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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

18 महीने बाद 18 अप्रेल को एक बार फिर नमस्कार ......

 यहीं अपने इस घर में किसी कोने में ध्यानमग्न बैठी थी  जैसे.....लगता ही नहीं कि मैं 18 महीने बाद लौटी हूँ .... इन दिनों इतना कुछ  हुआ ...हिसाब लगाने लगूँ तो कई कहानियाँ बन जाएँ ....

कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ कुछ कम ज़्यादा अंतराल में थिरकतीं रहीं लेकिन बन्द कमरे में.... मतलब यह कि ड्राफ्ट के रूप में कैद ..... उन्हें आज ब्लॉग जगत के खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया....
19 नवम्बर 2011 सफ़र नया शुरु हुआ.... दिल्ली के लिए निकले 'सफ़र' शब्द के साथ एक पोस्ट को अंजाम देते हुए जो ड्राफ्ट में बस उसी शब्द के साथ रुकी रही....



12 मई 2012 को एक नई कोशिश के साथ बस इतना ही लिखना जुटा पाई कि शब्द शराब बन उतरते हैं दिल औ' दिमाग़ में .... भावों का नशा चढ़ता है तो उतरता नहीं............ 


28 मार्च 2012 की शाम फिर हाथ आया वक्त और ब्लॉग जगत को नमस्कार कहने आ पहुँचे....उस नमस्कार को भी कैद ही रखा..... 


17 जून 2012 को जाने क्यों डैडी की याद आ गई..... बस यूँही बेतुकी सी चाहत जाग उठी कि काश उनसे वीडियो चैट हो पाए तो कैसा हो......क्या आने वाले वक्त में ऐसा मुमकिन होगा कि मैं 'वहाँ' से यहाँ चैट कर पाऊँगी अपनों से........... 


26 मार्च 2013 बैठी थी सात समुन्दर पार ... बेचैन था मन ...कोई अपना बीमार था बड़ा.... बस जी चाहा कि कुछ दो चार शब्दों के साथ मिल बैठूँ फिर एक बार....... 



यह तो हुई चर्चा पिछले 18 महीनों में लिखे कुछ भावों की..... लिखा लेकिन पोस्ट नहीं किया.....लिखा उन पर भी नहीं जिन्हें कभी कभार पढ़ा ब्लॉग जगत में आकर ..... 
फेसबुक जिसे कहती हूँ 'चेहरा पुस्तक' वहाँ परिवार के कारण ज़्यादा आना-जाना रहा.... एक क्लिक 'लाइक' से  ही काम चल जाता है ..... 
 लेकिन इस  बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग की अपनी महत्ता है...
खासकर हिन्दी ब्लॉग जगत में आजकल की गतिविधियों से तो यही प्रमाणित होता है... 
The Bobs awards के बारे में सुना फिर पढ़ा भी जो DW के प्रतिनिधि के रूप में दुनिया की कई भाषाओं के ब्लॉगज़ के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व दिखाँएगें.... 

DW-- Deutsche Welle means in english 'German Wave'. DW is Germany's International broadcaster. 
वक्त नहीं है इनका अनुवाद करने का लेकिन दोनों लिंक पढ़ने के बाद लगा कि बॉब्ज़ एवार्ड के लिए किसी भी ब्लॉग को चुनने के लिए इनके बारे में जानकारी लेना ज़रूरी लगा....

फिर पहुँचे अपने ब्लॉगजगत जहाँ  चिट्टाचर्चा पर पहले नज़र गई क्यों .....क्योंकि कभी हम भी चर्चा किया करते थे वहाँ ......... नारी ब्लॉग को फेसबुक के माध्यम से तो चोखेरबाली को टिवटर के माध्यम से वोट दे आए... 
हिन्दी भाषा का प्रचार और उस पर नारी से जुड़े ब्लॉगज़..... बस इतनी ही समझ समझिए..  
वक्त अभी मुट्ठी में था इसलिए एक और ब्लॉग पर गए.... पढ़ने को वहाँ बहुत कुछ था ...पढ़ा भी .. मन ही मन चिंतन भी किया लेकिन जो कविता पसन्द आई ...पसन्द ही नहीं बेहद पसन्द आई उसके शब्द और उनमें छिपे भाव बहुत कुछ कह जाते हैं बस समझने की ज़रूरत है....... 

