Translate

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

मौन अभिव्यक्ति !

मौन हुई मैं
स्नेह करे निशब्द
भाव गहरे

शब्द न पाऊँ
मौन की भाषा पढ़ो
आभारी हूँ मैं

सपनों की नगरी मुम्बई में छह दिन 2 (कुछ बोलती तस्वीरें)

मुम्बई में चलती कार से , होटल की या अस्पताल की खिड़की से ली गई तस्वीरों में से कुछ तस्वीरें त्रिपदम कहें ---














गौर से देखो

अक्स में दिल मेरा

देश में छोड़ा











इतने एसी
कितना प्रदूषण
दिल धड़का
























राह चलते
किताबें खरीदीं थी
सस्ती दो तीन














ध्यान में लीन
कबूतर सोच में
मन मोहता





















गहरा कुँआ
जल-जीवन भरा
मन भी वैसा














प्यारे बालक
देश-प्रेम दर्शाएँ
रिपब्लिक डे










रस्ता देखूँ मैं
कोई मीत मिलेगा
आशा थी बस






देखे किसको
कागा पीठ दिखाए
गीत सुनाए












मीत को पाया
वट-वृक्ष का साया
मन भरमाया

सोमवार, 28 जनवरी 2008

सपनों की नगरी मुम्बई में छह दिन !

छह दिन के बाद लौटे हैं ...! सब को मेरा प्रणाम ...!
सपनों की नगरी मुम्बई से माया नगरी दुबई में पहुँचते पहुँचते आधी रात हो गई थी इसलिए चाह कर भी आभासी दुनिया में न जा सकी. सुबह बच्चों को नाश्ता देकर सबसे पहले हम अपनी उसी दुनिया में पहुँचे जहाँ हम छह दिन से जा न सके थे.
सबसे पहले तो अनिता दी को प्रणाम, जिनकी स्नेहमयी ऊर्जा ने हमें नतमस्तक कर दिया. उनके लिए 'कुछ हम कहें' लेकिन शब्द ही नहीं मिल रहे. अभी अभी अनिता दी की पोस्ट पढ़ी, फिर से याद आ गई दो मुलाकातें जिन्हें हमने दिल में सहेज कर रख लिया है. हमने ही नहीं वरुण ने भी.
सपनों की नगरी मुम्बई से माया नगरी दुबई में लौटते हुए जैसे पीछे कुछ छूट रहा था. एयरपोर्ट जाने का समय हो रहा था लेकिन हम माँ बेटा दोनों ही होटल की खिड़की के पास खड़े होकर मुम्बई के सुनहरी से सुरमई होते आकाश को देख रहे थे. ठंडी हवा में पीपल के पेड़ की झूमती शाखाएँ पहले ही बॉय बॉय करने लगीं.
छह दिन छू मंतर करते उड़ गए थे. छोड़ गए मीठी यादों के निशान.
अभी जैसे कल ही एयरपोर्ट उतरे थे. प्री पेड टैक्सी से होटल वैस्ट एंड पहुँचते पहुँचते जैसे पूरा मुम्बई देख लिया. एयरपोर्ट से मरीन लाइंस तक जाते हुए 25-30 कि.मी. तक फ़ासला तय करना था. दर्द और थकावट ने बेटे वरुण को पस्त कर दिया था. बीच-बीच में हम बाहर देखते तो लगता कि शायद कोई जाना पहचाना आभासी दुनिया का कोई मित्र दिख जाए. वरुण हम पर हँस रहा था पर हमे बुरा नहीं लग रहा था. हमें सबको याद करके अच्छा लग रहा था, दूसरा दर्द से उसका ध्यान बँट रहा था.
होटल पहुँचते ही वहाँ के कर्मचारियों ने जिस मुस्कान से स्वागत किया, लगा ही नहीं कि हम मुम्बई पहली बार आ रहे हैं. फ्रेश होकर खाना खाने के बाद वरुण आराम करने लगा और हमने सोचा कि अनिता दी और आशीष को फोन किया जाए. दोनों के फोन आने की एक रात पहले चैट में मिल चुके थे सो उनसे बात करके मन खुश हो गया.
गूगल अर्थ में स्टडी करके यह तो पहले ही जान चुके थे कि लोग दूर दूर रहते हैं और आने जाने की दिक्कत होती है तो किसी से मिल पाने की आशा तो थी नहीं. जब अनिता दी और आशीष ने मिलने की बात की तो खुशी का ठिकाना न रहा.
सुबह उठते ही हम डॉक्टर से मिलने गए. होटल से जल्दी ही हमें अस्पताल में दाखिल होने को कहा गया. उसी दोपहर को बोरिया बिस्तर बाँध कर होटल से हॉस्पिटल आ गए. डॉक्टर से लेकर कमरे की सफाई करने वाले सभी के चेहरों पर मुस्कान देखकर हम प्रभावित हो रहे थे. आधा दुख तो उसी मुस्कान से दूर हो गया. वैसे भी अगर दूसरे के दुख-दर्द देखो तो लगता है कि अपना आधा दुख भी न के बराबर है. वरुण की सर्जरी होते होते टल गई. फ़िज़ियोथेरैपी शुरु हुई और नई दवाएँ लेने को कहा गया.
अनिता दी से पहली मुलाकात अस्पताल में हुई .लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिल रहे हैं. 25 जनवरी को फिर मिलने का वादा किया तो हम चहक उठे. कॉलेज के काम के कारण 25 की बजाय
26 जनवरी मिलना तय हुआ. तब तक हम अस्पताल से डिस्चार्ज़ होकर एयरपोर्ट के नज़दीक अन्धेरी ईस्ट के एक होटल में आकर ठहरे थे. पता चला कि आशीष भी आ रहे हैं. बातों बातों में अनिता दी ने जान लिया था कि वरुण को मटन बिरयानी पसन्द है. फिर क्या था बस 26 जनवरी हमने अनिता दी की बनाई मटन बिरयानी और गोभी के पराँठों के साथ मनाई.



