अभी अभी टी.वी. पर सदा के लिए बिछुड़े अपने बेटे के लिए शेखर सुमन जी की आँखें नम होते देखीं, इसी के साथ याद आया नीरज जी और 21 वर्षीय दीपक जो आशुतोष 'मासूम' के छोटे भाई हैं, उनका असमय इस दुनिया से विदा हो जाना.
जो इस दुनिया से चले जाते हैं उनके लिए शायद मृत्यु नव जीवन पाने का प्रकाशपुंज सा है लेकिन मृत्यु अंधकार से भरा कोई शून्य-लोक उनके लिए बन जाता है जो पीछे रह जाते हैं.
हम अपने प्रियजनों को सदा के लिए खोकर गहरी पीड़ा के अन्धकार में डूब जाते हैं. मुझे आज भी याद आता है पापा का हमें छोड़ कर चले जाना ऐसा दर्द दे गया था जो एक पल भी सहन नहीं होता था. अपने देश से दूर , अपनों से दूर उस दर्द को सहने का एकमात्र उपाय मिला अंतर्जाल पर एक लिंक जिसे पढकर या उसमें कुछ संगीतमय वीडियो देखकर मन शांत होता.
सोचा कि आपसे दिल मे उठे दर्द को दूर करने का उपाय बाँटा जाए.
http://www.selfhealingexpressions.com/goddess_meditation.html
( नारी किसी भी रूप में आने वाले कष्टों को दूर करने में सहायक होती है)
http://www.selfhealingexpressions.com/starshine.html
(विस्तृत आकाश में अनगिनत तारों को देखकर मन अजीब सी शांति पाता है)
http://www.selfhealingexpressions.com/earth_meditation.html
(प्रकृति के साथ जुड़ने पर भी शांति और शक्ति मिलती है )
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गुरुवार, 29 नवंबर 2007
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
सब बेबस हैं !
हम सब बेबस हैं। अपने ही गणतंत्र में लाचार। कुछ बेबस हैं वहशीपन की हद तक चले जाने को , कुछ बेबस हैं बस जड़ से होकर देखते रह जाने को ---
मैंने देखा इंसानों के इस जंगल में
शिकार करें सब दिन के सूरज में !
मैंने देखा इंसानों के भूखे चेहरों को
खून के प्यासे सूखे सूखे अधरों को !
मैंने देखा लोगों के वहशीपन को
पलभर में वे भूलें अपनेपन को !
मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !
मैंने देखा अन्दर कुछ है बाहर कुछ है
अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !
मैंने देखा इंसानों के इस जंगल में
शिकार करें सब दिन के सूरज में !
मैंने देखा इंसानों के भूखे चेहरों को
खून के प्यासे सूखे सूखे अधरों को !
मैंने देखा लोगों के वहशीपन को
पलभर में वे भूलें अपनेपन को !
मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !
मैंने देखा अन्दर कुछ है बाहर कुछ है
अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !
सोमवार, 26 नवंबर 2007
नारी मन के कुछ कहे , कुछ अनकहे भाव !

मानव के दिल और दिमाग में हर पल हज़ारों विचार उमड़ते घुमड़ते रहते हैं. आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. पिछले कुछ दिनों से स्त्री-पुरुष से जुड़े विषयों को पढकर सोचने पर विवश हो गई कि कैसे भूल जाऊँ कि मेरी पहली किलकारी सुनकर मेरे बाबा की आँखों में एक चमक आ गई थी और प्यार से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था. माँ को प्यार से देख कर मन ही मन शुक्रिया कहा था. दादी के दुखी होने को नज़रअन्दाज़ किया था.
कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.
फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.
फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.
अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.
अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.
शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ.
मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'
माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.
अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.
http://es.youtube.com/watch?v=CRr9eubXo68&feature=related
http://es.youtube.com/watch?v=e5n78sw8t9Q&feature=related
(ईरानी फिल्म 'मिम मिसले मॉदर' के छोटे छोटे दो क्लिपस हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे. यहाँ भाषा नहीं लेकिन भाव आप ज़रूर अनुभव कर पाएँगें.)