शब्दों के भी
होते हैं सींग
तभी तो कुछ शब्द
बहुत मारते हैं डींग
जी हां
शब्दों के भी होते हैं सींग
पैने-पैने नुकीले सींग
कलेजे में घुस जाते हैं तो
कलेजा फाड़ देते हैं
लहू-लुहान हो जाती हैं सम्वेदनायें
दम तोड़ देते हैं संस्कार
और वे सींग
प्रेम को घृणा की ज़मीन में कहीं गहरे गाड़ देते हैं।
फिर भी,
आपने उगा रखे हैं ये सींग
अरे!
जु़बान पर भी लगा रखे हैं सींग
माना कि
इन सींगों से आप
बड़े-बड़े काम करते हैं
क्योंकि
इनसे इज्जतदार
बहुत डरते हैं
पर सोचो,
कभी जुबान पर लगे ये सींग
गले के रास्ते
अपने ही भीतर उतर गये तो
अपने आपसे डर गये तो!
सच जानिये
ऐसे में आप
खुद से भी मिल नहीं पायेंगे
खून की तरह बिखर जायेगा वजूद
जिसे आप समेट नहीं पायेंगे
इसलिये,
रच सकते हो तो
जुबान पर
मिश्री की अल्पना रचो,
और शब्दों को सींग बनाने से बचो।
डा.कमल मुसद्दी
प्रवक्ता राजकीय आयुध निर्माणी इंटर कालेज,अर्मापुर
सद्य प्रकाशित और दिनांक २९.०४.०७ को लोकार्पित
कविता संग्रह कटे हाथों के हस्ताक्षर से साभार!




गुरुवार, 19 मई 2011

डायरी के पुराने पन्ने


कुछ पुराने ड्राफ्ट जिन्हें एक एक करके मुक्त करने की सोच रही हूँ ....  यह सबसे पुराना ड्राफ्ट 3 जुलाई 2008 का लिखा हुआ  है..... जस का तस पब्लिश कर रही हूँ .... कुछ ड्राफ्ट अधूरे हैं उन्हें पोस्ट करने से शायद वे भी अपने आप में पूरे हो जाएँ..... 
इस वक्त शाम के 6 बजे हैं. छोटा बेटा दोस्तों के साथ बाहर है ... बड़ा बेटा वरुण और हम घर में ...कई दिनों के बाद आज मौका मिला कि इत्मीनान से कुछ लिखें लेकिन पढ़ने का मोह लिखने से रोक देता है. अभी की बात ही लीजिए... ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ कर हम सोचने पर मज़बूर हो गए... " कोई मुश्किल नही है इसका जवाब देना। आज लिखना बन्द कर दूं, या इर्रेगुलर हो जाऊं लिखने में तो लोगों को भूलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।"
हम अपनी बात करें तो इस बात का बिल्कुल भय नहीं है क्योंकि हम उलटा सोचते हैं...कोशिश में रहते हैं कि हम किसी को भूलें... अच्छी बुरी यादों के साथ सब हमारे दिल में रहें... हम किसी के दिल में हैं या नहीं... किसी को हमारी ज़रूरत है कि नहीं इससे ज़्यादा ख्याल यह रहे कि दूसरे को लगता रहे कि उसकी ज़रूरत हमें है......

ब्लॉग जगत के बारे में सोचते हैं... अच्छा लगता है पढ़ना , जानना, समझना,,, इसी में ही वक्त बीत जाता है और लिखने की बस सोचते ही रह जाते हैं. ज्ञान जी की पोस्ट पढ़ने के बाद समीर जी की छोटी सी पोस्ट पढ़ने को मिली.... छोटी सी लेकिन भाव बहुत बड़ा लिए हुए .... सोचने लगे  कि हम 'हैरान पाठक ' तो हैं ही साधारण से  'हिन्दी ब्लॉगर' भी हैं .... सब काम छोड़कर लिखने बैठ गए..सोचा कि आँखें खराब होने पर भी समीर जी अगर छोटी सी पोस्ट ठेल सकते हैं तो क्यों हम  भी एक पोस्ट डालकर दोस्तों को बोर कर दें.. ..
सुखनसाज़ में हुसैन भाइयों की गज़ल सुनते सुनते शुरु हुए... बहुत दिनों पहले लिखी हुई कई रचनाएँ जो सिर्फ डायरी के पन्नों में ही कैद हैं ...उनकी याद गई.... विचार आया कि क्यों उन पुराने पलों को पन्नों की कैद से मुक्ति दे दी जाए लेकिन किश्तों में ही .... बहुत पुरानी बात याद रही है जब छोटे बेटे की बाहरवीं का रिज़ल्ट आना था .... आलोक जी की एक पोस्ट "टीचर की डायरी" पढ़कर अपने दोनों बेटों की याद गई जिन्हें हमने कभी नहीं कोसा कि 90% अंक लाने वाले बच्चों में उनका शुमार क्यों नहीं.... लाइफ के झटकों को झेलने के लिए मजबूती जिस व्यक्तित्व से आती है, वह गढ़ने का काम हो कहां रहा है।स्कूल बिजी हैं टापर गढ़ने में। पेरेंट्स बिजी हैं सुपर टापर बनाने में। व्यक्तित्व विकास के बुनियादी तत्व कहां से आयेंगे