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मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

स्याह चेहरे वाली चिमनी



खिड़की के उस पार 
अचानक नज़र चली गई
दीवार पर खड़ी थी 
स्याह चेहरे वाली चिमनी
सिसकती सी काला धुआँ उगलती
तनी खड़ी तिकोनी टोपी पहने
देर तक काला गहरा धुआँ उगलती
फिर एक खूबसूरत एहसास जैसे
अनदेखी खुशबू फैला देती चारों ओर
महकती रोटियाँ जन्म लेतीं उसकी कोख से
जीवनदान देती, भूख मिटाती सबकी
स्याह चेहरे वाली चिमनी
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी
जलती रहेगी आग उसके भीतर
उसका स्याह चेहरा याद दिलाता है 
अनेकों स्याह चेहरे जिनके अंतस में
धधकती रहती है आग 
कैद से निकलने की छटपटाहट
आज़ाद होने की चाहत 
स्याह चेहरे वाली चिमनी 
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी !  





गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

खुले आसमान में उड़ने का ख़्वाब



घर के अन्दर पसरी हुई ख़ामोशी ने
मुझे अपनी बाँहों में जकड़ रखा है...
छिटक कर उससे आज़ाद होना चाहती हूँ
घबरा कर घर से  बाहर भागती हूँ .
वहाँ भी धूप सहमी सी है आँगन में
सूरज भी खड़ा है बड़ी अकड़ में
मजाल नहीं हवा की
एक सिसकी भी ले ले...
हौंसला मुझे देते हैं कबूतर के जोड़े
दीवारों पर आ बैठते हैं मेरा साथ देने
घुघुती भी एक दो आ जाती हैं
सुस्ताती हुई बुदबुदाती है जाने क्या
गौरेया को देखा छोटी सी है
निडर फुदकती इधर से उधर
उसकी चहक से ख़ामोशी टूट जाती है
उससे हौंसला पाकर नज़र डालती हूँ
अपनी ठहरी हुई ज़िन्दगी पर
ज़िसके अन्दर कुछ जम सा गया है
सोचती हूँ रगड़ रगड़ कर उतार दूँ
उस पर जमी डर की काई को
फिर से परवाज़ दूँ अपने जमे पंखों को
खुले आसमान में उड़ने का आग़ाज़ करूँ ....




मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

बहुत दिनों के बाद......


बहुत दिनों के बाद...
अपने शब्दों के घर लौटी...
बहुत दिनों के बाद .......
फिर से मन मचल गया...
बहुत दिनों के बाद...
फिर से कुछ लिखना चाहा....
बहुत दिनों के बाद...
कुछ ऐसा मन में आया....
 फिर इक बार
नए सिरे से
 शुरु करूँ मैं लिखना ...
अपने मन की बात !!




सोचती हूँ ब्लॉग पर नियमित न हो पाना या जीवन को अनियमित जीना न आदत है और न ही आनंद...वक्त के तेज बहाव में उसी की गति से बहते जाना ही जीना है शायद. जीवन धारा की उठती गिरती लहरों का सुख दुख की चट्टानों से टकरा कर बहते जाने में ही उसकी खूबसूरती है.  खैर जो भी हो लिखने के लिए फिर से पलट कर ब्लॉग जगत में आना भी एक अलग ही रोमाँच पैदा करता है मन में.

2012 दिसम्बर में जब पति को दिल का दौरा पड़ा तब मैं सात समुन्दर पार माँ के पास थी. फौरन पहुँची रियाद जहाँ एक हफ्ते बाद ही एंजियोप्लास्टी हुई. एक महीने बाद ही नए साल में देवर अपने परिवार समेत रहने आ गए. उनके लिए 2013 का साल खूब सारी खुशियों के साथ कुछ भी दुख लाया था. अगस्त के महीने में वे परिवार समेत कार दुर्घटना की चपेट में आ गए. देवर और उनके बेटे को हल्की चोटें आईं लेकिन देवरानी की रीढ़ की हड्डी में और एक पैर की एड़ी में 'हेयर लाइन फ्रेक्चर' आया जिस कारण उसे दो महीने के लिए बिस्तर पर सीधा लेटना पड़ा. शूगर और हाई बीपी की मरीज़ के लिए जो बहुत मुश्किल होता है इस तरह लगातार लेटना. बिजली से गतिशील हवाई गद्दे का इस्तेमाल किया गया ताकि बेडसोल्ज़ न हों. गूगल के ज़रिए पहली  बार 'कैथेटर' का इस्तेमाल करना सीखा. एक साथ सब की मेहनत और लगन से देवरानी भी उठ खड़ी हुईं. 2 अक्टूबर को फिज़ियोथैरेपी के लिए भारत लौट गईं...

