Translate

संस्मरण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
संस्मरण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 16 मई 2014

कजरी बंजारन


 ट्रैफिक लाइट पर रुक कर अजनबी बंजारन से नज़र मिलना और उसकी मुस्कान से सुकून पा जाना...ऐसे अनुभव याद रह जाते हैं. सड़क के किनारे टिशुबॉक्स एक तरफ किए बैठी उस खूबसूरती को देखती रह गई थी, फौरन कैमरा निकाल कर क्लिक किया ही था कि उसकी नज़र मुझसे मिली....

पल भर के लिए मैं डर गई लगा जैसे रियाद में हूँ जहाँ सार्वजनिक स्थान पर फोटो खींचना मना है.. दूसरे ही पल  हम दोनों की नज़रें मिलीं और मुस्कान का आदान प्रदान हुआ तो चैन की साँस आई कि मैं अपने ही देश में  हूँ ...फिर भी बिना इजाज़त फोटो लेने की झेंप दूर करने के लिए चिल्लाई, " क्या नाम है तुम्हारा.....एक फोटो खींच लूँ?" सिर हिला कर वह भी वहीं से चिल्ला के कुछ बोली और फिर से मुस्कुरा दी.. बस 'ईईईईई' इतना ही सुनाई दिया....उसकी पोशाक और रंग देखकर ईईई से कजरी नाम का ही अनुमान लगाया...वह अपनी मासूम मुस्कान के साथ  मेरे दिल में उतर गई..

फोटो तो मैं पहले ही खींच चुकी थी लेकिन दिल किया कि कार एक साइड पर रोक कर उसीकी बगल में बैठ जाऊँ लेकिन उस वक्त ऐसा करना मुमकिन नहीं था. दुबारा उसी रास्ते से कई बार गुज़री लेकिन मुलाकात न हो पाई. कभी कभी ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर किसी अजनबी से पल भर के लिए हुई एक मुलाकात भी भुलाए नहीं भूलती.

कमली(पागल) ही थी जो उसकी बगल में बैठने की चाह जगी थी... अचानक एक दिन पुरानी तस्वीरें देखते हुए अपनी एक तस्वीर पर नज़र गई. दमाम से रियाद लौटते वक्त कार खराब हो गई थी..पति वर्कशॉप गए और मैं घर के नीचे ही फुटपाथ पर बैठ गई थी. सामान के साथ फिर से ऊपर जाने की हिम्मत नहीं थी. उस तौबा की गर्मी में इंतज़ार आसान नहीं थी लेकिन हालात ऐसे थे कि चारा भी नहीं था. उसी दौरान न जाने कब छोटे बेटे ने तस्वीर उतार ली थी..

दुबारा उस तस्वीर को देखते ही कजरी बंजारन की याद आ गई. मुझमें और उसमें ज़्यादा फ़र्क नहीं लगा...
बच्चों जैसे खुश होकर दोनों तस्वीरों को मिला कर देखने लगी...तस्वीरों की समानता ने ही खुश कर दिया...
कितनी ही ऐसी छोटी छोटी खुशियाँ ज़िन्दगी को खुशगवार बना देती हैं..


मेरे देश का रेतीला रंगीला राजस्थान---वहाँ  के प्यारे लोग और उनका मनमोहक रहनसहन ...





मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

बहुत दिनों के बाद......


बहुत दिनों के बाद...
अपने शब्दों के घर लौटी...
बहुत दिनों के बाद .......
फिर से मन मचल गया...
बहुत दिनों के बाद...
फिर से कुछ लिखना चाहा....
बहुत दिनों के बाद...
कुछ ऐसा मन में आया....
 फिर इक बार
नए सिरे से
 शुरु करूँ मैं लिखना ...
अपने मन की बात !!




सोचती हूँ ब्लॉग पर नियमित न हो पाना या जीवन को अनियमित जीना न आदत है और न ही आनंद...वक्त के तेज बहाव में उसी की गति से बहते जाना ही जीना है शायद. जीवन धारा की उठती गिरती लहरों का सुख दुख की चट्टानों से टकरा कर बहते जाने में ही उसकी खूबसूरती है.  खैर जो भी हो लिखने के लिए फिर से पलट कर ब्लॉग जगत में आना भी एक अलग ही रोमाँच पैदा करता है मन में.

2012 दिसम्बर में जब पति को दिल का दौरा पड़ा तब मैं सात समुन्दर पार माँ के पास थी. फौरन पहुँची रियाद जहाँ एक हफ्ते बाद ही एंजियोप्लास्टी हुई. एक महीने बाद ही नए साल में देवर अपने परिवार समेत रहने आ गए. उनके लिए 2013 का साल खूब सारी खुशियों के साथ कुछ भी दुख लाया था. अगस्त के महीने में वे परिवार समेत कार दुर्घटना की चपेट में आ गए. देवर और उनके बेटे को हल्की चोटें आईं लेकिन देवरानी की रीढ़ की हड्डी में और एक पैर की एड़ी में 'हेयर लाइन फ्रेक्चर' आया जिस कारण उसे दो महीने के लिए बिस्तर पर सीधा लेटना पड़ा. शूगर और हाई बीपी की मरीज़ के लिए जो बहुत मुश्किल होता है इस तरह लगातार लेटना. बिजली से गतिशील हवाई गद्दे का इस्तेमाल किया गया ताकि बेडसोल्ज़ न हों. गूगल के ज़रिए पहली  बार 'कैथेटर' का इस्तेमाल करना सीखा. एक साथ सब की मेहनत और लगन से देवरानी भी उठ खड़ी हुईं. 2 अक्टूबर को फिज़ियोथैरेपी के लिए भारत लौट गईं...

अक्टूबर 10 को हम पति-पत्नी दुबई पहुँचे दोनों बच्चों से मिलने. कहते हैं जितना मिले उसी में खुश रहना आना चाहिए दस दिन की खुशी लेकर हम भारत पहुँचे जहाँ कुछ दिन बाद अमेरिका से माँ ने आना था अपने इलाज के लिए. इलाज तो वहाँ भी हुआ लेकिन सेहत ठीक न हुई.  नवम्बर 7 को माँ आईं अपने देश एक उम्मीद लेकर कि स्वस्थ होकर वापिस लौटेंगी. पति अपनी नौकरी पर रियाद लौट गए. हम माँ बेटी रह गए पीछे अपने ही देश में अकेले. अकेले इसलिए कहा क्योंकि आजकल सभी अपने अपने चक्रव्यूह में फँसे जी रहे हैं इस उम्मीद से कि कभी वे चैन की साँस लेने बाहर निकल पाएँगें.

2013 नवम्बर 7 से 2014 मार्च 4 तक लगातार हुए इलाज के दौरान कई खट्टे मीठे और कड़वे अनुभव हुए. सरकारी अस्पताल से लेकर 5 और 7 सितारा अस्पताल तक जाकर देख लिया. आठ महीने से खाँसी हो रही थी उसका इलाज तो किसी को समझ नहीं आ रहा था. दिल की जाँच के लिए बड़े बड़े टेस्ट करवा लिए गए. पानी की तरह खूब पैसा बहाया जिसके लिए माँ की डाँट भी खानी पड़ी. हम माँ बेटी दो लोग साथ थे फिर भी अकेलापन लगता. समझ नहीं आता कि किस उपाय से माँ की खाँसी और कमज़ोरी दूर हो...

