घुघुती जी की कविता तिनकानामा पढ़ने के बाद उनसे बातचीत के दौरान मैने निश्चय किया कि उनकी इस कविता पर अपने कुछ भाव प्रकट करूँगीं. समय को पकड़ने की कोशिश में समय के पीछे भागती रही लेकिन उसके पीछे वाले सिर पर तो बाल ही नहीं थे फिर वह हाथ में कैसे आता सो आज समय को आगे के बालों से पकड़ कर बैठ गई लिखने.
तिनकानामा में जीवन दर्शन दिखाई देता है. कविता के हर अंश में गहरा अर्थ छिपा है. तिनकानामा को ही क्यों चुना इसके पीछे भी एक कारण है. कई साल पहले रियाद में हुए मुशायरे में अपनी दो कविताएँ 'मैं' और 'अहम' पढ़ने का अवसर मिला था जिन्हें कविता तिनकानामा से जुड़ा हुआ सा पाती हूँ. शायद पूरी कविता पर बात न हो पाए लेकिन कुछ अंश जो मुझे बहुत भाए उन पर तो अवश्य चर्चा करूँगी.
संयोग से रेडियो पर एक गीत बज रहा है, 'तिनका तिनका ज़रा ज़रा, है रोशनी से जैसे भरा --- रोशनी शब्द सुनकर छोटे छोटे ज्योति कीट जुगनु याद आने लगे.
तिनकों की भी क्या इच्छाएँ होती हैं
उन्हें तो बस बह जाना होता है
नदी के बहाव के साथ
जिस दिशा में ले चले वह
तिनकानामा के इस पहले अंश को पढकर याद आने लगी हरे भरे और फिर सूखते तिनकों की जिनकी जननी वसुधा सोचती होगी कि नदी के रुख मोड़ने वाली वह स्वयं है, जिधर चाहे चट्टानें खड़ी करके नदी का रास्ता बदल देती है, जब चाहे, जहाँ से चाहे नदी की धारा उस ओर मोड़ देती है, सागर तक जाने का रास्ता भी वह स्वयं निश्चित करती है. फिर नदी कैसे सोच सकती है कि तिनको को वह अपने बहाव में कहीं भी ले जा सकती है.
कुछ तिनके यूँ सोचते हैं
उन्होंने स्वयं चुना है
नदिया संग बहना
तिनको ने अगर सोचा है कि उन्होंने नदी के संग बहना है तो यह उनका स्वयं का निर्णय है , उसे उन्होंने स्वयं चुना है तो सही सोचा है. समय के साथ चलना ही तो बुद्धिमानी है. समय के साथ चल कर ही लक्ष्य रूपी सागर तक पहुँचा जा सकता है.
कुछ इठलाते कुछ इतराते
देख गति अपनी प्रगति की
मन ही मन मुस्काते
बढ़ आगे जाने को
पूरा अपना जोर लगाते ।
इन पंक्तियों को पढकर तो मुझे मेहनतकश लोगों की याद आ जाती है जो अपने बल से रेगिस्तान में भी हरियाली ले आते हैं. जंगल मे भी मंगल कर देते हैं. समय को मुट्ठी में बन्द कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें कोई रोक नही सकता. कविता 'कर्मवीर' की एक पंक्ति याद आ गई, 'कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं.'
यूँ इतराते वे जाते हैं
जल पर सवार
मानो उनका ही हो
सारा यह संसार ।
इन पंक्तियों में जहाँ आगे बढ़ने का भाव है, वहाँ इठलाते और इतराते तिनको का अहम भाव भी दिखाई देता है. यहाँ तिनकों का अहम देखकर अपनी कविता की कुछ लाइने याद आ गईं-
मैं ही मैं हूँ इस सृष्टि में,
और न कोई इस दृष्टि में,
ऐसा भाव किसी का पाकर,
मन सोचे यह रह रहकर,
मानव क्यों यह समझ न पाए,
क्षण भंगुर यह तन हम लाए।।
यूँ अन्त हो जाता है
सफर इक तिनके का
काल की गर्त्त में
यूँ ही हैं सब तिनके समाए ।
इस संसार में सब नश्वर है. एक न एक दिन सबको काल का निवाला बनना ही है लेकिन फिर भी कुछ तिनके इतिहास के पन्नों में अपने आप को अमर कर जाते हैं, कुछ समाज के महल को मज़बूत बनाने के लिए नींव की ईंट का काम कर जाते हैं.
या फिर कर आती उसे
किसी चलबच्चा हवाले
कभी छोड़ आती वह उसे
किसी भंवर में
खाने को अनन्त तक चक्कर
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ और उससे भी सुन्दर उसमे छिपा भाव. जीवन में दुखों के भँवर न हों तो सुख का आनन्द कैसा..! हर पल एक नई चुनौती को पाकर उससे जूझना और निकल पाना , यही तो जीने का आनन्द है.
कुछ भूले, कुछ बिसराए
यही नियति है हर तिनके की
चाहे कितने ही तिनकेनामे
हम लिखते जाएँ ।
तिनकानामा लिखना व्यर्थ नहीं जाता. मेरा अपना अनुभव है कि मैं जो भी पढ़ती हूँ उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने अन्दर अनुभव करती हूँ. मन ही मन सोच रही हूँ कि चाहे अनगिनत तिनकों की तरह मेरा भी अंत हो जाएगा लेकिन किसी एक डूबते को मुझ तिनके का कभी एक बार भी सहारा मिला तो जीवन धन्य हो जाएगा. डूबते को तिनके का सहारा उक्ति शायद यहाँ सार्थक कही जा सकती है.