अक्टूबर 10 को हम पति-पत्नी दुबई पहुँचे दोनों बच्चों से मिलने. कहते हैं जितना मिले उसी में खुश रहना आना चाहिए दस दिन की खुशी लेकर हम भारत पहुँचे जहाँ कुछ दिन बाद अमेरिका से माँ ने आना था अपने इलाज के लिए. इलाज तो वहाँ भी हुआ लेकिन सेहत ठीक न हुई.  नवम्बर 7 को माँ आईं अपने देश एक उम्मीद लेकर कि स्वस्थ होकर वापिस लौटेंगी. पति अपनी नौकरी पर रियाद लौट गए. हम माँ बेटी रह गए पीछे अपने ही देश में अकेले. अकेले इसलिए कहा क्योंकि आजकल सभी अपने अपने चक्रव्यूह में फँसे जी रहे हैं इस उम्मीद से कि कभी वे चैन की साँस लेने बाहर निकल पाएँगें.

2013 नवम्बर 7 से 2014 मार्च 4 तक लगातार हुए इलाज के दौरान कई खट्टे मीठे और कड़वे अनुभव हुए. सरकारी अस्पताल से लेकर 5 और 7 सितारा अस्पताल तक जाकर देख लिया. आठ महीने से खाँसी हो रही थी उसका इलाज तो किसी को समझ नहीं आ रहा था. दिल की जाँच के लिए बड़े बड़े टेस्ट करवा लिए गए. पानी की तरह खूब पैसा बहाया जिसके लिए माँ की डाँट भी खानी पड़ी. हम माँ बेटी दो लोग साथ थे फिर भी अकेलापन लगता. समझ नहीं आता कि किस उपाय से माँ की खाँसी और कमज़ोरी दूर हो...

पता नहीं भले स्वभाव के लोग कम क्यों होते हैं लेकिन जितने भी होते हैं वे दिल में बस जाते हैं. माँ के वापिस लौटने के दिन आ रहे थे और उधर बीमारी जाने का नाम नहीं ले रही थी. घर के नज़दीक की मदर डेरी पर बैठने वाले सरदारजी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते..यूँ ही कह गए कि अगर विश्वास हो तो गुरुद्वारे में बैठने वाले डॉक्टर को एक बार दिखा दीजिए. कभी कभी आस्था और विश्वास से भी लोग ठीक हो जाते हैं. उनकी आस्था का आदर करते हुए माँ को वहाँ दिखाया.

शायद आस्था और विश्वास का दिल और दिमाग पर असर होता है या संयोग था कि 'नेबुलाइज़र' और 'इनहेलर' की हल्की खुराक से माँ को कुछ आराम मिलने लगा...हालाँकि यह इलाज पहले भी चल रहा था लेकिन ढेर सारी दवाइयों के साथ. श्रद्धा और विश्वास के कारण ही माँ ताकत की दवा और नेबुलाइज़र और इनहेलर की एक एक डोज़ से अच्छा महसूस करने लगी. पूरे देश में तौबा की सर्दी जिस कारण घूमने फिरने का सपना सपना ही रह गया. माँ को छोड़ कर मैं कहाँ जाती...ब्लॉग जगत के मित्र , पुस्तक मेला या किसी तरह की खरीददारी माँ के साथ से कमतर लगे.

4 मार्च की रात माँ को विदा करके  10 मार्च की वापिसी तय हुई हमारी दुबई के लिए जहाँ एक रात के लिए बच्चों से मिल कर रियाद लौट आए. 11 मार्च वीज़ा खत्म होने की अंतिम तारीख़ थी इसलिए शाम तक रियाद दाख़िल होना ज़रूरी था.