कुछ वर्षों बाद दो बहनों का एक नन्हा सा भाई भी आ गया. वंश चलाने वाला बेटा मानकर नहीं बल्कि स्त्री पुरुष मानव के दोनों रूप पाकर परिवार पूरा हो गया. वास्तव में पुरुष की सरंचना अलग ही नहीं होती, अनोखी भी होती है. इसका सबूत मुझसे 11 साल छोटा मेरा भाई था जो अपनी 20 साल की बहन के लिए सुरक्षा कवच बन कर खड़ा होता तो मुझे हँसी आ जाती. छोटा सा भाई जो बहन की गोद में बड़ा होता है, पुरुष-सुलभ (स्त्री सुलभ के विपरीत शब्द का प्रयोग ) गुणों के कारण अधिकार और कर्तव्य दोनों के वशीभूत रक्षा का बीड़ा उठा लेता है.
फिर जीवन का रुख एक अंजान नई दिशा की ओर मुड़ जाता है जहाँ नए रिश्तों के साथ जीवन का सफर शुरु होता है. पुरुष मित्र, सहकर्मी और कभी अनाम रिश्तों के साथ स्त्री के जीवन में आते हैं. दोनों में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.
फिर एक अंजान पुरुष धर्म का पति बनकर जीवन में आता है. जीवन का सफर शुरु होता है दोनों के सहयोग से. दोनों करीब आते हैं, तन और मन एकाकार होते हैं तो अनुभव होता है कि दोनों ही सृष्टि की रचना में बराबर के भागीदार हैं. यहाँ कम ज़्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता. दोनों अपने आप में पूर्ण हैं और एक दूसरे के पूरक हैं. एक के अधिकार और कर्तव्य दूसरे के अधिकार और कर्तव्य से अलग हैं , बस इतना ही.
अक्सर स्त्री-पुरुष के अधिकार और कर्तव्य आपस में टकराते हैं तब वहाँ शोर होने लगता है. इस शोर में समझ नहीं पाते कि हम चाहते क्या हैं? पुरुष समझ नहीं पाता कि समान अधिकार की बात स्त्री किस स्तर पर कर रही है और आहत स्त्री की चीख उसी के अन्दर दब कर रह जाती है. कभी कभी ऐसा तब भी होता है जब हम अहम भाव में लिप्त अपने आप को ही प्राथमिकता देने लगते हैं. पुरुष दम्भ में अपनी शारीरिक सरंचना का दुरुपयोग करने लगता है और स्त्री अहम के वशीभूत होकर अपने आपको किसी भी रूप में पुरुष के आगे कम नहीं समझती.
अहम को चोट लगी नहीं कि हम बिना सोचे-समझे एक-दूसरे को गहरी चोट देने निकल पड़ते हैं. हर दिन नए-नए उपाय सोचने लगते हैं कि किस प्रकार एक दूसरे को नीचा दिखाया जाए. यह तभी होता है जब हम किसी न किसी रूप में अपने चोट खाए अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं. अन्यथा यह सोचा भी नहीं जा सकता क्यों कि स्त्री और पुरुष के अलग अलग रूप कहीं न कहीं किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.
शादी के दो दिन पहले माँ ने रसोईघर में बुलाया था. कहा कि हाथ में अंजुलि भर पानी लेकर आऊँ. खड़ी खड़ी देख रही थी कि माँ तो चुपचाप काम में लगी है और मैं खुले हाथ में पानी लेकर खड़ी हूँ. धीरज से चुपचाप खड़ी रही..कुछ देर बाद मेरी तरफ देखकर माँ ने कहा कि पानी को मुट्ठी में बन्द कर लूँ.
मैं माँ की ओर देखने लगी. एक बार फिर सोच रही थी कि चुपचाप कहा मान लूँ या सोच समझ कर कदम उठाऊँ. अब मैं छोटी बच्ची नहीं थी. दो दिन में शादी होने वाली है सो धीरज धर कर धीरे से बोल उठी, 'माँ, अगर मैंने मुट्ठी बन्द कर ली तो पानी तो हाथ से निकल जाएगा.'
