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मंगलवार, 28 अगस्त 2007

भूख


नई दिल्ली के एयरपोर्ट पर उतरते ही अपने देश की माटी की मीठी सी सुगन्ध ने तन-मन को मोहित कर दिया। हमेशा जुलाई अगस्त की गर्मी साँस लेना दूभर कर देती थी लेकिन इस बार मार्च में आने का अवसर मिला। विदेशों में रहने वालों के लिए शादी में जाना सबसे मिलने का सबसे अच्छा अवसर बन जाता है। १७ मार्च की सुबह हम दिल्ली से अम्बाला की ओर रवाना हो गए। जेठ जी के पहले बेटे की शादी थी । उनका बेटा और उसका एक मित्र जो कार चला रहा था, हम दस बजे घर से निकले।
दिल्ली से अम्बाला चार घंटे का सफ़र आसानी से काटा जा सकता था लेकिन अचानक कार का एसी ख़राब हो गया। दोपहर का सफ़र बिना एसी के काटना कठिन लगने लगा तो हम एक अच्छे से ढाबे के सामने जा रूके। ढाबा बहुत सुन्दर सजा रखा था । थोड़ी थोड़ी दूर पर चारपाइयाँ बिछा रखी थीं, केन की कुर्सियाँ और लकड़ी के छोटे छोटे मेज़ भी थे। अलग अलग दिशाओं में पंखें चल रहे थे । कुछ लोग सुस्ता रहे थे और कुछ दोपहर का खाना खा रहे थे।
हमने भी खाना मँगवाया और अभी शुरू भी नहीं किया था कि मेरी नज़र एक बूढ़े पर गई जो गेट के पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठा मेज़ पर पड़े पानी से भरे जग को देख रहा था। बैरे ने उसके नज़दीक जाकर उससे कुछ कहा और वह गिलास उठा कर पानी पीने लगा। बीच बीच में नज़र उठा कर वह इधर उधर देखने लगता, चेहरे पर भूख की बेहाली साफ़ दिखाई दे रही थी लेकिन उसकी आँखों में लालच का नाम नहीं था जैसे पानी ही उसका भोजन था।
गर्मागर्म ताज़ी तन्दूरी रोटी लेकर बैरा पहुँचा तो मुझसे रहा न गया। पूछने पर पता चला कि हर रोज़ वह आता और पानी पीकर चला जाता , जिस दिन पैसे होते तो कुछ खा लेता नहीं तो बिना कुछ कहे या माँगे पानी पीकर चला जाता। ढाबे के मालिक का कहना है कि पानी पीने से किसी को मना नहीं करना चाहिए, पानी कुदरत की नियामत है।
मैंने बैरे को बुला कर एक प्लेट में दो रोटी और दाल देने को कहा। दाल रोटी देखकर बूढ़े ने बैरे को सवाल करती निगाहों से देखा तो बैरे ने हमारी तरफ़ इशारा कर दिया। उसने देखा पर उसकी आँखों में शून्य था। प्लेट में पड़ी दाल रोटी को पलभर देखा फिर खाने की ओर हाथ बढ़ाया। उसने अभी निवाला मुँह में डालना ही चाहा था कि फटे पुराने मैले कपड़ों में दस-बारह साल के लड़के ने भूखी निगाहों से बूढ़े को देखा और हाथ पसार दिया। बूढ़े का हाथ वहीं रुक गया , पथराई सी आँखों से उसने लड़के को देखा और एक रोटी को कटोरी बना कर उसमें थोड़ी दाल डाल कर दे दी। लड़का जैसे कई दिनों से भूखा था। देखते ही देखते पलभर में उसने रोटी चट कर ली। उसकी आँखों की भूख और तेज़ चमक उठी। हाथ पसारे फिर वहीं खड़ा था। वास्तव में बूढ़े ने एक भी निवाला मुँह में नहीं डाला था। भूख किस तरह से बालक को अपने चँगुल में जकड़े खड़ी थी , यह मज़र देखकर बूढ़ा जड़ हो चुका था , जब तक उसे होश आता , लड़के की रोटी खत्म हो चुकी थी।
एक भूख दूसरी भूख को देखकर हैरान थी । बूढ़े ने दूसरी रोटी की भी कटोरी बनाई और दाल उसमें डाल कर लड़के को दे दी। एक भूख ने दूसरी भूख के सामने घुटने टेक दिए। बूढ़े ने फिर से दो गिलास पानी पिया और वहाँ से चल दिया। मैं यह देखकर सुन्न रह गई।
बूढ़ा निस्वार्थ प्रेम का पाठ पढ़ा कर एक चाँटा भी लगा गया था।