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बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं