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गुरुवार, 13 सितंबर 2007

रमादान करीम


आज पहला रोज़ा है, छोटे बेटे ने रात को ही चार बजे का अलार्म लगाते कह दिया था कि इस बार वह भी रोज़े रखेगा। बाहरवीं कक्षा का बच्चा समझदार होता है सो मैंने सुबह उठते ही बेटे को भी आवाज़ दी कि सहरी का समय हो गया है । हम दोनों ही समय पर उठ गए और ब्रश करके नाश्ता करते-करते पुरानी यादों में खो गए। साउदी अरब मक्का-मदीना का देश , जहाँ मैंने गृहस्थी शुरू की , उस देश की याद आना स्वाभाविक ही था । पति अभी वहीं हैं , इसलिए भूलना और कठिन है। बच्चों की शिक्षा के लिए माता-पिता समय-समय पर बिछुड़ते रहें हैं , हमारा भी वक्त आना था । मैं भी बच्चों के साथ दुबई आकर रहने लगी ।
रियाद में रमज़ान का महीना सारी दिनचर्या को बदल देता है , इस पवित्र महीने में पूरी तरह से समर्पित जीवन जिया जाता है । सहरी खाने के बाद फ़ज़र की नमाज़ अदा करके कुछ लोग सो जाते हैं और कुछ लोग पवित्र पुस्तक कुरानमजीद पढ़कर शान्ति पाते हैं। दोपहर से ही इफ़्तार की तैयारी शुरू हो जाती है। अलग-अलग देशों के लोग अलग-अलग व्यंजन इफ़्तार के समय परोसते हैं लेकिन खजूर के साथ रोज़ा खोलना अच्छा माना जाता है।
रियाद में जब पहली बार रोज़े रखे तो हिन्दू ही नहीं मुसलमानों का भी एक ही सवाल था 'क्यों' । 'क्यों' का कोई जवाब नहीं होता । भारत देश जो धर्म-निरपेक्ष है, जहाँ सभी देश के लोग प्रेम-भाव के साथ मिलजुल कर रहते हैं , वहाँ के निवासी सभी धर्मों को आदर देते हैं ।
मेरे विचार में सभी धर्मों को जानना और समझना , उन्हें आदर देना रिश्तों को अटूट बनाता है। अभी जैसे कल की ही बात हो , मह्गरिब की अज़ान पर कोई भी घर आता तो ड्राइंगरूम में जानमाज़ देखकर नमाज़ पढ़ने बैठ ही जाता, कई मुस्लिम मित्र हैरान होते थे कि हमें ही नहीं बच्चों को भी मालूम था कि किबला की दिशा किधर है, किस तरफ़ मुहँ करके नमाज़ अदा करनी है।
यादों का रेला आता है तो बहुत सी बातों को मन में ही छोड़ जाता है । आज पति-देव याद आ रहे हैं क्योंकि हमेशा उनके हाथों की बनी इफ़्तार से रोज़े खुलते थे। पतिदेव कहा करते थे कि इफ़्तार बनाने और परोसने से मुझे भी कुछ सवाब मिल जाएगा। आज शाम की पहली इफ़्तारी मैं और बच्चे मिलकर बनाएँगें और रोज़ा खोलेगें। खजूर और चाय हम सभी को पसंद है।
जीवन में हर तरह की परिस्थिति का स्वागत करना ही जीने की कला है। अपने जीवनकाल के बीस साल साउदी अरब में बिताए । सबसे बड़ी बात यह सीखी कि सिर्फ़ अच्छी बातों को ही देखो । बुरे भावों या विचारों का ध्यान सपने में भी न करो। बस जीवन आसानी से कट जाता है।
अपने विचारों को मैंने कभी न अपने बच्चों पर थोपा न ही अपने शिष्यों पर लागू करने की कोशिश की। ऐसा जीवन जीने की कोशिश की कि उन्हें जो अच्छा लगे वे अपने जीवन में उतार सकें । कई बार ऐसा हुआ कि विश्वास और मज़बूत होता गया जब देखा कि जो हम चाहते कि बच्चे अमल करें , पहले स्वयं ही उस साँचें में ढलना पड़ता है। जीने की कला को सीखना या सिखाना है तो ईमानदारी और विश्वास का होना बहुत ज़रूरी होता है।
मुझे लगता है भावों की बहती धार को रोकना होगा , तेज़ बहाव में सब कुछ बह जाता है जो मैं नहीं चाहती। जिस तरह छोटी-छोटी बातें जल्दी समझ आतीं हैं , उसी तरह छोटे-छोटे लेख मन में आसानी से उतर जाते हैं। अपने शिष्यों के साथ १२-१३ वर्षों के अनुभव ने मुझे यही सिखाया है । यदि आप मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं या मेरे भावों को पढ़कर किसी प्रकार की चोट पहुँची हो तो क्षमा चाहूँगी ।