पता नहीं भले स्वभाव के लोग कम क्यों होते हैं लेकिन जितने भी होते हैं वे दिल में बस जाते हैं. माँ के वापिस लौटने के दिन आ रहे थे और उधर बीमारी जाने का नाम नहीं ले रही थी. घर के नज़दीक की मदर डेरी पर बैठने वाले सरदारजी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते..यूँ ही कह गए कि अगर विश्वास हो तो गुरुद्वारे में बैठने वाले डॉक्टर को एक बार दिखा दीजिए. कभी कभी आस्था और विश्वास से भी लोग ठीक हो जाते हैं. उनकी आस्था का आदर करते हुए माँ को वहाँ दिखाया.

शायद आस्था और विश्वास का दिल और दिमाग पर असर होता है या संयोग था कि 'नेबुलाइज़र' और 'इनहेलर' की हल्की खुराक से माँ को कुछ आराम मिलने लगा...हालाँकि यह इलाज पहले भी चल रहा था लेकिन ढेर सारी दवाइयों के साथ. श्रद्धा और विश्वास के कारण ही माँ ताकत की दवा और नेबुलाइज़र और इनहेलर की एक एक डोज़ से अच्छा महसूस करने लगी. पूरे देश में तौबा की सर्दी जिस कारण घूमने फिरने का सपना सपना ही रह गया. माँ को छोड़ कर मैं कहाँ जाती...ब्लॉग जगत के मित्र , पुस्तक मेला या किसी तरह की खरीददारी माँ के साथ से कमतर लगे.

4 मार्च की रात माँ को विदा करके  10 मार्च की वापिसी तय हुई हमारी दुबई के लिए जहाँ एक रात के लिए बच्चों से मिल कर रियाद लौट आए. 11 मार्च वीज़ा खत्म होने की अंतिम तारीख़ थी इसलिए शाम तक रियाद दाख़िल होना ज़रूरी था.

तब से हम यहाँ है रियाद के घर की चार दीवारी में...यहाँ की दीवारें बहुत ऊँची होती हैं लेकिन सबसे आख़िरी मंज़िल के बाद छत से दिखने वाला नीला आसमान सारे का सारा अपना है. 
नीले आसमान पर सिन्दूरी सूरज की बिन्दिया , चमकती बिन्दिया से सुनहरी धूप, धूप से चमकती रेत से शरारत करती हवा,  चाँद का सफ़ेद टीका , नीले आसमान के काले बुरके पर टिमटिमाते टँके तारे सब अपने हैं.... ! 



बुधवार, 5 जून 2013

रिक्शावाला और उसकी लाड़ली


मोबाइल से खींची गईं तस्वीरें 
पिछले साल के कुछ यादगार पल..2012 मार्च की बात है, देर रात निकले मैट्रो स्टेशन के नीचे के स्टोर से दूध और मक्खन खरीदने के लिए... पैदल का रास्ता होने पर भी गली के कुत्तों से डर के कारण रिक्शा पर जाने की सोची वैसे रिक्शे पर हम कम ही बैठते हैं. 
इस बात का ज़िक्र करते हुए एक पुरानी घटना भी याद आ गई जो भुलाए नहीं भूलती,  उसके बाद तो सालों तक रिक्शा पर नहीं बैठे. बड़ा बेटा 9-10 साल का रहा होगा. हर बार की तरह जून जुलाई में गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में थे. ईस्ट ऑफ कैलाश से संत नगर जाने के लिए रिक्शा लिया. दोनों बेटों के साथ मैं भी रिक्शे पर बैठ गई. संत नगर के नज़दीक आते ही कुछ दूरी तक की चढ़ाई थी जिस पर रिक्शा चालक नीचे उतर कर ज़ोर लगा कर रिक्शा खींचते हुए आगे बढ़ने लगा. अचानक बेटे ने उसे रोक दिया. पहले उसे अपनी पानी की बोतल दी और फिर मुझे नीचे उतरने के लिए कहा, हालाँकि उस वक्त हम आज की तरह वज़नदार नहीं थे. बेटे खुद भी  उतरने लगे तो रिक्शेवाले ने ट्रैफिक से डरते हुए बच्चों को नहीं उतरने दिया. हैरान परेशान रिक्शा वाले ने जल्दी ही चढ़ाई पार करके मुझे भी बैठने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया.
फिलहाल द्वारका की सोसाइटी के बाहर ऑटोरिक्शा से ज़्यादा साइकिल रिक्शा दिखते हैं. किसी भी काम के लिए रिक्शे पर जाना वहाँ सबसे सुविधाजनक है. गेट के बाहर खड़े  रिक्शे पर हम बैठे ही थे कि रिक्शावाला बोल उठा, 'मेम साहब, बच्ची को आइसक्रीम खिलाने में वक्त लग जाएगा' हमें कोई जल्दी नहीं थी इसलिए हमारी हामी भरते ही वह इत्मीनान से बच्ची को आइसक्रीम खिलाने लगा. बीच बीच में उसका मुँह साफ करता हुआ प्यार से बातें भी करता जाता. 
बच्ची को गोद में लेकर जिस प्यार से वह उसे आइसक्रीम खिला रहा था किसी भी तरह वह माँ से कम ध्यान रखने वाला नहीं लग रहा था. हमसे रहा न गया तो पूछ ही लिया कि बच्ची की माँ कहाँ है. 'इसकी माँ शाम को काम करती है घरों में और मैं इसे सँभालता हूँ साथ-साथ नज़दीक ही रिक्शा भी चलाता हूँ, दो चार पैसे जोड़ लेंगे तो बेटी को कुछ पढ़ा लिखा सकेंगे.'  उसकी बात सुनकर मन खुश हो गया. आशा की किरण जाग गई कि बेटियों की कदर करने वाले ऐसे माता-पिता भी हैं जो अपनी बेटियों की  सुरक्षा पर ध्यान देते हैं, उनके सुनहरे भविष्य के सपने भी सँजोते हैं. 
आइसक्रीम खिलाने के बाद उसने लोहे की टोकरी में कपड़े को सही से बिछा कर बेटी को उसमें बड़े प्यार और ध्यान से बिठा दिया. बच्ची भी चुपचाप बैठ गई , शायद उसे आदत हो गई थी लेकिन मुझे डर लग रहा था कि कहीं उसे लोहे की टोकरी चुभ न जाए. सड़क पर लगे स्पीड ब्रेकर के कारण उछल कर नीचे न गिर जाए. बार-बार मेरे ध्यान रखने पर वह हँस दिया. 'कुछ नहीं होगा मेमसाहब' कह कर रिक्शा चलाते हुए बच्ची से बस यूँ ही बात करता जाता. हालाँकि बच्ची सयानी बन कर बैठी थी. 
चलने से पहले उसके साथ तस्वीर खिंचाने की इजाज़त माँगी तो वह बहुत खुश हो गया. बेटी आइसक्रीम खाकर टोकरी में तसल्ली से बैठी थी और पिता ने बहुत बड़ी और प्यारी मुस्कान के साथ तस्वीर खिंचवाई. 


बुधवार, 6 जुलाई 2011

आज लाखों का नुक्सान हो जाता ग़र.....!

