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शनिवार, 22 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (9)

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ) 

सुधा की असल ज़िन्दगी में तो उसकी कहानी चलती रहेगी लगातार लेकिन यहाँ  उसी की इच्छा  के मुताबिक अगली किश्त अंतिम होगी..... ! 

सुधा जब शहर आई थी तो बड़ा बेटा आठ्वीं में और दूसरा बेटा सातवीं में था. गाँव से शहर आकर बसना आसान नहीं था. 19 साल माँ बाऊजी का साथ था और यहाँ अकेले बच्चों का पालन-पोषण करना था. गाँव से स्कूल दूर पड़ते थे. वक्त के अभाव में पढ़ाई पर बहुत असर होता, गाँव में ट्यूश्न पढ़ाने वालों का भी अभाव था. खैर गाँव से शहर आ गए नए घर में. धीरज जा चुके थे . 
सुधा ने एक छोटे से हवन के साथ ग़ृह-प्रवेश किया जिसमें धीरज की दोनों बहनें थीं और कुछ नए घर के आसपास के नए पड़ोसी थे. हवन के दौरान गाँव के दो आदमी किसी काम से नए घर में आए. सुधा से बात करके दरवाज़े से ही लौट गए. 
जाने क्या सूझी कि छोटी ननद सबके सामने ही सुधा को आड़े हाथों लेकर बुरा-भला कहने लगी. गाँव की 'यारियाँ' वहीं छोड़ कर आनी थीं. यहाँ ऐसे नहीं चलेगा. फिर ऐसा हुआ तो गला दबा देने तक की धमकी दे डाली.  सुधा समेत वहाँ बैठी सभी औरतें हैरान थीं. कुछ ही देर में सभी बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गईं. गाँव में बड़ी ननद घर के नज़दीक थीं तो यहाँ शहर में छोटी ननद का घर नज़दीक था. नए शहर में , नए पड़ोस में  सुधा के चरित्र को उछाल दिया गया था. हवन खत्म होते ही वे भी अपने घर चली गईं थी. छोटी ननद ने एक बार भी नहीं सोचा था कि नए माहौल में उसकी बात का क्या असर होगा. 
19-20 साल तक माँ-बाऊजी की सेवा करने के कारण सुधा गाँव के लिए एक आदर्श बहू का जीवंत उदाहरण थी. लोग उसका आदर करते. उसका छोटे से छोटा काम करना भी अपना सौभाग्य मानते. माँ बाऊजी या छोटे बेटे के लिए गाँव के डॉक्टर आधी रात को आने को तैयार रहते. गाँव के सरपंच भी किसी काम के लिए उसे मना न करते. गाँव की बनी बनाई इज़्ज़त के बारे में सोचे बिना छोटी ननद ने नए लोगों के सामने ऐसा कहा कि सालों तक उसका जीना दूभर हो गया. 
समाज हमसे ही बनता है और हम ही समाज को अच्छा बुरा रूप देते हैं. यही समाज अकेली औरत का जीना मुश्किल कर देता है. किसी पर-पुरुष से बात करते देख उसपर हज़ारों लाँछन लगा दिए जाते हैं. आज भी अपने देश के दूर दराज के गाँवों और छोटे शहरों की सोच का दायरा संकुचित ही है. हैरानी तो इस बात की होती है कि लोग आधुनिक लिबास और खान-पान को जितनी आसानी से अपने जीवन में उतार लेते हैं उतना ही मुश्किल होता है उनके लिए अपने दिल और दिमाग की सोच को विस्तार देना. 
सुधा  दो किशोर बेटों के साथ नए माहौल में रहने की पूरी कोशिश कर रही थी. फिर भी घर में कोई भी आता तो पड़ोस सन्देह भरी निगाहों से देखता. सुधा ने अपनी हिम्मत और अच्छे व्यवहार से जल्दी ही सबका दिल जीत लिया. पड़ोसियों की कही बातें अब भी नहीं भूलतीं उसे फिर भी अकेले रहने के कारण न चाहते हुए भी कई बातों को नज़रअन्दाज़ करके रहना पड़ता है. धीरज के साथ न होने के कारण सुधा कई बार ज़हर का घूँट पीकर रह जाती. 
नारी आज़ादी और उसके मान-सम्मान की बातें उसे झूठीं लगतीं. 27 सालों में सुधा ने जो झेला सब के पीछे कहीं न कहीं कोई औरत ही होती जो उसका जीना मुहाल कर देती. पुरुष तमाशबीन सा दिखता जो दूर से ही तमाशा देखते हुए बिना दखलअन्दाज़ी किए अपनी सत्ता सँभाले रखता. 
 नौवीं कक्षा में आते आते बड़े बेटे की शरारतें बढ़ती गईं. स्कूल जाने के नाम से ही वह बिदकने लगता. छोटा बेटा अभी भी बीमार था. स्कूल ने उसका साथ दिया और घर पर रह कर भी उसकी उपस्थिति दर्ज होती रहती. सुधा की पूरी कोशिश होती कि बच्चों में अच्छे संस्कार डाल सके. पढ़ाई का महत्व बताती क्यों कि उसे अपने घर में दसवीं के बाद पढ़ने का मौका नहीं मिला था. 