तब से हम यहाँ है रियाद के घर की चार दीवारी में...यहाँ की दीवारें बहुत ऊँची होती हैं लेकिन सबसे आख़िरी मंज़िल के बाद छत से दिखने वाला नीला आसमान सारे का सारा अपना है. 
नीले आसमान पर सिन्दूरी सूरज की बिन्दिया , चमकती बिन्दिया से सुनहरी धूप, धूप से चमकती रेत से शरारत करती हवा,  चाँद का सफ़ेद टीका , नीले आसमान के काले बुरके पर टिमटिमाते टँके तारे सब अपने हैं.... ! 



मंगलवार, 27 अगस्त 2013

ब्लॉग के जन्मदिन पर खिड़की दरवाज़े बन्द !

'प्रेम ही सत्य है ' ब्लॉग के आज छह साल पूरे हुए. छह साल में 2190 दिन बनते हैं जिनमें सिर्फ 319 पोस्ट लिखीं गईं. बहुत कम है लेकिन फिर भी कोई गिला नहीं .... मन ने जब चाहा तब लिखा .... आज बस यूँ ही मन किया कि कुछ दिन के लिए प्रेम जो जीवन का अटल सत्य है , उसे दिल के कमरे में बन्द कर लूँ....  जाने कब तक ऐसा हो .... क्या पता कब तेज़ हवा का झोंका आए और दरवाज़े खोल दे फिलहाल अभी इस ब्लॉग के दरवाज़े बन्द करके... एक खिड़की खुली रखूँ ... हवा के ताज़े झोंको के लिए..... ! ! 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (समापन किश्त )

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ)  (नौ) 

