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रविवार, 2 जून 2013

माथे पर सूरज

माथे पर सूरज का टीका सजा कर
रेगिस्तानी आंचल से मुंह को छिपा कर
मुस्काई सब दिशाओं को गरमा कर
अपनी ओर झुके आकाश को भरमा कर
तपते रेतीले टीलों के उभार को छिपा कर
तपती धरती सोई न अपनी पीड़ा दिखा कर

तारों से चमकती मांग निशा की
चदां संग में लाया ।
तपती धरती को अपनी
शीतलता से सहलाया ।
रात की रानी ने धरती का
तन जो महकाया
अंगड़ाई लेकर हरसिंगार का आचंल ढलकाया ।।

मनमोहिनी माया का मनमोहक रूप 
जो मैंने देखा ।
मदमस्त पवन सी संग मैं खेलूं उसके
मेरा भी मन ललचाया ।

पर देखूं 
बिन बुलाए मेहमान सी गर्म हवा ने आकर
पांव पसारे अपना प्रभुत्व जमा कर ।
उगंली थामे धूल महीन जो आई 
उसने भी रौब जमाया सारे घर में छाकर ।
अपने होने का एहसास खूब जताया
मुस्काई घर के हर कोने कोने जा कर ।

तेज़ रेतीली हवाएं छेड़ाख़ानी करती 
दरवाज़ा खटका कर ।
धीमे से आती नींद की रानी 
छुप जाए घबरा कर ।
पांव पटकती गरमी ठण्डक पा जाती 
मुझको बेचैनी में पाकर ।।

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