँ आते हैं..इसे पता नहीं ही नहीं होगा कि कौन सा महीना चल रहा है ' हर बार हर किसी को यही बात कहकर टाल देती. उधर धीरज डर के मारे कुछ कर न पाता या माता-पिता के सिरदर्दी समझ कर चुप था. उस वक्त सुधा को समझ नहीं आता कि जिससे शादी हुई है उसका क्या फर्ज़ है लेकिन धीरज के तर्क कुछ और होते कि अगर अपने आप वह अस्पताल ले गया तो घर भर में कलह-क्लेश होगा. नौंवाँ  महीना खतम होते-होते उसे दिखना बंद हो गया. दीवार पकड़ पकड़ कर घर के काम खतम करती. परिवार के लिए जल्दी खाना बनाकर रख देती.  दिन ब दिन सुधा की हालत बद से बदतर होने लगी लेकिन सास पर इस बात का भी कोई असर नहीं हुआ. उसका कहना था गर्भ ठहरने के दौरान ऐसा अक्सर होता है.  आस-पड़ोस के लोग आकर सुधा को अस्तपताल ले जाने की बात करते तो इस बात का गुस्सा भी सुधा पर ही उतरता कि लोग अपने आप को सयाना समझ कर उसे उपदेश देने आते हैं.
ग्यारवाँ महीना अभी शुरु ही हुआ था कि मझली जेठानी घर आईं. सुधा की हालत देख कर उससे रहा न गया. बड़ी ननद को साथ लेकर आई  सास-ससुर को समझाने लगी, 'सुधा की हालत तो देखो, अब तो ले जाओ उसे अस्पताल नहीं तो बच्चे समेत यहीं मर जाएगी.' पता नहीं क्या सोच कर सास ने सुधा को अस्पताल ले जाने की हामी भर दी.
सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 

क्रमश:







शनिवार, 18 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)

