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मंगलवार, 27 अगस्त 2013

ब्लॉग के जन्मदिन पर खिड़की दरवाज़े बन्द !

'प्रेम ही सत्य है ' ब्लॉग के आज छह साल पूरे हुए. छह साल में 2190 दिन बनते हैं जिनमें सिर्फ 319 पोस्ट लिखीं गईं. बहुत कम है लेकिन फिर भी कोई गिला नहीं .... मन ने जब चाहा तब लिखा .... आज बस यूँ ही मन किया कि कुछ दिन के लिए प्रेम जो जीवन का अटल सत्य है , उसे दिल के कमरे में बन्द कर लूँ....  जाने कब तक ऐसा हो .... क्या पता कब तेज़ हवा का झोंका आए और दरवाज़े खोल दे फिलहाल अभी इस ब्लॉग के दरवाज़े बन्द करके... एक खिड़की खुली रखूँ ... हवा के ताज़े झोंको के लिए..... ! ! 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (समापन किश्त )

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ)  (नौ) 

सुधा की कहानी चाहे आज यहाँ खतम हो जाए लेकिन असल ज़िन्दगी में तो उसका हर दिन एक नई कहानी के साथ शुरु होता है और आगे भी होता रहेगा...देखा जाए तो हम सब की ज़िन्दगी का हर दिन नई कहानी के साथ शुरु होता है. पिछले दिनों हम भी बच्चों के साथ थे. मिलना जितना आनन्द देता है बिछुड़ना उतना ही दुख. सुधा का छोटा बेटा जो पिछले दिनों दिल्ली अकेले रह कर नौकरी की तलाश कर रहा था, धीरे धीरे 'डिप्रेशन' में जाने लगा था. वही नहीं उसके कई दोस्त बेरोज़गारी के शिकार तनाव में डूबते उतरते जी रहे थे या कहूँ कि जी रहे हैं. अच्छी पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी अगर नौजवानों को नौकरी नहीं मिलती तो उनकी ज़िन्दगी अच्छी बुरी किसी भी दिशा की ओर बढ़ेगी, इसके बारे में वे खुद भी नहीं जान पाते. 
सुधा के पति ने छोटे बेटे को अपनी ही कम्पनी में लगवा लिया और अब वह अपने माता-पिता के साथ खुश है. जितना खुश अपने लिए है उतना ही दुखी है अपने बेरोज़गार दोस्तों के लिए. अपने बेटे के मुँह से जब सुधा उसके दोस्तों की कहानियाँ सुनती है तो उसे अपना अतीत याद आ जाता है कि अपने देश में नौकरी की तलाश करते हुए धीरज कैसे हिम्मत हार बैठे थे. बूढ़े माँ बाप और पत्नी को अकेला छोड़ना आसान नहीं था लेकिन जीने के लिए जो साधन चाहिए होते हैं उसके लिए पैसे की ज़रूरत होती है. दोस्त , रिश्तेदार और समाज बोलने को बड़ा सा मुँह खोलकर ऊँची ऊँची बातें तो करेंगे लेकिन आगे बढ़ कर कोई मदद नहीं करेगा. 
भूखे पेट भजन न होए ..... पेट भरा हो तो उपदेश देना भी आ जाता है. उस वक्त भी सुधा ने ही निर्णय लिया था कि घर परिवार की खातिर धीरज को अगर विदेश में नौकरी मिलती है तो निश्चिंत होकर जाए. उस वक्त सुधा ने सोचा नहीं था कि जो समाज बड़ी बड़ी बातें करता है वही छोटी छोटी ओझी हरकतों से जीना हराम भी कर देगा. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अकेली औरत का मनोबल तोड़ने के लिए समाज के सफ़ेदपोश छिपकर वार करते हुए अचानक सामने आकर डराने लगते हैं. अपने आप को देशभक्त कहने वाले लोग नेताओं को कोसने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते. हाँ वक्त के मारे लोगों पर तानाकशी करने से बाज़ नहीं आएँगें. सुधा के मन में कई सवाल उठते हैं .... तीखे सवाल जिनका जवाब किसी के पास नहीं है. सबके पास अनगिनत उपदेशों का पिटारा है. 
एक नहीं हज़ारों सुधाएँ हैं हमारे देश में. जिन्हें बचपन से ही दबा दबा कर दब्बू बना दिया गया. पैदा होते ही उसे ऐसी शिक्षा दी गई कि पुरुष पिता, भाई , पति और पुत्र के रूप में उसका स्वामी है. धर्म से उसका ऐसा नाता जोड़ दिया जाता है कि कोई कदम उठाने से पहले वह सौ बार सोचती है कि अगर आवाज़ उठाने से पुरुष का कोई रूप उससे नाराज़ या दुखी हो गया तो वह पाप होगा और वह नरक में जाएगी. उनकी दासी बन कर ही जीना उसकी नियति है. 
सुधा के विचार में आजकल की पढ़ी लिखी आज़ाद ख्याल औरतें भी कहीं न कहीं उसी दासत्व की शिकार हैं तभी बार बार आज़ादी की बातें करतीं हैं. बूढ़े लाचार माता-पिता को बेसहारा छोड़कर अगर सुधा अपने बच्चों को लेकर मायके चली जाती तब भी समाज के ठेकेदार बुरा भला कहने से बाज़ न आते. सुधा की ज़ुबानी  "औरत की आज़ादी की बात करने वाले लोग मेरी जगह खड़े होकर सोचें कि पति के बूढ़े माँ बाप की सेवा करना उचित है या अपनी आज़ादी...उस आज़ादी का क्या करना जिसका आनन्द लेते हुए बूढ़े माता-पिता को बेसहारा और अकेला छोड़ दिया जाए चाहे उनकी तानाशाही ही क्यों न सहनी पड़े हैं वे अपने बड़े ही जिनको मान सम्मान देंगे तो आने वाली पीढ़ी भी वही सीखेगी." 
सुधा का विश्वास है कि बड़ों की सेवा का फल है जो आज उसके दोनों बच्चे अच्छे संस्कारों के धनी हैं. वे भी अपने माता-पिता की सेवा के लिए हर पल तत्पर हैं. यही नहीं बहू कोमल भी बेटी बनकर परिवार में रच बस गई है. सुधा के सेवाभाव से उसके भरे पूरे परिवार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है.  
इतने दिनों बाद समापन किश्त लिखते हुए मेरे मन में भी सुधा को लेकर हज़ारों सवाल थे जिनके सवाल पाने के लिए सुधा के मन को बहुत टटोला. बहुत कुछ समझा जाना.  लेकिन यहाँ रखकर उसका दिल दुखी नहीं करना चाहती. सुधा को एक औरत की जगह अगर इंसान के रूप में देखा जाए तो इंसान तो अनगिनत चाहतों का भंडार है. बहुत कुछ पाकर भी बहुत कुछ पाने की चाहत उसे चैन से जीने नहीं देती. सब कुछ पाकर भी उसे लगता है कि उसने बहुत कुछ खो दिया है जिसे पाने की चाहत इस जीवन में तो पूरी होगी नहीं. देखा जाए तो हम सब अपने अपने मन के गहरे और अथाह समुन्दर में उठने वाली अनगिनत लहरों की चाहतों में डूबते उतरते हैं...बस इसी डूबने उबरने में ज़िन्दगी तमाम हो जाएगी...!! 

यहाँ अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्से को अपनी ज़ुबानी कह कर  सुधा का दिल कुछ हलका हुआ फिर भी जानती हूँ उसके तन-मन की कभी न खतम होने वाली तिश्नगी को.......

मेरी पसन्द का एक गीत सुधा के नाम...... 



शनिवार, 22 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (9)

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ) 

सुधा की असल ज़िन्दगी में तो उसकी कहानी चलती रहेगी लगातार लेकिन यहाँ  उसी की इच्छा  के मुताबिक अगली किश्त अंतिम होगी..... ! 