माँ ने मेरी ओर देखा और मुस्कराकर बोली, "देखो बेबी , कब से तुम खुली हथेली में पानी लेकर खड़ी हो लेकिन गिरा नहीं, अगर मुट्ठी बन्द कर लेती तो ज़ाहिर है कि बह जाता. बस तो समझ लो कि दो दिन बाद तुम अंजान आदमी के साथ जीवन भर के लिए बन्धने वाली हो. इस रिश्ते को खुली हथेली में पानी की तरह रखना, छलकने न देना और न मुट्ठी में बन्द करना." खुली हवा में साँस लेने देना ...और खुद भी लेना.
अब परिवार में तीन पुरुष हैं और एक स्त्री जो पत्नी और माँ के रूप में उनके साथ रह रही है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं, न ही उसे समानता के अधिकार के लिए लड़ना पड़ता है. पुरुष समझते हैं कि जो काम स्त्री कर सकती है, उनके लिए कर पाना असम्भव है. दूसरी ओर स्त्री को अपने अधिकार क्षेत्र का भली-भांति ज्ञान है. परिवार के शासन तंत्र में सभी बराबर के भागीदार हैं.
http://es.youtube.com/watch?v=CRr9eubXo68&feature=related
http://es.youtube.com/watch?v=e5n78sw8t9Q&feature=related
(ईरानी फिल्म 'मिम मिसले मॉदर' के छोटे छोटे दो क्लिपस हैं जो मुझे बहुत अच्छे लगे. यहाँ भाषा नहीं लेकिन भाव आप ज़रूर अनुभव कर पाएँगें.)
शनिवार, 24 नवंबर 2007
हे प्राण मेरे, आँखें खोलो !
हे प्राण मेरे, आँखें खोलो
सृष्टि को रूप नया दे दो !
कब तक निश्चल पड़े पड़े
देखोगे कब तक खड़े खड़े !
हे प्राण .....................
उठो उठो हे सोए प्राण
आँखें मूँदे रहो न प्राण !
हे प्राण .................
मानवता का संहार है होता
वसुधा मन पीड़ा से रोता !
हे प्राण ....................
कृतिकार के मन का रुदन सुनो
विश्व की करुण पुकार सुनो !
हे प्राण .....................
हे प्राण मेरे, आँखें खोलो
सृष्टि को रूप नया दे दो !!
शुक्रवार, 23 नवंबर 2007
व्यक्तित्त्व
सामने से उसे आते देख मैं चौंक गई
सुन्दर, सौम्य, मुस्काती नम्र नम आँखें
चाल में शालीनता, चेहरे पर नहीं मलिनता
किसी ने कहा - "देखते ही पता चलता है
वह घमण्डी है, नकचढ़ी है!"
किसी ने कहा - " नहीं नहीं , वह गूँगी है,
उसे बोलना ही नहीं आता है !"
किसी ने कहा - "कछुए की तरह सदा अपने
कवच में छिपी रहती है !"
किसी ने कहा - "हीन भावना से ग्रस्त शायद
निर्धन घर की लड़की है !"
किसी ने कहा - "बन्द किताब का वह एक
कोरा पन्ना है !"
लेकिन
किसी ने नहीं कहा था - "वह भावुक संवेदनशील
ह्रदय वाली है !"
किसी ने नहीं कहा था - "उसका मन शीशे जैसा
बेहद नाज़ुक है !"
किसी ने नहीं कहा था - "वह मानव के छल-कपट
से आहत है!"
किसी ने नहीं कहा था - " वह प्रेम रस पीने को
व्याकुल है!"
सामने से उसे आते देख मैं समझ गई !
इन आँखों को पढ़ना बहुत मुश्किल है !
पढ़ लिया तो फिर समझना मुश्किल है !
समझ लिया तो फिर भूलना मुश्किल है !
सुन्दर, सौम्य, मुस्काती नम्र नम आँखें
चाल में शालीनता, चेहरे पर नहीं मलिनता
किसी ने कहा - "देखते ही पता चलता है
वह घमण्डी है, नकचढ़ी है!"
किसी ने कहा - " नहीं नहीं , वह गूँगी है,
उसे बोलना ही नहीं आता है !"
किसी ने कहा - "कछुए की तरह सदा अपने
कवच में छिपी रहती है !"
किसी ने कहा - "हीन भावना से ग्रस्त शायद
निर्धन घर की लड़की है !"