आशीष भी समय पर पहुँच गए थे. वरुण और उसके बचपन दो मित्रों के साथ आशीष भी उन्हीं में से एक लग रहे थे. आशीष कम बोलते हैं लेकिन जो बोलते हैं पते की बात होती है. इतनी छोटी उम्र में बहुत कम युवा ऐसे होते हैं जो सोच समझ कर नपी तुली बात करें.
26 जनवरी की शाम न चाहते हुए भी दोनों से फिर मिलने का वादा करके विदा ली क्योंकि दोनो को ही अपने अपने घर दूर जाना था.
अनिता दी का सरल स्वभाव और मुक्त हास उनके व्यक्तित्व को चार चाँद लगा देता है. कविता के रूप में कुछ कहने को जी चाहता है.

उसके उज्ज्वल मुख पर इक आभा है
और दीप्तीमान नेत्रों में इक आशा है !
उसे देख मन की कलियाँ खिलतीं
कभी किसी को काँटे सी न चुभती !
जगती के प्रति स्नेह और करुणा है
ह्रदय में आनन्द की अमृत रसधारा है !
उसके उज्ज्वल मुख पर इक आभा है
और दीप्तीमान नेत्रों में इक आशा है !
लेकिन अभी कुछ और भी .......
क्रमश:

सोमवार, 21 जनवरी 2008

प्रथम मिलन को भूल न पाऊँ





आज मेरा व्याकुल मन फिर मिलने को आतुर
बरसों पुराना मधुर-प्रेम रस फिर पीने को आतुर !!

सूखे कगार सी पतली दो रेखाएँ
बेचैन भुजाएँ बनकर आलिंगन करना चाहें !!

सूखे अधरों का कंपन बढ़ता ही जाए
फिर भी प्यास प्रेम की बुझ न पाए !!

आज मेरा व्याकुल मन फिर मिलने को आतुर
बरसों पुराना मधुर-प्रेम रस फिर पीने को आतुर !!

प्रथम मिलन को भूल न पाऊँ
मोहपाश में फिर-फिर बँधती जाऊँ !!

प्यासे अधरों की, चंचल नैनों की
भाषा प्रेम की फिर से पढ़ना चाहूँ !!

आज मेरा व्याकुल मन फिर मिलने को आतुर
बरसों पुराना मधुर-प्रेम रस फिर पीने को आतुर !!

शनिवार, 19 जनवरी 2008

जब भी हमें शायर पुकारा जाता !

कभी कभी पुरानी यादें दौड़ती चली आती हैं और गले लग जाती हैं जिनसे मिलकर हम मस्ती में डूब कर उनके संग खेलने लगते हैं. हिन्दी के बुज़ुर्ग अध्यापक सिद्दिकी साहब जो अब रिटायर होकर भारत लौट चुके हैं कभी अपने हिन्दी ज्ञान से और कभी शायरी से मालामाल कर देते. उनकी शायरी को पचाने का मादा किसी किसी में ही होता. उनके चाहने वालों में अव्वल नम्बर पर आते थे हमारे प्रिंसिपल साहब जो स्कूल के लगभग हर जश्न का आग़ाज़ उनकी शायरी से करवाते. प्रिंसिपल साहब से अपनी तारीफ़ सुनकर उनके चेहरे की रौनक देखने वाली होती थी. उन्हीं दिनों की एक रचना आज अचानक याद आ गई.

जब भी हमें शायर कहकर पुकारा जाता
दिल हमारा बाग़-बाग़ हो जाया करता !

तन से पहले मन मंच पर पहुँच जाया करता
शायरी करने को जी मचल मचल जाया करता !

लेकिन ------------

नाम हमारा सुनते ही श्रोताओं पर गिरते कई बम
उनका रुख देखते ही हमारा भी निकल जाता दम !

हिम्मत कर फिर भी बढ़ाते कदम
सीधा पहुँचते मंच पर हम !
एक ही साँस में पढ़ जाते लाइनें दस
फिर लेते थोड़ा हम दम !

कुछ श्रोताओं का होता सब्र कम
शोर कुछ श्रोताओं का जाता बढ़ !

कुछ श्रोताओं की बेरुखी सहते हम
कुछ श्रोताओं की मुस्कान भी पाते हम !

फिर भी मैदान में डटे सिपाही से हम
पीछे न हटते, हार न मानते हम !

सब्र से बैठे हुए लोगों पर
अपनी शायरी का सिक्का जमाते हम

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

त्रिपदम (हाइकु)






क्यों मैं ही मैं हूँ
गर्व किस बात का
नासमझी क्यों

अहम त्यागो
अमर तुम नहीं
मृत्यु निश्चित

घना अंधेरा
छाया का साया नहीं
अविश्वास है

मृत्यु मित्र सी
चुपके से आती है
गले लगाती

यायावरी है
आना-जाना लोगों का
थके न कोई

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

मेरे त्रिपदम (हाइकु)




