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मंगलवार, 13 नवंबर 2007

टिप्पणियाँ - रंग बिरंगी खट्टी मीठी संतरे की गोलियाँ सी


अलग अलग टिप्पणियाँ जो रंग बिरंगी खट्टी मीठी संतरे की गोलियों की तरह लग रही हैं, बिल्कुल ऐसी ही रंग-बिरंगी गोलियाँ मेरे नानाजी की दुकान में अलग अलग शीशे की बोतलों मे रखीं होती थीं. देश के बटँवारे से पहले नानाजी एक होस्टल के वार्डन थे. भारत आने पर उन्हें गणित के अध्यापक का पद मिला.
नाना जी अध्यापक पद से सेवा मुक्त होने के बाद भी बच्चो की सेवा मे लगे रहे और कापी पेंसिल कलम दवात और खट्टी मीठी संतरे की फाड़ी जैसी गोलियों के साथ और भी बहुत कुछ दुकान मे रखते थे. याद आया...राम लड्डू , आम पापड़, उन्हीं के साथ तरह तरह के चूरन भी होते थे.
दोपहर और रात का खाना खाने जब भी नाना जी घर के पिछवाड़े जाते तो मुझे ही दुकान पर बैठना पड़ता. वह पल आनन्द की चरम सीमा को पार कर जाते. हर रोज़ एक दो संतरे की गोलियाँ या राम लड्डू चोरी चोरी खाने में बहुत मज़ा आता.
ओह बात हो रही थी खट्टी मीठी संतरे की गोलियों जैसी टिप्पणियों की. पर्यानाद जी को समझ नहीं आया. उस समय मुझे भी समझ नही आया था जब माँ ने कहा था "मू ते पैर मल". दरअसल समझना चाहिए था "मुँह और पैर मल" लेकिन समझा "मुँह के ऊपर पैर मल"
अनिल जी , पुरानी बातें सच में प्यारी होती हैं. आइए लौट चलें अपने बचपन में. कुछ देर के लिए मानस को भी संघर्षमयी जीवन से मुक्त कर दीजिए.
ज्ञान जी क्यों........ क्यों बचपन की सहजता विदा हो जाती है ???? यदि बचपन की यादें हिट पोस्ट बनती हैं तो जीवन भी हिट हो सकता है अगर हम अपने अन्दर के बालक को जिन्दा रखें. क्या ऐसा हो सकता है ?
राजीव जी , बीते हुए दिन हम खुद ही वापिस ला सकते हैं. जब बचपन को भूली दास्ताँ बना देते हैं तभी हम जीवन में दुखी हो जाते हैं. पुरानी यादों को नया रूप देते हुए कोई बचपना करके देखते हैं. बाल सुलभ हँसी तो फूटेगी ही, सेहत भी अच्छी रहेगी.
ममता जी, आप भी ....क्यों 'थे' का प्रयोग कर रही हैं. बचपन के दिनों की ममता आज भी हमारे आपके और सबके दिलों में है. क्यों न हम थोड़ा थोड़ा बचपन हर रोज़ जिएँ.
अनिल जी और हर्षवर्धन जी माता पिता को चाचा चाची कहना शायद आज भी सुना जा सकता है. मेरे अपने घर में मेरी मौसी को उनके बच्चे बहन जी बुलाते थे लेकिन शादियाँ होती गईं और नाम बदलते गए और इसी के साथ साथ भावनाओं के रूप भी बदलते गए. अब कहाँ सयुंक्त परिवार हैं . परिवार ईकाइयों में बँटते बँटते इतने छोटे हो गए हैं कि उनमें प्रेम, स्नेह , सहनशीलता, संयमशीलता , संवेदनशीलता और भावनाओं का स्थान भी संकुचित होता जा रहा है.
नीलिमा जी आपकी मन्द मुस्कान में अभी भी बच्चों की मासूमियत है. एक भेद की बात यह है कि मुस्कान सुन्दरता को कायम रखने की अचूक दवा है. यही नहीं कई बीमारियों को दूर करने में सहायक बनती है. मुस्कान सेहत के लिए बहुत लाभकारी है इस पर एक अलग पोस्ट लिखने की सोच रही हूँ.
अफलातून जी शैशव का प्रसंग शायद सबको प्रसन्न कर देता है और सभी अपने बचपन की यादों में खो जाते हैं लेकिन धीरे धीरे बच्चों जैसी मासूमियत कहीं खो जाती है.
बालकिशन जी समझदारी की धूल क्यों ? दिन में एक बार तो हम 'डस्टिंग' झाड़पोंछ करते ही हैं तो व्यस्त जीवन पर पड़ी समझदारी की धूल को भी झाड़ देते हैं.
नीरज जी की प्यारी 'मिष्टी' जैसे हम सब बन जाएँ तो सोचिए दुनिया का रूप कैसा हो जाएगा. घुघुती जी क्यों क्या ख्याल है आपका ? पुनीत जी, सच कहूँ तो पंजाबी भाषा का आकर्षण आज भी दिल और दिमाग पर छाया हुआ है. पंजाबी बोलती नहीं लेकिन सुनकर समझने की कोशिश आज तक जारी है.
संजीत जी अगर आपको तस्वीर इतनी अच्छी लगी है तो सोचिए अगर हम सब बच्चों जैसे मासूम हो जाएँगे तो कैसा अनुभव होगा !! पल में रूठ कर फिर हमजोली बन जाएँगे.
इसी बात का जिक्र करते करते 'दो कलियाँ' फिल्म का एक गीत याद आ गया जो मैने पाँचवीँ कक्षा में पहली बार स्कूल की प्रार्थना सभा में गाया था.
आइए सुनते हैं बाल कलाकार के रूप में नीतू सिंह पर फिल्माया यह गीत ...

बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आँखों के तारे .......... !

गीत सुनने के बाद कैसा लगा !! मुझे तो लगता है कि हम बचपन में लौट चलें !!!!!!!!!!

6 टिप्‍पणियां:

Tarun ने कहा…

मीनाक्षी जी, मुझे याद है बचपन में संतरे की कटे फाँये सी जैसा कि चित्र में है मीठी खट्टी मीठी गोलियाँ मिलती थी।
मीनाक्षी जी अपराध बोध में मेरी कहानी का अगला भाग लिखने का शुक्रिया, अभी मैने उसे पढ़ा नही है, पढ़कर प्रतिक्रिया जरूर दूँगा। धन्यवाद।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत सुन्दर गुलदस्ता बनाया आपने। चुन चुन कर! बहुत अच्छा!

mamta ने कहा…

मीनाक्षी जी अच्छा विश्लेषण किया हैआपने। बचपन तो कभी कोई भूल ही नही सकता है। वैसे हमने यादों के झरोंखों नाम से कुछ पोस्ट लिखी थी । बस आजकल जरा कम लिख पा रहे है।

और हाँ खट्टी-मीठी संतरे की गोलियां तो हम आज भी खाते है बिल्कुल बचपन की तरह। :)

बालकिशन ने कहा…

संतरे की गोलियों और चूरन से याद आता है कि एक १० पैसे का चूरन लेकर गोल करके हथेली के बीचो-बीच चिपका लेते थे और दो-तीन पीरियड तक चाटते रहते थे. मास्टरजी देख लेते थे तो चूरन फेंकना पड़ता और मार खाते सो अलग पर अगले दिन फ़िर वही.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

हम अक्सर कहते सुनते और पढ़ते है कि टिप्पणियां संवाद का माध्यम है , आपने तो वाकई इनके माध्यम से संवाद कर ही लिया!!

Anita kumar ने कहा…

ओह , मिनाक्षी जी कईयों पर नजर न पड़ी आप की, ये बचपना ही है कि शिकायत कर रहे हैं, शायद जो छूट गये उनमें बचपन न दीखा हो…।