सुधा जब शहर आई थी तो बड़ा बेटा आठ्वीं में और दूसरा बेटा सातवीं में था. गाँव से शहर आकर बसना आसान नहीं था. 19 साल माँ बाऊजी का साथ था और यहाँ अकेले बच्चों का पालन-पोषण करना था. गाँव से स्कूल दूर पड़ते थे. वक्त के अभाव में पढ़ाई पर बहुत असर होता, गाँव में ट्यूश्न पढ़ाने वालों का भी अभाव था. खैर गाँव से शहर आ गए नए घर में. धीरज जा चुके थे . 
सुधा ने एक छोटे से हवन के साथ ग़ृह-प्रवेश किया जिसमें धीरज की दोनों बहनें थीं और कुछ नए घर के आसपास के नए पड़ोसी थे. हवन के दौरान गाँव के दो आदमी किसी काम से नए घर में आए. सुधा से बात करके दरवाज़े से ही लौट गए. 
जाने क्या सूझी कि छोटी ननद सबके सामने ही सुधा को आड़े हाथों लेकर बुरा-भला कहने लगी. गाँव की 'यारियाँ' वहीं छोड़ कर आनी थीं. यहाँ ऐसे नहीं चलेगा. फिर ऐसा हुआ तो गला दबा देने तक की धमकी दे डाली.  सुधा समेत वहाँ बैठी सभी औरतें हैरान थीं. कुछ ही देर में सभी बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गईं. गाँव में बड़ी ननद घर के नज़दीक थीं तो यहाँ शहर में छोटी ननद का घर नज़दीक था. नए शहर में , नए पड़ोस में  सुधा के चरित्र को उछाल दिया गया था. हवन खत्म होते ही वे भी अपने घर चली गईं थी. छोटी ननद ने एक बार भी नहीं सोचा था कि नए माहौल में उसकी बात का क्या असर होगा. 
19-20 साल तक माँ-बाऊजी की सेवा करने के कारण सुधा गाँव के लिए एक आदर्श बहू का जीवंत उदाहरण थी. लोग उसका आदर करते. उसका छोटे से छोटा काम करना भी अपना सौभाग्य मानते. माँ बाऊजी या छोटे बेटे के लिए गाँव के डॉक्टर आधी रात को आने को तैयार रहते. गाँव के सरपंच भी किसी काम के लिए उसे मना न करते. गाँव की बनी बनाई इज़्ज़त के बारे में सोचे बिना छोटी ननद ने नए लोगों के सामने ऐसा कहा कि सालों तक उसका जीना दूभर हो गया. 
समाज हमसे ही बनता है और हम ही समाज को अच्छा बुरा रूप देते हैं. यही समाज अकेली औरत का जीना मुश्किल कर देता है. किसी पर-पुरुष से बात करते देख उसपर हज़ारों लाँछन लगा दिए जाते हैं. आज भी अपने देश के दूर दराज के गाँवों और छोटे शहरों की सोच का दायरा संकुचित ही है. हैरानी तो इस बात की होती है कि लोग आधुनिक लिबास और खान-पान को जितनी आसानी से अपने जीवन में उतार लेते हैं उतना ही मुश्किल होता है उनके लिए अपने दिल और दिमाग की सोच को विस्तार देना. 
सुधा  दो किशोर बेटों के साथ नए माहौल में रहने की पूरी कोशिश कर रही थी. फिर भी घर में कोई भी आता तो पड़ोस सन्देह भरी निगाहों से देखता. सुधा ने अपनी हिम्मत और अच्छे व्यवहार से जल्दी ही सबका दिल जीत लिया. पड़ोसियों की कही बातें अब भी नहीं भूलतीं उसे फिर भी अकेले रहने के कारण न चाहते हुए भी कई बातों को नज़रअन्दाज़ करके रहना पड़ता है. धीरज के साथ न होने के कारण सुधा कई बार ज़हर का घूँट पीकर रह जाती. 
नारी आज़ादी और उसके मान-सम्मान की बातें उसे झूठीं लगतीं. 27 सालों में सुधा ने जो झेला सब के पीछे कहीं न कहीं कोई औरत ही होती जो उसका जीना मुहाल कर देती. पुरुष तमाशबीन सा दिखता जो दूर से ही तमाशा देखते हुए बिना दखलअन्दाज़ी किए अपनी सत्ता सँभाले रखता. 
 नौवीं कक्षा में आते आते बड़े बेटे की शरारतें बढ़ती गईं. स्कूल जाने के नाम से ही वह बिदकने लगता. छोटा बेटा अभी भी बीमार था. स्कूल ने उसका साथ दिया और घर पर रह कर भी उसकी उपस्थिति दर्ज होती रहती. सुधा की पूरी कोशिश होती कि बच्चों में अच्छे संस्कार डाल सके. पढ़ाई का महत्व बताती क्यों कि उसे अपने घर में दसवीं के बाद पढ़ने का मौका नहीं मिला था. 
स्कूल के दिनों बड़े बेटे की शिकायतों से परेशान सुधा कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देती. बाद में चाहे रो लेती. धीरज छुट्टी आता तो बार बार कहने पर भी वह बच्चों को न डाँटता और न कभी उन पर हाथ उठाता. उसकी अपनी सोच थी. कुछ दिनों की छुट्टी में आकर बच्चों के सामने बुरा क्यों बनना. सारा जिम्मा सुधा पर ही डाल देता. खैर सुधा अकेली डटी थी दो बेटों को लेकर गृहस्थी सँभालते हुए दिन बीतते जा रहे थे. 
सुधा बेटों को एक ही बात कहती कि मर्यादा लाँघ कर कोई ऐसा काम न हो जाए कि उस पर या विदेश में बैठे पिता के नाम पर बट्टा लग जाए. बच्चे जो देखते उसी हिसाब से चलते हुए अच्छे नम्बरों में स्कूल पास किया. कॉलेज पहुँच गए. पिता के दूर होने पर भी बच्चों में कोई बुरी आदत पनपने नहीं पाई थी. कॉलेज जाते बच्चों का ऐसा चरित्र सुधा की लगन और मेहनत का फल था. उसके अपने अच्छे और मज़बूत चरित्र ने बेटों को संस्कारी बनाया. हालाँकि परिवार और रिश्तेदार सुधा के इस काम को भी महत्त्व न देते. धीरज और उसके अच्छे खानदान का उदाहरण देते कि इस खानदान में तो आजतक कोई बुरे चरित्र वाला हुआ ही नहीं. 
दोनों बेटों ने बहुत करीब से माँ के सेवाभाव और त्याग को देखा था. माँ उनके लिए भगवान से भी बढ़कर थी. जिस माँ को उसके पति ने बरसों तक अपने से अलग रखा उसके लिए उसी माँ ने बच्चों में भी अपने जैसा ही आदर भाव डाला. बच्चों के लिए माता-पिता भगवान से भी बढ़कर. दोनों बेटों के ऐसे भाव देख कर सुधा और धीरज खुशी से फूले न समाते. अच्छी संतान को सामने देखकर जीवन जैसे सफल हो गया. तपस्या पूर्ण हो गई. दोनों बेटे दिन रात अपने माता-पिता को सुख देने के उपाय खोजते हैं. 
इसी बीच सुधा ने अकेले ही एक और जिम्मेदारी का बोझ अकेले उठाया और बड़े बेटे के लिए सुन्दर सी बहू चुन लाई. ऊँची पढ़ाई के लिए विदेश जाते बेटे को अकेले भेजते वक्त उसे अपने पति की याद आई जिसने इतने सालों अकेले ही ज़िन्दगी बसर कर ली. वही इतिहास दुबारा न दोहराया जाए इसलिए उसने बेटे की शादी करके बहू के साथ विदा करने की ठान ली. धीरज मन ही मन अपनी पत्नी की तारीफ करता है जिसने इस बड़े काम को भी अकेले ही अंजाम दिया. बड़ी धूमधाम से बेटे की शादी की. इस शादी की एक खासियत यह थी कि अच्छी बहू पाने के लिए जात-पात की परवाह किए बिना सुधा ने अपनी जाति से बाहर की लड़की पसन्द की थी. सुधा और धीरज बहू के रूप में बेटी पाकर अपने को धन्य मानने लगे. छोटा बेटा भाभी में माँ और बहन पाकर सातवें आसमान पर उड़ रहा था. 
अब दोनों बेटों की बारी थी. वे अपनी माँ को पिता से मिलाने के लिए साधन जुटाने लगे कि कैसे दोनों एक साथ रह सकें. बरसों के बाद दोनों बेटों की कोशिशों से आज सुधा अपने पति के साथ खुश है. सुधा और धीरज साथ-साथ रहते हैं लेकिन जाने सुधा के दिल और दिमाग में क्या चलता रहता है कि रह रह कर उसे तनाव घेर लेता है. प्यारी सी बहू जो बेटी बनकर हर रोज़ सुधा से नेट पर बात करती है. दोनों बेटे बिना नागा उसे 'गुड मॉर्निंग' कह कर अपनी प्यारी मुस्कान भरी तस्वीर भेजते हैं.उन्हें देखकर बच्चों जैसी हँसी हँस देती है. कुछ देर उनके साथ बच्चा बन जाती है फिर कुछ वक्त के बाद अजीब से अवसाद से घिर जाती है. 
पूछती हूँ तो कहती है उसे खुद समझ नहीं आता कि वह क्यों बार बार तनावों के जाल में उलझ जाती है. 'अच्छा दीदी, आज यह गीत सुनो जो सुबह से बार बार सुन रही हूँ शायद आपको कोई जवाब मिल जाए' कह कर यूट्यूब का यह लिंक भेज देती है ---- 
"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ......."  



क्रमश: 

सोमवार, 17 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (8)

गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह),  (सात) 

सुधा को लगता है कि ज़िन्दगी की कुछ खास बातों का ज़िक्र रह गया है जिन्हें दर्ज करना ज़रूरी है. उसी के लिखे में कुछ संशोधन करके जस का तस यहाँ उतार रही हूँ ---- 

जब पहली बार मुझे अकेला छोड़ कर ये विदेश गए थे तो मन में बच्चे के जाने का गहरा दुख था. दूसरी ओर अपने माता-पिता के सहारे मुझे छोड़ गए थे या मुझ पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी, ऐसे में समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वक्त गुज़रेगा. अकेलेपन का दर्द और घर के हालात देख कर हँस कर विदा करना पड़ा. माता-पिता का स्वभाव भी समझ में आ रहा था परंतु जिन माता-पिता ने जन्म दिया है उनके प्रति फ़र्ज़ अदा करना हर बेटे का कर्म है सो मुझे माता-पिता के पास रहना स्वाभाविक ही था. अपने माता-पिता के सख्त स्वभाव के कारण अगर हम उन्हें नहीं छोड़ पाते तो फिर पति के माता-पिता को कैसे छोड़ा जाए. ऐसा करना मर्यादा से बाहर जाना होता, यही सोच कर पति के माता-पिता को अपना मान कर उनकी सेवा करना अपना फ़र्ज़ समझा.   माँ का स्वभाव नहीं बदला, मुझे अकेले देख कर भी उसे तरस नहीं आता, बात बात पर गुस्सा करती. घर के किसी अकेले कोने में रो लेती फिर उन्हें आकर प्यार करती, गलती हो या न हो उन्हें खुश करने के लिए उनके गले से लग जाती. 

वक्त बीतता गया तब तो गाँव में फोन भी नहीं होते थे सिर्फ खत ही लिखे जाते थे, 15-20 दिन में मुश्किल से एक खत आता. घर के गेट पर खड़े होकर डाकिए की बाट जोहती कि मेरा खत लेकर आएगा लेकिन वह तो आता मेरा खत न आता. मन बहुत उदास हो जाता. बाऊजी नरम दिल के थे सिर पर हाथ फेर कर कहते रोना नहीं बच्चू... कल तेरी चिट्ठी ज़रूर आएगी. उनका इतना कह देना ही मन को हौंसला दे जाता कि बाऊजी तो मेरे दिल का दर्द समझते हैं. 
दिल के दर्द को हलका करने के लिए उसे काग़ज़ पर उड़ेल देती -- 

"आस का दीपक जलते जलते सुबह से हो गई शाम 
अब तो थक कर बैठ गए हैं क्या होगा अंजाम 
इस दीपक की लौ है धीमी, शायद इसमें तेल नहीं है
विरह अग्नि में जलते रहेंगे होगा जब तक मेल नहीं 
कुदरत की करनी है ऐसी जिस्म से जान अलग न हो 
मन से दूर नहीं वो लेकिन तन की दूरी चाहे हो 
साया बनकर साथ चलें वो इन पलकों की छाँव में 
देंगे आकर वही सहारा काँटा चुभे जो पाँव में 
आस का दीपक जलेगा फिर भी चाहे खत्म हो जाए तेल 
दिल में प्यार अगर है सच्चा जल्दी होगा अपना मेल !"