 मेरी नई चप्पल 

सच कहा गया है कि ईश्वर जो करता अच्छे के लिए ही करता है....हुआ यूँ कि कार की रजिस्ट्रेशन कराने के लिए एक कम्पनी से आए कर्मचारी को कार , पैसे और पेपर देने की जल्दी में बेटे के साथ हम अंडरग्राउंड पार्किंग  की तरफ जा रहे थे...पूरे साल का ज़ुर्माना लगभग 1,250 दरहम था....स्पीडिंग करने और  पार्किंग गलत करने या दस मिनट भी ऊपर हो जाने पर दुबारा टिकट न लगाने का हर्ज़ाना तो भरना ही था... रजिस्ट्रेशन की फीस भी देनी थी.....
पैसे कम पड़ गए थे इसलिए एटीएम मशीन से पैसे निकालने की जल्दी में ऊँची एड़ी की नई चप्पल पहन कर घर से निकले.......जाने क्या सोच कर ऊँची हील की चप्पल खरीद ली थी ...नए फैशन की नई चप्पल पहने हुए तेज़ गति से आगे बढ़ते जा रहे थे....एक पल के लिए भी नहीं लगा कि चप्पल कहीं धोखा दे जाएगी....दिखने में भी अच्छी और पहनने में भी सुविधाजनक.....पता नहीं क्यों हम ऊँचा होने की ललक नहीं छोड़ पाते.... पटक दिया उसने ज़मीन पर..... चप्पल ने ही सिखा दिया.....क्या ज़रूरत है ज़मीन से कुछ इंच भी ऊपर होने की...जहाँ हो, जैसे हो, वैसे ही रहो....!! 
जैसे हैं वैसे ही क्यों नहीं रह पाते, यह समझ आ जाए तो फिर कोई गिरता ही नहीं... गिर कर फिर उठने की कला से भी वंचित रहता......ख़ैर .दूसरों की नकल करने का अंजाम क्या होता है आज गिरने पर जाना...विद्वानों ने सही कहा है कि नकल करने में  भी अक्ल की ज़रूरत होती है.....मन ही मन ठान लिया कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे ...उसी रूप में जो स्वीकार ले वहीं अपना......... 
ज़मीन पर पड़े पड़े सोच रही थी कि अगर मैं वही पहले जैसी छरहरी , पतली सी टुथपिक जैसी होती तो लाखों का नुक्सान हो जाता.....गिरते ही झट से हड्डी टूट जाती ...क्या पता कंधे, कूल्हे या घुटने पर प्लास्टर चढ़वाना पड़ता.... अस्पताल का भारी खर्चा उठाना पड़ता..बिस्तर पर  पड़ जाते सो अलग......
मान भी लिया जाए कि पतले लोग सेहतमंद और मज़बूत होते हैं लेकिन धीरे धीरे पचास तक आते आते  हडियाँ तो  कमज़ोर  होने ही लगती हैं... उस पर अगर माँस मज्जा की कमी हो तो पूछो नहीं कितना पैसा डॉक्टरों की जेब में जाने को आतुर हो जाए......
अब हम खाते पीते घर के हैं....वैसे ही भरे पूरे परिवार के दिखने भी तो चाहिए...... लेकिन घरवालों की  रातों की नींद बेकार में ही ग़ायब हो जाती है....हमें देख देख कर दिन रात बस हमारी लम्बी उम्र की कामना करते हुए दिखते हैं...अब उन्हें कैसे समझाएँ कि हम जैसे सेहतमंद लोगों का दिल झट से चाबी की तरह शरीर से निकलता है और कार बन्द... :) होना भी यही चाहिए न.... सोते सोते ही निकल जाओ चुपके से... 
खैर इतनी लम्बी भूमिका के बाद असल कहानी पर आते हैं कि आज सुबह सुबह हम गिर गए...पैर फिसला नहीं (शुक्र है)अचानक से बायाँ पैर मुड़ गया... दाहिना पैर आगे निकल गया... अब दोनों पैरों को दिमाग क्या आदेश देता...वह भी कंफ्यूज़ हो गया..... हम धड़ाम से ज़मीन पर...... लेकिन गिरते ही  दिमाग ने दाएँ बाज़ू को संकेत दे दिया कि सहारा देकर गिरते हुए शरीर को सँभाल लेना .... बस दाईं बाज़ू के सहारे इतने ज़ोर से गिरे कि लगा जैसे भूचाल आ गया हो.... एक पल लेटे रहे...दो पल बैठे रहे.... इधर उधर देखने लगे कि कोई देख तो नहीं रहा....आज तक समझ नहीं आया कि गिरते हुए को देख कर लोग हँसते क्यों हैं.... मज़ा क्यों  लेते हैं जैसे वे तो कभी गिरते ही न हों....  
शुक्र  था कि अंडरग्राउंड पार्किंग में सिर्फ दो कर्मचारी काम कर रहे थे....दौड़े आए....फर्श पर लाल रंग के रोग़न की चमकती दो तीन बूँदें देख कर घबरा गए...बैठे बैठे ही हमने बड़ी सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा...'आए एम एन इंडियन वुमैन' ...दोनो कर्मचारी यह सुनते ही मुस्कुराते हुए वापिस लौट गए..... भारतीय औरत ही क्यों पूरी दुनिया की औरत का इतिहास  किसी से छिपा नहीं........कभी कभी औरत लीची फल जैसी दिखती है...एक आवरण ओढ़े कोमल मन रसभरा फल जैसा.. जो अन्दर ही अन्दर सख़्त गुठली जैसे गज़ब का बल लिए रहती है... 
उसी पल अपनी कार की तरफ बढ़ता बेटा पीछे पलटा... उसे समझ नहीं आया कि क्या करे....भागता हुआ मुझे उठाने की कोशिश  करता उससे पहले ही हम आधे उठ चुके थे...(ऊपर के लिए नहीं...:) ) घुटनों के बल खड़े हुए तो बेटे ने हाथ देकर खड़ा कर दिया... वैसे वह न भी होता तो दो नहीं तो पाँच मिनट के बाद खुद ही खड़े हो जाते... वह तो सामने सुविधा देख कर हम कमज़ोर होने लगते हैं या दिखाने लगते हैं.... 
खैर खड़े हुए...चाहे हम  ज़िन्दगी का आधा सफ़र  पार कर चुके हैं फिर भी  इतना तो यकीन था कि हड्डियाँ ज़मीन से बहुत दूरी पर थी... उनके टूटने का तो सवाल ही नहीं था ...  बेटा परेशान देख रहा था... झट से कार की चाबी लेकर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ..... काँपते हुए हम पेसेंजर सीट पर जा बैठे.....बार बार एक ही सवाल करता गया...  .. 'आप ठीक तो है..... हाथ हिलाइए...पैर हिला कर दिखाइए... ' अच्छी भली कसरत करवा निश्चिंत हुआ कि सब ठीक है लेकिन उसे समझ न आया कि शरीर अन्दर तक कैसे हिल गया.....
अब उसे समझाने के लिए उनके बचपन के दिनों के एक खिलौने की चर्चा करनी पड़ी.....पंचिंग टॉय जिसे पंच मार मार कर बच्चे  गिराते  लेकिन फिर से वह उठ खड़ा होता ...उसके तल में मिट्टी का बैग अगर टूट कर अन्दर ही बिखर जाए तो बेचारा एक पंच खाकर भी फिर उठ नहीं पाता...शरीर के अन्दर के दर्द के लिए दिए गए उदाहरण को सुन कर वह ज़ोर से हँसने लगा..... उसे देख मैं भी खिलखिला उठी....
पंच खाने के इंतज़ार में 

