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बुधवार, 14 नवंबर 2007

सिसकते भाव




















हर्षवर्धन जी का लेख ज्यादा पढ़े-लिखे भारत को लड़कियां कम पसंद हैं पढ़कर मन बेचैन हो गया और बस सिसकते से भावों ने कविता का रूप ले लिया.



भाव मेरे वाणी बन अधरों पर आना चाहें
अंजानी शक्ति वाणी के प्राण हर लेना चाहे !


बात रुक गई, साँस घुट गई
आँखों में वीरानी छा गई !!
सिसकते भाव कुछ कहना चाहें
दुनिया कुछ न सुनना चाहे !!

भाव मेरे वाणी बन अधरों पर आना चाहें
अंजानी शक्ति वाणी के प्राण हर लेना चाहे !

सिसक कर जीते जाएँ भाव मेरे
तड़प कर मरते जाएँ भाव मेरे
सर पटक रोते जाएँ भाव मेरे
जीवन पाना चाहें भाव मेरे !!

भाव मेरे वाणी बन अधरों पर आना चाहें
अंजानी शक्ति वाणी के प्राण हर लेना चाहे !

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

टिप्पणियाँ - रंग बिरंगी खट्टी मीठी संतरे की गोलियाँ सी


अलग अलग टिप्पणियाँ जो रंग बिरंगी खट्टी मीठी संतरे की गोलियों की तरह लग रही हैं, बिल्कुल ऐसी ही रंग-बिरंगी गोलियाँ मेरे नानाजी की दुकान में अलग अलग शीशे की बोतलों मे रखीं होती थीं. देश के बटँवारे से पहले नानाजी एक होस्टल के वार्डन थे. भारत आने पर उन्हें गणित के अध्यापक का पद मिला.
नाना जी अध्यापक पद से सेवा मुक्त होने के बाद भी बच्चो की सेवा मे लगे रहे और कापी पेंसिल कलम दवात और खट्टी मीठी संतरे की फाड़ी जैसी गोलियों के साथ और भी बहुत कुछ दुकान मे रखते थे. याद आया...राम लड्डू , आम पापड़, उन्हीं के साथ तरह तरह के चूरन भी होते थे.
दोपहर और रात का खाना खाने जब भी नाना जी घर के पिछवाड़े जाते तो मुझे ही दुकान पर बैठना पड़ता. वह पल आनन्द की चरम सीमा को पार कर जाते. हर रोज़ एक दो संतरे की गोलियाँ या राम लड्डू चोरी चोरी खाने में बहुत मज़ा आता.
ओह बात हो रही थी खट्टी मीठी संतरे की गोलियों जैसी टिप्पणियों की. पर्यानाद जी को समझ नहीं आया. उस समय मुझे भी समझ नही आया था जब माँ ने कहा था "मू ते पैर मल". दरअसल समझना चाहिए था "मुँह और पैर मल" लेकिन समझा "मुँह के ऊपर पैर मल"
अनिल जी , पुरानी बातें सच में प्यारी होती हैं. आइए लौट चलें अपने बचपन में. कुछ देर के लिए मानस को भी संघर्षमयी जीवन से मुक्त कर दीजिए.
ज्ञान जी क्यों........ क्यों बचपन की सहजता विदा हो जाती है ???? यदि बचपन की यादें हिट पोस्ट बनती हैं तो जीवन भी हिट हो सकता है अगर हम अपने अन्दर के बालक को जिन्दा रखें. क्या ऐसा हो सकता है ?
राजीव जी , बीते हुए दिन हम खुद ही वापिस ला सकते हैं. जब बचपन को भूली दास्ताँ बना देते हैं तभी हम जीवन में दुखी हो जाते हैं. पुरानी यादों को नया रूप देते हुए कोई बचपना करके देखते हैं. बाल सुलभ हँसी तो फूटेगी ही, सेहत भी अच्छी रहेगी.
ममता जी, आप भी ....क्यों 'थे' का प्रयोग कर रही हैं. बचपन के दिनों की ममता आज भी हमारे आपके और सबके दिलों में है. क्यों न हम थोड़ा थोड़ा बचपन हर रोज़ जिएँ.
अनिल जी और हर्षवर्धन जी माता पिता को चाचा चाची कहना शायद आज भी सुना जा सकता है. मेरे अपने घर में मेरी मौसी को उनके बच्चे बहन जी बुलाते थे लेकिन शादियाँ होती गईं और नाम बदलते गए और इसी के साथ साथ भावनाओं के रूप भी बदलते गए. अब कहाँ सयुंक्त परिवार हैं . परिवार ईकाइयों में बँटते बँटते इतने छोटे हो गए हैं कि उनमें प्रेम, स्नेह , सहनशीलता, संयमशीलता , संवेदनशीलता और भावनाओं का स्थान भी संकुचित होता जा रहा है.
नीलिमा जी आपकी मन्द मुस्कान में अभी भी बच्चों की मासूमियत है. एक भेद की बात यह है कि मुस्कान सुन्दरता को कायम रखने की अचूक दवा है. यही नहीं कई बीमारियों को दूर करने में सहायक बनती है. मुस्कान सेहत के लिए बहुत लाभकारी है इस पर एक अलग पोस्ट लिखने की सोच रही हूँ.
अफलातून जी शैशव का प्रसंग शायद सबको प्रसन्न कर देता है और सभी अपने बचपन की यादों में खो जाते हैं लेकिन धीरे धीरे बच्चों जैसी मासूमियत कहीं खो जाती है.
बालकिशन जी समझदारी की धूल क्यों ? दिन में एक बार तो हम 'डस्टिंग' झाड़पोंछ करते ही हैं तो व्यस्त जीवन पर पड़ी समझदारी की धूल को भी झाड़ देते हैं.
नीरज जी की प्यारी 'मिष्टी' जैसे हम सब बन जाएँ तो सोचिए दुनिया का रूप कैसा हो जाएगा. घुघुती जी क्यों क्या ख्याल है आपका ? पुनीत जी, सच कहूँ तो पंजाबी भाषा का आकर्षण आज भी दिल और दिमाग पर छाया हुआ है. पंजाबी बोलती नहीं लेकिन सुनकर समझने की कोशिश आज तक जारी है.
संजीत जी अगर आपको तस्वीर इतनी अच्छी लगी है तो सोचिए अगर हम सब बच्चों जैसे मासूम हो जाएँगे तो कैसा अनुभव होगा !! पल में रूठ कर फिर हमजोली बन जाएँगे.
इसी बात का जिक्र करते करते 'दो कलियाँ' फिल्म का एक गीत याद आ गया जो मैने पाँचवीँ कक्षा में पहली बार स्कूल की प्रार्थना सभा में गाया था.
आइए सुनते हैं बाल कलाकार के रूप में नीतू सिंह पर फिल्माया यह गीत ...

बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आँखों के तारे .......... !

गीत सुनने के बाद कैसा लगा !! मुझे तो लगता है कि हम बचपन में लौट चलें !!!!!!!!!!

सोमवार, 12 नवंबर 2007

"ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल"



कुछ दिन पहले ज्ञान जी को बचपन में खाए मंघाराम एण्ड संस के बिस्कुट याद आए, फिर चना ज़ोर गरम याद आ गया तो हमें भी माँ की मीठी डाँट खाने की एक घटना याद आ गई. बात उन दिनों की है जब हम लगभग 8-9 साल के रहे होंगे. किसी कारणवश हमें तहसील बल्लभगढ़ में कुछ साल नानी के पास रहना पड़ा जहाँ हिन्दी बोली जाती है. वापिस माँ के पास आने पर एक अजीब से डर के कारण चुप रहने लगे थे. माँ को आंटी कहते थे और जो वे कहतीं चुपचाप मान जाते. माँ बेटी में एक अजनबीपन का रिश्ता था जिसे माँ स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. हम भी अपने में ही मस्त रहते और माँ से थोडा दूर ही रहते. एक कारण शायद यह भी था कि पंजाबी भाषा समझ न आने पर हम और अधिक अंर्तमुखी हो गए थे.

बात नन्हें बचपन की थी जब डरने के बावजूद भी हम शरारत करने से चूकते नहीं . खाना खाने से पहले साबुन से हाथ-पैर धोने गए तो खेल में लग गए. साबुन को रगड़ते हुए उसकी सफेद झाग हाथों पर और उस पर तरह तरह की आकृतियाँ बनाने का मज़ा ही अलग आ रहा था. माँ ने देखा और रौबीली आवाज़ मे कहा – 'ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल , अच्छी तरा साफ कर.' हम माँ का मुँह देखने लगे. समझने की कोशिश कर रहे थे कि क्या करने को कहा जा रहा है. माँ फिर से थोड़ा और ऊँची आवाज़ मे बोली – "मेरा मूँ की देखनी ऐ... मै कह रईयाँ मूँ ते पैर मल." कड़कड़ती आवाज़ सुनते ही हमने आव देखा न ताव .. चुपचाप अपना पैर उठा कर मुँह पर रगड़ने की कोशिश करने लगे. पंजाबी भाषा हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती. बाल-बुद्धि समझ नहीं पा रही थी कि यह कैसा रौब है अपने आप को माँ साबित करने का.

बाद में माँ ने बताया कि पहले तो उन्हें बहुत हँसी आई थी. घर भर में इस बात को लेकर ठहाके लगाए गए थे. बाद मे वे बहुत संजीदा होकर सोचने पर लाचार हो गई थी कि पंजाबी न बोलने पर उन्हें गुस्सा आ रहा है या शायद आँटी सम्बोधन को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने सोचा कि मुझसे दोस्ती करके ही अपने नज़दीक ला सकती हैं. आज हम दोनों माँ बेटी बहुत अच्छे दोस्त हैं. पंजाबी सिखाते सिखाते माँ स्वयं ही हिन्दी बोलने लगीं हैं.

रविवार, 11 नवंबर 2007

मानव की प्रकृति

विद्युत रेखा हूँ नीले अंबर की
स्वाति बूँद हूँ नील गगन की !

गति हूँ बल हूँ विनाश की
अमृत-धारा बनती विकास की !

अग्नि-कण हूँ ज्योति ज्ञान की
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !

मैं मूरत हूँ सब में स्नेह भाव की
छवि भी है सबमें घृणा भाव की !

वर्षा करती हूँ मैं करुणा की
अर्चना भी करती हूँ पाषाण की !

सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!

शनिवार, 10 नवंबर 2007

अपनी नज़र और अपनी सोच से देखिए !







दीपावली की पूजा !

खामोश घर में एक अजीब सी बेचैनी के साथ हम बैठे सोच रहे थे कि पर्वों का महत्त्व परिवार और मित्रों के साथ ही होता है. पर्व मनाए ही इसलिए जाते हैं कि आपस के मेल-मिलाप से प्रेम और भाईचारे का भाव बढ़े.
दीपावली का पर्व मिले जुले अनुभवों के साथ कुछ यादें छोड़ कर बीत गया. शायद यही पर्व व्यस्त जीवन में खुशी के दो पल देकर उर्जा प्रदान करते हैं. जीवन फिर से पुराने ढर्रे पर चलना शुरु हो जाता है. हम एक नए उत्साह के साथ संघर्षो से जूझने को तैयार हो जाते हैं.
अभी हम सोच ही रहे थे कि छोटी बहन का फोन आया. फोन पर बात कम और पटाखों की आवाज़ ज़्यादा आ रही थी. हँसते हुए बहन ने कहा कि पटाखों और संगीत की आवाज़ सुनकर ही मन को समझा लो. लेकिन ऐसा हो न सका.
माता-पिता और बच्चे परिवार की सबसे करीबी इकाई होते हैं. बेटे पिता को याद कर रहे थे जो काम के कारण आ नही सकते थे. उस समय एक दो मित्र भी बहुत बड़ा सहारा बन कर खुशी दे गए.
बहुत पहले पति एक लकड़ी की जड़ लेकर आए थे जो ओम की आकृति की थी लेकिन थोड़ा घुमा कर रखने पर वही ओम अल्लाह के रूप में दिखने लगता. हमने निश्चय कर लिया कि इसी लकड़ी के ओम की पूजा की जाएगी और साथ मे चाँदी के सिक्के को रखा जाएगा जिस पर एक तरफ गणेश जी और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी का चित्र होता है.
पूजा की थाली सजाई गई जिसमें लकड़ी का ओम और चाँदी का सिक्का रखा गया. ताज़े फल और फूल के साथ दूध जलेबी. दिए की जलती लौ और अगरबत्ती से घर भर में एक अजीब सी चमक और महक फैल रही थी. संस्कृत के श्लोक, जो समझ में कम आते हैं लेकिन एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं, सारे घर में गूँज उठे.
परिवार और मित्रों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सुख-शांति की कामना करते हुए हाथ जोड़ दिए.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

प्राणों का दीप


















प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !

विश्व तरु दल को न सूखने दो
वसुधा को प्रेमजल सींचने दो !

विषमता का शूल न चुभने दो
जीवन-पथ को निष्कंटक करने दो !

अनिल से अनल को मिलने दो
प्रचंड रूप धारण करने दो !

सिन्धु-सरिता की सुषमा बढ़ने दो
धरा-अंबर की शोभा निखरने दो !

घन-चंचला कुसुम खिलने दो
विश्व उद्यान माधर्य बढ़ने दो !

प्राणों का दीप जलने दो
जीवन को गति मिलने दो !!