                                                            
चित्र गूगल के सौजन्य से 


सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 

पिछले कई दिनों से सर्वर कछुए की चाल चल रहा है ... स्काइप तो और भी धीमा ..... आधी अधूरी टुकड़ों में हुई बातों को जोड़ने की कोशिश करती हूँ आज  ... सफ़लता कितनी मिलेगी इस बात की चिंता की तो लिखना मुमकिन न होगा..
सुधा जागते हुए खूबसूरत सपने देखने लगी थी...तस्वीर से रिश्ता पक्का हुआ था बस उसी तस्वीर को लेकर अपने होने वाले पति को चिट्ठियाँ लिखतीं...कभी कभी चुपके से मनपसन्द फिल्मी गीतों की कैसेट तैयार कर के रख लेती और खुद ही चुपके से सुनती.....उस वक्त का पसन्दीदा गीत आज भी उसके होंठो पर थिरकता है - 'ओ अनदेखे, ओ अंजाने , सदियाँ बीत गईं तेरा इंतज़ार किया'
एक साल से भी ऊपर हो गया था इंतज़ार करते करते कि कब धीरज आएँगें... इस बीच जितनी बार दोनों परिवारों में मिलना जुलना होता लेन देन पर नाखुश होकर धीरज के घरवाले रिश्ता तोड़ देने की धमकी दे कर जीना मुहाल कर देते...सुधा को समझ न आती कि जिसे दिल से पति मानकर खत लिखती है उससे रिश्ता तोड़ने की धमकी का क्या जवाब दे....मन ही मन सोचती कि अगर ऐसा हुआ तो वह ज़हर खाकर मर जाएगी लेकिन किसी और से शादी नहीं करेगी... हालाँकि दोनों के खत भी कहाँ प्यार मुहब्बत की बातों से भरे होते... एक छोटे से कोरे काग़ज़ पर परिवारों की ही बातें होतीं....
सुधा बार बार धीरज की चिट्ठियाँ पढ़ती जिसमें सिर्फ एक ही बात होती कि जल्दी ही मिलेंगे...मिलने पर खूब बातें करेंगे... आख़िर इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं... धीरज दो साल बाद देश लौटा था... सुधा के घर जाने से पहले घरवालों ने बड़े आराम से उसे कहा कि अगर लड़की पसन्द न हो तो कोई बात नहीं रिश्ता तोड़ देंगे.. तस्वीर से  हुए रिश्ते को बड़े आराम से नकारने के लिए तैयार थे....शादी के बहुत बाद धीरज ने यह बात सुधा को बताई थी..
आखिरकार मिलन की घड़ी आ ही गई, धीरज अपने पूरे परिवार के साथ बैठक में बैठे थे...... सुधा का दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था जैसे बाहर ही निकल आएगा...अकेले बैठ कर एक दूसरे के मन की बातें करेंगे.... मन में तो बेइंतहा बातें थीं... कहाँ से शुरु होंगी और कहाँ खत्म होगी... पिछले कमरे में बैठे हुए सुधा पता नहीं क्या क्या सोच रही थी... किचन से भाभी की आवाज़ आई, ' सुधा....इधर आओ...' भागी भागी गई तो भाभी ने उसके हाथों में  मेहमानों के लिए चाय की ट्रे  थमा दी... पैर काँप रहे थे... हाथ में ट्रे कहीं गिर न जाए इसके लिए उसे अपनी साँसों को भी रोकना मुश्किल लग रहा था .... धीरज के बड़े भैया , माँ बाऊजी , दीदी जीजाजी और उनका एक बेटा सभी एक साथ आए थे उसे देखने ... इस दौरान होने वाले ससुराल के लोगों का कई बार आना जाना हुआ था लेकिन धीरज पहली बार देखने आ रहे थे.
कोई नहीं समझ सकता उस वक्त लड़की की क्या हालत होती है जब उसकी नुमायश लगाई जाती है...लोग सर से पाँव तक जाँचते परखते हैं जैसे एक ही दिन में वे लड़की के अन्दर बाहर के सभी गुण दोष पहचान जाएँगे...एक दिन में किसी को परखना इतना आसान नहीं फिर भी सदियों से ऐसे रस्मों रिवाज़ चल रहें  हैं.. अपने देश में आज भी छोटे बड़े शहरों और गाँवों में कम ज़्यादा ऐसा हो ही रहा है.... 
चाय की ट्रे रखवा कर धीरज की दीदी ने  उसे अपने पास ही बिठा लिया... उनके बेटे की नज़रों में शरारत टपक रही थी जो अपने मामा को बार बार कुहनी मार कर कह रहा था...' देखो मामा , हमारी  मामी को' .... कहते कहते हँसने लगता..... धीरज ने एक नज़र उठा कर सुधा को देखा तो संयोग से सुधा ने भी उसी पल आँखें उठाईं... दोनों की नज़रें मिलीं लेकिन धीरज ने फौरन नज़र घुमा ली... मन ही मन सुधा सोचने लगी कि शायद वह उन्हें पसन्द नहीं आई..... अगले ही पल मन को समझाने लगी कि नहीं धीरज ऐसा नहीं कर सकते....... सोचने लगी कि अभी कोई उन दोनों को अलग कमरे में भेजने की सिफारिश करेगा लेकिन दोनों के घरवालों  ने ऐसा कुछ नहीं किया...धीरज के बड़े भैया और दीदी बहुत देर तक बाहर बातें करते रहें...कभी हाँ कभी ना के बीच में जो लिखा था वही हुआ.... एक बार फिर बात पक्की  हो गई...
धीरज से मिलने के बाद अब सुधा की माँ से इंतज़ार नहीं हो रहा था...जल्दी शादी के लिए उस पर दबाव डालने लगीं ... वह क्या जवाब देता सब कुछ परिवार वाले करेंगें कह कर सुधा के घरवालों को चुप करा देता...शादी से पहले सुधा सिर्फ एक बार धीरज से अकेले में मिलना चाहती थी और वह था कि इस बात से बेख़बर या अंजान बना रहा. सुधा के मन की बात मन में ही रह गई....मन ही मन वह जाने क्या-क्या सोचती रहती कि शायद धीरज उसे पसन्द ही नहीं करते ...शायद घरवालों के दबाव में आकर शादी कर रहे हैं .... इसी कशमकश में कई सपनों को दिल में लिए वह दुल्हन बन कर धीरज के घर आ गई..विदाई के वक्त माँ के घर से जाने का जितना दुख था उससे कहीं ज़्यादा खुशी थी अपने पिया के घर आने की.... कहने को वह दिल्ली ब्याही थी लेकिन था वह दिल्ली के साथ लगा नजफगढ़ का एक गाँव .....
गज भर के घूँघट के साथ गाँव की बाहरी सड़क से चल कर कई गलियाँ पार करके घर पहुँचना बेहद मुश्किल था लेकिन चौखट पार करते ही एक अजीब सी घुटन ने स्वागत किया हो जैसे....घूँघट की आड़ में उसे अपने पैरों तले गोबर से लीपा हुआ आँगन दिखा... कमरे में दाख़िल होते हुए बाहर एक तरफ मिट्टी का जलता हुआ चूल्हा दिखा जिस पर बड़े से पतीले में चाय उबल रही थी.... घर की कुछ औरतें आसपास बैठी सब्ज़ियाँ काट रही थीं....बस इतना ही देख पाई थी सुधा..... उसके बाद एक छोटे से कमरे के एक कोने में उसे बिठा दिया गया... गर्मी से बुरा हाल... बिजली भी आँख मिचौली खेल रही थी....जाने कौन भली बच्ची थी जो उसे हाथ का पंखा पकड़ा गई..... मन ही मन नन्हीं मुन्नी को दुआ देती हुई सुधा धीरे धीरे पंखा करने लगी .... प्यासे गले में काँटें उग आए लेकिन शर्म से पानी न माँग़ पाई ....
कुछ ही देर में धीरज और घर की कई औरतें उसे घेर कर बैठ गईं...बड़ी ननद ने सुधा का घूँघट कुछ ऊपर करते हुए उसे कहा, 'बहू.. पहले तू गाने खोल' यह सुनते ही धीरज ने पहले अपना पैर आगे बढ़ा दिया जिस पर कई गाँठों के साथ मौली बँधी थी जिसे खोलना था...गाँठें इतनी ज़्यादा और पक्की थीं कि खोलते खोलते बेहाल हो गई सुधा... पीछे से आती आवाज़ें उसे और भी ज़्यादा थका रहीं थीं...'अरे धीरज , तेरी तो मौज हो गई.. बहू तो पैरों में बिछ गई' 'बहुत अच्छा किया कि पक्की गाँठें हैं खुलने का नाम ही नहीं'
 'किस बहन ने गाँठें लगाई है'  छोटी ननद यह कह कर आँखें मिचका कर हँस दी....जैसे तैसे गाँठें खुलीं फिर दूध और पानी से भरे थाल से अँगूठी ढूँढने का खेल शुरु हुआ.... तीनों बार धीरज के हाथों लगी अँग़ूठी....'अरे अब तो सुधा तुझे कोई नहीं बचा सकता'  'बहू तो धीरज की दासी बन कर रहेगी' 'धीरज तो है ही किस्मत वाला ..देखो सारी रस्मों में जीत गया' इधर उधर से आती हुई आवाज़ों का सुधा पर कोई असर नहीं हुआ...वह तो बहुत पहले से ही धीरज के चरणों की दासी बन चुकी थी...
अब तो धीरज उसके पति परमेश्वर थे..मन ही मन उसने ठान लिया था कि पति के दिल में जगह पाने के लिए वह कुछ भी कर जाएगी...गाँव के छोटे से कच्चे घर के एक छोटे से कमरे में भी सुधा का प्यार अपने पति के लिए अटूट था....घर आए मेहमानों के सोने के बाद  सुधा और धीरज को भी सोने के लिए कमरे में भेज दिया गया...हाथ के पंखें से गर्मी दूर करने की नाक़ाम कोशिश उस पर पहली बार पति का साथ.... मुँह से उफ़ तक न निकले इसलिए मुँह में दुपट्टा ठूँस कर पड़ी रही सुधा की आँखों की कोरें भीग चुकी थी....
 'बहू... नहा धोकर तैयार हो जाओ..पहली बार चौके में हलवा तैयार करना है'  सास की तेज़ आवाज़ से डर कर सुधा गहरी नींद से उचक कर उठी...हड़बड़ाहट में जैसे तैसे नहा धोकर सुधा जल्दी से रसोईघर पहुँची...मझली जेठानी की मदद से हलवा तैयार करके मन्दिर में भोग लगाया और सबको परोसे उससे पहले ही सास ने  पहला फेरा डालने के लिए तैयार होने के लिए कहा.... धीरज आराम से बैठे नाश्ता कर रहे थे....क्या एक बार भी मन में आया होगा कि सुधा ने नाश्ता किया है या नहीं..... इसी सोच में गुम वह तैयार होने लगी....
पैदल घर से बड़ी सड़क तक बस का इंतज़ार ..... बस से रेलवे स्टेशन ..... लम्बा सफ़र भी कहाँ लम्बा था...उस वक्त तो उसे कार या ऑटो रिक्शा की भी चाहत न की थी.... पति का साथ चाहिए था बस उसे तो....ज़िन्दगी के हर मुश्किल मोड़ पर आगे चलने के लिए तैयार थी सुधा ......

