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सोमवार, 19 नवंबर 2007

छायावाद की सबसे बड़ी देन- एक समय में कर्कश समझे जाने वाली खड़ी बोली गलकर मोम हो गई. "दिनकर जी'


हिन्दी में एम.ए करते समय मेरा प्रमुख विषय छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद और उनका काव्य था. छायावाद पढ़ते पढ़ते उसकी छाया का आवरण अपने ऊपर सदैव पाती हूँ जैसे आकाश में उमड़ते घुमड़ते बादलों का आँचल सर पर हो या मखमली हरी नरम सी दूब का दामन जो सागर से उठती भाप सी साँसों से जलने से बचाता हो.
भाव लहरें जो मन में उठती हैं उन्हें रोकने का सेतु मेरे शब्द बनते हैं और शब्दों पर छायावाद की छाया शायद स्वत: ही आ जाती है.
"छायावाद के कवि वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं. उनकी रचना की सम्पूर्ण विशेषताएँ उनकी इस 'दृष्टि' पर ही अवलम्बित रहती है.... वह क्षणभर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं, किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है. उसके इस अन्य रूप का सम्बन्ध कवि के अंतर्जगत से रहता है. यह अंतरंग दृष्टि ही छायावाद की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है." इन शब्दों में छायावाद के पूर्वगामी श्री मुकुटधर पांडेय जी ने काव्यान्दोलन की प्रधान विशेषता बताई. उन्होंने जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका 'श्रीशारदा' के 1920 के चार अंकों में छायावाद पर एक लेखमाला प्रकाशित करवाई थी जिसे मैं पढ़ना चाहती हूँ.

इस युग की रचनाओं में निहित छायाचित्रों के मूल में स्थित वास्तविकता या कल्पना से अनुरंजित नई भावदृष्टि को समझने की 'आंतरिक दृष्टि' है.
निराला जी ने इसे अकुंठित भाव से स्वीकार किया है –
"स्वच्छ एक दर्पण ----
प्रतिबिम्बों की ग्रहण शक्ति सम्पूर्ण लिए हुए.
देखता मैं प्रकृति चित्र --
अपनी ही भावना की छायाएँ चिरपोषित.
प्रथम जीवन में
जीवन ही मिला मुझे, चारों ओर."

सुमित्रनन्दन पंत यही बात दूसरे शब्दों में कहते हैं -
"इस तरह मेरे चितेरे ह्रदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी."

"मैंने मैं शैली अपनाई
देखा एक दुखी निज भाई
दुख की छाया पड़ी ह्रदय में
झट उमड़ वेदना आई.
निराला जी की उपर्युक्त घोषणा के आधार पर शिवदान सिंह चौहान का निष्कर्ष न्यायसंगत प्रतीत होता है कि "व्यक्तिगत सुख-दुखों की अपेक्षा अपने से अन्य के सुख-दुखों की अनुभूति ने ही नए कवियों के भाव प्रवण और कल्पनाशील ह्रदयों को स्वच्छन्दतावाद की ओर प्रवृत किया."
छायावाद युग के काव्य में पुरातन सामाजिक रूढ़ियों, नैतिक बन्धनों, आर्यसमाजी आचार संहिता आदि के विरुद्ध विद्रोह की भावना है. इसलिए शायद छायावादियों ने परिवार में पत्नी का स्वरूप प्रस्तुत कर अपने प्रेमभावना की अभिव्यक्ति नहीं की. सम्पूर्ण छायावादी काव्य में 'प्रेयसी' रूप में ही स्त्री का चित्रण मिलता है. इसे हम सामंतविरोधी दृष्टि कह सकते हैं.
सम्राट अष्टम एडवर्ड जब अपनी प्रेमिका के लिए सम्राट पद त्याग देते हैं तो निराला कहते हैं – "सिंहासन तज उतरे भू पर, सम्राट ! दिखाया सत्य कौन सा वह सुन्दर."
प्रेम के लिए सिंहासन का त्याग – इसे निराला सुन्दर सत्य की संज्ञा देते हैं.
इसी सत्य को व्यापकता में रखते हुए निराला जी सामंतविरोधी जीवनमूल्य भी प्रतिष्ठित करने से नहीं चूकते. 'प्रेयसी' शीर्षक रचना में 'प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गई' की जो स्वच्छंद भावना है, वह यथार्थ बोध के स्तर पर बन्धन मुक्ति की रोमांटिक तर्क पद्धति भी साथ साथ लाती है --


" दोनों हम भिन्न वर्ण
भिन्न जाति, भिन्न रूप
भिन्न धर्म भाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे."


