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सोमवार, 5 नवंबर 2007

'जब मैं मर गया उस दिन' /'जब मैं मर जाऊँ उस दिन'



कभी कभी ऐसा संयोग होता है कि हम हैरान रह जाते हैं. अभी परसों ही रवीन्द्र जी का व्यंग्य लेख 'जब मैं मर गया उस दिन' पढा था और उसके बाद चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं. उच्च कोटि का व्यंग्य सबने सराहा. 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' यह बात आज अपने बेटे के मुँह से सुनने पर मैं सकते में आ गई. कोई टिप्पणी नहीं सूझ रही थी. साहित्यकार, लेखक , चिट्ठाकार और कवियों की मृत्यु पर लिखी गई रचनाओं को हम ध्यान से पढ़ते हैं और प्रशंसा भी करते हैं लेकिन जब अपनी संतान इस तरह के विषय पर चर्चा करना चाहे तो हम उनका मुँह बन्द कर देना चाहते हैं.
पहली बार अनुभव हुआ कि पढ़ने और सुनने में पीड़ा अलग-अलग थी. पता नहीं क्यों आज अचानक बेटे को सूझा कि माँ को सामने बिठा कर इसी विषय पर ही चर्चा करनी है कि 'जब मैं मर जाऊँ उस दिन' उसे चेरी के सुन्दर पेड़ के नीचे ही सदा के लिए सुला दिया जाए. दार्शनिक बना बेटा माँ को समझाने की कोशिश कर रहा था कि मृत्यु से बड़ा कोई सच नहीं. बहुत पहले जापान के चेरी पेड़ के बारे में बताते हुए बेटा बोला था कि इस पेड़ से खूबसूरत कोई पेड़ नहीं और इस पेड़ के नीचे आराम की नींद सोने का आनन्द अलौकिक ही होगा. उस समय मुझे सपने मे भी ख्याल नहीं आया था कि आराम की नींद से अर्थ चिर निद्रा लगाया जा रहा है. मैं हतप्रभ टकी टकी सी लगाए मुस्कराते बेटे को देख रही थी जिसकी बातों से मेरे चेहरे की मुस्कराहट गायब हो चुकी थी.

6 टिप्‍पणियां:

Manas Path ने कहा…

बच्चे भी बड़े मार्के की बात कर सकते हैं

अतुल

Udan Tashtari ने कहा…

जितना अटल यह सत्य है, उसका सामना करना/उस पर विचार करना उतना ही कठिन.

आपके बेटे की बात सुन मैं अब तक सन्न हूँ.

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

मीनाक्षी
अक्सर हम सोचते हैं कि हम अपने बच्चों को बडा कर रहे हैं। पर सच यह है कि हम उनके लालन-पोषण से बडे हो रहे हैं।
संजय गुलाटी मुसाफिर

Sanjeet Tripathi ने कहा…

कभी कभी बच्चे अपनी बातों से ही एहसास दिला जाते हैं कि बड़े हो चुके है न केवल कद से ही बल्कि ज़हन से भी!!

काकेश ने कहा…

सच हमेशा कड़वा होता है.

बेनामी ने कहा…

पढ़ने और सुनने का फर्क शायद यही होता है लेकिन ये एक ऐसा सत्य है जिसे कोई सुनना नही चाहेगा।