क्रमश:


गुरुवार, 9 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3)

                                                                 (चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
  सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1)    
 सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा से आज सुबह ही बात हो पाई... 2-3 दिन से तबियत खराब थी उसकी...उसकी तबियत खराब होने का मतलब होता है फिर घर-परिवार से जुड़ी किसी घटना ने उसे प्रभावित किया होगा.... हुआ भी यही था... शायद घर घर की कहानी है यह .... माता-पिता के जाने के बाद लड़की अपने आपको अकेला महसूस करती है और अगर उस पर भाई बहन किनारा कर लें तो अन्दर ही अन्दर वह टूट जाती है... चाहे पति और बच्चे कितना भी प्यार सम्मान दें लेकिन वह खालीपन कोई नहीं भर सकता... माँ के जाने के कुछ महीने बाद ही उस भाई ने किनारा कर लिया जिसने उसका कन्यादान किया था.... सुधा को यकीन नहीं आ रहा था कि जिस भाई भाभी ने  बेटी मानकर उसका कन्यादान किया था आज उन्होंने ही उसे भुला दिया... सुधा भीगी आँखों के साथ सुबक कर कह रही थी , 'दीदी,,,, जिसे मैं भाभीमाँ कहती थी उसने कहा, 'ननद हो... ननद बन कर रहो... बेटी बनने की कोशिश न करो' ....  दीदीईईई....माँ की बहुत याद आ रही है.... माँ को छोड़ कर भाभी के पास जाकर बैठती थी...आज दिल रोता है... काश माँ के पास कुछ देर बैठी होती.....'
 'एक मिनट दीदी...माँ पर कुछ लिखा है अभी भेजती हूँ ..... ' अचानक सुधा उठ कर अपनी डायरी उठा लाई और अपनी लिखी कविता सुनाने लगी.... सर्वर धीमा होने के कारण आवाज़ कट कट कर आ रही थी इसलिए उसे कहा कि लिख कर भेजे.... माँ और मायके का मोह और उससे बिछुड़ने का दर्द झलकता है उसके लिखे में....
"रब दी मर्ज़ी दे अगे कोई ज़ोर न 
माँ तू वी चली गईयों 
तेरे वरगा कोई होर न 
मावाँ धिया नूँ 
सौ सौ लाड लडान्दियाँ ने 
मावाँ बाजो धियाँ 
जग विच रुल जान्दियाँ ने 
पिता दा साया ताँ
बचपन विच सिर तौं उठ गया
पैकेयाँ दा जो असी मान करदे सी 
ओवी हथों छुट गया
ऐ रब्बा ! जग विच धियाँ 
बनाइयाँ क्यों.... 
जे जमिया सी ताँ 
दूजे हथ फड़ाइयाँ क्यों 
माँ पयो बाजो धियाँ जान किथे 
माँ बिना अपने दिल दिया
गलाँ सुनाण किथे...
ऐ रब्बा किसी दी वी 
कदे माँ न मरे 
माँ पयो दी कदी वी 
धियाँ होण न परे... !! 

