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मंगलवार, 27 नवंबर 2007

सब बेबस हैं !

हम सब बेबस हैं। अपने ही गणतंत्र में लाचार। कुछ बेबस हैं वहशीपन की हद तक चले जाने को , कुछ बेबस हैं बस जड़ से होकर देखते रह जाने को ---

मैंने देखा इंसानों के इस जंगल में
शिकार करें सब दिन के सूरज में !

मैंने देखा इंसानों के भूखे चेहरों को
खून के प्यासे सूखे सूखे अधरों को !

मैंने देखा लोगों के वहशीपन को
पलभर में वे भूलें अपनेपन को !

मैंने देखा होते बैगाना सबको पल में
समझ न आए घृणा-घृणा जब फैले सब में !

मैंने देखा अन्दर कुछ है बाहर कुछ है
अन्दर बाहर एक नहीं सौ दुख ही दुख हैं !