मंगलवार, 21 जून 2011

'हरी मिर्च' के साथ 'स्वप्न मेरे' बन गए यादगार पल

वीडियो से ली गई तस्वीर में मनीषजी और दिगम्बरजी 


महीनों या शायद सालों से मिलने की सोच सच में बदली तो खुशी का कोई ठिकाना ही न था.. बहुत दिनों की कोशिश रंग ले ही आई और हमें दिगम्बर नासवा (स्वप्न मेरेऔर मनीष जोशी 
('हरी मिर्च') से मिलने का मौका मिल ही गया. बस उसी खुशी में उन पलों को तस्वीरों में कैद करना ही भूल गए.
पहले थोड़ा हिचकचाए थे कि घर कई महीनो से बच्चों के हवाले था...दीवारों पर अल्मारी के शीशे के पल्लों पर तस्वीरें बनी हैं... घर के सभी कोनों में बच्चों का ही सामान दिखाई देता है... इस झिझक को तोड़ा बच्चों ने... याद दिलाया कि आप तो दिखावे में यकीन नहीं करती थी फिर अब क्या हुआ.... आप दोनों ब्लॉग मित्रों को बुलाइए उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा क्यों कि सब जानते हैं कि बच्चों से घर घर लगता है.....बच्चों से बात करते करते बस जोश आया और दोनो परिवारों को फोन कर दिया... मिलना तय हुआ 17 जून शुक्रवार ...
मनीषजी  और उनकी पत्नी मोना पहले पहुँचे....पहली बार मिलने पर भी लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले...एक अपनापन लिए मुस्कुराते दो चेहरे सामने थे जिनकी मुस्कान देख कर मन खुश  हो गया...उनके हाथ में फूल देख कर तो खुश हुए लेकिन बच्चों के लिए चॉकलेट्स और घर के लिए खुशबू का तोहफा पाकर समझ न पाए कि क्या करें क्या कहें.... कुछ ही देर में दिगम्बर और उनकी पत्नी अनिता भी आ गए...स्वागत में खड़े कभी उन्हें देखते तो कभी उनके लाए तोहफे को... पता नहीं क्यों किसी से उपहार पाकर मन समझ नहीं पाता कि कैसे व्यवहार किया जाए... हाँ देते वक्त कोई मुश्किल नहीं होती... आते ही दिगम्बरजी ने समीरजी की दो पुस्तकें भी थमा दीं (सिर्फ पढ़ने के लिए ली हैं) और भी कई किताबों का लालच दे दिया .. मन ही मन सोच लिया कि अगली बार उन्हीं के घर जाकर उनकी किताबों का संग्रह देखा जाएगा ... वैसे हम सबने ही तय कर लिया कि अगली मुलाकात जल्दी ही होगी...
दिगम्बरजी कुछ संकोची स्वभाव के लगे लेकिन अनिता उनके विपरीत खिलखिलाती सी मिली....
गहरी नदी की धारा सी शांत लेकिन कहीं चंचल लगने वाली मोना के व्यक्तित्व ने जहाँ प्रभावित किया वहीं झरने सी झर झर बहती अनिता के स्वभाव ने मन मोह लिया.... समुद्र की गहराई लिए हुए दो ब्लॉगर कवि धीरे धीरे सहज हो गए और फिर महफिल ऐसी लगी कि मन ने चाहा बस यूँ ही दोनों कवियों का कविता पाठ चलता रहे...    
विद्युत को जब पता चला कि कविता पाठ होने वाला है तो  एक छोटा सा विडियो कैमरा सोफे पर फिक्स कर दिया ताकि दिगम्बरजी और मनीषजी की कविता रिकॉर्ड कर ली जाएहालाँकि बाद में डाँट भी खाई कि तस्वीरें लेने का ख्याल क्यों ना आया........खैर दोपहर के खाने के बाद दोनों कवियों की कविता सुनने की माँग हुई तो वरुण का लैपटॉप थमा दिया गया कि अपनी ऑनलाइन ड्यारी (ब्लॉग़) खोलिए और कुछ अपनी पसन्द का सुना दीजिए....हमें सबसे अच्छा यह लगा कि दोनो बच्चे इस दौरान हमारे साथ ही बैठे रहे और कविताओं को न सिर्फ सुना ...उनको समझने की कोशिश भी की. 
पढ़ी गई कविताओं के लिंक भी लगा रही हूँ,,,, साथ साथ पढ़ने में शायद कोई रुचि रखता हो ... 
मनीषजी की  जीवन साथी कविता वीडियो में दर्ज नहीं हो पाई लेकिन चुहलकदमी और  बढ़ते हुए बच्चे का लुत्फ आप ले सकते हैं... उसके बाद उन्होंने लैपटॉप दिगम्बरजी को पकड़ा दिया... उनकी मुक्त छन्द की कविताएँ बच्चों को आसानी से समझ आ रही थी इसलिए रौ में वह पढ़ते गए और सब उसी रौ में सुनते गए ... उफ़ .... तुम भी न नीला पुलोवर बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है  झूठ   
लेकिन मैं झूठ नहीं कहूँगी कि जब भी दोनो कवियों से फिर मिलना होगा उनकी कविताएँ सुनने का मौका नहीं जाने दूँग़ी...!!!








रविवार, 12 जून 2011

एक पिता के कुछ यादगार पल बच्चों के नाम ...



शुक्रवार की रात रियाद से दुबई पहुँची...फ्लाइट एक घंटा लेट थी लेकिन छोटा बेटा जल्दी ही एयरपोर्ट आ गया था.. इसलिए घर पहुँचते पहुँचते 11.30 बज गए.....बड़े बेटे ने पास्ता बना कर रखा था..अभी वह परोसता कि एक दोस्त आ गई....उसका आना हमारे लिए 'अतिथि देवो भव:' जैसा ही था... स्वागत तो हमने वैसे ही किया जैसे तिथि बता कर आए मेहमानों का करते हैं...
मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख कर उसे राहत हुई और फौरन अपने बेटे को भेज कर पति और माँ को बुलवा लिया.....बेटी भी बड़े गौर से देख रही थी कि कहीं मम्मी ने आकर कोई गलती तो नहीं कर दी...लेकिन यह सौ फीसदी सच है कि मुझे उनका इस तरह आना अच्छा ही लगा...सहेली का बेटा नानी को व्हील चेयर पर लेकर अन्दर आया तो सलाम दुआ करते हुए वे उसी चेयर पर  ही बैठी रहीं... कुछ देर मेरे कहने पर सोफे पर आ कर बैठ गई.....
पूरा परिवार बार बार यही कह रहा था कि आप थक गई है तो हम चले जाते हैं...लेकिन कुछ ही देर में उन्हें तसल्ली हो गई कि हम सभी ने उनका दिल से स्वागत किया... छोटे बेटे ने झट से चाय भी बना दी....अचानक मिलने के लिए आना....एक साथ बैठना....मिल कर अपनी खुशी ज़ाहिर करना......वे पल यादगार बन गए.
हमें तो सहेली की माँ बहुत प्यारी लग रही थीं....कमज़ोर नाज़ुक सा सिलवटों भरा चेहरा उस पर बच्चों जैसी मासूम मुस्कान...बड़े ध्यान से बातें सुनती आनन्द ले रही थीं... एक पल भी चेहरे पर शिकन नहीं आने दी कि आधी रात को सोने के वक्त पर कहाँ कहाँ भटकना पड़ रहा है....इकलौती बेटी है, उसी के साथ ही रहना है... दामाद प्यार आदर देने वाले.....न चाहते भी दो बजे के करीब अगले वीक एंड पर मिलने का वादा लेकर चले गए...
उसके बाद बच्चों के साथ हल्का डिनर किया...फिर बातों का दौर चले बिना नींद कैसे आती..विजय रियाद में अकेलापन महसूस कर रहे थे इसलिए वे भी लाइन पर आ गए..... सोते सोते तीन बज गए.... अगले दिन दस बजे नींद खुली...सुबह की दिनचर्या से निपट कर चाय नाश्ता करके घर के काम में लग गए...कल का पूरा दिन घर का काम करके आज लगा कि बस अब और नहीं...... अब कुछ देर अपने लिए....अपने लिए वक्त निकालना हम अक्सर भूल ही जाते हैं.... अपने लिए जीने की कला न सीखी तो फिर दूसरे के जीवन को कलात्मक कैसे बना पाएँग़े.....यही सोच कर घर के कामों को नज़रअन्दाज़ किया और आ बैठे यहाँ ...... 
पिछले दिनों अपने देश में जो हुआ या जो हो रहा है ...या जो होना चाहिए उसके लिए बस एक ही बात जो हमेशा मन में आती रही है कि मुझे देश और समाज के लिए कुछ करना है तो घर से ही शुरु करना होगा....अपने बच्चों को इंसान बना दिया तो वह भी समाज और देश के लिए ही कुछ करने जैसा है.....खुद को अपने परिवार को लेकर सही रास्ते पर चलना है...हम अगर इतना भी कर लें तो एक इकाई के दीपक जैसे जलने से हल्की रोशनी तो होगी ही....जीवन कर्म जो पहले से ही तय हैं उन्हें जी जान से करने में जुटे हैं.....
इसी दौरान कुछ पल ऐसे यादगार बन जाते हैं जिन्हें सबके साथ बाँटने का जी चाहता है..... 
ईंट पत्थरों में काम करने वाले पति विजय भी कुछ लिख पाएँगे यह मेरे लिए चौंकाने की बात थी...उड़नतश्तरी की एक कविता को पढ़ कर विजय के मन में कुछ भाव आए...जो इस तरह से यहाँ उतरे... 