किसी ने कहा - "बन्द किताब का वह एक
कोरा पन्ना है !"
लेकिन
किसी ने नहीं कहा था - "वह भावुक संवेदनशील
ह्रदय वाली है !"
किसी ने नहीं कहा था - "उसका मन शीशे जैसा
बेहद नाज़ुक है !"
किसी ने नहीं कहा था - "वह मानव के छल-कपट
से आहत है!"
किसी ने नहीं कहा था - " वह प्रेम रस पीने को
व्याकुल है!"
सामने से उसे आते देख मैं समझ गई !
इन आँखों को पढ़ना बहुत मुश्किल है !
पढ़ लिया तो फिर समझना मुश्किल है !
समझ लिया तो फिर भूलना मुश्किल है !
बुधवार, 21 नवंबर 2007
मृत्यु का स्वागत करता 46 साल का प्रोफेसर(Dying Professor's Last Lecture)
मुत्यु को इतने प्यार से मुस्करा कर कोई गले लगा सकता है इसका जीता जागता उदाहरण अमेरिका के कॉलेज का कम्पयूटर साइंस का प्रोफेसर 46 वर्षीय रैण्डी पॉश. जिन्हें कैंसर है और कुछ ही महीनों के मेहमान हैं. दस किश्तों में उन्होंने जो लास्ट लैक्चर दिया है उनमें ज़िन्दगी को ज़िन्दादिली से जीने की मह्त्त्वपूर्ण बातें छिपी हैं.
प्रो. रैण्डी ने लैक्चर शुरु करने से पहले दण्ड बैठक लगा कर सबको यह कहना चाहा कि अगर कोई मेरी तरह दण्ड बैठक लगा सकता है तभी सहानुभूति दिखाने की कोशिश करे.
बड़ी सरलता से उन्होंने कहा कि यह आखिरी लैक्चर उनके बच्चों के लिए है जो अभी छोटे हैं लेकिन बड़े होकर अपने पिता को अच्छी तरह समझ सकेंगे.
अपनी पत्नी को जन्मदिन की बधाई देते हुए खुद मुस्कराते हुए सभी को रुला दिया. आँसू पोंछती हुई पत्नी एक मोम बत्ती को बुझा कर पति के गले लग कर रो पड़ी.
अपने बचपन को याद करके आज के माता-पिता को सन्देश देते हुए कहा कि बच्चों को कभी कभी उनकी इच्छानुसार कुछ काम करने की इजाज़त दे देनी चाहिए. उन्होंने अपने कमरे की दीवारों को दिखाया जहाँ उन्होंने गणित की कुटेशंज़ लिखी हुई थीं.
कम्पयूटर आर्टस और 'वर्चुयल रीयल्टी' को लेकर उन्होंने कॉलेज में काफी नाम कमाया.
सभी सहकर्मी जो भी मंच पर बोलने आ रहे थे , सबके गले रुँधे हुए लेकिन होंठो पर मुस्कान और आँखें नम थी. बीच बीच में आँखें नम होती रहीं लेकिन अपने आप को रोक न सकी और एक के बाद एक सभी किश्तों को एक बार में देख कर ही उठी.
आशा है आप भी देखना पसन्द करेंगे.
http://www.youtube.com/watch?v=_8kUTUIveyA
(यूट्यूब के पेज़ को खोलने पर दाईं तरफ दस किश्तें भी देखी जा सकती हैं)
http://www.cs.cmu.edu/~pausch/news/index.html
(इस पेज पर प्रो. रैण्डी पॉश के बारे में पढा भी जा सकता है.)
प्रो. रैण्डी ने लैक्चर शुरु करने से पहले दण्ड बैठक लगा कर सबको यह कहना चाहा कि अगर कोई मेरी तरह दण्ड बैठक लगा सकता है तभी सहानुभूति दिखाने की कोशिश करे.
बड़ी सरलता से उन्होंने कहा कि यह आखिरी लैक्चर उनके बच्चों के लिए है जो अभी छोटे हैं लेकिन बड़े होकर अपने पिता को अच्छी तरह समझ सकेंगे.