सुधा घर में सबसे छोटी थी लेकिन लाड़ली नहीं थी किसी की... बड़े भैया जो लाड़ करते थे उन्हें घर से निकाल दिया गया तो  वे  दुनिया ही छोड़ कर चले गए ... सबसे बड़ी बहन के साथ भी  मायके वालों ने नाता तोड़ लिया था.... 'इतनी बड़ी दुनिया में कोई नहीं जो मुझे मेरे मायके से मिला दे' कहती और अन्दर ही अन्दर घुलती दिल के दौरे से चल बसी....दो भाई अपने अपने परिवार में मस्त हो गए...लाचार विधवा माँ  के जी का हाल किसी ने न  जाना......बेटे बहुओं के अधीन  बेबस  बूढ़ी माँ बेटियों को कोसती.... बेटियाँ समझ न पातीं  कि माँ अपना ठिकाना बनाए रखने के लिए ऐसा करती है.......जाने क्या क्या दर्द लेकर उसने चारपाई पकड़ ली और जल्दी ही सबसे मोह त्याग कर स्वर्ग सिधार गई.....!  
मुझे लगता है कि हर घर परिवार में कुछ न कुछ ऐसा घटता है जो भुलाए नहीं भूलता लेकिन हमेशा की तरह आज भी मेरी यही सोच है कि अगर हम अपने से ज़्यादा सताए लोगों को देखें तो अपना दर्द कम लगता है जिस कारण जीना आसान हो जाता है .... जब जब हम अपने दुख को सबसे बड़ा मानेंगे तब तब मन चंचल हो कर बेचैन होगा... दुखी होगा... रोएगा... 
बोझिल माहौल को बदलने के लिए सुधा को बीच में रोक कर पूछने लगी, ' सुधा , यह तो बताओ कि अमिताभ जया की जोड़ी कैसे बनी, किसने बनाई ? ' सुनते ही एक पल के लिए सुधा रुकी फिर बोली. 'दीदी , वैसे आप हो बहुत चालाक...बात बदलने की कला तो कोई आपसे सीखे '  कहते ही उसके चेहरे पर शर्मीली मुस्कान फैल गई... मैं चुप थी...उत्सुक थी कि वह वहीं से अपने नए जीवन की शुरुआत की कहानी कहे.... हम दोनों चाय का कप लेकर स्काइप पर फिर से आ बैठीं..... 
अक्सर दूर के रिश्तेदार किसी के घर आते जाते ध्यान से देखते हैं कि शादी लायक बच्चें हो तो बात की जाए..सुधा के साथ भी ऐसा हुआ...घर आए मेहमानों के लिए चाय लेकर गई तो वे उसे गौर से देखने लगे... 'पता नहीं उन आँटी अंकल को मुझमें क्या दिखा कि माताजी से अपने छोटे भाई के लिए मेरा हाथ माँगने लगीं.....' मेरा भाई घर का सबसे छोटा और लाड़ला बेटा है.... बहुत शरीफ़ और सेवादार .. माता-पिता का तो श्रवण कुमार है...विदेश में काम करता है लेकिन रत्ती भर भी बाहर की हवा नहीं लगी.........' आँटी बोलती जा रहीं थीं...माताजी ने बीच में उनकी बात काट कर कहा, 'फिर भी मुझे किसी बड़े बुज़ुर्ग से मिलकर बात तो करनी ही है कि वह घर देखा भाला है और  परिवार और खानदान शरीफ है... ' माताजी का इतना सुनते ही उन्होंने अपने घर आने का न्यौता दे दिया... अपने सास-ससुर से घर-परिवार और भाई की वकालत करवा कर रिश्ता पक्का कर लिया... एक दूसरे की तस्वीरें दिखा कर ही रिश्ता पक्का कर दिया गया..
+सुधा की भाभी ने बिना बात किए ही चुपचाप लड़के की तस्वीर उसके सिरहाने के नीचे रख दी  ... अगले दिन सुधा की भाभी ने शरारत भरी मुस्कान के साथ उससे पूछा, ' सुधा ... लड़का कैसा लगा?'  सुधा सवाल करती उससे पहले ही भाभी बोल उठी, ' अरे , कल सुबह ही तुम्हारे सिरहाने के नीचे एक तस्वीर रखी थी...' बोलते बोलते कमरे में आ गईं... सिरहाने के नीचे ...इधर उधर ढूँढने पर नीचे गिरी तस्वीर उठाकर सुधा के हाथ में थमा दी....भाभी की नज़र सुधा के चेहरे पर थी और सुधा की नज़र उस तस्वीर पर जड़ सी हो गई..... सपनों का राजकुमार जैसे उसी को देख कर मुस्कुरा रहा हो....उसके दिल की धड़कन बढ़ गई....चेहरा शर्म से लाल हो गया....भाभी समझ गई लेकिन फिर भी सुधा से पूछने लगी कि तस्वीर अच्छी लगी कि नहीं..... सिर झुका खड़ी सुधा ने धीरे से 'हाँ' कहा तो भाभी ने उसे अपने गले से लगा लिया...
तस्वीर लेकर भाभी तो चली गई लेकिन सुधा की तो आँखों में बस गई थी वह सूरत....खुली आँखों से सुधा सपने देखने लगी....सपनों में ऐसा ही सुन्दर वर देखती थी अपने लिए...... सपनों के सुन्दर राजकुमार के साथ उसकी शादी होगी... पहनने को नए कपड़े और गहने लेंगे....अपने पति के साथ विदेश में अपना घर  बसाएगी.......घूमने फिरने की आज़ादी होगी... सुधा जैसी हज़ारों लड़कियाँ ऐसे ही सपने देख कर जीतीं हैं....
 माता-पिता के घर में कैद सभी लड़कियों के लिए हज़ारों तरह के नियम कानून होते हैं लेकिन लड़कों को उतना ही खुला छोड़ दिया जाता है... सुधा और उसकी दो बहनों को दसवीं करवा के सिलाई कढ़ाई का कोर्स करवा दिया गया लेकिन लड़कों को कॉलेज जाने की छूट थी....अच्छी पढ़ाई लिखाई के कारण भाई अच्छी नौकरियों पर लग गए... लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना तो दूर अकेले घर से बाहर जाने की भी मनाही थी ...
समाज की ऊपरी सतह को देख कर लगता है कि सोच बदल रही है लेकिन सच तो यह है कि आज भी हम इसी  भ्रम में जी रहे हैं कि सोच बदल रही है...बदलाव हो रहा है......बदलाव हो भी रहा है तो कितना....!! 

क्रमश:

शनिवार, 4 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)


(चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....       सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1) 