बिछा देता हूँ कुछ पुरानी यादों के पत्र
चुनता हूँ एक एक करके खुशी के वो पल
लगा देता हूँ एक फ्रेम में चुन चुन कर...
वो गाँव की कच्ची गली में चलना सँभल कर
तोड़ना चोरी से कच्चे आम छुप छुप कर
नहाना मटमैले तालाब में टीले से कूद कर
वो गीले कपड़ों में आना छुप कर...
स्कूल छूटा और जवानी आई निकलना सज सँवर कर
इंतज़ार बस का करना लोगों से नज़र चुरा कर
पता नहीं कब जवानी उड़ गई पंख लगा कर
गृहस्थी में रखा पाँव जमा कर
जीने मरने की कसमें साथ खा कर
बच्चों की....! 

बच्चों का बचपन उनके नए नए खेल

फिर उनका किशोर जीवन, जवानी में क़दम 
बस यही ज़िन्दगी के कुछ पल जो रखे हैं संजो कर
बना दूँ उसकी तस्वीर टाँग दूँ दीवार पर
और निहारूँ उसे जिस पल
पाऊँ अपने चेहरे पर एक मुस्कान
निश्छल !!!  
काश कि
देखता रहूँ उसे हर पल...!  

माँ का स्नेह तो जग जाहिर है लेकिन एक पिता का प्यार बच्चो के प्रति.....
उन्हीं की पसन्द का एक वीडियो 'Save The Children by Marvin Gaye'



रविवार, 29 मई 2011

यही तो सच है......


पिछली पोस्ट 'आख़िरी नींद की तैयारी' जितनी बेफ़िक्री से लिखी थी ...टिप्पणियों ने उतना ही बेचैन कर दिया...सभी मित्रों से निवेदन है कि अपने मन से किसी भी तरह की शंका को निकाल दें कि हम निराशा के सागर में गोते खाते हुए इतनी लम्बी  पोस्ट लिख गए.... होश और हवास में खूबसूरत चित्र इक्ट्टे किए थे...
एक खूबसूरत  लिंक भी जोड़ा था लेकिन शायद किसी ने खोला भी न हो.......सबने सोच लिया कि मैं निराशा में डूबी किसी बात से दुखी हूँ ...... सुख दुख तो सबके साथ हैं ..... ज़िन्दगी जीने का  मज़ा ही दोनों के साथ है..... यकीन मानिए वह पोस्ट दुख , निराशा या मौत से डर कर नहीं लिखी थी... बल्कि सच में ही मौत के स्वागत की तैयारी करना अच्छा लगा सो लिख कर आप सबके साथ बाँट लिया....


आज नहीं इस विषय पर तो अक्सर सोचते हैं........बहुत पहले 2007 में ईरान में भी ऐसा कुछ सोचा था.. वहाँ से वापिस आने पर कुछ कहती उससे पहले ही जाने कैसे...वैसा ही कुछ ज़िक्र बेटे ने कर दिया......माँ हूँ इसलिए थोड़ा सा घबराई थी उसकी बात सुनकर ..... लेकिन फिर अपने आप को सँभाल लिया...."यही तो सच है मम्मी....." उस वक्त बेटे ने कहा था.....इस बार मेरी पोस्ट पढ़ कर पति ने भी वही कहा.... " बस यही तो सच है बाकि सब झूठ" और हॉंगकॉंग की बात बताने लगे.... जहाँ अवशेष रखने  के छोटे छोटे लॉकर रखने की जगह भी कम पड़ रही है....उन दिनों उड़नतश्तरी के समीरजी ने भी एक पोस्ट "जाओ तो ज़रा स्टाईल से " लिखी थी....

पिछली पोस्ट लम्बी हो गई थी...... इसलिए कुछ लिखना बाकि रह गया था..... :) चाह कर भी लिखने से रोक नहीं पा रही.... लिख ही देती हूँ .......आजकल बहुत कम लोग नीचे ज़मीन पर बैठ पाते हैं इसलिए पहले से ही सफ़ेद चादरों से सजे सोफ़े हों पर बैठने की व्यवस्था हो तो आराम से बैठ कर अफ़सोस कर पाएँगे सब ..... ख़ाने पीने का पूरा इंतज़ाम खुद के घर में ही हो.... बड़े बड़े शहरों में लोग एक दूसरे को हल्की सी मुस्कान तो दे नहीं पाते फिर खाने पीने का इंतज़ाम तो दूर की बात है.....

अपने दिल के नज़दीकी छोटे छोटे शहर याद आ गए जहाँ सालों बाद जाने पर भी अपनापन सा लगता है.... बल्लभगढ़ में ननिहाल ... अम्बाला में ससुराल...  एक बात समझ नहीं आती... अपने आप को छोटे शहर का कह कह कर क्यों छोटे शहर के लोग हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं..... जानते नहीं शायद...कि छोटे छोटे गिफ्ट पैक्स में बड़ी बड़ी कीमत वाले तोहफ़े होते हैं... सोना, चाँदी और हीरे जैसे दिल वाले लोग अपनी ही कीमत नहीं आँक पाते....

लिखते लिखते बचपन याद आ गया जब मम्मी जेबीटी की ट्रेनिंग के लिए पलवल गई और मुझे नानी के पास छोड़ गईं.... एक साल के लिए नाना नानी के पास रहना मेरे लिए ज़िन्दगी का बेशकीमती वक्त था....सूरज उदय होने से पहले और सन्ध्या होने पर नानी की आवाज़ में गीता का पाठ किसी अलौकिक दुनिया में पहुँचा देता....रात छत पर बिस्तर लगाना....नानी की गोद में सिर रखना.....तारे गिनते गिनते गीता के श्लोक पाठ और उसकी व्याख्या सुनना..... सब आज भी याद है.... शायद इसलिए भागवतगीता में ही जीवन जीने का सार दिखाई देता है.... आज बस इतना ही ......

बड़े बेटे वरुण ने बाँसुरी  पर दो अलग अलग धुनें बजाईं और उन्हें मिक्स कर दिया.... नाम दिया  (Disease and Rainbows)  विद्युत द्वारा ईरान में ली गई तस्वीरों के साथ  वरुण की धुन को मिला कर एक छोटी सी संगीतमय फिल्म बना दी. दोनों की इजाज़त से ही यहाँ पब्लिश कर रही हूँ ...  सुनिए  और  बताइए कैसी लगी यह फिल्म .......