अपनी पत्नी को जन्मदिन की बधाई देते हुए खुद मुस्कराते हुए सभी को रुला दिया. आँसू पोंछती हुई पत्नी एक मोम बत्ती को बुझा कर पति के गले लग कर रो पड़ी.
अपने बचपन को याद करके आज के माता-पिता को सन्देश देते हुए कहा कि बच्चों को कभी कभी उनकी इच्छानुसार कुछ काम करने की इजाज़त दे देनी चाहिए. उन्होंने अपने कमरे की दीवारों को दिखाया जहाँ उन्होंने गणित की कुटेशंज़ लिखी हुई थीं.
कम्पयूटर आर्टस और 'वर्चुयल रीयल्टी' को लेकर उन्होंने कॉलेज में काफी नाम कमाया.
सभी सहकर्मी जो भी मंच पर बोलने आ रहे थे , सबके गले रुँधे हुए लेकिन होंठो पर मुस्कान और आँखें नम थी. बीच बीच में आँखें नम होती रहीं लेकिन अपने आप को रोक न सकी और एक के बाद एक सभी किश्तों को एक बार में देख कर ही उठी.
आशा है आप भी देखना पसन्द करेंगे.
http://www.youtube.com/watch?v=_8kUTUIveyA
(यूट्यूब के पेज़ को खोलने पर दाईं तरफ दस किश्तें भी देखी जा सकती हैं)
http://www.cs.cmu.edu/~pausch/news/index.html
(इस पेज पर प्रो. रैण्डी पॉश के बारे में पढा भी जा सकता है.)
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी ने कविता को 'कल्पना के कानन की रानी' कहा है.
स्वाधीनता आन्दोलन के सन 1920 के बाद के दौर में नई पीढ़ी का यह नवीनता के प्रति मुग्ध आकर्षण अपने में अनेक पहलुओं को समेटे था जैसे कल्पनाशीलता, स्वच्छंदता, पुरातन के विरुद्ध संघर्ष, नए समाज का स्वप्न और स्वाधीन भारत के नवप्रभात की अभिलाषा.
निराला जी ने 'परिमल' की भूमिका मे कहा है, "हिन्दी उद्यान में अभी प्रभात काल ही की स्वर्णछटा फैली है. उसमें सोने के तारों का बुना कल्पना का जाल ही अभी है, जिससे किशोर कवियों ने अनंत विस्तृत नील प्रकृति को प्रतिमा में बाँधने की चेष्टाएँ की हैं, उसे प्रभात के विविध वर्णों से चमकती हुई अनेक रूपों में सुन्दर देखकर . वे हिन्दी के एक काल के शुष्क साहित्य ह्रदयों में इन मनोहर प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करने का विचार कर रहे हैं. इसलिए अभी जागरण के मनोहर चित्र, आह्लाद परिचय आदि जीवन के प्राथमिक चिह्न ही देख पड़ते हैं, विहंगों का मधुर कल कूजन, स्वास्थ्यप्रद स्पर्श सुखकर शीतल वायु, दूर तक फैलई हुई प्रकृति के ह्रदय की हरेयाली, अनंतवाहिनी नदियों का प्रणय-चंचल वक्ष:स्थल, लहरो पर कामनाओं की उज्ज्वल किरणें, चारों ओर बाल-प्रकृति की सुकुमार चपल दृष्टि."
राष्ट्रीयता स्वाधीनता आन्दोलन की जो तरंग 1920 के बाद शुरु होती है , उसी नव जागृति की पृष्ठभूमि में छायावादी कविताएँ लिखी जा रही थीं. पंत जी की 'पल्लव' और निराला जी के मुक्त छंद शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए. प्रसाद जी के नाटको के गीत अपनी गेयता के कारण प्रसिद्ध हुए. छायावाद के समय भाषा ने जो रूप धारण किया, उसी का यह परिणाम हुआ कि खड़ी बोली में भी कविता कविता सी लगने लगी.
फिर समय बदला, प्रगति के पथ पर कविता आगे बढ़ी, नए नए प्रयोग करती हुई कविता को बदलते समय ने एक नए रूप में हमारे सामने ला खड़ा किया. आधुनिक नारी सी नई संवेदना और शिल्प के साथ नई कविता का रूप ही अलग है. अगर इस विषय पर चर्चा शुरु की तो बस आप मुझे ब्लॉग निकाला ही दे देंगे.