पिछले साल सुधा से मुलाकात दिल्ली में हुई थी... पश्चिमी दिल्ली में नया घर लिया था...नई जगह , नए पड़ोसी ...सुधा सबसे पहले मिलने आई थी.... गोल मटोल छोटे से कद की ..हँसते माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी चमक रही थी..  हँसती हुई अचानक सामने आ खड़ी हुई थी...'मेरा नाम सुधा है... आप... ' मैं कुछ कहती उससे पहले ही अपने आप कह उठी.... दीदी कहूँ आपको... दीदी आपको किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे कहना.. ' मैं अन्दर बुलाने के लिए उसे कहती उससे पहले ही उसके बेटे ने पीछे से आवाज़ दी कि पापा का फोन आया है और वह वापिस लौट गई लेकिन उसके बाद कुछ ही दिनों में उसने अपने स्वभाव से मेरा मन जीत लिया...घंटों आकर बैठती अपने सुख दुख कहानी की कह जाती....उन्हीं दिनों उसने मुझे अपनी डायरी भी पढ़ने को दी थी और मैंने वादा किया था कि एक दिन अपने ब्लॉग़ पर उसकी कहानी ज़रूर लिखूँगी...
आजकल रियाद लौटी हूँ जहाँ वक्त कुछ ज़्यादा मेहरबान होता है सो लिखने बैठी हूँ पूरा मन बना कर.... आजकल सुधा कुवैत में है और मैं यहाँ रियाद में हूँ ... तय हुआ कि हम दोनों स्काइप पर बात करते हुए कहानी को अंजाम देंगे...
नया नया स्मार्टफोन सुधा के हाथ में है....स्काइप पर मेरे से बात करते करते अपने बेटे बहू की तस्वीर दिखा रही है जो अभी अभी उसके फोन पर आई है...बार बार एक ही बात दोहराती है सुधा कि नन्हीं प्यारी सी बहू पाकर वह धन्य हो गई.... असल में बहू नहीं बेटी मानती है उसे... कोमल की बात करते ही खुद पिघलने लगती है ..... 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी' गीत उसे मेल करते हुए रोती भी जा रही है..आँसू प्यार के हैं ...दुलार के हैं...
कोमल को मेल मिलता है तो वह फौरन टैंगो पर आ जाती है..स्काइप पर मेरे साथ है तो फोन पर बेटे बहू के साथ ...बीच बीच में छोटे बेटे के मैसेज भी देख रही है.... बेटे बहू को देख कर तो सुधा निहाल हो जाती है.... बेटे की बलाएँ लेती है तो कभी उसे  डाँट देती है ..'मेरी बेटी को कुछ खिलाया पिलाया कर... देख  कितनी कमज़ोर हो गई है... ' ... सुधा की बात सुनकर दोनों खिलखिला उठते......उनकी खिलखिलाहट उसे बच्ची बना देते... जाने कैसी कैसी बच्चों जैसी हरकतें शुरु कर देती कि बच्चों का हँसते हँसते बुरा हाल हो जाता.....कॉलेज के लिए निकलते बच्चों को बाय बाय करती है कि छोटा बेटा दिल्ली से मैसेज कर देता है कि आलू शिमलामिर्च की सब्ज़ी कैसे बनाए....उधर वह अपने बेटे से बात करती है ... इधर स्काइप खुला छोड़ कर मैं भी अपनी किचन में चली जाती हूँ... अभी आटा गूँद कर फ्रिज  में रखती हूँ कि आवाज़ आ जाती ... 'दीदी ... मैं फ्री हो गई...आ जाओ.. ' लेकिन मुझे लगता है कि अब किचन का काम खत्म करके ही लौटूँ इसलिए सॉरी कहकर कुछ देर बाद मिलने का वादा करती हूँ .......
 लेकिन सुधा यह सुनकर एकदम ही उदास हो जाती है ...मैं मूक सी उसे देखती रह जाती हूँ...पर क्या करूँ घर के काम भी करने ज़रूरी हैं.....उधर वह अकेली ही निकल पड़ती है फिर से अपने अतीत के जंगल में ...जहाँ काँटों के सिवा कुछ नहीं मिलता उसे .. शायद उसे बार बार उन जंगलों में लहूलुहान होकर भटकना भाने लगा है..... वापिस लौटती हूँ तो फिर अपनी कहानी कहने लगती है, 'दीदी आप मेरे अकेलेपन के दर्द को नहीं समझ सकतीं.....मुझे आजतक कोई नहीं समझ पाया',  कह कर रोने लगती... मुझे समझ न आता कि कैसे उसे हौंसला दूँ....कुछ ही पल में वह खुद ही सँभल जाती.....
सात भाई बहन में सबसे छोटी थी सुधा....पैदा हुई तो माँ पिताजी में से किसी ने उसे दुलार न दिया बल्कि होश सँभलने पर यही सुनती कि पता नहीं कैसे टपक पड़ी....मासूम बचपन सब से अलग कुछ और ही सोचता... भाग भाग कर माँ पिताजी का छोटा छोटा काम करके जबरदस्ती गले लग जाती... 'माताजी..देखो, मैंने सारा काम खत्म कर दिया, मैं अच्छी हूँ न...प्यार करो न मुझे...' और झट से माँ की गोद में बैठ जाती... माँ का थोड़ा सा दुलार ही उसके लिए बहुत होता...
पिताजी को देख कर तो सबके प्राण सूख जाते.... सुधा ही नहीं सभी भाई बहन घर के एक कोने में दुबक जाते... पिताजी काम के सिलसिले में सफ़र पर निकलते तो 3-4 दिन से पहले घर न लौटते और जब लौटते तो छोटी छोटी बातों पर कपड़े धोने वाले डंडे से खूब मारते....माँ भी कम न थी, गाय-भैंस को बाँधने वाली साँकल कमर में डालकर ताला लगा कर खिड़की की रॉड से बाँध देती....
सुधा स्काइप पर बात करते करते ही हिचकियों से रोने लगी....बड़े भाई याद आ गए जो कम उम्र में ही दुनिया छोड़ गए... रुँधी आवाज़ में ही बोलती चली गई थी वह.... कई दिनों का रुका यादों का तूफान आज जैसे दर्द की नदी में सब कुछ बहा कर अपने साथ ले जा रहा हो ..... मैंने भी उसे रोकना मुनासिब न समझा....
बड़े भाई की शादी हुई .... भरे पूरे परिवार में भी दुल्हन का मन नहीं लगा.... बड़ी बहू थी घर की लेकिन एक ही झटके में सब रिश्ते तोड़ कर वापिस अपने मायके चली गई.... सूरज भैया अकेले पड़ गए... घर वालों ने उन्हें भी बोरिया-बिस्तर बाँध कर घर से निकाल दिया कि वह भी अपनी पत्नी के साथ ही रहे चाहे घर दामाद ही क्यों न बनना पड़े... सुधा के भैया थे गैरतमन्द पत्नी के पास नहीं गए.. ...जब तक किसी छोटे से ठिकाने का इंतज़ाम होता तब तक के लिए वे दफ़्तर के ही एक कोने में सो जाया करते....
सुधा लाड़ली थी अपने भैया की.... दफ़्तर के लंच टाइम में उसके सूरज भैया स्कूल के गेट के बाहर वाले बैंच पर आकर बैठ जाया करते.... सुधा भी इंतज़ार करती कि कब आधी छुट्टी होगी और वह भैया से मिलेगी......दौड़ती हुई भाई के गले लग जाती और झट से अपना लंचबॉक्स खोलकर अपने हाथों से उन्हें खिलाने लगती....जानती थी कि भाई के रहने का ठिकाना नहीं तो खाने का कहाँ होगा....छुटकी बहन के आगे घर के सबसे बड़े बेटे की एक न चलती ..... भीगी आँखों से दोनों भाई बहन एक दूसरे को देखते खुश होते....
भाई से मिलने की सज़ा भी खूब मिलती....कपड़े धोने वाले डंडे से कमर नीली कर दी जाती और बाँध दिया जाता साँकल से ताला लगा कर ...बाकि भाई बहन को धमकी दे दी जाती कि खबरदार अगर किसी ने इसे खोला या खाना दिया....बाथरूम जाने के लिए भी ताला खुलता सिर्फ खिड़की से...कमर में तो साँकल बँधी रहती ... दरवाज़े की ओट में ही फारिग़ होना पड़ता और फिर से कैदी की तरह खिड़की के पास बाँध दिया जाता....खिड़की से बाहर नीला आसमान भी उचक उचक कर देखना पड़ता..... नीले आसमान का विस्तार उसे बहुत पसन्द था लेकिन उस खिड़की से दिखता था बहुत कम .....थक कर सो जाती तो  सपने लेती पंछी बन कर दूर तक उड़ान भरने के......
तीसरे दिन सुबह सुबह सुधा को अपनी बड़ी दीदी के रोने की आवाज़ आई.... माँ से रो रोकर कह रह थी कि अब तो उससे नहीं देखा जाता... रो रोकर कहने लगी, 'मुझे भी साथ बाँध दो या खाना खिलाने दो' ....जाने क्या सोच कर माँ ने साँकल खोल दी... माँ पिताजी से मार तो सब भाई बहन ने बहुत खाई था क्योंकि मार के मामले में खुला दिल था दोनों का ....लड़का लड़की का भी कोई भेदभाव नहीं था...छोटी छोटी बात पर मार मार कर नीला कर देते...घंटों बेहोशी छाई रहती.... .बात करते करते कभी सुधा खिलखिला देती तो कभी रो पड़ती.... मैं सोचती कैसे कहूँ कि कुछ पल रुको....साँस लो..... चाय की शौकीन सुधा के सामने जैसे ही चाय का नाम लिया तो तय हुआ कि चलो एक घंटे के बाद फिर मिलेंगे......
दुबारा मिलने पर बचपन के कुछ हँसी खुशी के पल बाँटने को कहा....दीवाली दशहरे पर माँ पिताजी पूरे साल की खुशी लुटा देते..पिताजी रामलीला में एक्टर हुआ करते थे जिस कारण पास मिलते थे...सभी सबसे आगे जाकर बैठते और रामलीला का आनन्द लेते.......होता यह कि एक ही रंग और प्रिंट के थान से सभी बच्चों के एक जैसे कपड़े घर ही सिल दिए जाते... दशहरे वाले दिन सभी एक जैसे नए कपड़े पहन कर बाहर निकलते...तरह तरह की मिठाइयाँ और जलेबी खाने का मज़ा उन दिनों ही आता....
इस मस्ती के अलावा सिनेमा या सरिता पत्रिका जैसे किसी भी किताब का ज़िक्र भी होता तो खूब पिटाई होती...उन दिनों सुधा की आँखों में सपने तैरते कि कब उसकी शादी होगी...कोई सुन्दर सा राजकुमार अपने साथ ले जाएगा.... नए नए कपड़े पहन कर सिनेमा देखने जाएगी... खूब घूमेगी फिरेगी...
बस ऐसे ही कुछ छोटे छोटे सपने लेकर एक आम लड़की जीना चाहती है यह मुझे महसूस हुआ सुधा से मिलने के बाद....सदियों से चली आ रहीं पुरानी परम्पराएँ , अच्छे बुरे रीति-रिवाज़ , अन्धविश्वास और जाने कैसी कैसी विचारधाराएँ  हमारे रहन-सहन में  रच बस गईं कि उन्हें किसी के भी दिल और दिमाग से निकालना आसान नहीं....
खुशी के पल कम बयाँ होते .....घूम फिर कर सुधा फिर से उदासियों के जंगल में खींच कर ले जाती... जहाँ दुख के झाड़-खँखार ज़्यादा होते...दर्द के काँटों में उलझ कर ज़िन्दगी तार तार हो ...उधर जाने से मुझे कोफ़्त होती है.... दुख और दर्द हर किसी के जीवन में होते हैं लेकिन उनका असर कम हो इसके उपाय जुटाना ज़रूरी है न कि उन्हीं में डूब कर छोटी सी अनमोल ज़िन्दगी को बेकार कर देना.... !
फिर मिलने का वादा करके हमने सुधा से अलविदा ली ....
(कहानी सच के एक अंश से शुरु होती है लेकिन अनायास ही कल्पना के कई रंगों से सजने लगती है)