बुधवार, 25 मई 2011

आख़िरी नींद की तैयारी

चित्र नेट द्वारा 

पिछले दो दिनों से तबियत कुछ ऐसी है कि आधी रात गहरी नींद में लगने लगता है जैसे दिल की धड़कन रुक जाएगी.. कोई खास बीमारी भी नहीं है जिस कारण चिंता हो .... .शायद थायरोएड....या फिर गालबलैडर में स्टोन...जो अभी दर्द ही नहीं देता तो उस तरफ कभी ख्याल ही नहीं गया....
आजकल अपने आप से ज़्यादा बातचीत होती है ...अपने आप से बात करने का कितना आनन्द है... कुछ भी ...कैसा भी... कह दो ....मन चुपचाप सुनता रहता है... दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गई...आधी रात के आसमान पर चाँद तारे दिखाई नहीं दे रहे थे...बादलों की या शायद धूल की हल्की चादर सी फैली थी... ठंडी हवा भी एक अजीब से सुकून के साथ बह रही थी...
यही हवा सूरज के सामने कैसे व्याकुल सी हो कर भागती है इधर उधर .... सूरज की याद आते ही रेगिस्तान में  मृगतृष्णा की याद आ गई ... जो सूरज से जन्म लेती और उसी के साथ ही कहीं गुम हो जाती है....रात के काले साए याद दिलाते हैं कि वह तो एक खूबसूरत भ्रम होता है......जैसे ये दुनिया .... कितनी खूबसूरत है ...मेरी है....नहीं शायद ये दुनिया किसी की भी नहीं...फिर भी हम इस खूबसूरत भ्रम से कितना मोह करते हैं...मेरे विचार में मोह होना भी चाहिए... जब तक साँसों में गर्मी है......इस खूबसूरत भ्रम में ही जीने का आनन्द है.....

चित्र नेट द्वारा 

चंचल मन जाने कहाँ कहाँ दौड़ता है.....उसकी सोच की कोई सीमा नहीं...सोचने लगा ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए दिन रात कोल्हू के बैल की तरह लगे रहते हैं... फिर मौत के स्वागत के लिए क्यों न कुछ तैयारी की जाए..
पहली बार जब ईरान गई थी तो वहाँ की खूबसूरती देख कर लगा था बस आखिरी नींद के लिए यही जगह जन्नत है..... लेकिन सोचते ही दम घुटने लगा कि धरती के नीचे  कैसे रह पाऊँगी , कॉकरोचज  से डर लगता है और नीचे तो जाने कैसे कैसे कीड़े मकौड़े होंगे, नहीं नहीं कुछ और सोचा जाए तब  एक नई सोच ने जन्म लिया 

चित्र नेट द्वारा 

घर के पास के शमशान घाट है , वहाँ जला दिया जाए तो सबको आराम रहेगा... कहीं दूर नहीं जाना पड़ेगा... फिर एक नई सोच ने जन्म लिया , एक मरे हुए इंसान के लिए पता नहीं कितने पेड़ों की हत्या करनी पड़ेगी..... उस पर घी तेल की अलग बरबादी...फिर प्रियजनों को तेज़ आग के आगे खड़ा होना पड़ेगा...कितनी गर्मी लगेगी उन्हें....जून जुलाई हुआ तो... 
जल समाधि कैसी रहेगी... ओह... जी घबराने लगा सोच कर ..पानी से बहुत डर लगता है ... खास कर नदी और समुन्दर के किनारे पर खड़े होकर ही लगने लगता है कि जैसे उनकी अनदेखी बाहें अपनी ओर खींच रही हों... .एक बार अखबार में पढ़ा था कि निगम बोध घाट के आस पास के गाँवों की औरतों को,  जो बच्चे पैदा करते हुए जान से हाथ धो बैठती .या किसी बीमारी के कारण बच्चे चल बसते उन्हें नदी में बहा दिया जाता था... अपने जाल में फँसे हुए मृत शरीरों के टुकडों को देख कर बेचारे मछुआरे दुखी हो जाते.... कभी कभी तो बड़ी मछली को देख कर जितना खुश होते... उससे ज़्यादा दुखी होते उनके अन्दर इंसान के अंगों को देख कर........

सैर करते करते सोच रही थी या सोचते सोचते सैर कर रही थी......वैसे मरने की तारीख तय कहाँ होती है... पता नहीं मौत भी क्यों हर बार ब्लाइंड डेट पर ही निकलती है......कितना अच्छा हो अगर पहले पता हो तो मरने से एक घंटे पहले तक सब काम निपटा लिए जाएं ।  अचानक बच्चों की तस्वीर आँखों के सामने आ गई ...बच्चो को देख कर पति याद आ गए.... पल भर में ही उनके मोहजाल ने जकड़ लिया .... पैरों से जैसे ज़मीन खिसकने लगी...शरीर में से सारी ताकत रुई के फोहों सी उड़ने लगी.....बच्चों के कमरे में आकर बैठ गई..... ध्यान हटाने के लिए नेट खोल लिया... अक्सर बच्चों की और कुदरत के नज़ारों की तस्वीरें देखना अच्छा लगता है और मन ठीक हो जाता है ....
ईरान (रश्त)


मन चंगा तो कठौती में गंगा.... बस दिमाग में बिजली कौंधी...शरीर की एक दो बीमारी को छोड़ कर सब पुर्ज़े सही सलामत ही हैं.... चिकित्सा जगत में अगर कुछ काम आ सके तो इससे बढ़िया कोई बात नहीं... उसके बाद शरीर को गत्ते के डिब्बे में मलमल की चादर से लपेट कर आधुनिक बिजली शमशान ले जाया जाए....लकड़ी के साँचे में अपने आप को बँधना कतई पसन्द नहीं...सबकी अपनी अपनी पसन्द है...कास्केट या डिब्बा जिसमें आराम से लेटा जा सकता है....साधारण सा हो और उसपर बच्चे अगर कोई कलाकारी कर दें तो क्या कहना ....

 

चित्र नेट द्वारा 


बिजली शमशान के चैम्बर के अन्दर लगभग दो ढाई घंटे में ही 1400 से 1800 डिग्री फ़ॉहरनाइट तापमान में शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है.....अग्नि , वायु , धरती , आकाश और जलतत्व में से आत्मा कैसे कब और कहाँ जाती होगी.... यह पता ही नही चलता... शायद उस वक्त पता चले..... मिट्टी के कलश में अपने शरीर की मिट्टी को रखने की चाह ....फिर   उसे कहाँ उड़ेला जाए... मन की इस चाह को न कहा जाए तो उसे शांत करने की राह कहाँ मिलेगी......
 
घर का कलश 

लेटिन भाषा में अफ़ीम को नींद लाने वाली वनस्पति "sleep-bringing poppy" कहा जाता है.....आखिरी नींद को ज़्यादा से ज़्यादा गहरी करने के लिए अस्थि कलश को अगर उन खूबसूरत खेतों में बिखेर दिया जाए तो कैसा रहे .....सदा के लिए गहरी नींद में डूब कर सपनों की दुनिया में रहना कितना आसान हो जाएगा... अफ़ीम का ज़िक्र करना अगर किसी को बुरा लगे तो माफ़ कीजिएगा ... क्यों कि दर्द निवारक औषधि ‘मॉरफिन’ बनाने के लिए अफ़ीम का ही  इस्तेमाल किया जाता है....कुदरत की हर देन वरदान ही होती है, हम इंसान ही उसे अभिशाप बना  देते हैं....
चित्र नेट द्वारा 