स्कूल के दिनों बड़े बेटे की शिकायतों से परेशान सुधा कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देती. बाद में चाहे रो लेती. धीरज छुट्टी आता तो बार बार कहने पर भी वह बच्चों को न डाँटता और न कभी उन पर हाथ उठाता. उसकी अपनी सोच थी. कुछ दिनों की छुट्टी में आकर बच्चों के सामने बुरा क्यों बनना. सारा जिम्मा सुधा पर ही डाल देता. खैर सुधा अकेली डटी थी दो बेटों को लेकर गृहस्थी सँभालते हुए दिन बीतते जा रहे थे. 
सुधा बेटों को एक ही बात कहती कि मर्यादा लाँघ कर कोई ऐसा काम न हो जाए कि उस पर या विदेश में बैठे पिता के नाम पर बट्टा लग जाए. बच्चे जो देखते उसी हिसाब से चलते हुए अच्छे नम्बरों में स्कूल पास किया. कॉलेज पहुँच गए. पिता के दूर होने पर भी बच्चों में कोई बुरी आदत पनपने नहीं पाई थी. कॉलेज जाते बच्चों का ऐसा चरित्र सुधा की लगन और मेहनत का फल था. उसके अपने अच्छे और मज़बूत चरित्र ने बेटों को संस्कारी बनाया. हालाँकि परिवार और रिश्तेदार सुधा के इस काम को भी महत्त्व न देते. धीरज और उसके अच्छे खानदान का उदाहरण देते कि इस खानदान में तो आजतक कोई बुरे चरित्र वाला हुआ ही नहीं. 
दोनों बेटों ने बहुत करीब से माँ के सेवाभाव और त्याग को देखा था. माँ उनके लिए भगवान से भी बढ़कर थी. जिस माँ को उसके पति ने बरसों तक अपने से अलग रखा उसके लिए उसी माँ ने बच्चों में भी अपने जैसा ही आदर भाव डाला. बच्चों के लिए माता-पिता भगवान से भी बढ़कर. दोनों बेटों के ऐसे भाव देख कर सुधा और धीरज खुशी से फूले न समाते. अच्छी संतान को सामने देखकर जीवन जैसे सफल हो गया. तपस्या पूर्ण हो गई. दोनों बेटे दिन रात अपने माता-पिता को सुख देने के उपाय खोजते हैं. 
इसी बीच सुधा ने अकेले ही एक और जिम्मेदारी का बोझ अकेले उठाया और बड़े बेटे के लिए सुन्दर सी बहू चुन लाई. ऊँची पढ़ाई के लिए विदेश जाते बेटे को अकेले भेजते वक्त उसे अपने पति की याद आई जिसने इतने सालों अकेले ही ज़िन्दगी बसर कर ली. वही इतिहास दुबारा न दोहराया जाए इसलिए उसने बेटे की शादी करके बहू के साथ विदा करने की ठान ली. धीरज मन ही मन अपनी पत्नी की तारीफ करता है जिसने इस बड़े काम को भी अकेले ही अंजाम दिया. बड़ी धूमधाम से बेटे की शादी की. इस शादी की एक खासियत यह थी कि अच्छी बहू पाने के लिए जात-पात की परवाह किए बिना सुधा ने अपनी जाति से बाहर की लड़की पसन्द की थी. सुधा और धीरज बहू के रूप में बेटी पाकर अपने को धन्य मानने लगे. छोटा बेटा भाभी में माँ और बहन पाकर सातवें आसमान पर उड़ रहा था. 
अब दोनों बेटों की बारी थी. वे अपनी माँ को पिता से मिलाने के लिए साधन जुटाने लगे कि कैसे दोनों एक साथ रह सकें. बरसों के बाद दोनों बेटों की कोशिशों से आज सुधा अपने पति के साथ खुश है. सुधा और धीरज साथ-साथ रहते हैं लेकिन जाने सुधा के दिल और दिमाग में क्या चलता रहता है कि रह रह कर उसे तनाव घेर लेता है. प्यारी सी बहू जो बेटी बनकर हर रोज़ सुधा से नेट पर बात करती है. दोनों बेटे बिना नागा उसे 'गुड मॉर्निंग' कह कर अपनी प्यारी मुस्कान भरी तस्वीर भेजते हैं.उन्हें देखकर बच्चों जैसी हँसी हँस देती है. कुछ देर उनके साथ बच्चा बन जाती है फिर कुछ वक्त के बाद अजीब से अवसाद से घिर जाती है. 
पूछती हूँ तो कहती है उसे खुद समझ नहीं आता कि वह क्यों बार बार तनावों के जाल में उलझ जाती है. 'अच्छा दीदी, आज यह गीत सुनो जो सुबह से बार बार सुन रही हूँ शायद आपको कोई जवाब मिल जाए' कह कर यूट्यूब का यह लिंक भेज देती है ---- 
"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ......."  



क्रमश: 

3 टिप्‍पणियां:

rashmi ravija ने कहा…

सुधा की कहानी बहुत ही प्रभावशाली है. पता नहीं इस एक सुधा में जाने कितने लोग अपने जीवन का प्रतिबिम्ब देखेंगे.
बहुत बहुत बधाई इतनी कुशलता से कहने का प्रवाह बनाए रखने के लिए. कहीं भी कहानी बोझि;l प्रतीत नहीं हुई.

Shalini kaushik ने कहा…

 सच्चाई को शब्दों में बखूबी उतारा है आपने .बेहतरीन अभिव्यक्ति आभार गरजकर ऐसे आदिल ने ,हमें गुस्सा दिखाया है . आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

Asha Joglekar ने कहा…

सुधा की मेहनत रंग लाई । अवसाद तो उसके पिछले जिंदगी के अनुभवों का परिणाम है जाते जाते जायेगा ।
बहुत सुंदर जा रही है कहानी ।