जब भी मन उदास होता ऐसे ही मन के भाव लिख कर अपने आँसुओं को रोक लेती --- 

" उस माँ ने किया है न जाने क्यों मुझसे मज़ाक , 
अश्क देकर ज़िन्दगी से मुस्कान छीन ली 
चुलबुली बुलबुल थी मैं छोटी सी थी बगिया मेरी,
 हँसती खेलती ज़िन्दगी की हर कहानी छीन ली 
तन-मन-धन से की सेवा जो भी मुझसे बन सका, 
पर मिला क्या इस जहाँ में एक नफ़रत के सिवा 
जिससे भी की दोस्ती उसने ही धोखा दे दिया, 
आगे क्या हो ज़िन्दगी में ये भी कुछ पता नहीं 
अब तो दिल में ये तमन्ना है के वो मुझसे मिले,
हाथ देकर हाथ में प्यार से बस ये कहें 
मैं ही तेरी ज़िन्दगी हूँ मैं ही तेरा प्यार हूँ ,  
मायूस ना हो मेरी जाँ बस मैं ही तेरा यार हूँ 
मैं तुझे दूँगा सहारा दुख में घबराना नहीं, 
तेरी बगिया में खुशी है कोई वीराना नहीं 
मुस्कुराहट तेरी तेरे होंठो पर ले आऊँगा, 
बस मेरी जाँ अब ना घबराना मैं जल्दी आऊँगा !! " 

एक साल के लम्बे इंतज़ार के बाद धीरज घर आते. खुशी मिलती लेकिन घर का बोझिल माहौल न बदलता. माँ बाऊजी का स्वभाव उन दिनों और भी तीखा हो जाता. दोनों अपनी अपनी ज़रूरतों की बात करते तो धीरज घर से बाहर भागते. दोनों बच्चों के जन्म के बाद से ही बाऊजी ने बिस्तर पकड़ लिया था. दिन ब दिन चलना-फिरना, उठना-बैठना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था. इनकी छुट्टियाँ पंख लगा उड़ जातीं और लगता कि अभी कल ही तो आए थे और फिर वापिसी की तैयारी शुरु हो जाती. ये वापिस लौट जाते और मैं फिर पुरानी दिनचर्या में जुट जाती. छोटा बेटा बीमार उधर से बुज़ुर्ग सास-ससुर. लगता था कि दो नहीं मेरे चार बच्चे हैं. दो छोटे-छोटे बच्चे और दो बुज़ुर्ग जो बच्चों की तरह ही थे. 

गाँव से दूर बीमार बेटे को लेकर जाने किस किस शहर घूमती उसके इलाज के लिए. दुनिया का कोई इलाज नहीं छोड़ा. बीमार बेटे को लेकर निकलती तो गाँव की औरतें तरह तरह की बातें बनातीं. 'पता नहीं कैसा इलाज है हर आए दिन शहर चल देती है' कोई कहता, 'पति घर पर नहीं है और ये बूढ़े सास-ससुर को छोड़ कर घर से निकल जाती है' 'बेशर्म कहीं की, अकेले घर से बाहर निकलते हुए शर्म भी नहीं आती' एक औरत ने तो रास्ता रोककर एक बार मुँह पर ही कह दिया, 'सुधा, तेरी तो मौज है, घर वाले घर नहीं हमें किसी का डर नहीं' सुन कर सन्न रह गई. बच्चे की हालत दिखाकर एक बद्दुआ सी निकली मुँह से कि बीमार बच्चे के साथ ऐसे अकेले घूमना सब को नसीब हो. अकेली औरत घर परिवार बच्चे और बूढ़े सँभाल रही है चाहे कैसे भी उसकी तारीफ़ कोई नहीं कर सकता तो किसी को निन्दा करने का भी हक नहीं. माँ थी मैं जो भी जहाँ भी इलाज के लिए जाने को कहता चल देती. एक माँ के लिए बच्चे की सेहत सबसे अहम बात होती है. 

कहते हैं माता-पिता 10 बच्चों को पाल सकते हैं लेकिन 10 बच्चे माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकते क्योंकि सबके अपने अपने परिवार होते हैं. कोई अपने छोटे घर होने का रोना रोता है तो कोई पैसा न होने का. सभी के अपने अपने कारण होते हैं. कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ रखना भी चाहें तो वहाँ के नियम-कानून ऐसा करने से रोक देते. बात सिर्फ इतनी सी है कि जो आस-पास रहते हैं वे ही अगर वक्त वक्त पर आकर माता-पिता की सुध लें तो सेवा करने वाले बेटे-बहू को हौंसला मिल जाता है. 

मेरे ससुराल का हाल कुछ उलटा था. माँ-बाऊजी का जब भी दिल उदास होता तो खत लिख कर दिल्ली से दोनों बेटों को बुला लेते. वे भी औपचारिकता निभाते हुए आते, एक दो रात रह कर घर का माहौल और भी बिगाड़ कर चले जाते. मेरी छोटी-छोटी गलती को पकड़ कर आरोप लगा दिया जाता कि मुझे बुज़ुर्गों का ख्याल रखना नहीं आता. यही नहीं माँ-बाऊजी को मेरे खिलाफ़ भड़का कर घर के माहौल को और भी बोझिल बना कर चल देना सब को खुश कर देता. दूसरी तरफ विदेश से  बेटा-बहू आते तो घर की रौनक ही कुछ और हो जाती. मस्ती, हँसी और खुशहाली से दो चार दिन भी बहुत अनमोल लगते. उनका कुछ दिन का रहना कई कई दिनों तक माँ बाऊजी के चेहरों पर यादों की मुस्कान बिखेरे रखता जिससे मेरा जीना आसान हो जाता. मेरे दोनों बच्चे भी खुश होकर उनके आने का इंतज़ार करते और उनके जाने पर उदास हो जाते.

बीमार बच्चे के साथ साथ बाऊजी भी बिस्तर पकड़ चुके थे. अचानक माँ को दिल का दौरा पड़ गया. फौरन उन्हें शहर के अस्पताल ले गए जहाँ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि घर पर ही उनकी सेवा की जाए. उन दिनों नवरात्रे चल रहे थे, मन ही मन माँ से विनती करने लगी, 'हे माँ, अगर मेरे मन में आपके प्रति सच्ची लगन  है तो मेरी सासू माँ की ज़िन्दगी बख्श दो ताकि मेरे ऊपर कलंक न लगे कि मैंने उनकी सेवा नहीं की. चाहती हूँ इनका बेटा इनके पास हो, कोई ये न कह सके कि चार बेटों के होते हुए एक भी पास नहीं था. इस परिवार की और मेरी इज़्ज़त आपके हाथ है देवी माँ. जैसे तुम मेरी माँ हो इस माँ को भी मैं ऐसे ही पूजती हूँ. अगर ये स्वस्थ हो जाएँ तो इनके चरण धोकर चरणामृत पीऊँगी. उस जगत माता ने मेरी पुकार सुन ली और माँ का स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधरने लगा. मन को हौंसला मिला लेकिन फिर भी एक बात मन को कचोटती रहती कि सेवा करने के लिए कोई भी बेटा उनके पास नहीं है. 

धीरज विदेश में थे फिर भी पैसे की तंगी रहती ही थी. बच्चे स्कूल जाने लगे थे. दो बुज़ुर्ग और दो बच्चे स्कूल जाने वाले उनमें से एक बच्चा बीमार जिसकी देखरेख के लिए पैसे की ज़रूरत लगी रहती है. सोचा कुछ करूँ ताकि घर खर्च में कुछ मदद हो सके. कहते हैं हाथ का हुनर काम आता है. घर पर ही गाँव की लड़कियों को पेटिंग सिखाना शुरु कर दिया. हाथ का हुनर काम आया और दो पैसे भी बनने लगे. सब ठीक होने लगा कि माँ फिर से बीमार पड़ गईं. उनकी सेवा के लिए पेटिंग सिखाना बन्द करना पड़ा. माँ की सेवा , बिस्तर पर पड़े बाऊजी की देखभाल उस पर बीमार बेटे का ख्याल इतना व्यस्त कर देता कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं होता. माँ बाऊजी लगभग दोनों ही मेरे लिए बच्चों जैसे थे. माँ ने कभी पहले भी काम नहीं किया था अब तो चारपाई पर बैठे बैठे साग सब्ज़ी काट छील देती तो वही बहुत लगता. बाऊजी के सारे काम बिस्तर पर ही होते. इतना कुछ होते हुए भी कुछ करने की चाह से थकावट दूर हो जाती. मनियारी का सामान रख लिया जब भी कोई आएगा तो बस सामान देना है उस वक्त. इन्हीं छोटे छोटे कामों से मन बहल जाता और दो पैसे भी जुड़ जाते.

सब कहते हैं लड़की अपने पाँवों पर खड़ी हो तभी उसकी शादी करनी चाहिए. नौकरी या लघु व्यवसाय किसी भी काम में जाना मुश्किल नहीं लेकिन अगर ऐसे परिवार में शादी हो जाए जहाँ पति विदेश में हो और उसके बुज़ुर्ग माता-पिता और दो बच्चे जिनमें से एक बच्चा बीमार हो तो क्या किया जाए. फिर भी औरत इन हालातों से जूझती हुई जीवन बसर करती रहती है. मैं भी जी रही थी जीवन की हर मुश्किल को अकेले झेलने की आदत सी हो गई थी. अचानक माँ को फिर से दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया. उन दिनों धीरज छुट्टी पर आए हुए थे. माँ को अपने हाथों विदा करके भारी मन से ये फिर चले गए. 

किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता क्योंकि एक बार फिर घर से शुरु किया काम बन्द करना पड़ा. बाऊजी अब पूरी तरह से बिस्तर पर थे. घर से बाहर निकलने का तो सवाल ही नहीं था. बाऊजी को सूसू पॉटी और नहाने के बाद कपड़ बदलने तक का जिम्मा मेरा था. बहू नहीं उनकी बेटी बन कर सेवा करती थी. बच्चे की तरह गोद में उठा कर आँगन में जहाँ भी धूप होती वहीं चारपाई पर बिठा देती. बुज़ुर्गों की सेवा करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन औरत होने के नाते कई  बार मुश्किल लगता. सोचती काश कि धीरज मेरे साथ होते या कोई बेटा महीने में एक बार कुछ दिन के लिए ही आ जाता. कभी कभी बाऊजी अपनी लाचारी पर रोने लगते. उन्हें देख कर मुझे रोना आता कि बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी कैसी होती है. धीरे धीरे अपने ही शरीर से लाचार हो जाते हैं. चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते. 

गाँव वाले सब देखते और मेरी मिसाल देते कि बहू हो तो ऐसी लेकिन घर परिवार के लोग उतना ही मुझसे चिढ़ते. मुझ पर आरोप लगाते कि दो रोटी खिलाना ही सेवा नहीं है. माँ के देहांत के बाद बाऊजी एक साल भी न रह पाए और वे भी हमें छोड़ कर चले गए. 84 साल की माँ और 92 साल के बाऊजी के जाने के बाद भी यही सुनने को मिलता कि सुधा माँ बाऊजी को वक्त पर रोटी नहीं देती थी इसलिए वे जल्दी चल बसे. मेरे मासूम बच्चे मेरे सेवाभाव को अपनी आँखों से देखते और समझते. कई बार बच्चों ने भी मेरी मदद करते हुए अपने दादाजी की पॉटी रूई से साफ की. उन्हें कपड़े पहनने में मदद की. 

माँ बाऊजी के गुज़रने के बाद 3 साल तक गाँव में ही रही फिर बच्चों की बड़ी पढ़ाई के लिए शहर आना पड़ा. एक छुट्टी में आकर धीरज ने शहर में घर खरीदा और हम गाँव से शहर आ गए. बच्चे अभी स्कूल में ही थे लेकिन अब एक नई जिम्मेदारी सिर पर थी. दो बेटों को अच्छे संस्कार देने का काम भी मुझ पर आ गया था. अब मैनें बच्चों को माँ की ममता और पिता का अनुशासन देने के लिए कमर कस ली थी अकेले ही." 

क्रमश: 





सोमवार, 10 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (7)

चित्र गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6) 

 मन ही मन माँ  शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में...........
फिर से सुधा की ज़िन्दगी में बहार आ गई जब धीरज कुवैत से 45 दिन की छुट्टी पर घर आया...खट्टे मीठे पलों में अमृत फल मिलने की ख़बर से ही दोनों खुशी से झूम उठे. धीरज में अभी भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपने माता-पिता के आगे कुछ कह पाता. दिल्ली वाले भैया समझ रहे थे इस बात को इसलिए उन्होंने ही फैंसला लिया था कि बच्चा होने तक सुधा दिल्ली में ही रहेगी. धीरज के 45 दिन फुर्र से उड़ गए.. धीरज को एयरपोर्ट छोड़ने के बाद वहीं से ही धीरज के बड़े भैया सुधा को अपने साथ घर ले आए. उन दिनों की सेवा को सुधा कभी नहीं भुला पाएगी जिनके कारण उसे  अपने दूसरे बेटे का प्यारा सा चेहरा देखना नसीब हुआ था. बड़े भैया भाभी की सेवा और देखरेख को याद करके आज भी सुधा की आँखें भीग जाती हैं. 
अतीत को वह आज भी नहीं भुला पाती. पहले बच्चे के वक्त पति के साथ होने पर भी उसे बचा न पाए थे दोनों. यह घाव बार बार हरा हो जाता है. उसे गुस्सा आता है अपने माता-पिता पर जिनके लिए लड़की बोझ होती है जिसे वे जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं. अपना बोझ उतार कर दूसरे परिवार पर डाल देते हैं. दूसरा परिवार चाहे तो बोझ समझे या कुछ आज़ादी देकर उससे उम्र भर की ग़ुलामी करवाए. पर कटे पंछी की तरह मायके से निकल कर ससुराल में आ जाती है.  पिंजरा बदल जाता है बस. 
लाख बुरा करे कोई, अगर उसकी एक अच्छाई को भी याद किया जाए तो रिश्ते ज़िन्दा रहते हैं. सुधा आज भी यही सोच कर उनके घर परिवार के लिए खुशहाली की दुआएँ माँगती है. चाँद जैसा बेटा पाकर सुधा धन्य हो गई. सब दुख भुला कर फिर से वह चहकने लगी. धीरज और सुधा ने बेटे का नाम सौरभ रखा जिसकी महक से घर परिवार की बगिया महक उठी. सास ससुर भी बहुत खुश थे प्यारे से पोते को देख देख कर खुश होते. सौरभ की किलकारियाँ सुन सुनकर सुधा सास-ससुर की सेवा करती धीरज का इंतज़ार कर रही थी. धीरज भी अपने बेटे को देखने के लिए बेचैन था. सुधा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. पहली बार धीरज अपने दस महीने के बेटे को देखेंगे तो कैसा लगेगा सोच कर ही उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती. धीरज के मन की बात तो वह ही जाने लेकिन सुधा मिलन के मीठे सपनों में खोई हुई थी. 
धीरज का भी धीरज छूटा जा रहा था. जल्दी ही घर पहुँच कर वह अपने बेटे को अपनी गोद में लेना चाहता था. वह पल भी आ गया जब उसका दस महीने का बेटा उसकी गोद में था. सौरभ अपनी बड़ी बड़ी गोल आँखों से पिता को देखने लगा. पहली बार गोद में आकर कुछ देर के लिए सहम गया लेकिन पिता की गीली आँखों में अपने लिए प्यार देख कर मुस्कुराने लगा. कभी उनकी कमीज़ की जेब में हाथ डालता तो कभी मूँछ को पकड़ने की कोशिश करता. 
मन ही मन सुधा डर रही थी कि कहीं उसकी खुशहाल ज़िन्दगी को किसी की नज़र न लग जाए. जिस बात से डरते हैं वही होता है. धीरज के वापिस लौटने का वक्त नज़दीक आ रहा था कि तभी उसके पिता सीढ़ियाँ उतरते हुए ऐसे गिरे कि फिर बिस्तर से उठ न पाए. कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. उनके इलाज के लिए धीरज को रुकना पड़ा. 
हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है कि माता-पिता के साथ या तो बड़ा बेटा रहता है या सबसे छोटा. घर में सबसे छोटा होने के कारण धीरज अपने माता-पिता के साथ ही रहा था. उसे घर से दूर कभी नहीं भेजा गया था. माता-पिता हर ज़रूरत के लिए उसकी तरफ देखते. पिता को ऐसी हालत में छोड़ कर जाने की हिम्मत धीरज में नहीं थी.   
अपने परिवार के साथ रह कर नौकरी या कुछ अपना काम करने की सोच कर धीरज हर दिन कुछ नया सोचता रहता. एक बार फिर विदेश की जमा पूँजी पर घर गृहस्थी चलने लगी. परिवार के जो लोग धीरज को वापिस आकर कुछ काम करने की सलाह देते थे अब उससे नज़रें चुराने लगे. परिवार के किसी भी सदस्य ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ न रखा. सुधा फिर से माँ बनने वाली थी. एक बार फिर धीरज साथ था लेकिन फिर भी माता-पिता के खिलाफ जाकर सुधा को डॉक्टर के पास ले जाने की हिम्मत नहीं थी. 
सुधा को हाई ब्लडप्रेशर और शूगर के साथ साथ तनाव की भी शिकायत रहती. इस बीच अगर धीरज कुछ सहायता करने की कोशिश भी करता तो माँ का पारा सातवें आसमान को छूने लगता. 'जोरू का गुलाम..घुटने से जुड कर बैठ जा.. हमने तो जैसे बच्चे पैदा ही नहीं किए थे'...और जाने क्या क्या कह कर हंगामा करती कि सारा गाँव इक्ट्ठा हो जाता. माँ के ऐसे बर्ताव को देख कर धीरज कई बार घर छोड़ कर बड़ी बहन के घर जा बैठता. शायद इसी डर से चाह कर भी वह कुछ नहीं कर पाता था. 
माता-पिता का ऐसा व्यवहार बच्चों के मन से उनके लिए प्यार और आदर को कम ही नहीं करता बल्कि वक्त आने पर बच्चे माता-पिता को दुत्कारने से भी बाज़ नहीं आते. अक्सर ऐसा देखा गया है कि माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा दख़लअन्दाज़ी को बच्चे एक सीमा तक सहने के बाद अपनी सारी हदें पार कर जाते हैं. शायद इसी कारण आए दिन हमें ऐसी ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं कि बच्चे अपने माता-पिता का ख्याल नहीं रखते या उन्हें अकेला छोड़ कर दूर जा बसते हैं. 
धीरज और सुधा का पालन-पोषण ऐसे माहौल में हुआ था जहाँ माता-पिता के आगे मुँह खोलने का तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. गलत होने पर भी वे बड़े हैं ऐसा सोच कर उनके मान-सम्मान में कोई कमी न होती. पहले बच्चे के वक्त जैसा हुआ था वैसा ही इस बार भी हो रहा था लेकिन इस बार नौवें महीने में अस्पताल जाने का इंतज़ाम कर लिया गया था. सुधा की हालत अब भी बेहद नाज़ुक थी. डॉक्टरों ने फौरन सिज़ेरियन करके सुधा और बच्चे की जान बचाई. 
मुझे हैरानी इस बात की होती है कि लड़का-लड़की शादी के लिए तो तैयार हो जाते हैं लेकिन शादीशुदा ज़िन्दगी और बच्चों को पैदा करने की जानकारी नाममात्र को होती है. शादी के लिए तैयार जोड़े के सामने सेक्स की बात करने की भी मनाही होती है. आजकल भी ऐसे युवा लड़के-लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें शादी से पहले बिल्कुल तैयार नहीं किया जाता. लड़की को तो अपने पैरों पर खड़ा करने तक की सोच को नकार दिया जाता है. लड़के को भी इस तरह से तैयार किया जाता है जो माता-पिता की बताई राह पर ही चलता है, जिसे एक पल के लिए भी महसूस नहीं होता कि एक लड़की उसी के सहारे अपना सब कुछ छोड़कर एक नए माहौल में हमेशा के लिए आ बसती है. 
सुधा और धीरज दूसरे बेटे को लेकर अस्पताल से घर लौटते हैं जिसकी तबियत नाज़ुक है. गर्भवती औरत और साथ ही गर्भ में पल रहे शिशु की अगर सही देखरेख न हो तो ऐसा ही होता है जैसे सुधा और उसके नवजात बच्चे के साथ हुआ. आखिरी वक्त तक घर के कामकाज करना अगर होने वाली माँ और बच्चे की सेहत के लिए सही हैं तो एक सीमा के बाद उसके लिए आराम, पौष्टिक आहार और ताकत की दवाइयों के साथ साथ नियमित चैकअप भी ज़रूरी है. उससे भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है गर्भवती को खुश रखना. यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था. 
मुझे तो लगता है कि हमारे देश में हर दूसरी औरत सुधा ही है जिसके साथ बार-बार ऐसा होता  है. 
छोटे से मासूम बच्चे की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया गया. दो महीने का होते-होते वह कई बार बीमार हुआ. उधर धीरज के हालात को देखते हुए एक बार फिर सागर भैया ने उसे कुवैत वापिस नौकरी पर लगवा लिया था. धीरज की सारी जमा-पूँजी खतम हो चुकी थी और एक साल में कई बार नौकरी के आवेदन और अपना काम शुरु करने के सारे सपने चूर-चूर हो चुके थे. पत्नी और दो बच्चों के साथ-साथ बूढ़े माता-पिता भी थे जिनके लिए उसे किसी न किसी काम में लगना ही था. भाई-बहन माता-पिता के लिए कुछ भी सहायता करते लेकिन उसके परिवार के लिए उसे खुद ही अपने पैरों पर खड़े होना था. 
कुवैत से नौकरी का बुलावा आते ही धीरज ने वापिस लौटने की ठान ली. सुधा का मन डूब रहा था लेकिन धीरज का मनोबल ऊँचा करने में उसने कोई कसर न छोड़ी. पति को खुशी खुशी विदा किया यह भरोसा देकर कि वह उसे शिकायत का कोई मौका नहीं देगी. धीरज वापिस लौट गया था और सुधा रह गई थी फिर से अकेली. धीरज के माता-पिता और दो बच्चों के साथ. घर-गृहस्थी के बोझ को उसने कभी बोझ माना ही नहीं था. उसकी तो एक ही इच्छा रहती कि जिस तरह वह धीरज को तन-मन से प्रेम करती है , वह भी उसे वैसा ही प्रेम करे. इसी एक इच्छा को पूरी करने की  चाहत में उसने अपना जीवन होम कर दिया. 