क्रमश:

बुधवार, 1 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी

(चित्र गूगल के सौजन्य से)

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....
एक दिन अचानक अपनी डायरी लेकर मेरे सामने आ खड़ी हुई... उतरी हुई सूरत... उदास खुश्क आँखें... सूखे होंठ.....मेरे हाथ में अपनी डायरी थमा दी....उसके लिखे एक एक शब्द में मुझे गहरा दर्द महसूस हुआ... 'आपने कहा था न कि अपने दर्द को शब्दों के ज़रिए बह जाने दो ...मैंने लिखना शुरु कर दिया है... बड़ी मासूमियत से पूछने लगी... 'क्या आप अपने ब्लॉग में छापेंगी..?' क्यों नहीं...मेरा इतना कहते ही चहक उठी.... 'दीदी,,,,फिर तो मैं हर रोज़ आपको कुछ न कुछ लिख कर भेजूँगी पर मेरा नाम बदल देना ...' भरोसा पाकर उसे राहत मिली...
सुधा का अतीत लिखूँ लेकिन उससे पहले उसके वर्तमान को लिखना मुझे ज़रूरी लग रहा है क्योंकि मेरे विचार में दुखों के गहरे अन्धकार के बाद ही खुशियों का खूबसूरत उजाला होता है जिसे नकारना ग़लत होगा...
आजकल सुधा अपने पति के साथ कुवैत में रहती है...फिलहाल अभी विज़िट वीज़ा पर है... दो प्यारे से बेटे हैं. बड़े बेटे की शादी हो चुकी है जो अपनी पत्नी के साथ न्यूज़ीलैंड में रहता है .. दोनों बच्चे पढ़ाई और काम साथ साथ कर रहे हैं...पैसे के लिए दोनों ने ही कभी अपने माता-पिता के आगे हाथ नहीं फैलाया.. छोटा बेटा अभी कुँवारा है जो नौकरी की तलाश में दिल्ली रहने लगा है...घर चंडीगढ़ में है....छोटा सा घर है लेकिन अपना है.....