कॉफी का प्याला
कागज़ कलम है
शब्दों की झाग

प्राण फूँकते
जादू से भरे हाथ
संजीवनी से

सलोना नभ
सुरमई मेघ हैं
साँवली घटा

तूफानी रात
तड़ित दामिनी सी
भयभीत मैं

छाया रहस्य
धूल से आच्छादित
मौन हैं बुत

साकी सोया सा
स्वेद सुरा को चख
सन्तुष्ट हुआ

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

फुर्सत के पल यादों के मोती बने !! 2



सुबह सवेरे सूरज की किरणें नीचे उतरीं और हम भी ट्रेन से नीचे उतरे. जम्मू पहुँच चुके थे , पता चला कि श्री नगर की बस कुछ ही देर में श्रीनगर के लिए निकलने वाली है. हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और बस में चढ़ गए. मैं फट से खिड़की वाली सीट पर आकर बैठ गई.
हरी भरी वादियों में बलखाती काली चोटी सी सड़क पर बस दौड़ रही थी. बहुत दूर के पहाड़ों पर कहीं कहीं थोड़ी बहुत बर्फ थी जिसे कभी कभी बादल आकर ढक देते थे. नीचे नज़र जाए तो गहरी खाइयों में पतली रेखा सी नदी बस के साथ साथ ही भाग रही थी. प्रकृति के सुन्दर नज़ारों को मन में बसाते हुए पता ही नहीं चला कि कब बस श्रीनगर के लाल चौक पर आकर रुक गई. जीजाजी पहले ही बस स्टेशन पर खड़े हमारा इंतज़ार कर रहे थे. मित्र को धन्यवाद देकर हम घर की ओर रवाना हुए.
अभी सूरज पहाड़ों के ऊपर था और कुछ ही देर बाद नीचे भी उतर गया. शाम का गहराता साँवला रंग और गहरा होता गया. उस साँवले रंग में अनोखी सी खुशबू जो मस्ती में डुबो रही थी. उसी मस्ती में मैंने घर तक ताँगे पर जाने की इच्छा जताई तो फट से सुन्दर सी घोड़ा गाड़ी सामने आ खड़ी हुई. ताँगे पर बैठ कर घर तक जाने का भी एक अलग मज़ा था. आधे से कुछ ज़्यादा बड़ा चाँद साथ साथ चल रहा था लेकिन तारे ऐसे दिख रहे थे जैसे अपनी अपनी जगह खड़े टिमटिमा कर बस टुकुर टुकुर देख रहे हों. मैं आकाश में इतने सारे तारों को देखकर हैरान थी क्योंकि दिल्ली में इतने तारे तो कभी दिखाई नहीं देते.
बीस मिनट में घर पहुँच गए थे. दीदी और नन्हा सा पारस जिसे हम प्यार से सोनू कहते हैं, गेट पर खड़े थे. गेट तक पहुँचते कि एक तेज़ खुशबू का झोंका साँसों के साथ अन्दर उतर गया. देखती क्या हूँ कि गेट के आसपास लाल लाल गुलाब के फूल खिले हैं. मैंने लपक कर सोनू को गोद में ले लिया, दीदी हैरान थी कि बिना रोए मेरी गोद में नन्हा सा खरगोश मुझे देखे जा रहा है.

अगली सुबह का सूरज सोनू की प्यारी मुस्कान के साथ चमका. उसके बाद तो कश्मीर की सैर शुरु हुई तो कभी न खत्म होने वाली यादों का सिलसिला बन गई. डल लेक में शिकारे की सैर , नगीन लेक और वुलर लेक ऐसी हैं जैसे झीलों की सड़कें बनीं हों और शीशे से साफ जिसमे छोटे छोटे पत्तों का स्पष्ट प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है. चश्माशाही का स्वास्थ्यवर्धक शीतल जल, निशात बाग, शालीमार गार्डन के रंग-बिरंगे खुशबूदार फूल, सोनमर्ग, खिलनमर्ग के हरे भरे मैदान .... शंकराचार्य मन्दिर से पूरे श्रीनगर के रूप को निहारना. इन सब की सुन्दरता पर तो महाग्रंथ लिखा जा सकता है.

खूबसूरत वादियों के जादू ने मुझे स्वप्नलोक पहुँचा दिया. सपनों का सुन्दर लोक दिल और दिमाग पर ऐसी छाप छोड़ चुका था जिसे भुला पाना आसान नहीं था.

आज एक विशेष भाव जो मन में आ रहा है कि उस वक्त अगर मम्मी डैडी ने मुझे अकेले कश्मीर आने की इजाज़त न दो होती तो क्या मेरे लिए ऐसी खूबसूरत यादों को सहेज पाना संभव हो पाता ! !


फुर्सत के पल यादों के मोती बने !!



आजकल बड़े बेटे वरुण की छुट्टियाँ हैं और छोटा बेटा अपनी पढ़ाई में व्यस्त है इसलिए मेरे पास समय ही समय है. व्यस्तता के बाद जब ऐसे पल हाथ लगते हैं तो मैं उन्हें दोनों हाथों में भर लेती हूँ. फुर्सत के पल यादों के मोती बन जाते हैं. उन बिखरे मोतियों को अपने दिल में सजा लेती हूँ. उनकी खूबसूरती से आँखों में चमक जो आती है उसे मैं छिपा नहीं पाती. इस वक्त भी ऐसा ही कुछ हो रहा है और मैं अतीत के सुनहरे बादलों में यादों के पंख लगा कर आवारा सी उड़ रही हूँ. कल मैं आवारा बंजारन थी जिसे आज यादों के पंख लग गए हैं.
उस दिन भी ऐसा ही कुछ अनुभव हो रहा था. चंचल मस्त हवा सी इधर से उधर भागती तैयारी में जुटी थी क्योंकि रात ही मुझे श्रीनगर के लिए रवाना होना था. कैसे दिन थे जब डर शब्द या उसके अर्थ से पहचान ही नहीं हुई थी. वादे के मुताबिक डैडी ने मुझे कश्मीर भेजने का सारा बन्दोबस्त कर लिया था. एक पल के लिए दिल धड़का था कि शायद दादी माँ कुछ कहेगीं लेकिन उन्होंने भी कोई रोक टोक नहीं की. अब सोचती हूँ तो अच्छा लगता है कि लड़की के रूप में जन्म लेने के बाद भी मुझे किशोर अवस्था तक आते आते टुकड़ों में आज़ादी न देकर पूरी आज़ादी दे दी गई ताकि मन में आत्मविश्वास पैदा हो सके.
15 साल की अल्हड़, शोख उम्र का नशा और कश्मीर की सुन्दर वादियों में घूमने का चाव. रेलवे स्टेशन पहुँच कर जम्मू तवी जाने वाले ट्रेन ढूँढी गई. एक कम्पार्टमैंट के बाहर लगी लिस्ट में अपना नाम देखकर राहत मिली और उछल कर चढ़ गई. अपने नम्बर की सीट भी दिख गई. सूटकेस सीट के नीचे रखा और खिड़की के पास जाकर बैठ गई. डैडी ने कहा कि नौ बजे के बाद यही तुम्हारी स्लीपिंग बर्थ होगी. उस वक्त किसी को बैठने नहीं देना और सो जाना. यह भी बता दिया कि दीदी जीजाजी के एक मित्र दो कम्पार्टमैंट छोड़कर बैठे हैं. बीच बीच में आकर खबर लेते रहेंगे. दिल और दिमाग तो कश्मीर में पहले ही पहुँच गया था तो क्या सुनती, बस एक मुस्कान के साथ सिर हिलाती रही. ट्रेन चलने का समय हुआ तो डैडी सिर पर हाथ फेरते हुए हैप्पी जर्नी कहते हुए नीचे उतर गए.
दो बोगी छोड़ कर जीजाजी के जो मित्र बैठे थे, उन्हें मैंने पहले कभी देखा भी नहीं था. रात के दस बजे अपने बैग से खाना निकालने के लिए बैग में हाथ डाला. अरे यह क्या...खाने का डिब्बा गायब. फट से अपना मनीबैग टटोला तो सन्न रह गए. डैडी से पैसे लेना भी भूल गई थी. मम्मी ने कहा भी था कि याद से पैसे ले लेना. चेहरा सफेद और दिल की धड़कनें तेज़.
सामने वाली सीट पर बैठी आंटी जी शायद कुछ भाँप गई थी. उन्होंने पूछा, 'अकेली हो?' 'नहीं, अंकल भी साथ हैं लेकिन उन्हें दो कम्पार्टमैंट छोड़कर सीट मिली है. जवाब देकर मैं साथ लाई एक किताब पढ़ने लग गई. किताब के पहले पन्ने पर ही दीदी का पता और फोन लिख लिया था, जिसे पढ़कर चैन की साँस ली. किताब के कोने से नज़र चुराकर देखा आँटी जी के चेहरे पर हैरानी के भाव थे. हैरानी के भाव धीरे धीरे नरम हुए तो चेहरे पर ममता भरी मुस्कान आ गई. अपने बच्चों को आलू पूरी देते समय मुझे भी खाने की मिन्नत की. मैंने सकुचाते हुए एक निवाला तोड़कर उनका मान रख लिया.
जीजाजी के मित्र ने दो बजे रात को खिड़की खटखटाते हुए पुकारा, 'मधु , ठीक हो? कुछ खाना है?' मधु मेरा बचपन का नाम है जो अभी तक जन्मपत्री में है. पाँचवीं तक के प्रमाणपत्र में भी लिखा हुआ है. छठी कक्षा में जाने पर पाँचवीं की क्लास टीचर ने मुझे मीनाक्षी नाम आशीर्वाद के रूप में दिया था . ननिहाल में अभी भी सब मधु ही पुकारते हैं.
मैंने ज़ोर से आवाज़ दी, 'अंकल, मै ठीक हूँ.' दबी आवाज़ में खाने के लिए भी हाँ कह दी कि शायद कुछ खाने को मिल जाए. 'इस वक्त रात के दो बजे हैं, सुबह जम्मू पहुँच कर नाश्ता जल्दी करेंगे.' कहते हुए वापिस अपने कम्पार्टमैंट की ओर लौट गए. मैं मन ही मन उन्हें कोसने लगी कि फिर इतनी रात को खाने का पूछा ही क्यों. पेट को दबाकर किसी तरह सोने की कोशिश की...!!
सफ़र तो चल ही रहा है......
लेकिन आज बस इतना ही..

