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रविवार, 11 नवंबर 2007

मानव की प्रकृति

विद्युत रेखा हूँ नीले अंबर की
स्वाति बूँद हूँ नील गगन की !

गति हूँ बल हूँ विनाश की
अमृत-धारा बनती विकास की !

अग्नि-कण हूँ ज्योति ज्ञान की
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !

मैं मूरत हूँ सब में स्नेह भाव की
छवि भी है सबमें घृणा भाव की !

वर्षा करती हूँ मैं करुणा की
अर्चना भी करती हूँ पाषाण की !

सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!

7 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

जीवन है ही 'पेयर ऑफ अपोजिट्स' का नाम। काले के बिना सफेद का अस्तित्व कहां है?
सुन्दर कविता।

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

सुन्दर कविता, सुन्दर भाव

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर कविता!!

Unknown ने कहा…

nice poem maam

पुनीत ओमर ने कहा…

भाव अछा बन पडा है.

Devi Nangrani ने कहा…

वर्षा करती हूँ मैं करुणा की
अर्चना भी करती हूँ पाषाण की !

बहुत ही सजीव चित्र खींचा है आपने अपने भावों से मिनाक्षी जी
खूब इज़हार किया है.
शब्दों की अब क्या ज़रूरत
नहीं ज़रूरत भाषण की
देवी नागरानी

Abhishek Ojha ने कहा…

अद्भुत ! लिंक के लिए धन्यवाद.