वाह ...जहाँ चाह ...वहाँ राह..  गूगल करने पर  एक लिंक मिल ही गया  .... ‘माई फंकी फ्यूनरल’..इसमे बहुत रोचक जानकारी है .... एक इंसान की राख से 240 पैंसिलें बन सकती हैं...बच्चे कलाकार है तो बरसों तक पैंसिलें इस्तेमाल करके याद करेंगे... वैसे देखा जाए तो सभी एक से बढ़कर एक आइडिया है लेकिन मुझे लिखने में , कलाकारी करने में इस्तेमाल किया जाए , यही आइडिया मन को भा गया.... 
चित्र नेट द्वारा

साँसों का पैमाना टूटेगा
पलभर में हाथों से छूटेगा

सोच अचानक दिल घबराया
ख्याल तभी इक मन में आया

जाम कहीं यह छलक न जाए
छूट के हाथ से बिखर न जाए

क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ जीवन का मधुरस मैं पी लूँ
आखिरी नींद की तैयारी हो गई , मन कितना हल्का सा हो गया , हाँ एक और आखिरी तैयारी 
हरिवंश राय बच्चन की  मधुशाला मन्ना डे  की आवाज में बजने लगे तो क्या कहना 




बुधवार, 27 अप्रैल 2011

ईरान का सफ़र 4 (रश्त, रामसार)


(सन 2002 में पहली बार जब मैं अपने परिवार के साथ ईरान गई तो बस वहीं बस जाने को जी चाहने लगा. एक महीने बाद लौटते समय मन पीछे ही रह गया. कवियों और लेखकों ने जैसे कश्मीर को स्वर्ग कहा है वैसे ही ईरान का कोना कोना अपनी सुन्दरता के लिए जन्नत कहा जाता है. अपने दर्द को पीकर जीना यहाँ के लोगों को आता है इसलिए भी जन्नत है..  
सफ़र की पिछली किश्तों में ईरान का सफ़रईरान का सफ़र 2 ईरान का सफ़र 3 अपने दिल के कई भावों को दिखाने की कोशिश की है...)
गूगल द्वारा


तेहरान से निकले तो लगा था कि अभी 300किमी का लम्बा सफ़र कार से तय करना है... मैं और विद्युत तो
ठीक थे... वरुण को देखा कि शायद उसे थकावट होगी लेकिन वह भी खुश ही दिखाई दिया...अली अंकल के साथ कार में आगे बैठने में उसे और भी मज़ा आ गया... रास्ते में एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा....गाज़विन रुकने के बाद फिर चाय के लिए शाम को ही रुके...

चाय और बिस्कुट की छोटी सी दुकान... बड़ी सी केतरी (केतली) स्टोव पर उसके ऊपर काली चाय की कूरी (छोटी केतली) ...शीशे के छोटे छोटे गिलासों में फीकी काली चाय और साथ में दो तीन टुकड़े गेन्द के... गेन्द चीनी या शक्कर ही है जो बेतरतीब से टुकड़ों में थी...मुँह में रखी और घूँट लिया ईरानी चाय का....पहला घूँट लेते ही ताज़गी महसूस हुई..... अपने यहाँ की दूध की चाय से बहुत हल्की...
डूबते सूरज की लाल स्याही ने जैसे आसमान को रंग दिया हो


चाय खत्म करते उससे पहले ही दिन खत्म हो गया.... सलोनी साँझ ने चारों ओर के नज़ारे को और भी खूबसूरत बना दिया था...हल्की हल्की ठंड़ी हवा गालों को थपथपा रही थी... एक ठंडी झुरझुरी सी हुई... फौरन कार में जा बैठे....
चलते चलते अब सिर्फ पहाड़ियों के काले साए दिखाई दे रहे थे.... उन पर कहीं कम तो कहीं ज़्यादा घरों में जलती रोशनी के कारण वे सभी तारों से टिमटिमाते दिखाई दे रहे थे...

रश्त से 30 किमी पहले इमामज़ादा हाशिम की मस्जिद आती है.... जिसके बाहर दान बक्सा लैटर बॉक्स की तरह का दिखाई दे रहा था...अली ने रुक कर जेब से रियाल निकाले और हम सब को छूते हुए दानबक्से में डाल दिए... इस रास्ते से आते जाते अली कुछ पैसा दान के बक्से में डालने के लिए ज़रूर रुकते हैं....धार्मिक सोच नहीं बस दान करना है इस मकसद से.....बातों बातों में पता चला कि अपने जन्मस्थान करमशाह के यतीमख़ाने में किसी एक बच्चे के लिए हर महीने की मदद निश्चित की हुई है....
रश्त से 30किमी पहले इमामज़ादा हाशिम 


साढ़े सात हम रश्त में दाख़िल हुए....उत्तरी ईरान के गिलान प्रांत का रश्त शहर समुन्दर से सात मीटर नीचे है और सबसे ज्यादा नमी वाला इलाका माना जाता है...रश्त शहर सबको आकर्षित करता है...ईरान के सभी राज्यों के लोग यहाँ छुट्टियाँ मनाने आते हैं...यहाँ की सिल्क फैक्टरी, धान के खेत...चाय की बागवानी... देखने लायक है... यहाँ के घर ईरान के बाकि राज्यों से अलग दिखते हैं...लाल स्लेटों की छतें और चौड़े बरामदे हर घर में दिखते हैं ..चाहे विला हो या फ्लैटस.....

लगभग सभी घरों की छतें लाल स्लेटों से बनी होती हैं

यहाँ भी ट्रेफिक का वही हमारे देश जैसा हाल दिखा...लेकिन यहाँ भी कारें और उनके ड्राइवर  एक दूसरे की भाषा समझते हैं...एकदम पास से निकल जाते हैं  या निकलने देते हैं...औरतें भी उसी तरीके से ड्राइवरिंग करते हुए दिखीं.....सड़कों पर सबसे ज़्यादा पेजो कार दिखीं...हर मोटर साइकिल पर आगे बड़ा सा शीशा देख कर अजीब सा लगा....

नए पुराने बाज़ारों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे... सड़के के किनारे फुटपाथ पर लोगों की भीड़ पैदल ही चलती दिखाई दी...सभी औरतों ने ओवरकोट और स्कार्फ़ पहना था....ओवरकोट काले और नीले रंग के ही थे..कहीं कोई चटकीला रंग नहीं दिखा.... ओवरकोट जिसे यहाँ मोंटू कहा जाता है....कुछ का घुटनो तक और कुछ का घुटनों से नीचे था...काली पैंट या जींस के साथ..... बालों का डिज़ाइन दिखाने के लिए लड़कियों ने स्कार्फ़ से आधा सिर ही ढक रखा था....चौंकाने वाली बात यह थी कि लगभग दस में से आठ जवान लड़के लड़कियों के नाक पर बैंडेज थी... पूछने पर पता चला कि कुछ बच्चे नाक की सर्जरी करा कर दिखाने चाहते हैं कि वे दकियानूसी नहीं बल्कि नए ज़माने की सोच रखते हैं.....औरतें भी इस सोच को दिखाने के लिए आगे रहती हैं...आइब्रोज़ , लिप लाइनर और आई लाइनर की खूबसूरती के लिए टैटूज़ बनवाए जाते हैं....कुल मिलाकर कॉस्मैटिक सर्जरी यहाँ दीवनगी की हद तक का शौक है....

पार्किंग की कमी और चुस्त रहने के लिए लोग पैदल चलना ज्यादा पसन्द करते हैं...यूँ ही नज़र चली गई और देखा कि सबके जूते आरामदायक हैं जिसके कारण चलने  में कोई मुश्किल नहीं होती होगी...रियाद में तो बिल्कुल फैशन नहीं पैदल चलने का, बशर्ते कि डॉक्टर चलने की हिदायत दे तभी लोग सैर करते दिखाई देते हैं वह भी वहीं जहाँ सैर के लिए रास्ते बनाए हों...  दुबई में खूब लम्बी सैर हो जाती है चाहे मॉल हो या खुले बाज़ार हों...और अपने देश का तो कहना ही क्या....

