कभी कभी चंचल मन खुद से बातें करता हुआ उकसाता है किसी मित्र , सखी या परिवार के किसी सदस्य से शिकायत करने के लिए लेकिन संयम में रहता मन इस बात को नकार कर नज़रन्दाज़ करने की सलाह देता है। प्रसन्नचित मन कहता है - जितना मिले उतने में खुश रहने की आदत हो तो ज़िंदगी सदाबहार !
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गुरुवार, 4 अप्रैल 2024
शनिवार, 4 मार्च 2023
बेवजह ज़िन्दगी की चाहत
बहुत पुराना ड्राफ्ट जिसे आज मुक्त किया पब्लिश करके - छोटी बहन जैसी भावुक नीलम की लिखी कविता -- आशा है आप सबको पसंद आएगी --
जब ज़िन्दा थे तो किसी ने प्यार से अपने पास न बिठाया
अब मर गए तो चारों ओर बैठे हैं !
पहले किसी ने मेरा दुख मेरा हाल न पूछा
अब मर गई तो पास बैठ कर आँसू बहाते हैं !
एक रुमाल तक भी भेंट न दी जीते जी किसी ने
अब गर्म शालें औ’ कम्बल ओढ़ाते हैं !
सभी को पता है ये शाले ये कम्बल मेरे किसी काम के नहीं
मगर बेचारे सब के सब दुनियादारी निभाते हैं !
जीते जी तो खाना खाने को कहा नहीं किसी ने
अब देसी घी मेरे मुँह में डाले जाते हैं !
जीते जी साथ में एक कदम भी चले नहीं हमारे साथ जो
अब फूलों से सजा कर काँधे पर बिठाए जाते हैं !
आज पता चला कि मौत ज़िन्दगी से कितनी अच्छी नेमत है
हम तो बेवजह ही ज़िन्दगी की चाहत में वक्त गँवाए जाते थे.... !!
द्वारा - नीलम
द्वारा - नीलम
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023
रविवार, 29 मई 2022
गीत संगीत की दुनिया
गीत संगीत की दुनिया में ख़्य्याम याद आते हैं साँझ की ख़ामोशी में...उनकी धुनें मन को नाज़ुक सा सुकून देती हैं... शहर के शोर से दूर किसी दूसरी दुनिया में ही ले जाता है उनका संगीत .... कैफ़ी आज़मी के बोल जिन्हें आवाज़ दी हो मो. रफ़ी ने तो फिर बार-बार सुनने का दिल क्यों न चाहेगा...
सन 1817 में ‘लल्हा रोख़’ पर कवि थॉमस मूर लिख चुके थे फिल्म बनी 1958 में .. यह औरंगज़ेब की बेटी लल्हा रोख़ की प्रेम कहानी है जिसमे वह कवि फ़रमोर्ज़ से प्यार करती है अंत में वही राजकुमार होता है जिससे लल्हा रोख़ की सगाई हुई होती है..श्यामा और तलद महमूद थे इस फिल्म में.......
अरब देशों में प्रचलित नृत्य का प्राचीन रूप ‘रक़्स शरक़ी’ कहलाता है जो पश्चिमी देशों में भी किया जाता है ... ‘रक़्स बलदी’ लोक नृत्य की तरह घर घर में शादी ब्याह और खुशी के अनेक अवसरों पर सभी में प्रसिद्ध है.. बचपन से ही बच्चे आसानी से इस नृत्य को करना सीख जाते है.....मिस्त्र, लेबनान, तुर्की आदि में भाव-भंगिमाओं के साथ साथ उनकी वेशभूषा में भी कुछ कुछ अंतर है. यू ट्यूब पर एक प्रशंसक ने अरब देशों के प्रचलित बैली डांस के साथ रफ़ीजी के गीत को सजा दिया.....
“ है कली कली के लब पर , तेरे हुस्न का फ़साना
मेरे गुलिस्तान का सब कुछ तेरा सिर्फ मुस्कुराना ---- कली-कली के लब पर....
ये खुले खुले से गेसु , उठे जैसे बदलियाँ सी
ये खुले खुले से गेसु , उठे जैसे बदलियाँ सी
ये झुकी झुकी निगाहें गिरे जैसे बिजलियाँ सी
तेरे नाचते कदम में है बहार का ख़ज़ाना --- है कली-कली के लब पर....
तेरा झूमना मचलना, ये नज़र बदल बदल कर
तेरा झूमना मचलना, ये नज़र बदल बदल कर
मेरा दिल धड़क रहा है तू लचक सँभल सँभल के
कहीं रुक ना जाए ज़ालिम इसी मोड़ पर ज़माना -- कली-कली के लब पर....
शुक्रवार, 26 मार्च 2021
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020
सोमवार, 18 मई 2020
ताउम्र भटकना
आज भी माँ कहती है-
“बेटी, कल्पनालोक में विचरण करना छोड़ दे,
क्रियाशील हो जा, ज़िन्दगी और भी खूबसूरत दिखेगी”
और मैं हमेशा की तरह सच्चे मन से माँ से ही नहीं
अपने आप से भी वादा करती हूँ
कि धरातल पर उतर कर
ज़िन्दगी के नए मायने तलाश करूँगीं
लेकिन ये तलाश कहाँ पूरी होती है.
ताउम्र चलती है और हम भटकते हैं
हर पल इक नई राह पर चल कर
जाने क्या पाने को....
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