क्रमश: 


बुधवार, 5 जून 2013

रिक्शावाला और उसकी लाड़ली


मोबाइल से खींची गईं तस्वीरें 
पिछले साल के कुछ यादगार पल..2012 मार्च की बात है, देर रात निकले मैट्रो स्टेशन के नीचे के स्टोर से दूध और मक्खन खरीदने के लिए... पैदल का रास्ता होने पर भी गली के कुत्तों से डर के कारण रिक्शा पर जाने की सोची वैसे रिक्शे पर हम कम ही बैठते हैं. 
इस बात का ज़िक्र करते हुए एक पुरानी घटना भी याद आ गई जो भुलाए नहीं भूलती,  उसके बाद तो सालों तक रिक्शा पर नहीं बैठे. बड़ा बेटा 9-10 साल का रहा होगा. हर बार की तरह जून जुलाई में गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में थे. ईस्ट ऑफ कैलाश से संत नगर जाने के लिए रिक्शा लिया. दोनों बेटों के साथ मैं भी रिक्शे पर बैठ गई. संत नगर के नज़दीक आते ही कुछ दूरी तक की चढ़ाई थी जिस पर रिक्शा चालक नीचे उतर कर ज़ोर लगा कर रिक्शा खींचते हुए आगे बढ़ने लगा. अचानक बेटे ने उसे रोक दिया. पहले उसे अपनी पानी की बोतल दी और फिर मुझे नीचे उतरने के लिए कहा, हालाँकि उस वक्त हम आज की तरह वज़नदार नहीं थे. बेटे खुद भी  उतरने लगे तो रिक्शेवाले ने ट्रैफिक से डरते हुए बच्चों को नहीं उतरने दिया. हैरान परेशान रिक्शा वाले ने जल्दी ही चढ़ाई पार करके मुझे भी बैठने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया.
फिलहाल द्वारका की सोसाइटी के बाहर ऑटोरिक्शा से ज़्यादा साइकिल रिक्शा दिखते हैं. किसी भी काम के लिए रिक्शे पर जाना वहाँ सबसे सुविधाजनक है. गेट के बाहर खड़े  रिक्शे पर हम बैठे ही थे कि रिक्शावाला बोल उठा, 'मेम साहब, बच्ची को आइसक्रीम खिलाने में वक्त लग जाएगा' हमें कोई जल्दी नहीं थी इसलिए हमारी हामी भरते ही वह इत्मीनान से बच्ची को आइसक्रीम खिलाने लगा. बीच बीच में उसका मुँह साफ करता हुआ प्यार से बातें भी करता जाता. 
बच्ची को गोद में लेकर जिस प्यार से वह उसे आइसक्रीम खिला रहा था किसी भी तरह वह माँ से कम ध्यान रखने वाला नहीं लग रहा था. हमसे रहा न गया तो पूछ ही लिया कि बच्ची की माँ कहाँ है. 'इसकी माँ शाम को काम करती है घरों में और मैं इसे सँभालता हूँ साथ-साथ नज़दीक ही रिक्शा भी चलाता हूँ, दो चार पैसे जोड़ लेंगे तो बेटी को कुछ पढ़ा लिखा सकेंगे.'  उसकी बात सुनकर मन खुश हो गया. आशा की किरण जाग गई कि बेटियों की कदर करने वाले ऐसे माता-पिता भी हैं जो अपनी बेटियों की  सुरक्षा पर ध्यान देते हैं, उनके सुनहरे भविष्य के सपने भी सँजोते हैं. 
आइसक्रीम खिलाने के बाद उसने लोहे की टोकरी में कपड़े को सही से बिछा कर बेटी को उसमें बड़े प्यार और ध्यान से बिठा दिया. बच्ची भी चुपचाप बैठ गई , शायद उसे आदत हो गई थी लेकिन मुझे डर लग रहा था कि कहीं उसे लोहे की टोकरी चुभ न जाए. सड़क पर लगे स्पीड ब्रेकर के कारण उछल कर नीचे न गिर जाए. बार-बार मेरे ध्यान रखने पर वह हँस दिया. 'कुछ नहीं होगा मेमसाहब' कह कर रिक्शा चलाते हुए बच्ची से बस यूँ ही बात करता जाता. हालाँकि बच्ची सयानी बन कर बैठी थी. 
चलने से पहले उसके साथ तस्वीर खिंचाने की इजाज़त माँगी तो वह बहुत खुश हो गया. बेटी आइसक्रीम खाकर टोकरी में तसल्ली से बैठी थी और पिता ने बहुत बड़ी और प्यारी मुस्कान के साथ तस्वीर खिंचवाई. 


रविवार, 2 जून 2013

माथे पर सूरज

माथे पर सूरज का टीका सजा कर
रेगिस्तानी आंचल से मुंह को छिपा कर
मुस्काई सब दिशाओं को गरमा कर
अपनी ओर झुके आकाश को भरमा कर
तपते रेतीले टीलों के उभार को छिपा कर
तपती धरती सोई न अपनी पीड़ा दिखा कर

तारों से चमकती मांग निशा की
चदां संग में लाया ।
तपती धरती को अपनी
शीतलता से सहलाया ।
रात की रानी ने धरती का
तन जो महकाया
अंगड़ाई लेकर हरसिंगार का आचंल ढलकाया ।।

मनमोहिनी माया का मनमोहक रूप 
जो मैंने देखा ।
मदमस्त पवन सी संग मैं खेलूं उसके
मेरा भी मन ललचाया ।

पर देखूं 
बिन बुलाए मेहमान सी गर्म हवा ने आकर
पांव पसारे अपना प्रभुत्व जमा कर ।
उगंली थामे धूल महीन जो आई 
उसने भी रौब जमाया सारे घर में छाकर ।
अपने होने का एहसास खूब जताया
मुस्काई घर के हर कोने कोने जा कर ।

तेज़ रेतीली हवाएं छेड़ाख़ानी करती 
दरवाज़ा खटका कर ।
धीमे से आती नींद की रानी 
छुप जाए घबरा कर ।
पांव पटकती गरमी ठण्डक पा जाती 
मुझको बेचैनी में पाकर ।।

गुरुवार, 30 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (6)

चित्र गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

अच्छी तरह से जानती हूँ कि रश्मि रविजा की कहानी लिखने का कोई सानी नहीं, सिर्फ कहानी ही नहीं उनकी हर विधा का लेखन प्रभावित करता है. जया की कहानी भुलाए नहीं भूलती लेकिन सुधा से वादाख़िलाफ़ी करना उसकी तौहीन होती. इसलिए इतने लंबे अंतराल के बाद भी सुधा की कहानी लेकर आना कोई आसान नहीं था जबकि पाठक उस ब्लॉग का रास्ता ही भूल चुके होते हैं जो लम्बे अरसे तक बन्द रहता है. कहीं पढ़ा भी है कि "A post without comments is like that abandoned house down the end of your street" ऐसे में सुधा की मुस्कान मेरे लिए अनमोल उपहार है.

सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 
मझली जेठानी और बड़ी ननद के समझाने पर माताजी ने सुधा को अस्पताल ले जाने की इजाज़त दे दी. आनन-फानन उसे सरकारी अस्पताल ले गए जहाँ आम सुविधाओं का तो अभाव होती ही है , रोगी को इंसान भी नहीं समझा जाता. एक स्ट्रेचर पर लेटी सुधा दर्द से तड़पती रही लेकिन ग्लूकोस चढ़ाने के बाद कोई भी उसका हाल पूछने न आया. दर्द में पड़ी सुधा का बच्चे की साँसें पल पल धीमी होती जा रही थीं लेकिन डॉक्टर उसके साथ आए परिवार को कोसने के अलाव कुछ नहीं कर रहे थे. 11 महीने बाद तो माँ और बच्चे की सलामती के लिए फौरन सिज़ेरियन होना चाहिए था. सुधा उन दिनों को याद करके ही सिहर उठती है कुछ कहना उसके मुश्किल था. स्वाभाविक ही था क्यों कि   बच्चा पैदा हुआ जिसने बाहर आकर जीने के लिए कुछ पल संघर्ष भी किया लेकिन शायद माँ के गर्भ में इतना दर्द झेल चुका था कि अब उसमें ज़िन्दा रहने की ताकत ही खत्म हो चुकी थी. माँ को कभी न भूलने वाला दर्द देकर वह सदा के लिए इस बेदर्द दुनिया को छोड़कर चला गया. 
सुधा का दर्द 11 महीनों के उस दर्द से कहीं ज़्यादा गहरा था. दिखना अभी भी बन्द था. बढ़े हुए रक्तचाप के कारण आँखों के आगे का अंधेरा अभी वैसा ही बना हुआ था लेकिन ससुराल वालों को उसकी रत्तीभर भी चिंता नहीं थी. तीसरे दिन ही उसे अस्पताल से छुट्टी दिला कर घर ले जाने के लिए डॉक्टरों से कहा जाने लगा. उस वक्त सुधा की माँ का सब्र का बाँध टूट गया. 'मार दो , उसी  यहीं गला घोट कर मार दो' कह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी. काश ऐसा उसने उन 11 महीनों में किया होता जब सुधा को डॉक्टर की सख़्त ज़रूरत थी. सुधा के ससुरालवाले चुपचाप घर वापिस लौट गए. 
बार बार एक ही ख्याल मन में आता है कि लड़की के माता-पिता अपने आप को इतना असहाय और लाचार क्यों बना लेते हैं. एक बेटी अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर सदा के लिए अजनबी घर में आती है अपना नाम तक बदल लेती है. अजनबी जीवन-साथी को ही नहीं उसके पूरे परिवार को अपना मान लेती है. घर-गृहस्थी के अनगिनत काम, वंश बढ़ाने के अलावा पति और उसके परिवार के लिए अपने माता-पिता तक को भूल जाती है. शायद ससुराल वाले डरते हैं कि कहीं उनकी बेगार बहू उनके हाथ से निकल न जाए. इसी डर के कारण वे बहू से जुड़े हर रिश्ते को उससे दूर रखने की कोशिश करते हैं. सुधा के साथ भी कुछ ऐसा ही था. 
22 दिन अस्पताल रहने के बाद सुधा घर लौटी थी लेकिन किसी ने भी उसका हाल पूछना तो दूर एक नज़र देखा भी नहीं. घर का आख़िरी कमरा उसका अपना था जिसे वह खुद ही साफ करती. उस दिन भी उसने ही कमरा साफ़ किया और सिसकियाँ लेती हुई लेट गई. एक अजीब सा खालीपन था जिसे भरने के लिए उसके आँसू भी कम पड़ रहे थे. उधर सास थी कि उसे रोते देख सहानुभूति देने की बजाए और भी आग-बबूला हो जाती. 'अब बस कर रोना-धोना, बहुत  हुआ.... हमारे बच्चे भी जाया हुए पर ऐसी नौटंकी कभी नहीं की....ससुर के सामने रो-रो कर नाटक करते शर्म नहीं आती......'  इस तरह के कई नश्तर सुधा को चीर जाते लेकिन एक आह न निकलती. 
'अब खाना तुम्हारे मायके से आएगा क्या.....' कहती हुई सास अपने कमरे से बाहर निकली. ससुरजी की हिम्मत नहीं थी अपनी पत्नी के सामने कुछ बोलने की फिर भी धीरे से बोले, 'बच्चे , उठ कर बस एक दाल और दो दो चपातियाँ ही बना ले.' बुखार में तपती हुई सुधा चूल्हा सुलगाने के लिए रसोईघर आई. बड़ी मुश्किल से वह खाना बना पाई. पड़ोसन शीला चाची ने अपनी छत से ही उसे खाना बनाते हुए देख लिया था. रसोईघर आकर उसे गले से लगा कर उसके दुख को दूर करने की कोशिश में सुधा के तपते बदन ने उसे बेचैन कर दिया. सुधा की सास को वहीं से आवाज़ देती हुए बोली , ' क्या भाभी .. बिटिया तो बुखार में तप रही है और तुम उससे रोटियाँ बनवा रही हो....?' कह कर धीरज को आवाज़ दी कि फौरन गाँव के डॉक्टर को बुला लाए. 
उस वक्त तो सुधा के सास-ससुर चुप लगा गए. खाना खाकर दवा लेनी थी इसलिए जबरदस्ती कुछ कौर निगलने पड़े सुधा को... सिसकियाँ दबाती हुए अपने कमरे में चली गई. सुधा अपने पति को समझ न पाती जो अपने माता-पिता के डर से या किसी उपेक्षा भाव से उसके पास न आते. मन की बात बिना कहे चुपचाप पति को परमेश्वर मान कर उसके प्यार को जीतने की चाहत और भी बढ़ती जाती. फिर भी अन्दर बहते दर्द को रोकने के लिए बाँध बनाती काग़ज़ के टुकड़ों पर ... एक एक शब्द में रिसता दर्द बाहर निकलता तो कुछ राहत पा जाती सुधा.... 

"मेरी अर्थी को काँधे से इक पल में उतारो ....
आप समझेंगे कि मैं ज़िन्दा हूँ तो फिर ऐसा क्यों
अरे समझो मेरी हालत को, मैं तो एक ज़िन्दा लाश हूँ ....
जिसे हर पल अपने ही काँधों पर उठाए घूम रही हूँ ...
अब इस लाश के वज़न को और ढोया नहीं जाता
ये भीगी आँखे रो-रो कर फरियाद करती है तुमसे
इन्हें चैन दो, मुक्ति दो, जला कर श्मशान में
हमेशा के लिए चैन से सो जाऊँ बस यह खुशी दो
चैन से सोकर रूह तो मुस्कुराएगी
तिल-तिल मरकर जीने से अच्छा है 
ज़िन्दगी भर सोने की खुशी मुझे मिल जाएगी..... !" (सुधा) 

इसी दौरान धीरज ने सागर भैया को फिर से कुवैत में नौकरी ढूँढने के लिए विनती की. दो ढाई साल तक बेरोज़ग़ारी से जूझते हुए धीरज के लिए सुधा और माता-पिता को झेलना भी दूभर हो गया था. काम था नही उस पर सुधा को थोड़ी सी हमदर्दी दिखाना भी माता-पिता को सुहाता नहीं था. धीरज अब झूठ बोलने लगा था. घर से खेतों में जाने का बहाना करके घर के पिछले दरवाज़े से वह सुधा के पास आ जाता. 3-4 घंटे उसके साथ बिता कर खेतों में जाकर कुछ सब्ज़ी ले आता घर के लिए.
 माता-पिता की ज़रूरत से ज़्यादा सख्ती ही शायद बच्चों को डरपोक बना देती है और यही डर उन्हें  झूठ बोलने पर मजबूर करता है. बचपन से शुरु हुआ यह सिलसिला शादी के बाद तक चलता रहता है. पति-पत्नी में संवाद की कमी का कारण भी  कुछ हद तक वही रहता है. 
इन सबमें डूबती उबरती सुधा अपनी ज़िन्दगी की नाव को खेती जा रही थी. धीरज को भी कुवैत में दुबारा नौकरी मिल गई थी. मन ही मन चैन की साँस लेकर धीरज सुधा के साथ हमदर्दी करने लगा था. पति की हमदर्दी पाकर भी सुधा निहाल हो जाती. बच्चे का जाने का ग़म गहरा था लेकिन उस पर वक्त की पट्टी बँधने से रिसना बन्द हो गया था. नए सिरे से ज़िन्दगी शुरु करने के लिए वह फिर तैयार थी. खुशी-खुशी धीरज को विदेश के लिए विदा करके सुधा बहुत रोई थी. सूजी हुई आँखें उसके मन की सारी कहानी कह जाते लेकिन सिवाय आईने के और कोई न देख समझ पाता. धीरज के दो बड़े भाई कभी कभी आते लेकिन भाभियों के पास न आने का बहुत बड़ा कारण होता बच्चों की पढ़ाई लिखाई. बहनों के अपने-अपने परिवार थे. सुधा इन सब बातों से अंजान बनकर सास-ससुर का ख्याल रखती. 
सुधा ने धीरज से वादा लिया था कि वह हर रोज़ उसे एक खत लिखेगा लेकिन शायद ऐसा मुमकिन नहीं था. गाँव का डाकिया अक्सर नज़र चुरा कर निकल जाता लेकिन जब चिट्ठी आती तो गली के मुहाने से ही शोर मचाते हुए आता, 'चाय मिलेगी तो खत दूँग़ा' और सुधा खिलखिलाती हुई झट से चाय  बना लाती चाहे बाद में सास-ससुर के ताने सहने पड़ते. 'दूध चीनी तो शायद तुम्हारी माँ दे जाती' 'बेचारा बेटा विदेश में कमाइयाँ कर रहा है और यह यहाँ लुटाने में लगी है' सुधा सफ़ाई में कुछ कहने की  हिम्मत न जुटा पाती. 
उन्हीं दिनों सुधा को पथरी का तेज़ दर्द उठा. देसी दवाइयों से इलाज चलता रहा लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा. इस बार सुधा के बड़े भैया हिम्मत करके उसे घर ले आए. सुधा की हालत सही नहीं थी इसलिए वहीं रहकर इलाज कराने की सोची गई. अभी डॉक्टर को एक बार  ही दिखाया था कि तीसरे दिन ससुर जी और छोटी ननद गुस्से में उबलते हुए सुधा के मायके पहुँच गए. 'क्या समझ रखा है अपने आपको..... बेटी को लाने की हिम्मत कैसे की.... मेरे माँ-बाप की सेवा कौन करेगा... ' छोटी ननद बिना रुके गुस्से में बोलती जा रही थी. ससुरजी गुस्से में भरे चुप बैठे रहे. सुधा के भाई अन्दर ही अन्दर उबल रहे थे लेकिन माँ डर रही थी कि कहीं सुधा को माँ के घर बैठना पड़ेगा तो समाज को क्या मुँह दिखाएगी. उसी पल सुधा को उनके साथ लौटा दिया. मन ही मन माँ  शुक्र मना रही थी कि पथरी के दर्द की दवा बिटिया को खरीद कर दे दी थी. फिर से सुधा पुरानी दुनिया में लौट आई. बीच-बीच में दर्द इतना तेज़ उठता कि उसे कम करने के सब उपाय बेकार हो जाते. उस अजीब सी हालत में उसे दिखते अजीब सपने. उसे खुद याद नहीं कि जागते के सपने होते या सोते के सपने. दर्द काग़ज़ पर उतर आता सपने की शक्ल में. 

