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मंगलवार, 27 नवंबर 2007

सब बेबस हैं !

हम सब बेबस हैं। अपने ही गणतंत्र में लाचार। कुछ बेबस हैं वहशीपन की हद तक चले जाने को , कुछ बेबस हैं बस जड़ से होकर देखते रह जाने को ---

मैंने देखा इंसानों के इस जंगल में
शिकार करें सब दिन के सूरज में !

मैंने देखा इंसानों के भूखे चेहरों को
खून के प्यासे सूखे सूखे अधरों को !

मैंने देखा लोगों के वहशीपन को
पलभर में वे भूलें अपनेपन को !

मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !

मैंने देखा अन्दर कुछ है बाहर कुछ है
अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !

13 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

इस आदमी में कब भगवान मिल जाये और कब हैवान; कुछ कहा नहीं जा सकता।

ghughutibasuti ने कहा…

यही तो जीवन के रंग हैं । कभी पराये अपने बनते हैं कभी अपने पराये ।
घुघूती बासूती

पर्यानाद ने कहा…

दुख न हो तो सुख को कैसे जानेंगे? जिंदगी में हर चीज के दो पहलू हैं. इसीलिए यह जीवन है...

स्वप्नदर्शी ने कहा…

meenaxi, aapkii kavita bahut achchii hai. bharat ke loktantr me aam aadmii bebas hai. jis din ye beasi tootegi, shaayad usi din asali loktantr bhii aayega.
ye nizi jindagii ke dhoop chaanv ka dukh nai hai. aasaam kii rajdhaani kii sadkon par jo huya hai, uski bebasi hai. aapki tarah mei bhii bebas hoon, vichlit hoon.

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में

सब में आप स्वयं शामिल नहीं। इसलिए अभी आशा बाकी है। सब दुःख ही दुःख नहीं। रात्रि की परम कालिमा के बाद पौ फटती है। देखो जीवन है यहीं कहीं।

Batangad ने कहा…

मीनाक्षी जी
वहशीपन ही है जो, अपनापन भुला देता है। और, धीरे-धीरे ये सीमा ऐसे खत्म होती है कि पता नहीं चलता कि कितने अपने वहशीपन के शिकार हो गए।

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !

Sanjeet Tripathi ने कहा…

क्या कहें!!

बालकिशन ने कहा…

अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !
सत्य किंतु अर्ध सत्य . ये तस्वीर का केवल एक रुख है.
पर कविता बहुत ही अच्छी लिखी है आपने.

मीनाक्षी ने कहा…

आप सबका धन्यवाद...सही है कि एक ही पहलू है यहाँ .... जब चारों ओर इंसान का बदरंग चित्र दिखाई देता है तो दुख ही दुख दिखाई देते हैं.

Divine India ने कहा…

इंसानों का सफर भी तो जानवर से मानव की ओर हुआ है… बस दुविधा यही है कि हम आज भी उन हरकतों को भुला नहीं पाये हैं…
अच्छी विचारोत्तेजक कविता…।

रंजू भाटिया ने कहा…

मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !

मैंने देखा अन्दर कुछ है बाहर कुछ है
अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !

bahut sahi aur sundar baat likhi di hai aapne!!

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

आपके इस पोस्ट पर अपनी ग़ज़ल का एक शेर अर्ज़ कर रहा हूँ -
" जिंदगी बरदान है उसकी या एक अभिशाप है ! हम समझ पाते नही क्या पुन्य है क्या पाप है !!"