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बुधवार, 29 मई 2013

युद्ध की आग



आज जब चारों ओर इंसान इंसान को हैवान बन कर निगलते देखती हूँ तो बरबस इस कविता की याद आ जाती है जो शायद सन 2000 से भी पहले की लिखी हुई है जो 'अनुभूति' में तो छप चुकी थी लेकिन जाने कैसे ब्लॉग पर  पोस्ट न हो पाई. 
दुनिया के किसी भी कोने में होती जंग दिल और दिमाग को शिथिल कर देती है. अपने देश का हाल बेहाल हो या दुनिया के किसी दूसरे देश का बुरा हाल. मरता है तो एक आम आदमी जिसकी ज़रूरतें सिर्फ जीने के साधन जुटाने के लिए होती हैं. 
इस युद्ध की आग में प्रेम का सागर सूख जाए उससे पहले ही हमें इंसानियत के फूल खिलाने हैं. 


विश्व युद्ध की आग में जल रहा
मानव का हृदय सुलग रहा
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

भोला बचपन हाथों से छूट रहा
मस्त यौवन रस भी सूख रहा
मातृहीन शिशु का क्रन्दन गूंज रहा
बिन बालक माँ को न कुछ सूझ रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

पिता अपने बुढ़ापे का सहारा खोज रहा
पुत्र भी पिता के प्यार को तरस रहा
बहन का मन भाई बिन टूट रहा
प्राण भाई का बहन बिन छूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।

प्रेममयी सहचरी का न साथ रहा
मनप्राण का सहचर न पास रहा
मित्र का मित्र से विश्वास उठ रहा
मानव मानव का नाता टूट रहा

विश्व युद्ध की आग में जल रहा।
मानव का हृदय सुलग रहा।।
प्रेम का सिन्धु सागर सूख रहा
द्वेष भाव के दलदल में डूब रहा