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शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

मेरी भी आभा है इसमें

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था

पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

" नागार्जुन "

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

आदमीनामा

(कुछ शब्दों के अर्थों को लिखने के लिए एडिट किया था सो पोस्ट ड्राफ्ट में चली गई थी, दुबारा पोस्ट कर रही हूँ.)
कई दिनों की उलझन जिसे संजीत जी की कविता 'ढूँढता हूँ मैं' ने हवा लगाकर और उलझा दिया तो सोचा कि कुछ समय के लिए जीव-जंतुओं की तरह शीतस्वापन (hibernation) की अवस्था में चले जाना चाहिए लेकिन ऐसा संभव हो नहीं पाया. कुछ मित्र हैं जो आभासी दुनिया में वापिस ले आते हैं उनमें प्रत्यक्ष रूप में अर्बुदा है जिसके साथ हर रोज़ बैठकर हिन्दी साहित्य पर ही नहीं जीवन-चक्र पर भी चर्चा होती रहती है. अप्रत्यक्ष रूप में चिट्ठाजगत के सभी चिट्ठाकार जिन्हें पढ़कर गिरते-गिरते संभलने का अवसर मिल जाता है. पारुल जी की पोस्ट देखकर बहुत अच्छा लगा सोचा क्यों न हम भी अपनी बन्द पड़ी किताबों के पन्नों के पंख खोल दें.
आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का उपलब्ध साहित्य अपने ब्लॉग पर दर्ज करने की सोच को आज मूर्त रूप दे ही दिया. बहुत दिनों से एक कार्य-तालिका बना कर रखी थी. उसके अनुसार सामग्री भी लिखित रूप में तैयार है. शीघ्र ही उसे एक एक करके पोस्ट करने का निश्चय किया है.

नज़ीर अकबराबादी

जन्म आगरा शहर में हुआ. अरबी-फ़ारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की. प्रस्तुत नज़्म 'आदमीनामा' में नज़ीर ने कुदरत के सबसे नायाब बिरादर, आदमी को आईना दिखाते हुए उसकी अच्छाइयों, सीमाओं और संभावनाओं से परिचित कराया है. इस संसार को और भी सुन्दर बनाने के संकेत भी दिए हैं.

आदमीनामा

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़लिस-ओ-गदा1 है सो है वो भी आदमी
ज़रदार2 बेनवा3 है सो है वो भी आदमी
निअमत4 जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी

मसज़िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ5
पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज़ यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ
जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी

यां आदमी पै जान को वारे हैं आदमी
और आदमी पै तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी

अशराफ़6 और कमीने से ले शाह ता वज़ीर
ये आदमी ही करते हैं सब कारे7 दिलपज़ीर8
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए 'नज़ीर'
और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी.

1.गरीब भिखारी 2.मालदार, 3.कमज़ोर, 4.स्वादिष्ट भोजन
5.कुरान का अर्थ बताने वाला, 6.शरीफ शब्द का बहुवचन
7. काम, 8.दिल को लुभाने वाला