सोमवार, 14 जनवरी 2008

मैं भी आवारा बंजारन थी, आज भी हूँ !

आज का शीर्षक देने का एक मुख्य कारण है आवारा बंजारा का जन्म दिन. उनकी 'मैं' कविता पढ़कर लगा कि आज एक मस्त अवारा में गम्भीर मनन चिंतन करने वाला बंजारा छिपा है. ऐसा व्यक्तित्त्व हमेशा आकर्षित करता है जो जीवन को विभिन्न ऋतुओं का संगम बना दे. कभी शांत, गम्भीर और रहस्यमयी तो कभी किनारों के बाहर छलकती. कभी सिकुड़ती जलधारा सी और कभी दूसरों के प्रभाव से मटमैली होती.
टिप्पणी के रूप में शुभकामनाएँ भेजने के बाद मुझे जहाँ उनके मस्ती भरे मनचले स्वभाव की याद आई, वहीं याद आ गया अपना जन्मदिन. पन्द्रह साल पूरे हुए थे और मम्मी डैडी ने वादा किया था कि दो महीने की छुट्टियों में मुझे दीदी के पास कश्मीर भेजा जाएगा. यह तोहफा तो मेरे लिए अनमोल था. एक महीने बाद ही वह दिन भी आ गया. मुझे कहा गया कि रात जम्मू तवी जाने वाली ट्रेन से मुझे श्रीनगर के लिए रवाना होना है. यकीन ही नहीं हुआ कि मम्मी डैडी मुझे अकेला भेजने को तैयार हो जाएँगें. दादी ने भी कुछ नहीं कहा. आप सोच सकते हैं कि हम बिन पंखों के कैसे उड़ रहे होंगें उस समय.
आवारा बंजारन का ट्रेन का सफ़र कल लिखूँगी. आज तो संजीत जी के जन्मदिन पर कुछ गीत सुनिए.


कुछ दिन पहले संजीत जी ने एक बच्चा 'पारटी' पर पोस्ट लिखी थी..उसमें एक नन्ही सी गुड़िया को याद करके यह गीत चुना... 'हैप्पीबर्थ डे टू यू'



यह गीत उस समय का जब हमारे जन्मदिन पर अकेले कश्मीर जाने का तोहफा मिला था...
'दीवाना मस्ताना हुआ दिल'

रविवार, 13 जनवरी 2008

यूँ ही कुछ गुफ्तगू !!