जब ज़िन्दा थे तो किसी ने प्यार से अपने पास न बिठाया
अब मर गए तो चारों ओर बैठे हैं !

पहले किसी ने मेरा दुख मेरा हाल न पूछा
अब मर गई तो पास बैठ कर आँसू बहाते हैं !

एक रुमाल तक भी भेंट न दी जीते जी किसी ने
अब गर्म शालें औ’ कम्बल ओढ़ाते हैं !

सभी को पता है ये शालें ये कम्बल मेरे किसी काम के नहीं
मगर बेचारे सब के सब दुनियादारी निभाते हैं !

जीते जी तो खाना खाने को कहा नहीं किसी ने
अब देसी घी मेरे मुँह में डाले जाते हैं !

जीते जी साथ में एक कदम भी चले नहीं हमारे साथ जो
अब फूलों से सजा कर काँधे पर बिठाए जाते हैं !

आज पता चला कि मौत ज़िन्दगी से कितनी अच्छी नेमत है
हम तो बेवजह ही ज़िन्दगी की चाहत में वक्त गँवाए जाते थे..!(सुधा)

बात करते-करते सुधा चुप हो गई लेकिन मेरे दिल और दिमाग में कई सवाल सिर उठाने लगे.. क्या कहूँ सुधा को अबला या सबला...!! 

क्रमश: 

बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा



सोमवार, 27 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (5)

चित्र गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (1)    
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (3) 
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4)