क्रमश:



गुरुवार, 5 मई 2011

अजन्मी बेटी का खूबसूरत एहसास

कहीं न कहीं किसी न किसी की ज़िंदगी में ऐसा कुछ घट जाता है जो मन को अशांत कर जाता है.......मन व्याकुल हो जाता है कि क्या उपाय किया जाए कि सामने वाले का दुख दूर हो सके... लेकिन सभी को अपने अपने हिस्से का जीवन जीना है... चाहे फिर आसान हो या जीना दूभर हो जाए... सुधा की भी कुछ ऐसी ही कहानी है जिसे अपने लिए खुद लड़ना है , अपने लिए खुद फैंसला करना है....
जाने कैसे कैसे ख़्याल सुधा के मन में आ रहे थे...सुबह से ही उसका दिल धड़क रहा था....आज शाम रिपोर्ट आनी थी ... कहीं फिर से लड़की हुई तो....कहीं फिर से नन्हीं जान को विदा होना पड़ा तो....नहीं नहीं इस बार नहीं...सुधा ने मन ही मन ठान लिया कि इस बार वह ऐसा कुछ नहीं होने देगी....
उसने पति धीरज को लाख समझाया था कि इस बार लड़का या लड़की जो भी होगा उसे बिना टैस्ट स्वीकार करेंगे......लेकिन तीसरी बार फिर माँ और बेटे में एक और ख़ून करने की साजिश हो रही थी...कितना रोई थी वह क्लिनिक जाने से पहले....पर सास ने चिल्ला चिल्ला कर सारा घर सिर पर उठा लिया था...’मुझे पोता ही चाहिए.... खानदान के लिए चिराग चाहिए बस’ पति चुप... बुत से हो गए माँ के सामने.. लाख मिन्नतें करने के बाद भी उनका दिल न पिघला... आखिर रोती सिसकती सुधा को क्लिनिक जाना ही पड़ा था....
डॉ नीना ने धीरज को एक कोने में ले जाकर खूब फटकारा था. ‘कैसे पति हो.. अपनी पत्नी की तबियत का तो ख्याल करो...तीसरी बार फिर से अगर टैस्ट करने पर पता चला कि लड़की ही है फिर क्या करोगे.... उसे भी खत्म करवा दोगे....’ धीरज की माँ ने सुन लिया और एकदम बोल उठी, ‘हाँ हाँ करवा देंगे....मुझे पोता ही चाहिए बस’
डॉ नीना कुछ न बोल पाईं.....चाहती तो पुलिस में रिपोर्ट कर देतीं लेकिन डोनेशन का बहुत बड़ा हिस्सा धीरज के पिता के नाम से क्लिनिक को आता था....न चाहते हुए भी डॉ को टैस्ट करना पड़ा...
सुधा अपने पति को देख कर मन ही मन सोच रही थी... जिसके मन में अपनी पत्नी के लिए थोड़ा सा भी प्रेम नहीं...वो  इस आदमी के साथ कैसे रह पाती है  ...उसे अपने आप पर हैरानी हो रही थी...पति से ज्यादा उसे खुद पर  घिन आ रही थी ,  अपने ही कमज़ोर वजूद से वह खुद से शर्मिन्दा हो रही थी....
 नहीं.....इस बार नहीं ...इस बार वह बिल्कुल कमज़ोर नहीं पड़ेगी.... इस बार बिल्कुल नहीं गिड़गिड़ाएगी...
फोन पर जब डॉ नीला ने बताया कि इस बार भी लड़की है तो पल भर के लिए उसका सिर घूम गया था...हाथ से रिसीवर छूट कर गिर गया....टीवी देखते देखते सास ने कनखियों से सुधा को देखा... फिर अपने बेटे की तरफ देखा... दोनो समझ गए थे कि डॉ नीला का ही फोन होगा...सास सुधा की ओर देखकर बेटे से कहती हैं... ‘लगता है कि फिर से मनहूस खबर आई है’
धीरज पूछते हैं... डॉ नीला ने रिपोर्ट के बारे में क्या बताया...चुप क्यों हो ....क्या हुआ....सुधा पीली पड़ गई थी..... धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह पाई... “नहीं इस बार मैं क्लिनिक नहीं जाऊँगी...”
‘पता नहीं किस घड़ी मैं इस मनहूस को अपनी बहू बना कर लाई थी...एक पोते के लिए तरस गई...’ सास बोलती जा रही थी लेकिन सुधा के कानों में बस एक नन्हीं सी जान के सिसकने की आवाज़ आ रही थी... आँखें बन्द करके वहीं फोन के पास फर्श पर बैठ गई.....
एक बार फिर क्लिनिक चलने के लिए धीरज का आदेश...सास का चिल्लाना... सुधा पर किसी का कोई असर नहीं हो रहा था..वह सन्न सी बैठी रह गई, कुछ सोच कर वह उठी....गालों पर बहते आँसुओं को पोंछा......उसने एक फैंसला ले लिया था...इस बार वह मौत के खेल में भागीदार नहीं बनेगी , मन ही मन उसने ठान लिया , .ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरु करने का फैंसला ले लिया था उसने ... सुधा तैयार तो हुई थी...लेकिन क्लिनिक जाने के लिए नहीं..सदा के लिए उस घर को छोड़ने के लिए....
उसके हाथ में एक सूटकेस था..... धीरज को यकीन नहीं  हुआ...वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि सुधा ऐसा कोई कदम उठा पाएगी... वह उसे रोकना चाहता था लेकिन अपनी ही शर्तों पर...
आज सुधा कहाँ रुकने वाली थी....वह तेज़ कदमों के साथ घर की दहलीज पार कर गई.... अचानक मेनगेट पर पहुँच कर  रुकी...कुछ पल के लिए धीरज के चेहरे पर जीत की मुस्कान आई लेकिन अगले ही पल गायब हो गई , सूटकेस नीचे रख कर सुधा ने गले से मंगलसूत्र उतारा......पति के हाथों में थमा कर फिर वापिस मुड़ी और बढ़ गई ज़िन्दगी की नई राह पर ....... राह नई थी लेकिन इरादे मजबूत थे... अब वह अकेली नहीं थी.. अजन्मी बेटी का प्यारा सा खूबसूरत एहसास उसके साथ था.....!  

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

जन्मदिन मुबारक हो माँ ...!