बेटे वरुण को नाश्ता देकर सोचा कि चलो बाहर की ताज़ी हवा खाई जाए लेकिन यह क्या...घर की एक चाबी तो छोटा बेटा विद्युत अपने साथ ले गया है. इधर उधर ढूँढने के बाद पता चला कि दूसरी चाबी तो कार में ही रह गई. अब... क्या किया जाए... बेटा तो बैठ गया था डैस्कटॉप पर..हम ललचाई नज़र से देखते हुए एक कप चाय और अखबार लेकर बाल्कनी में आकर बैठ गए.
ईरानी मित्र अब परिवार का एक हिस्सा सा बन गए है इसलिए ईरान की खबर पर नज़र जाना स्वाभाविक है. एक भारतीय और एक ईरानी परिवार की दोस्ती ने कब रिश्ते का रूप ले लिया पता ही नहीं चला. इस बारे में इरान का सफर में कुछ लिखा है और आगे भी विस्तार से लिखने का इरादा है.
सबसे पहले मौसम का हाल देखा, ईरान ही नहीं पूरी दुनिया के पर्यावरण को बदलते देख कर मन चिंतित हो गया. चालीस साल का रिकोर्ड तोड़ती बर्फ ने ईरान के लोगों को तोड़ कर रख दिया है. सफर करते हज़ारों लोग सड़कों पर हैं क्योंकि बर्फ ने सब तरफ से रास्ते बन्द कर दिए हैं. हमारे मित्र अली के पड़ोसी जिन्हें हम पहले वहीं मिल चुके हैं, तीन दिन से रास्ते में हैं. तहरान से रश्त आने का रास्ता बन्द है. बीच बीच में मोबाइल से अपनी खैरियत की खबर देते रहते हैं. पुलिस सफर करते लोगों को कम्बल और चाय दे रही है. सब अपनी अपनी कारों में बन्द रास्ते खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं.
वहाँ के आम लोगों की रोज़मर्रा की तकलीफों का ज़िक्र होता है तो अपने देश के खस्ताहाल लोगों का जिक्र स्वाभाविक है लेकिन सुनते ही मेरे मित्र एक बात जो कहते हैं उसका कोई जवाब मैं नहीं दे पाती. ...आज़ाद पंछी पिंजरे के बाहर रह कर अगर रूखी सूखी खाता है तो उड़ता भी खुले आकाश में ही है.... सच है कि आज़ादी हम सब का जन्म सिद्ध अधिकार है. शाह के समय और अब में ज़मीन आसमान का अंतर है. वहाँ के हर इंसान में एक अजीब सी छटपटाहट देखने को मिलती है.
जीवन की ज़रूरतें पूरी करने के लिए आम आदमी जूझता सा दिखाई देता है. पैट्रोल तो पहले से ही राशन में मिलने लगा था , अब घर में आती गैस की सप्लाई भी आती जाती रहती है. ज़रूरत की चीज़ें महंगी होती जा रही हैं. युवा पीढ़ी के पास काम नहीं है जिस कारण खाली दिमाग शैतान का घर बन कर खूब खुराफाते करता है. इन सब बातों पर चर्चा करते हुए दिल दुखी हो जाता है.
फिलहाल इस वक्त हालात यह हैं कि वहाँ गैस की कमी के कारण स्कूल कॉलेज और ऑफिस सब बन्द कर दिए गए हैं. दो मीटर बर्फ गिर रही है और सड़कें वीरान हैं. कोई इक्का दुक्का कार या टैक्सी दिखाई दे जाती है. घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. ताज़ी रोटी खरीदने के लिए भी लम्बी लाइन में लगना पड़ता है. यह सुनकर मन और भी खराब होता है जब उनका तीन साल का छोटा बेटा आर्यन मेरे हाथ की रोटी को याद करके अपनी मम्मी से पूछता है, ...' मॉमान यादात मियाद मीमी नून मीपोख्त?' मम्मी, क्या याद है मीमी कैसे रोटी पकाती है?' जब से बोलना सीखा है मुझे मीमी ही बुलाता है.... बड़ा बेटा अर्दलान खाला मीनू कहता हुआ पनीर की सब्ज़ी और सादी चपाती को याद करता है. चपाती बना कर वैब कैम पर दिखा देने से ही बच्चे खुश हो जाते हैं. बच्चे जो हैं और बचपन तो सबसे प्यारा और मासूम होता है. उनकी मुस्कान दिल बाग बाग कर देती है और फिर से बचपन लौट आता है.


शनिवार, 12 जनवरी 2008

मैं झरना झर झर बहूँ, प्रेम बनूँ औ' हिय में बसूँ !

'प्रेम ही सत्य है' इस अटल सत्य को कोई नकार नहीं सकता. स्वामी विवेकानन्द जी ने भी कहा है, 'प्रेम ही विकास है, प्रेम ही मानव जीवन का मूलमंत्र है और प्रेम ही जीवन का आधार है, निस्वार्थ प्रेम और निस्वार्थ कार्य दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं. जैसे प्रेम से उच्च तत्त्व नहीं वैसे ही कामना के बराबर कोई नीच भाव नहीं. 'हमारे मन की बात हो जाए' कामना का यह भाव दुखों का मूल है.
कामनाओं के, इच्छाओं के बीहड़ जंगल में हम भटकते हैं, अपने मन की शक्ति से बाहर भी निकल सकते हैं . उस जंगल से बहुत दूर निकल कर प्रेम के महासागर में डुबकी लगा कर शांति पा सकते हैं. बस एक कोशिश करके........

मैं झरना झर झर बहूँ ।
अमृत की रसधार बनूँ ।।

मैं तृष्णा को शान्त करूँ।
प्रेम बनूँ औ' हिय में बसूँ।।

मैं मलयापवन सी मस्त चलूँ।
मानव मन में सुगन्ध भरूँ।।

मैं सबका सन्ताप ग्रहूँ।
हिय के सब का शूल गहूँ।।

मैं ग्यान की ऊँची लपट बनूँ।
अवनि पर प्रतिपल जलती रहूँ।।

मैं विश्व की ऐसी शक्ति बनूँ।
मानव मन को करूणा से भरूँ।।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

तू सूरज मैं मूरत मोम की



तू सूरज मैं मूरत हूँ मोम की
तू अग्निकण मैं बूँद हूँ ओस की !
तपन तेरी से पिघले तन-मन
तपिश तेरी से सुलगे प्रति-क्षण !
तू समझे न बातें मेरे ह्रदय की
तू क्या जाने पीड़ा मेरे मन की !
अभिव्यक्त करूँ मैं कैसे अपने भावों को
हँसते-हँसते सहती हूँ तेरी घातों को !

डूबते को तिनके का सहारा !

घुघुती जी की कविता तिनकानामा पढ़ने के बाद उनसे बातचीत के दौरान मैने निश्चय किया कि उनकी इस कविता पर अपने कुछ भाव प्रकट करूँगीं. समय को पकड़ने की कोशिश में समय के पीछे भागती रही लेकिन उसके पीछे वाले सिर पर तो बाल ही नहीं थे फिर वह हाथ में कैसे आता सो आज समय को आगे के बालों से पकड़ कर बैठ गई लिखने.
तिनकानामा में जीवन दर्शन दिखाई देता है. कविता के हर अंश में गहरा अर्थ छिपा है. तिनकानामा को ही क्यों चुना इसके पीछे भी एक कारण है. कई साल पहले रियाद में हुए मुशायरे में अपनी दो कविताएँ 'मैं' और 'अहम' पढ़ने का अवसर मिला था जिन्हें कविता तिनकानामा से जुड़ा हुआ सा पाती हूँ. शायद पूरी कविता पर बात न हो पाए लेकिन कुछ अंश जो मुझे बहुत भाए उन पर तो अवश्य चर्चा करूँगी.
संयोग से रेडियो पर एक गीत बज रहा है, 'तिनका तिनका ज़रा ज़रा, है रोशनी से जैसे भरा --- रोशनी शब्द सुनकर छोटे छोटे ज्योति कीट जुगनु याद आने लगे.

