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रविवार, 11 नवंबर 2007

मानव की प्रकृति

विद्युत रेखा हूँ नीले अंबर की
स्वाति बूँद हूँ नील गगन की !

गति हूँ बल हूँ विनाश की
अमृत-धारा बनती विकास की !

अग्नि-कण हूँ ज्योति ज्ञान की
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !

मैं मूरत हूँ सब में स्नेह भाव की
छवि भी है सबमें घृणा भाव की !

वर्षा करती हूँ मैं करुणा की
अर्चना भी करती हूँ पाषाण की !

सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!