कुछ कुछ याद है कि 'रसमीमांसा' ग्रंथ की चर्चा की जाती थी, आचार्य शुक्ल का एक कथन जो मेरी डायरी में आज भी सुरक्षित है जो इस प्रकार है- "देश-प्रेम क्या है? इस प्रेम का आलम्बन क्या है? सारा देश अर्थात मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि. प्रेम किस प्रकार का है? यह साह्चर्यगत प्रेम है."
देश के वन, पर्वत, नदी, नाले, खेत-खलिहान आदि से हमारे भावों का सीधा लगाव होता है. इन पर प्रेम-भरी दृष्टि डालकर इनका चित्रण करने से साहचर्य जनित रतिभाव का ही उद्रेक होता है.
प्रकृति की गोद में कवि जिस आनंदातिरेक से झूमता हुआ दिखाई देता है, उसकी मूल प्रेरणा क्या मात्र सौन्दर्य प्रेम सम्बन्धी तथाकथित जन्म जात वासना मात्र है?
रोमांटिक काव्य में प्रकृति के प्रति साहचर्यगत प्रेम की अभिव्यक्ति को ही इतनी प्रमुखता हर जगह क्यों?

क्रमश:

9 टिप्‍पणियां:

Ashish Maharishi ने कहा…

छायावाद का अपना अलग नशा है

Pankaj Oudhia ने कहा…

चलिये आपकी पोस्ट के माध्यम से छायावाद को भी जान लिया। यह तो हमारे वनस्पति विज्ञान के करीब लगता है। स्कूल मे हायर अंग्रेजी ली तो हिन्दी साहित्य से वंचित हो गया। एम.ए. करना चाहता हूँ पर पेड-पौधो से फुरसत नही मिलती। :)

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

छायावाद समझ तो नहीं आता पर कवितायें बहुत अच्छी लगती हैं।

36solutions ने कहा…

देख मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछडा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पडे कभी के ग्राम-मनुज स्‍वच्‍छंद
अन्‍य विहग भी निज नीडो में सोते हैं सानंद
इस नीरव घटिका में उडता है तू चिंतित गात
पिछडा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
धन्‍यवाद मीनाक्षी जी आपने कुकरी के प्रति को याद दिला दिया, परम आदरणीय पाण्‍डेय जी का पुण्‍य स्‍मरण है छायावाद के संबंध में चर्चा करना ।
पुन: धन्‍यवाद

'आरंभ' छत्‍तीसगढ से मेरा प्रयास

Asha Joglekar ने कहा…

मैने तो हिन्दी पढी़ नही स्कूल के बाद , सायन्स की छात्रा रही हूँ, पर आपकी वजह से आज छायावाद से परिचय हो गया और दिग्गजों की रचनाओं से साक्षात्कार ।

बेनामी ने कहा…

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मीनाक्षी ने कहा…

Dearest meenakshi ji ,
namskar.
Today I have read yours artical which is on great poet jai shankar prashad .it is realy nice and true yours thinking is very reach and deeply. so congratulations to you .and best wishes .
thanks
yours
virendra s shaktawat
lecturare hindi (by email)

Tarun ने कहा…

जब स्कूल में पढ़ते थे कभी भी समझ नही आया कि इन लोगों को छायावादी कवि क्यों कहते थे, आज भी यही समझने के लिये जूझ रहे हैं। हाँ कविता इनकी तब भी पसंद आती थी और अब भी।

मीनाक्षी ने कहा…

मै तो सोच रही थी कि यह विषय रस हीन है , कोई देखेगा भी नहीं.
आप सबका धन्यवाद ..