तिनकों की भी क्या इच्छाएँ होती हैं
उन्हें तो बस बह जाना होता है
नदी के बहाव के साथ
जिस दिशा में ले चले वह

तिनकानामा के इस पहले अंश को पढकर याद आने लगी हरे भरे और फिर सूखते तिनकों की जिनकी जननी वसुधा सोचती होगी कि नदी के रुख मोड़ने वाली वह स्वयं है, जिधर चाहे चट्टानें खड़ी करके नदी का रास्ता बदल देती है, जब चाहे, जहाँ से चाहे नदी की धारा उस ओर मोड़ देती है, सागर तक जाने का रास्ता भी वह स्वयं निश्चित करती है. फिर नदी कैसे सोच सकती है कि तिनको को वह अपने बहाव में कहीं भी ले जा सकती है.

कुछ तिनके यूँ सोचते हैं
उन्होंने स्वयं चुना है
नदिया संग बहना

तिनको ने अगर सोचा है कि उन्होंने नदी के संग बहना है तो यह उनका स्वयं का निर्णय है , उसे उन्होंने स्वयं चुना है तो सही सोचा है. समय के साथ चलना ही तो बुद्धिमानी है. समय के साथ चल कर ही लक्ष्य रूपी सागर तक पहुँचा जा सकता है.


कुछ इठलाते कुछ इतराते
देख गति अपनी प्रगति की
मन ही मन मुस्काते
बढ़ आगे जाने को
पूरा अपना जोर लगाते ।

इन पंक्तियों को पढकर तो मुझे मेहनतकश लोगों की याद आ जाती है जो अपने बल से रेगिस्तान में भी हरियाली ले आते हैं. जंगल मे भी मंगल कर देते हैं. समय को मुट्ठी में बन्द कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें कोई रोक नही सकता. कविता 'कर्मवीर' की एक पंक्ति याद आ गई, 'कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं.'

यूँ इतराते वे जाते हैं
जल पर सवार
मानो उनका ही हो
सारा यह संसार ।

इन पंक्तियों में जहाँ आगे बढ़ने का भाव है, वहाँ इठलाते और इतराते तिनको का अहम भाव भी दिखाई देता है. यहाँ तिनकों का अहम देखकर अपनी कविता की कुछ लाइने याद आ गईं-

मैं ही मैं हूँ इस सृष्टि में,
और न कोई इस दृष्टि में,
ऐसा भाव किसी का पाकर,
मन सोचे यह रह रहकर,
मानव क्यों यह समझ न पाए,
क्षण भंगुर यह तन हम लाए।।

यूँ अन्त हो जाता है
सफर इक तिनके का
काल की गर्त्त में
यूँ ही हैं सब तिनके समाए ।

इस संसार में सब नश्वर है. एक न एक दिन सबको काल का निवाला बनना ही है लेकिन फिर भी कुछ तिनके इतिहास के पन्नों में अपने आप को अमर कर जाते हैं, कुछ समाज के महल को मज़बूत बनाने के लिए नींव की ईंट का काम कर जाते हैं.

या फिर कर आती उसे
किसी चलबच्चा हवाले
कभी छोड़ आती वह उसे
किसी भंवर में
खाने को अनन्त तक चक्कर

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ और उससे भी सुन्दर उसमे छिपा भाव. जीवन में दुखों के भँवर न हों तो सुख का आनन्द कैसा..! हर पल एक नई चुनौती को पाकर उससे जूझना और निकल पाना , यही तो जीने का आनन्द है.

कुछ भूले, कुछ बिसराए
यही नियति है हर तिनके की
चाहे कितने ही तिनकेनामे
हम लिखते जाएँ ।

तिनकानामा लिखना व्यर्थ नहीं जाता. मेरा अपना अनुभव है कि मैं जो भी पढ़ती हूँ उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने अन्दर अनुभव करती हूँ. मन ही मन सोच रही हूँ कि चाहे अनगिनत तिनकों की तरह मेरा भी अंत हो जाएगा लेकिन किसी एक डूबते को मुझ तिनके का कभी एक बार भी सहारा मिला तो जीवन धन्य हो जाएगा. डूबते को तिनके का सहारा उक्ति शायद यहाँ सार्थक कही जा सकती है.

बुधवार, 9 जनवरी 2008

मैं भी उन संग बहक सी रही थी !

चंदा का सितारों से जड़ा प्रकाशित आँचल जब छाया धरती पर
सुषमानुभूति से मदमस्त हुआ फिर नशा सा छाया सागर पर !

लहरें बाँहें फैलाए उचक उचक कर चढ़ गईं चट्टानों के कंधों पर
नज़र थी उनकी शोभामय आकाश के जगमग करते तारों पर !

जलधि के उर पर देखके तारों का प्रतिबिम्ब लहरें चहक रहीं थीं
चंदा की चंचल किरणें लहरों के संग खेल-खेल में बहक रहीं थीं !

छू लेने की, आँखों में सुषमा भरने की चाहत सी उनमें जाग गई थी
छवि सुन्दर विस्तृत नभ की, मनमोहती मानस-पट पर छा सी गई थी !

गर्वित गगन से आती-जाती शीत-पवन सी साँसें मुझको छू सी रही थीं
महकी-महकी साँसों से दिशाएँ बहकीं, मैं भी उन संग बहक सी रही थी !

शनिवार, 5 जनवरी 2008

मेरे त्रिपदम (हाइकु)



प्रेम सत्य है
रूप रंग सुगन्ध
त्रिपदम सा

निशा स्तब्ध थी
सागर सम्मोहित
लहरें गातीं

धरा ठिठकी
लहरों में उद्वेग
चंदा निहारे

सुर कन्या सी
आलिंगनबद्ध थीं
लहरें प्यारी

रेतीला मन
फिसलते कदम
दिशाहीनता


शीत बसंती
बदलती ऋतुएँ
झरता ताप


संघर्षरत जीते
जाएँ जीवन
आत्मा की शक्ति


गरजे मेघ
दामिनी दमकती
सूरज भागा

हे मेरे मन, आशा का दीप जला !

