पिछली पोस्ट पर अपनी एक दोस्त का परिचय दिया था...आठ साल बाद फिर से फेसबुक पर मिलना हुआ..यादों के पल मोती जैसे सहेजने के लिए ब्लॉग बनाने को कहा ..जब तक ब्लॉग़ बने सोचा क्यों न उसी की लिखी एक पुरानी कविता पढ़वा दूँ ..... मैं बोलती तो वह सपने लेती...वह लिखती तो मैं कल्पना करती नए नए अर्थों के साथ ..... 'तुम्हारा स्पर्श' कविता का आरंभ लगा किसी प्रेयसी के मन का हाल ..... तो अंत पढ़ते लगा जैसे क़लम और काग़ज़ मिल कर कविता को जन्म दे रहे हों.....उस कविता को खूबसूरत रूप देने के लिए लालायित हों.......
आपको क्या लगता है... ?
तुम ने जो सहलाया...मेरी घनी जुल्फों को
तुम ने जो सहलाया...मेरी घनी जुल्फों को
अपने हाथों से
मेरा झुमर खनक उठा
तुम ने जो छुआ .. ...मेरी पलकों को अधरों से
होठो को होठो से
मेरे कंगन खनक उठे
तुम ने जो बेधा.....मुझे नैनो के तीरों से
कानो के प्रेमाक्षरों से
मेरे कर्ण फूल बज उठे
मेरी साँसे जो तुम से टकरा रही थीं
अधूरी दास्ताँ मेरे दिल की सुना रही थी
मेरी करधनी, मेरी पायल
तुम्हारे एहसास के बिन सूनी पड़ी है
जो गीत तुम्हारे ही गा रहे है
मेरे उन अलंकारों को रूप नया दे दो .. (अनिता )