ब्लॉग लेखन में फिर से सक्रिय होने का कारण अगर 'सुधा' है तो इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग जगत का मोह भी कुछ कम नहीं है.. इसका मोह भी बहुत कुछ असल दुनिया के मोह जैसा ही है जिसका मोहक रूप बार बार अपनी तरफ खींच कर वापिस बुला लेता है ... ब्लॉग़ जगत के वासियों का मोह भी कुछ ऐसा ही है लेकिन बार बार एक लम्बे अंतराल के बाद मिलना ऐसा ही जैसे 'नज़र से दूर, दिल से दूर' फिर भी इतना यकीन तो है कि जब भी मिलेंगे अपनेपन से मिलेंगे....
शादी के बाद  ससुराल के पूरे परिवार के साथ सुधा पहला फेरा डालने अपने मायके पहुँच गई थी...धीरज को देख कर तो माँ समेत सभी परिवार वाले उसके ही आगे पीछे घूम रहे थे....किसी ने एक बार भी सुधा से नहीं पूछा कि वह कैसी है...हाँ बड़ी दीदी ने धीरज को हँसी हँसी में ताना ज़रूर मार था , "पहली बार नई दुल्हन को मायके क्या इस तरह लाते हैं,  बसों के धक्के और धूल फँकवाते हुए ....!" सुनकर बस खिसियानी हँसी हँस दिए थे धीरज.... छोटी भाभी ने हँसते हुए कहा , " जीजाजी के साथ सुधा ने बाहर ही जाना है...तब तक यहाँ धक्के धूल खा लेने दो दीदी..." तब भी धीरज कुछ न  बोले कि कम्पनी में काम न होने के कारण कई लोगों को देश वापिस भेज दिया गया है. धीरज भी अनिश्चित समय के लिए फिलहाल बेरोज़ग़ार ही कहे जा सकते थे उस वक्त.....
सुधा उस वक्त धीरज के साथ से ही इतनी खुश थी कि किसी बात का उस पर कोई असर न हुआ.... सुधा के परिवार वालों ने अपनी सामर्थ्य से भी ज़्यादा स्वागत सत्कार किया फिर भी सुधा के ससुराल वालों को खुश न कर सके...अक्सर हमारे समाज में यही देखने में आता है कि जितना लेन-देन को महत्त्व दिया जाए उतनी ही मात्रा में नाराज़गी और नाखुशी भी  बढ़ती है... 
 ससुराल लौटते ही सास ने थक कर चूर सुधा को रसोईघर में मेहमानों के लिए खाना बनाने के लिए लगा दिया और कुछ मेहमानों को बस स्टॉप तक छोड़ने चली गईं...लम्बे घूँघट को सँभालती हुई सुधा ने पहले पूरे घर की सफ़ाई की फिर खाना बनाने के लिए रसोईघर आई.. गैस का चूल्हा तो वहाँ था ही नहीं जिस पर उसने पहली बार हलवा बनाया था... मिट्टी के चूल्हे को कैसे सुलगाएगी .माँ के घर में काम खूब किया था लेकिन मिट्टी के चूल्हा यहीं देखा था...... सोचती हुई वहीं पास ही चारपाई पर बैठ गई... खुले आँगन में खुली रसोईघर बनी हुई थी, जो दो तरफ से बिना छत की छोटी छोटी दीवारों से ढकी हुई थी....सुधा टकटकी लगाए कच्चे चूल्हे को देख रही थी कि बड़ी ननद आ गई उसकी मदद करने...उन्होंने चूल्हा जलाने का तरीका बताया , बातों बातों में उन्होंने यह भी बता दिया कि उनके घर से गैस का चूल्हा आया था जो वापिस भिजवा दिया गया है...उनका घर पास में ही था......
 बस स्टॉप से लौटी सास ने जब बहू को चूल्हे के साथ उलझते देखा तो अपने गुस्से पर काबू न रख पाई....."ऐसे कैसे चलेगा...अभी तक चूल्हा ही नहीं जला तो खाना कब बनेगा" सास के तीखे तेवर देख कर वह सहम गई..हाथ तेज़ी से चलने लगे... चूल्हे पर दाल रखकर आटा गूँदने लगी...लम्बे घूँघट के कारण काम करना मुश्किल लग रहा था लेकिन किससे कहती.. जेठानियाँ भी घूँघट में ही बैठी दिखीं तो वह भी मन मसोस कर रग गई....बला की गर्मी...बिजली के साथ साथ हवा भी ग़ायब थी... जैसे-तैसे खाना खत्म किया कि चाय के लिए पुकार होने लगी...
चाय के इंतज़ार में कुछ मेहमान सुस्ताने लगे और कुछ अपना सामान बाँधने लगे.. तभी दिल्ली शहर से खबर आई कि धीरज के चचेरे भाई सागर का बेटा हुआ है. सुधा किस्मत वाली थी कह कर सभी उसे और एक दूसरे को  मुबारकवाद देने लगे. धीरज और सागर कुवैत  में एक ही कम्पनी में काम करते हैं.....सागर भैया कुवैत में ही थे लेकिन अणिमा भाभी अपने मायके में थी. सास-ससुर ने तय किया सभी बड़े  बेटे के घर जाएँग़े जहाँ सागर के बेटे का नामकरण किया जाएगा. एक खास बात दिखी थी यहाँ कि चाचा ताऊ के बच्चों में कोई फर्क नहीं समझा जाता.
सुधा पहली बार दिल्ली शहर आई थी. दिल्ली में घर खरीदना आसान नहीं,  किराए के घर भी कबूतरखाने जैसे होते हैं.,धीरज के बड़े भैया का घर बहुत छोटा था जिसमें दो भाई और उनके परिवार एक साथ रहते थे.  एक ही कमरे में दरियाँ बिछीं थीं और घर के सभी लोग एक साथ बैठे बातचीत में मगन थे.  घूँघट की ओट से सुधा सबको देख रही थी... सुन रही थी सबकी बातें जिनमें अणिमा भाभी का बार-बार ज़िक्र हो रहा था. आधी बात समझ आ रही थी और आधी बात सिर के ऊपर से निकल रही थी.
ससुरजी ने तय कर लिया था कि अगर अणिमा बच्चे के चोले की रस्म के लिए बड़े भैया के घर नहीं आएगी तो कोई उसके मायके नहीं जाएगा. परिवार के कुछ आदमी जाएँगें बस औपचारिकता निभाने के लिए. बात सिर्फ इतनी थी कि अणिमा भाभी और बच्चे की तबियत ठीक नहीं थी और 11 दिन के बच्चे को लेकर वे सफ़र नहीं करना चाहती थीं. उनकी 'न' ने घर भर में हंगामा खड़ा कर दिया . सभी भाभी को बुरा भला कहने लगे.
मन ही मन सुधा अणिमा भाभी और उनके बेटे को देखने के लिए उत्सुक थी.
धीरज चुप थे. एक पल के लिए नहीं सोचा कि सागर भैया को कितना बुरा लगेगा. उनकी खातिर एक बार साथ चलने के लिए कहते लेकिन न कुछ कह पाए और न ही साथ गए. सुधा ने महसूस किया कि उसके पति अपने माता-पिता से बहुत डरते हैं. वे चाहकर भी साथ चलने की बात नहीं कर पाए.
आदर और डर में फ़र्क होता है , अक्सर हमारे समाज के बुज़ुर्ग डर को आदर समझने की भूल कर बैठते हैं. कई बार घर के बड़ों के सामने बच्चे अपने मन की बात नहीं रख पाते.. उनके डर के कारण  ग़लत को ग़लत कहने से घबराते हैं. सभी नहीं तो अधिकाँश लोग इस त्रासदी को झेल रहे हैं. यही कारण है कि कभी बुज़ुर्गों की तानाशाही बच्चों को उग्र बना देती है तो कभी एक दम दब्बू. 
सुधा का बचपन भी ऐसे ही परिवार में बीता था जहाँ छोटी छोटी गलतियों पर साँकल से बाँध दिया जाता या कपड़े धोने वाले डंडे से पीट दिया जाता था. सुधा समेत सभी बेटियों को दसवीं के बाद सिलाई कढ़ाई सिखा कर घर बिठा दिया गया था. शादी के सपने देखते हुए सोचती थी कि पति के घर में आज़ादी मिलेगी. कुछ हद तक मिली भी लेकिन जंजीरें यहाँ भी थी.
दिल्ली से लौट कर अभी 15 दिन भी नहीं हुए थे कि सुधा को फिर दिल्ली जाने का आदेश हुआ. बिना कुछ सवाल जवाब किए अपनी दुल्हन को धीरज दिल्ली छोड़ आए अपनी मझली भाभी की सेवा के लिए जिन्हें अभी चौथा महीना शुरु हुआ था. सुधा का तो दिल ही बैठ गया क्योंकि उसे समझ आ गई थी कि बच्चा होने तक  उसे वहीं ठहरना होगा. वे दिन भी भुलाए नहीं भूलते. दो जेठानियों के बीच में पिसती सुधा ने कैसे अपने दिन बिताए, वही जानती है.
छोटी होने के कारण सुधा पर दोनों जेठानियाँ बड़े  रौब से हुक्म चलातीं. बड़ी  का काम अधूरा छोड़कर छोटी के काम को पूरा करती तो बड़ी नाराज़ हो जाती... बड़ी का काम करके आती तो छोटी का मुँह बना होता. कभी कभी तो दोनों की नाराज़गी में उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता. शर्म के कारण दोनों में से किसी एक को भी कह न पाती कि उसे भूख लगी है. उस वक्त धीरज की याद आती कि क्या उन्हें भी उसकी याद आती होगी. एक बार भी आकर नहीं पूछा कि क्या हाल है, कैसे दिन कट रहे हैं. आए तो पूरे छह महीने बाद चाचा बनने के बाद.
सुधा की खुशी का ठिकाना नहीं था. धीरज के साथ बस पर बैठने के बाद ही उसे यकीन हुआ कि सच में वह ससुराल लौट रही है.
धीरज के चेहरे को एक पल देखते हुए सर झुकाकर सुधा ने पूछा, 'आपको मेरी एक बार भी याद नहीं आई इतने महीनों में' 'आई, पर क्या करता.' कह कर धीरज दूसरी तरफ देखने लगे. मन ही मन कितने ही सवाल लेकर सुधा ने सफर पूरा किया. उसके मन में एक गाँठ थी जो खुलने का नाम न लेती. तस्वीर से रिश्ता पक्का होने के बाद धीरज ने एक बार भी अकेले मिलने की कोशिश नहीं की थी. दो तीन बार कोशिश करने पर अकेले बाहर जाने की बजाए परिवार के साथ वक्त गुज़ारा.  सास-ससुर के पाँव छूकर अन्दर जाने ही लगी थी बैग रखने कि पीछे से आवाज़ आई, 'बहू मुँह हाथ धोकर चाय बना ले.'  लेटे लेटे ही सास ने कहा था. सुधा सास ससुर को खुश रखने के लिए कोई कसर न छोड़ती. फटाफट कपड़े बदल कर मुहँ हाथ धोकर चूल्हा जला कर चाय का पतीला रख दिया.
नौकरी थी नहीं. जमापूंजी से घर चल रहा था. आने वाले बच्चे के लिए कोई भी तैयार नहीं था. धीरज तो बिल्कुल नहीं. शादी करके घर बसाना, पत्नी का ख्याल रखना , बच्चे पैदा करते वक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखना , ऐसा कुछ भी नहीं था धीरज में. सुधा फिर भी उसे पति परमेश्वार मान कर उसकी ही नहीं उसके माता-पिता की जी जान से सेवा करती. उसे अपना बचपन याद आ जाता जब माँ को खुश करने के लिए वह घर के कई काम जल्दी से खतम करके माँ की गोद में जा बैठती, 'माताजी, मैंने इतने सारे कपड़े धो दिए. मुझे प्यार करो न' और माँ उसके सिर पर हाथ फेर देती. सुधा उसी में ही खुश हो जाती. यहाँ भी वह उसी जोश से काम करके सोचती कि कभी तो धीरज , सास-ससुर प्यार से उसकी पीठ थपथपाएँगें. लेकिन हर शाम उसकी चाहत भी अंधेरों में गुम हो जाती. इस तरह हर सुबह नई उमंग और आशा के साथ वह काम में जुट जाती और शाम होते होते सूरजमुखी के फूल जैसे मुरझा जाती.
तीसरा महीना भी खतम हो गया लेकिन किसी ने भी अस्पताल में उसका नाम लिखवाने की नहीं सोची. गाँव के अस्पताल से नर्स आती पूछताछ के लिए लेकिन उसे बाहर से भेज दिया जाता. गाँव की दाई के भरोसे छोड़ कर सास निश्चिंत हो गई थी. धीरे धीरे अंदर का जीव आकार लेने लगा जिसका असर सुधा के ऊपर साफ दिखने लगा था. अब उससे गाय का दूध निकालने के लिए बैठा न जाता, बड़ी मुश्किल से चारा पानी दे पाती. धीरज होते तो कोई मुश्किल न होती लेकिन रसोई तो खुद ही बनानी पड़ती. अगर किसी दिन सुधा की सास धीरज को सुधा की मदद करते देख लेती तो आसमान सिर पर उठा लेती. 'हे भगवान, हमने तो जैसे बच्चे जने ही नहीं थे' 'तेरी बीवी तो अनोखा बच्चा पैदा कर रही है' 'बीवी के घुटनों के साथ जुड़ कर बैठ जा' ऐसी बातें सुनकर धीरज घर देर से ही लौटता. उस दौरान सुधा की हालत और भी बुरी हो जाती. नीचे बैठकर रसोई पकाना अब उसके लिए अज़ाब होने लगा था.
दसवाँ महीना खतम होने को था. दिन ब दिन सुधा की तबियत बिगड़ती जा रही थी.  तब भी उसकी सास उसे कोसने से न चूकती. 'इसे अक्ल तो है नहीं...दिन गिनने कहाँ आते हैं..इसे पता नहीं ही नहीं होगा कि कौन सा महीना चल रहा है ' हर बार हर किसी को यही बात कहकर टाल देती. उधर धीरज डर के मारे कुछ कर न पाता या माता-पिता के सिरदर्दी समझ कर चुप था. उस वक्त सुधा को समझ नहीं आता कि जिससे शादी हुई है उसका क्या फर्ज़ है लेकिन धीरज के तर्क कुछ और होते कि अगर अपने आप वह अस्पताल ले गया तो घर भर में कलह-क्लेश होगा. नौंवाँ  महीना खतम होते-होते उसे दिखना बंद हो गया. दीवार पकड़ पकड़ कर घर के काम खतम करती. परिवार के लिए जल्दी खाना बनाकर रख देती.  दिन ब दिन सुधा की हालत बद से बदतर होने लगी लेकिन सास पर इस बात का भी कोई असर नहीं हुआ. उसका कहना था गर्भ ठहरने के दौरान ऐसा अक्सर होता है.  आस-पड़ोस के लोग आकर सुधा को अस्तपताल ले जाने की बात करते तो इस बात का गुस्सा भी सुधा पर ही उतरता कि लोग अपने आप को सयाना समझ कर उसे उपदेश देने आते हैं.
ग्यारवाँ महीना अभी शुरु ही हुआ था कि मझली जेठानी घर आईं. सुधा की हालत देख कर उससे रहा न गया. बड़ी ननद को साथ लेकर आई  सास-ससुर को समझाने लगी, 'सुधा की हालत तो देखो, अब तो ले जाओ उसे अस्पताल नहीं तो बच्चे समेत यहीं मर जाएगी.' पता नहीं क्या सोच कर सास ने सुधा को अस्पताल ले जाने की हामी भर दी.
सुधा की कहानी उसी की ज़ुबानी सुनते हुए मुझे धीरज पर बेहद गुस्सा आ रहा था. समझ नहीं पा रही थी कि कोई इंसान इतना बेदर्द कैसे हो सकता है, तटस्थ रह कर कैसे किसी को तड़पते देख सकता है. क्या सिर्फ माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करने से कोई अपने फर्ज़ों से मुँह मोड़ सकता है. दस महीने बीतने के बाद भी डॉक्टर के पास अपनी पत्नी को न ले जाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. सुधा में भी हिम्मत नहीं थी कि अपने होने वाले बच्चे की खातिर खुद ही अस्पताल चली जाती. नहीं समझ पा रही रिश्तों के समीकरण..... ग्यारवें महीने में पहली बार अस्पताल जाती  सुधा की क्या हालत होगी....होने वाले बच्चे को बचाना मुमकिन हो पाएगा... सोच कर ही दिल और दिमाग सुन्न होने लगे. 

क्रमश: