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रविवार, 27 मार्च 2011

मासूम और नादान बच्चे



आज की ‘अरब न्यूज़’ में जब पाकिस्तानी बच्चे रिज़वान के मिलने की खबर पढ़ी
तो दिल को राहत मिली...11 साल का रिज़वान पकिस्तानी इंटरनेशनल स्कूल में  
छठी क्लास में पढ़ता है.. चार भाई बहनों में बड़ा है..गणित के पेपर की तैयारी के लिए
ट्यूशन गया था फिर नहीं लौटा....दो चार घरों की दूरी पर पैदल ही चला
जाया करता था उस दिन भी गया लेकिन डरा हुआ बाल मन....अगले दिन के पेपर
की पूरी तैयारी न हो पाई...कम नम्बर आने के डर से ट्यूशन पढ़के निकला और टैक्सी
करके मक्का पहुँच गया... जद्दा से मक्का टैक्सी से एक घंटे में पहुँच जाते हैं..पता नहीं रिज़वान
ने टैक्सी वाले को क्या कहा होगा जो उसे अकेले ही मक्का के हरम तक पहुँचा दिया.....
इधर माता पिता का बुरा हाल....याद आने लगा जब वरुण विद्युत को बोर्ड पेपरों के दिनों में
ऐसे ही छोड़ आया करते थे... जब तक वे घर नहीं लौटते थे, जान अटकी रहती थी... कई कहानियाँ सुनते थे जो अखबारों में छपती नहीं थी....इसलिए और भी डर लगता.... समझ सकती थी रिज़वान के माता पिता के दिल का हाल...खाना पीना सोना दुश्वार हो गया होगा....
कई लोगों ने उसे हरम में अकेले देखा होगा...शायद उसकी किस्मत अच्छी थी जो कुछ अच्छे लोगों ने उसे पुलिस के हवाले कर दिया..पुलिस ने रिज़वान के पिता को फौरन फोन किया और सही सलामत घर पहुँचा दिया..इस दौरान पाकिस्तानी काउंसिल जर्नल और सभी दोस्तों के प्यार और साथ ने ही उन्हें हौंसला दिया...
ऐसे कितने ही बच्चे हैं यहाँ जिनके मन को माता पिता समझ नहीं पाते....इसलिए बच्चे उनसे दूरी
बनाकर अपने मन की दुनिया में अकेले रहने लगते हैं..वहाँ का अकेलापन और भी तकलीफ़देह होता है. मातापिता अपने सपनों को पूरा करने के लिए बच्चों को साधन बनाते हैं जिसका बच्चों पर बहुत गहरा असर पड़ता है. बच्चे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं कि किसी भी तरह वे अपने माँ बाप को खुश कर सकें जब ऐसा नहीं कर पाते तो कई तरह के गलत रास्ते चुन लेते हैं ....
पिछले दिनों रश्मिजी ने इसी समस्या पर दो लेख -- 1 2  लिखे जिन्हें सिर्फ पढ़ लेने से समस्या का हल नहीं मिलेगा बल्कि उन पर अमल किया जाए तो बच्चों की समस्याएँ तो हल होगीं घर परिवार में एक नई खुशी का आलम भी होगा. 

सोमवार, 12 नवंबर 2007

"ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल"



कुछ दिन पहले ज्ञान जी को बचपन में खाए मंघाराम एण्ड संस के बिस्कुट याद आए, फिर चना ज़ोर गरम याद आ गया तो हमें भी माँ की मीठी डाँट खाने की एक घटना याद आ गई. बात उन दिनों की है जब हम लगभग 8-9 साल के रहे होंगे. किसी कारणवश हमें तहसील बल्लभगढ़ में कुछ साल नानी के पास रहना पड़ा जहाँ हिन्दी बोली जाती है. वापिस माँ के पास आने पर एक अजीब से डर के कारण चुप रहने लगे थे. माँ को आंटी कहते थे और जो वे कहतीं चुपचाप मान जाते. माँ बेटी में एक अजनबीपन का रिश्ता था जिसे माँ स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. हम भी अपने में ही मस्त रहते और माँ से थोडा दूर ही रहते. एक कारण शायद यह भी था कि पंजाबी भाषा समझ न आने पर हम और अधिक अंर्तमुखी हो गए थे.

बात नन्हें बचपन की थी जब डरने के बावजूद भी हम शरारत करने से चूकते नहीं . खाना खाने से पहले साबुन से हाथ-पैर धोने गए तो खेल में लग गए. साबुन को रगड़ते हुए उसकी सफेद झाग हाथों पर और उस पर तरह तरह की आकृतियाँ बनाने का मज़ा ही अलग आ रहा था. माँ ने देखा और रौबीली आवाज़ मे कहा – 'ऐ की कर रई ऐं..मु ते पैर मल , अच्छी तरा साफ कर.' हम माँ का मुँह देखने लगे. समझने की कोशिश कर रहे थे कि क्या करने को कहा जा रहा है. माँ फिर से थोड़ा और ऊँची आवाज़ मे बोली – "मेरा मूँ की देखनी ऐ... मै कह रईयाँ मूँ ते पैर मल." कड़कड़ती आवाज़ सुनते ही हमने आव देखा न ताव .. चुपचाप अपना पैर उठा कर मुँह पर रगड़ने की कोशिश करने लगे. पंजाबी भाषा हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती. बाल-बुद्धि समझ नहीं पा रही थी कि यह कैसा रौब है अपने आप को माँ साबित करने का.

बाद में माँ ने बताया कि पहले तो उन्हें बहुत हँसी आई थी. घर भर में इस बात को लेकर ठहाके लगाए गए थे. बाद मे वे बहुत संजीदा होकर सोचने पर लाचार हो गई थी कि पंजाबी न बोलने पर उन्हें गुस्सा आ रहा है या शायद आँटी सम्बोधन को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने सोचा कि मुझसे दोस्ती करके ही अपने नज़दीक ला सकती हैं. आज हम दोनों माँ बेटी बहुत अच्छे दोस्त हैं. पंजाबी सिखाते सिखाते माँ स्वयं ही हिन्दी बोलने लगीं हैं.