कार बाज़ार से होती हई एक गली में मुड़ी और रुक गई... समझ गए कि घर आ गया है...घर पहली मंज़िल पर था...पहली मंज़िल की एक खिड़की खुली और लिडा ने नीचे झाँका.....लिडा और बेटा अर्दलान दोनों नीचे आ गए...
सभी एक दूसरे से गले मिले..... सामान लेकर ऊपर पहुँचे... घर के अन्दर घुसने से पहले जूते बाहर उतारे...
बेटे अर्दलान ने दरवाज़े पर रुकने के लिए कहा और एक फोटो खींच ली, उसके बाद से सोने तक उसने कई तस्वीरें खींची....

अर्दलान ने दरवाज़े पर ही रोक कर एक तस्वीर खींच ली 

 ताज़ा चाय और वहाँ की खास मिठाइयों के साथ स्वागत हुआ.....डिनर में वहाँ के पकवानों के साथ साथ अपने देश की काली उड़द की दाल भी बनी थी, उसे बनाने का तरीका वह इंडिया से सीख कर आई थी...एम.डी.एच का करी मसाले का इस्तेमाल किया गया था...हमारी तरह दाल सब्ज़ी को तड़का नहीं लगाया जाता...उबलती हुई दाल सब्ज़ियों और माँसाहारी भोजन में मसाले और टमेटो प्यूरी डाल दी जाती हैं...
डिनर टेबल पर - विद्युत की कला अर्दलान के चेहरे पर.. 

लगा ही नहीं कि किसी अजनबी देश में हैं या अजनबी लोगों से मिलना हो रहा है... हालाँकि अर्दलान कुछ झिझक रहा था, उसे अंग्रेज़ी बिल्कुल नहीं आती थी लेकिन फिर भी उसे अपने पर यकीन था कि जल्दी ही वरुण विद्युत के साथ बात करते हुए सीख लेगा....

डिनर के बाद ताज़े फल और एक बार फिर चाय का दौर चला... संगीत को लगातार बज ही रहा था लेकिन रोचक बात यह थी कि हिन्दी गीत बज रहे थे..... उस वक्त तय किया गया कि अगले ही दिन रामसार चलेंगे...खासकर वरुण के लिए... गर्म पानी के चश्मे में नहाना सेहत के लिए तो अच्छा है ही , वहाँ की खूबसूरती भी देखने लायक है..... 

अगले दिन निकले रामसार की ओर....अली लिडा के दोस्त मारी और उसके पति बच्चों सहित एक खास जगह पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे.... अपनी अपनी कार में दोनों परिवार निकल पड़े रामसार की ओर.... आसपास की खूबसूरती देख कर हम दंग रह गए....कुदरत की इस खूबसूरती से दुनिया बेखबर है.....हरे भरे पहाड़...पाम, ओक और नारंगी के पेड़ों से लदे पहाड़....दूर दूर तक फैले रंगबिरंगे फूलों का बिछौना.....न कंकरीट का जंगल...न इंसानों की भीड़...खामोश खूबसूरत कुदरत को जैसे यहाँ सुकून मिल रहा हो....


रश्त से निकलते 

रामसार मज़न्दरान जिले का बहुत ही खूबसूरत शहर है...यह शहर अलबोर्ज पहाड़ियों, गर्म पानी के चश्मे,  और आखिरी शाह के म्यूज़ियम(मूज़ेह ख़ाक ए शाह) के कारण मशहूर है....

अलबोर्ज पर्वत श्रृंखला अज़रबाइजान और अर्मेनिया से होती हुए पूर्व की ओर तुर्कमेनिस्तान और अफगानिस्तान तक चली जाती है....तेहरान से निकलते हुए जब गाजविन पहुँचते हैं तो अचानक ही कुदरत अपना रूप बदल लेती है.... अलबोर्ज 
पहाड़ियों की खूबसूरती देखते ही बनती है...

अलबोर्ज की पहाड़ियाँ 

यहाँ के गर्म पानी के चश्मे सेहत के लिए अच्छे माने जाते हैं.... अली ने औरतों और अपने लिए अलग अलग हमाम बुक करवा लिए..औरतें एक तरफ चली गईं और आदमी बच्चों के साथ दूसरी तरफ चले गए... बहुत गर्म पानी था... लेकिन कुछ ही पलों में सारी थकान एक दम दूर और गज़ब की उर्जा शक्ति की महसूस हुई.....

कहा जाता है कि पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा प्राकृतिक रेडियोधर्मिता (natural radioactivity)  रामसार में पाई जाती है.... सेहत पर बुरा असर होते नहीं देखा गया है बल्कि यहाँ के लोगों की सेहत और अच्छी पाई गई..इसलिए यहाँ गर्म पानी के चश्मे स्पा के रूप में लोग अपने और पर्यटकों के लिए प्रयोग करते हैं.

रामसार में गर्म पानी का चश्मा (स्पा) 

नहाने के बाद दोपहर के खाने के लिए वहाँ से बाहर निकले....कुछ देर में एक रेस्तराँ में पहुँचे जहाँ बिना देर किए ही टेबल पर खाना लग गया...खाने से पहले अखरोट, चीज़, हरे पत्ते , अखरोट और अनारजूस के पेस्ट में जैतून और वहाँ की रोटी संगक रखी जाती है, रोटी में चीज़, अखरोट का टुकड़ा और हरा पत्ता रख कर उसे लपेट कर खाया जाता है.... कभी जैतून डाल कर खाया जाता.... दोनों ही तरीकों से खाना एक नया अनुभव तो था ही... स्वाद भी बढिया लगा....उसके बाद मेन कोर्स का खाना आता है....अब यहाँ मेनकोर्स में क्या खाया...शाकाहारियों का ध्यान रखते हुए इस पर चर्चा नहीं करते....
उसके बाद म्यूज़िम देखने का प्रोग्राम बना..हालाँकि वरुण थक चुका था फिर भी चुप रहा... म्यूज़ियम पहुँच कर थोड़ा घूम फिर कर वहीं के रेस्तराँ में बैठ गया.....हम सब भी जल्दी ही वापिस लौट आए... अखरोट और दालचीनी से भरे बिस्कुटों के साथ चाय पी और घर की ओर लौटे.....

आख़िरी शाह के म्यूज़ियम के बाहर 

छोटे बेटे विद्युत के साथ लिडा की दोस्त मारी

अभी रास्ते में ही थे कि लिडा की मम्मी का फोन आ गया कि कल हम सब उनके यहाँ पहुँचे डिनर के लिए....उन्हें ना करने का तो कोई सवाल ही नहीं था...मारी और फरज़ाद भी अपने घर आने की दावत दे चुके थे....लिडा की एक और दोस्त कियाना का भी फोन आ चुका था.....बड़े बुर्ज़ुगों का प्यार और आशीर्वाद तो स्वाभाविक होता है लेकिन दोस्तों के दोस्तों का प्यार और सत्कार पाकर हम मंत्रमुग्ध हो गए...अगले दिन लिडा के मॉमान बाबा को आने का वादा करके घर पहुँचे..घर पहुँच कर ताज़ी चाय और फलों के साथ साथ लिडा की पसन्द के हिन्दी गीत सुने........

अगली बार सफर की कुछ और यादों के साथ मिलते हैं फिलहाल अभी इतना ही...ख़ानाबदोश ज़िन्दगी है..पुरानी तस्वीरें मिलना मुश्किल लगा फिर भी कुछ तस्वीरें जुटाने में कामयाब हो गए...
कैसा लगा यहाँ तक का सफ़र ज़रूर बताइएगा.....