अब आप लेख पढने आ ही गए हैं तो इस कविता पर ही एक नज़र डाल कर एक शीर्षक भी देते जाइए :)
हरे भरे तेरे तृण ऐसे
रोम-रोम पुलकित हों जैसे
स्नेहिल सदा स्पर्श क्यों तेरा?
रीता फिर भी मन क्यों मेरा ?
कोमलाँगी तुम प्यारी-प्यारी
मनमोहिनी न्यारी-न्यारी
क्यों काँटे सी चुभती हो?
क्यों रूखी सी दिखती हो?
धानी आँचल से ढकी हुई
पलकें तेरी हैं झुकीं हुईं
पलक उठाई क्यों तुमने ?
नज़र मिलाई क्यों तुमने?
कहती हो अपनी यदा-कदा
रहती हो तुम मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यों तुमने ?
भाव दिखाए क्यों तुमने ?
निराला जी ने 'परिमल' की भूमिका मे कहा है, "हिन्दी उद्यान में अभी प्रभात काल ही की स्वर्णछटा फैली है. उसमें सोने के तारों का बुना कल्पना का जाल ही अभी है, जिससे किशोर कवियों ने अनंत विस्तृत नील प्रकृति को प्रतिमा में बाँधने की चेष्टाएँ की हैं, उसे प्रभात के विविध वर्णों से चमकती हुई अनेक रूपों में सुन्दर देखकर . वे हिन्दी के एक काल के शुष्क साहित्य ह्रदयों में इन मनोहर प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करने का विचार कर रहे हैं. इसलिए अभी जागरण के मनोहर चित्र, आह्लाद परिचय आदि जीवन के प्राथमिक चिह्न ही देख पड़ते हैं, विहंगों का मधुर कल कूजन, स्वास्थ्यप्रद स्पर्श सुखकर शीतल वायु, दूर तक फैलई हुई प्रकृति के ह्रदय की हरेयाली, अनंतवाहिनी नदियों का प्रणय-चंचल वक्ष:स्थल, लहरो पर कामनाओं की उज्ज्वल किरणें, चारों ओर बाल-प्रकृति की सुकुमार चपल दृष्टि."
राष्ट्रीयता स्वाधीनता आन्दोलन की जो तरंग 1920 के बाद शुरु होती है , उसी नव जागृति की पृष्ठभूमि में छायावादी कविताएँ लिखी जा रही थीं. पंत जी की 'पल्लव' और निराला जी के मुक्त छंद शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए. प्रसाद जी के नाटको के गीत अपनी गेयता के कारण प्रसिद्ध हुए. छायावाद के समय भाषा ने जो रूप धारण किया, उसी का यह परिणाम हुआ कि खड़ी बोली में भी कविता कविता सी लगने लगी.
फिर समय बदला, प्रगति के पथ पर कविता आगे बढ़ी, नए नए प्रयोग करती हुई कविता को बदलते समय ने एक नए रूप में हमारे सामने ला खड़ा किया. आधुनिक नारी सी नई संवेदना और शिल्प के साथ नई कविता का रूप ही अलग है. अगर इस विषय पर चर्चा शुरु की तो बस आप मुझे ब्लॉग निकाला ही दे देंगे.
अब आप लेख पढने आ ही गए हैं तो इस कविता पर ही एक नज़र डाल कर एक शीर्षक भी देते जाइए :)
हरे भरे तेरे तृण ऐसे
रोम-रोम पुलकित हों जैसे
स्नेहिल सदा स्पर्श क्यों तेरा?
रीता फिर भी मन क्यों मेरा ?
कोमलाँगी तुम प्यारी-प्यारी
मनमोहिनी न्यारी-न्यारी
क्यों काँटे सी चुभती हो?
क्यों रूखी सी दिखती हो?
धानी आँचल से ढकी हुई
पलकें तेरी हैं झुकीं हुईं
पलक उठाई क्यों तुमने ?
नज़र मिलाई क्यों तुमने?
कहती हो अपनी यदा-कदा
रहती हो तुम मौन सदा
आवाज़ उठाई क्यों तुमने ?
भाव दिखाए क्यों तुमने ?
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