दुलारी अपने माँ बाबूजी की आखिरी संतान और सातवीं बेटी थी ...सारे घर की लाडली....दुलारी के पैदा होने से पहले से ही दूर के एक रिश्तेदार आते..हर बार एक लड़की का नाम ले लेते कि इसे बहू बना कर ले जाऊँगा....दुलारी की माँ हँस पड़ती..अरे भई पहले बेटा तो पैदा करो फिर बहू की सोचना....पंडितजी तो धुन के पक्के थे ...उन्हे तो पक्का विश्वास था कि इसी घर की बेटी उनके घर की बहू बनेगी.....
एक दिन ईश्वर ने पंडितजी की सुन ही ली... लाखो मन्नतो के बाद बेटा पैदा हुआ... अपने नाम को सार्थक करेगा... अपने पिता का नाम रोशन करेगा...सोच कर नाम रखा गया ओम.... उधर ओम के पैदा होने के बाद तोषी और दो साल बाद दुलारी का जन्म हुआ...
पडितजी बहुत खुश थे.....अपने सात साल के बेटे ओम को लेकर फिर गए दुलारी की माँ से मिलने... दुलारी की माँ की मेहमाननवाज़ी पूरे खानदान मे मशहूर थी.... चाय नाश्ते का इंतज़ाम किया...फिर इधर उधर की बाते होने लगी.... नन्हा ओम गली के दूसरे बच्चों के साथ गुल्ली डंडा खेलने में मस्त हो गया.... लाख बुलाने पर भी खाने पीने की चीज़ों पर नज़र तक न डाली....
दुलारी अपनी दो साल बडी बहन तोषी के साथ लडको को खेलते देख रही थी...ओम के पिता ने जैसे ही दोनो
लडकियो को देखा ... लपके अपने बेटे ओम की तरफ.... ‘अच्छा बेटा ...बता तो सही तू किससे शादी करेगा.... ‘
दो बार बताने पर भी कुछ न बोला ओम....शायद उसे शादी का मतलब ही पता नहीं था.....पडितजी कहाँ कम थे...
झट से बोले...’अच्छा तो ऐसा कर...दोनो मे से जो तुझे अच्छी लगती हो उसके सिर  पर डंडा रख दे... ओम ने एक पल दोनो को देखा और दुलारी के सर पर डंडा रख छुआ कर भाग गया फिर से खेलने....
बस इस तरह हो गई बात पक्की....दुलारी और ओम की.....दुलारी ने अभी दसवीं पास ही की थी कि उधर से शादी की जल्दी होने लगी..पंडितजी को लगा कि वे ज़्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहेंगे...इसलिए दुनिया से छह महीने पहले कूच करने से पहले ही झट मंगनी पट शादी कर दी...
दोनो बँध गए जन्मजन्म के बँधन में.... तीन बच्चे हुए... दो लडकियाँ ...एक लडका...मिलजुल कर सुख दुख साथ साथ बाँट कर चलते रहे.... ज़िन्दगी के ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर दोनो एक साथ बढते रहे आगे.... बच्चों को उनकी मंज़िल तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोडी..... सब अपने अपने घर परिवार में सुख शांति से खुश थे .... ओम और दुलारी जानते थे कि बच्चे हर मुश्किल का डट कर सामना करेंगे..... 
एक दिन ज़िन्दगी जीने की जंग मे ओम हार गए.... रह गई अकेली दुलारी .... जीने की चाहत न होने पर भी जीना....मुहाल था...लेकिन बस नहीं था.... मन को मुट्ठी मे कस कर बाँधे दुलारी जीने के हर पल की कोशिश में जुटी है....


बुधवार, 3 अक्टूबर 2007

सब हैं त्रस्त !

जीवन की जटिल समस्याओँ को
उलझते देख हम सब हुए हैँ
पस्त
कैसे सुलझाएँ उलझी गुथियोँ को
उलझते देख हम सब हुए हैँ
त्रस्त
अकेले ही इस जटिल जीवन को
जीने को हम सब हुए हैँ
अभिशप्त
दूर कर न पाते अपने दुखोँ को
पर सुख पाने की चाह मेँ हैँ
व्यस्त
लेकिन हे मन ----
आशा के सूरज को होने न देना
अस्त
शालीनता औ' मधुर मुस्कान
बिखेरते हुए रहना सदा
मस्त !!!
(बेटे विद्युत द्वारा बनाया चित्र अनुमति के साथ)

सोमवार, 24 सितंबर 2007

चक्रव्यूह

१५० कि०मी० की ड्राइव ने मुझे पस्त कर दिया था लेकिन पतिदेव के फोन आते ही कि वे दमाम ठीक-ठाक पहुँच गए हैं, मैंने चैन की साँस ली और सोने चली गई । दो घंटे की नींद ने मुझे नई शक्ति दे दी थी । उठने के बाद घर का काम खत्म करके कुछ लिखने बैठी लेकिन दिमाग जैसे कुछ काम नहीं कर रहा था , कल करने वाले कामों की लिस्ट तैयार थी । "मम्मी, थोड़ी देर के लिए सब भूल कर अपनी दुनिया में चली जाइए, आप फ्रेश हो जाएँगीं" बेटा अपने 'लेपटॉप' से नज़र हटा कर मेरी तरफ देखकर बोला। सोचा कि यादों के झरोकों से ही कुछ लिखकर मन हल्का कर लूँ । बात उन दिनों की है जब बेटे को दर्द तो हो रहा था लेकिन डाक्टर समझ नहीं पा रहे थे कि रोग क्या है। दो साल के दौरान की पीड़ा , छटपटाहट मुझे अन्दर ही अन्दर तोड़ रही थी , मैं एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस गई थी कि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह से इस चक्रव्यूह से निकल पाऊँगीं ।

 जीवन के चक्रव्यूह में हम फँसें 
भूले कि अब हम कैसे हँसें । 
मन में धुँआ ही धुँआ उठे 
और साँसों का भी दम घुटे । 
मुस्कान की रेखा मुख पर खिंचे 
यह भाव मुझे कभी न मिले । 
जीवन जो काँटों जैसा चुभे 
तन-मन का भी आँचल फटे। 
कटे कैसे जिस जाल हम फँसे
 छटपटाते रोएँ, न कभी हँसे। 
तन पिंजरे में मन-पंछी जो रहे 
बस उड़ने की वह इच्छा करे। 
कठिन क्षण आसान कैसे बनें 
इच्छा है चक्रव्यूह से निकल चलें।।