आज सोचा कि मन में आते भावों को बाँधने की बजाए उसे बहने देना ही सही होगा.
बहता पानी साफ रहता है, रुके हुए पानी से अपने लिए ही नहीं आसपास के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है. कई दिनों से ब्लॉग जगत में बहुत कुछ पढ़ते रहने के बाद लगने लगा कि बस बहुत हो चुका. ज़्यादा पढ़ना भी मुसीबत बन सकता है. अलग अलग ब्लॉगज़ द्वारा बहुत से विचार एक साथ दिल और दिमाग में उतर रहे थे. चाह कर भी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखने का समय निकालना सम्भव नहीं लग रहा था. इस समय को भी दूसरे कामों से आँख चुराकर ही निकाल पाएँ हैं.
मानव समाज में अलग अलग रूप से क्लेश, अशांति, वहशीपन, आक्रोश की बहती हवा का प्रभाव ब्लॉग जगत पर भी दिखाई देता है कुछ चिट्ठाकार इन मुद्दों पर लिखकर चिंतन करने को बाध्य करते हैं. कुछ अपनी तीखी प्रतिक्रिया द्वारा समाज और सरकार को जगाने का प्रयास करते हैं, कुछ सीमा तक सफल भी हो जाते हैं.
ब्लॉगर की ताकत का अन्दाज़ा इसी से लगता है कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखते ही फौरन हरकत में आ जाती है, उसे अपना आस्तित्व हिलता सा दिखाई देने लगता है.
दिसम्बर की 10 तारीख को एक साउदी ब्लॉगर फुयाद अल फरहान को पुलिस पकड़ कर ले गई क्योंकि ब्लॉगिंग के माध्यम से वह समाज के विकास में आने वाली बाधाओं की अपने ब्लॉग पर चर्चा कर रहा था. दूसरे ब्लॉगरज़ को भी इस ओर ध्यान देने को कह रहा था. पच्चीस दिन से फरहान जेल में है.
दिसम्बर जाते जाते एक और दर्द दे गया जिसे पाकर मन सोचने पर विवश हो गया कि क्यों ...? ऐसा क्यों होता है ? हमारे अन्दर मानव और दानव दोनों का निवास है, इस बात को हम नकार नहीं सकते लेकिन जब मानव दानव के हाथों पराजित होता दिखाई देता है तो मन विचलित हो जाता है. क्यों हम अपने अन्दर के दानव को बाहर आने देते हैं ? मन सोचने पर विवश हो जाता है कि किस प्रकार मानव और दानव के बीच तालमेल बिठाकर मानव समाज को नष्ट होने से बचाया जाए.
मेरे विचार में ब्लॉग जगत से जुड़ा हर लेखन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज के हित की ही सोचता है. सभी अपनी अपनी सोच के अनुसार अच्छी बुरी घटनाओं पर अपने अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी करते हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि हर कोई एक ही जैसा सोच कर हर विषय पर अपने विचार प्रकट करे.
अखबारों में, टीवी में या अंर्तजाल पर भ्रष्टाचार के प्रति जो इतना आक्रोश दिखाई देता है, यही साबित करता है हम समाज से बुरे तत्त्वों को निकाल बाहर करना चाहते हैं.
"दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है. बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोदघाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है. बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है. सैंकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है." यह पंक्तियाँ श्री हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख "क्या निराश हुआ जाए' से ली गई हैं.
जीवन में कितने धोखे मिले, कितनी बार किसी ने ठगा, कितनी बार किसी ने विश्वासघात किया. समाज के घिनौने रूप को देख कर पीड़ा होती है, भुलाए नहीं भूलती. यदि इन्हीं बातों का हिसाब किताब लेकर बैठेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा.
प्रेम ही सत्य है – इस मूल-मंत्र को हम जान लें तो जीना आसान ही नहीं खूबसूरत भी हो जाए. प्रेम अपने आप से , प्रकृति से , जीव-जंतुओं से और फिर मानव-मानव से, बस फिर अपने महान भारत देश को ही नहीं, विश्व को पाने की भी संभावना हो जाएगी.
आज से कोशिश करूँगीं कि अपने ब्लॉग में गद्य को भी उतना ही महत्व दूँ जितना कि पद्य को देती आई हूँ.

शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

लीच/जौंक

जाने किस झोंक में मैंने
जौंको को अपनी पीठ पे छोड़ दिया !

मीठा मीठा दर्द जिन्होंने मेरे खून में घोल दिया
जाने क्यों उठती आहों को मैंने आने से रोक लिया.

आँख मींच कर लीच को मैंने बाँहों में भींच लिया
साँस खींच कर आते दर्द को खून में सींच लिया.

कुछ लीचें मेरी अपनी हैं, मेरी मज्जा से ही बनी हैं
ये लीचें कुछ न्यारी हैं जो मेरे ही खून से सनी हैं.

इन पंक्तियों को पढ़कर सबसे पहला भाव मन में क्या आ सकता है ?
उसे टिप्पणी के रूप में देंगे तो आभार होगा.

मेरी भी आभा है इसमें

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था

पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

" नागार्जुन "

गुरुवार, 3 जनवरी 2008

आप सबके बड़प्पन को प्रणाम !

फुर्सत के पल मिलते ही अभी मैंने अपना मेल एकाण्ट खोला तो चेहरा खुशी से खिल उठा . मेल खोलते जा रहे थे और पढ़ते जा रहे थे. लगा कि मेल भेजते वक्त सबके चेहरे पर मुस्कान ही होगी जैसे राह चलते किसी को गिरते देख कर हँसीं निकल जाती है. सच मानिए कभी कभी गलती करके माफी माँगने का अलग ही आनन्द है.
कल शाम एक जन्मदिन की पार्टी पर छोटे बेटे को लेकर अजमान जाना पड़ा, लौटते लौटते रात के दो बज गए.
आज सुबह बड़े बेटे को लेकर कॉलेज गई जहाँ मुझे ठहरना था क्योंकि अक्सर एग्ज़ाम के दिनों में बेटे पर दर्द कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो जाता है. दोपहर एक बजे घर आते ही दोपहर खाना बनाया , खाया और खिलाया. न चाह कर भी नींद को अपने करीब आने से रोक नहीं पाए. अच्छी तरह मालूम है कि भोजन करने के एकदम बाद सोना ज़हर का काम करता है, फिर भी सो गए थे. उठने के बाद हालत खराब होनी ही थी सो हो गई.
तब सोचा कि अर्बुदा के हाथ की चाय पी जाए और नन्हे-मुन्ने जुड़वाँ इला इशान से खेला जाए तो तन-मन दोनो प्रफुल्लित हो जाएँगें. मीनू आटीं मीनू आटीं कहते हुए दोनों की होड़ लग जाती है कि सबसे ज़्यादा कौन अपनी बातों से लुभाएगा. एक मज़ेदार खेल होता है वहाँ. दोनो बच्चे अपनी प्यारी प्यारी बातों से हम दोनों को बात करने का अवसर ही नहीं देते लेकिन हम भी मौका पाकर अपनी बात कर ही लेते हैं.
वहाँ भी पैगी डॉट कॉम पर चर्चा हुई. सोचा कि चाय पीने के बाद तो ज़रूर इस विषय पर लिखना ही है.
जब सेहतनामा के संजय जी का मेल आया कि एक डोमेन का आमंत्रण मिला है तो हमारा माथा ठनका क्योंकि उससे पहले उस डोमेन पर विकास जी से भी बात हुई तब तक हम कुछ समझ नहीं पाए थे कि वे हमारे ब्लॉग परिवार के सदस्य हैं या कोई और .. आशा जी से निमंत्रण मिला था जिसे हमने उनकी साइट समझी और पैगी की पगली पढ़ लिया.
नहीं अब इस विषय पर बात करने का जोश ठंडा सा पड़ता जाता है . अब सोचते हैं "बीती बात बिसार दे , आगे की सुध ले" सो कल की बातें भुलाकर आज इस समय हमारे साथ कुछ गीतों का आनन्द लीजिए जो अभी मैं सुन रही हूँ --


दीवाना मस्ताना हुआ दिल........




जाता कहाँ है दीवाने ......




हूँ अभी मैं जवाँ ए दिल ......




जानूँ जानूँ रे ......

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

नव वर्ष के प्रथम दिवस पर 'विश्व प्राँगण"











नववर्ष के प्रथम दिवस का सूर्योदय एक नई आशा की किरण लेकर आया. एक नई सुबह खिलखिलाती सी, जगमगाती सी अपने सुन्दर रूप से मुझे मोहित कर रही थी. मंत्र-मुग्ध सी मैं आकाश के एक कोने से चमकते सूरज को देख रही थी तो दूसरी ओर आँखों से ओझल होता फीकी हँसी हँसता शशि न चाहते हुए भी विदा ले रहा था.

नए वर्ष का मंगल गीत गाते हुए पंछी वृक्षों की फैली बाँहों में नाचते हुए चारों दिशाओं को मोहित कर रहे थे.

यह सुन्दर दृश्य देखकर विश्व प्राँगण में उतरी हर ऋतु की सुन्दरता का रूप याद आने लगा.


विश्व-प्राँगण में उतरीं ऊषा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

सूर्योदय की चंचल किरणें मुस्काईं
अपने ही स्वर्णमयी यौवन से शरमाईं
पीतवर्ण सरसों आँचल सी लहराई
अन्न धन हाथों में अपने भर लाई.

विश्व-प्राँगण ग्रीष्म के ताप से तप्त हुआ
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ओस पसीने सा चमका धरती के माथे पर
प्यास बुझाने की तृष्णा थी सूखे अधरों पर
धानी आँचल फटा हुआ कृशकाय तन पर
वीरानापन छाया था वसुधा के मुख पर.
विश्व-प्राँगण में पावक पावस अति छाए
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

जगी प्यास जब घनघोर घटाएँ छाईं
रिमझिम बूँदें लेकर मोहक वर्षा-ऋतु आई
नभ की कजरारी अखियाँ प्यारी भाईं
दामिनी चपला ने भी अदभुत सुन्दरता पाई.

विश्व-प्राँगण ठिठुर गया काँपा सीसी कर
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

शरदऋतु के आते सब सकुचाए दुबके कोने में
मानव, पशु-पक्षी सब ओझल हुए किसी कोने में
तड़प उठी वसुधा पपड़ी फटे होठों पर होने से
तरु-दल भी पाले से मुरझाए शीत के होने से.


विश्व-प्राँगण में सूखा सा पतझर छाया
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

अस्थि-पंजर बन कृशकाय तन लहराया
प्यासी बेरंग आँखों में पीलापन छाया
पावक पावस ने वसुधा का मन भरमाया
मधु-रस पाने का स्वर सूखे होठों पर आया.

विश्व-प्राँगण में ऋतुराज बसंत पधारे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ऋतुराज जो आए संग बासंती पवन भी लाए
रंग-बिरंगे महकते फूलों की बहार लुटाने आए
वसुधा के सुन्दर तन पर धानी आँचल लहराए
रोम-रोम में उसके सुष्मिता अनोखी छा जाए.

नभ पर सुन्दर अति सुन्दर सुरचाप सजे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

चंदा की मदमाती किरणें उतरीं बहकी-बहकी
रवि-किरणें थी चंचल चपला से चहकी-चहकी
वसुधा के आँगन में कलियाँ बिखरीं महकी-महकी
नीलम्बर की सतरंगी सुषमा है लहकी-लहकी.

विश्व-प्राँगण में बिखरी चंदा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !
चंदा की चंचल चाँदी से किरणें सजीं हुईं
नभ की साड़ी अनगिनत तारों से टंकी हुई
चोटी जगमग करते जुगनुओं से भरी हुई
लहराते दुग्ध धवल आँचल से ढकी हुई.

विश्व-प्राँगण में उतरा मानव का विज्ञान
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

विश्व-प्राँगण है प्रकृति का सुन्दर आँगन
रंग-बिरंगे फूलों का सुगन्धित उपवन
धीरे धीरे नीरसता से जो भरता जाता है
प्रदूषण से अब बेरंग हुआ वो जाता है.

विश्व-प्राँगण के सुन्दर आँग़न में वसुधा जब ले अँगड़ाई तो प्रकृति का सुन्दर मोहक रूप ही दिखाई दे उसमें, नव वर्ष में यही कामना है.