सुधा की कहानी चाहे आज यहाँ खतम हो जाए लेकिन असल ज़िन्दगी में तो उसका हर दिन एक नई कहानी के साथ शुरु होता है और आगे भी होता रहेगा...देखा जाए तो हम सब की ज़िन्दगी का हर दिन नई कहानी के साथ शुरु होता है. पिछले दिनों हम भी बच्चों के साथ थे. मिलना जितना आनन्द देता है बिछुड़ना उतना ही दुख. सुधा का छोटा बेटा जो पिछले दिनों दिल्ली अकेले रह कर नौकरी की तलाश कर रहा था, धीरे धीरे 'डिप्रेशन' में जाने लगा था. वही नहीं उसके कई दोस्त बेरोज़गारी के शिकार तनाव में डूबते उतरते जी रहे थे या कहूँ कि जी रहे हैं. अच्छी पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी अगर नौजवानों को नौकरी नहीं मिलती तो उनकी ज़िन्दगी अच्छी बुरी किसी भी दिशा की ओर बढ़ेगी, इसके बारे में वे खुद भी नहीं जान पाते. 
सुधा के पति ने छोटे बेटे को अपनी ही कम्पनी में लगवा लिया और अब वह अपने माता-पिता के साथ खुश है. जितना खुश अपने लिए है उतना ही दुखी है अपने बेरोज़गार दोस्तों के लिए. अपने बेटे के मुँह से जब सुधा उसके दोस्तों की कहानियाँ सुनती है तो उसे अपना अतीत याद आ जाता है कि अपने देश में नौकरी की तलाश करते हुए धीरज कैसे हिम्मत हार बैठे थे. बूढ़े माँ बाप और पत्नी को अकेला छोड़ना आसान नहीं था लेकिन जीने के लिए जो साधन चाहिए होते हैं उसके लिए पैसे की ज़रूरत होती है. दोस्त , रिश्तेदार और समाज बोलने को बड़ा सा मुँह खोलकर ऊँची ऊँची बातें तो करेंगे लेकिन आगे बढ़ कर कोई मदद नहीं करेगा. 
भूखे पेट भजन न होए ..... पेट भरा हो तो उपदेश देना भी आ जाता है. उस वक्त भी सुधा ने ही निर्णय लिया था कि घर परिवार की खातिर धीरज को अगर विदेश में नौकरी मिलती है तो निश्चिंत होकर जाए. उस वक्त सुधा ने सोचा नहीं था कि जो समाज बड़ी बड़ी बातें करता है वही छोटी छोटी ओझी हरकतों से जीना हराम भी कर देगा. 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अकेली औरत का मनोबल तोड़ने के लिए समाज के सफ़ेदपोश छिपकर वार करते हुए अचानक सामने आकर डराने लगते हैं. अपने आप को देशभक्त कहने वाले लोग नेताओं को कोसने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते. हाँ वक्त के मारे लोगों पर तानाकशी करने से बाज़ नहीं आएँगें. सुधा के मन में कई सवाल उठते हैं .... तीखे सवाल जिनका जवाब किसी के पास नहीं है. सबके पास अनगिनत उपदेशों का पिटारा है. 
एक नहीं हज़ारों सुधाएँ हैं हमारे देश में. जिन्हें बचपन से ही दबा दबा कर दब्बू बना दिया गया. पैदा होते ही उसे ऐसी शिक्षा दी गई कि पुरुष पिता, भाई , पति और पुत्र के रूप में उसका स्वामी है. धर्म से उसका ऐसा नाता जोड़ दिया जाता है कि कोई कदम उठाने से पहले वह सौ बार सोचती है कि अगर आवाज़ उठाने से पुरुष का कोई रूप उससे नाराज़ या दुखी हो गया तो वह पाप होगा और वह नरक में जाएगी. उनकी दासी बन कर ही जीना उसकी नियति है. 
सुधा के विचार में आजकल की पढ़ी लिखी आज़ाद ख्याल औरतें भी कहीं न कहीं उसी दासत्व की शिकार हैं तभी बार बार आज़ादी की बातें करतीं हैं. बूढ़े लाचार माता-पिता को बेसहारा छोड़कर अगर सुधा अपने बच्चों को लेकर मायके चली जाती तब भी समाज के ठेकेदार बुरा भला कहने से बाज़ न आते. सुधा की ज़ुबानी  "औरत की आज़ादी की बात करने वाले लोग मेरी जगह खड़े होकर सोचें कि पति के बूढ़े माँ बाप की सेवा करना उचित है या अपनी आज़ादी...उस आज़ादी का क्या करना जिसका आनन्द लेते हुए बूढ़े माता-पिता को बेसहारा और अकेला छोड़ दिया जाए चाहे उनकी तानाशाही ही क्यों न सहनी पड़े हैं वे अपने बड़े ही जिनको मान सम्मान देंगे तो आने वाली पीढ़ी भी वही सीखेगी." 
सुधा का विश्वास है कि बड़ों की सेवा का फल है जो आज उसके दोनों बच्चे अच्छे संस्कारों के धनी हैं. वे भी अपने माता-पिता की सेवा के लिए हर पल तत्पर हैं. यही नहीं बहू कोमल भी बेटी बनकर परिवार में रच बस गई है. सुधा के सेवाभाव से उसके भरे पूरे परिवार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है.  
इतने दिनों बाद समापन किश्त लिखते हुए मेरे मन में भी सुधा को लेकर हज़ारों सवाल थे जिनके सवाल पाने के लिए सुधा के मन को बहुत टटोला. बहुत कुछ समझा जाना.  लेकिन यहाँ रखकर उसका दिल दुखी नहीं करना चाहती. सुधा को एक औरत की जगह अगर इंसान के रूप में देखा जाए तो इंसान तो अनगिनत चाहतों का भंडार है. बहुत कुछ पाकर भी बहुत कुछ पाने की चाहत उसे चैन से जीने नहीं देती. सब कुछ पाकर भी उसे लगता है कि उसने बहुत कुछ खो दिया है जिसे पाने की चाहत इस जीवन में तो पूरी होगी नहीं. देखा जाए तो हम सब अपने अपने मन के गहरे और अथाह समुन्दर में उठने वाली अनगिनत लहरों की चाहतों में डूबते उतरते हैं...बस इसी डूबने उबरने में ज़िन्दगी तमाम हो जाएगी...!! 

यहाँ अपनी ज़िन्दगी के कुछ हिस्से को अपनी ज़ुबानी कह कर  सुधा का दिल कुछ हलका हुआ फिर भी जानती हूँ उसके तन-मन की कभी न खतम होने वाली तिश्नगी को.......

मेरी पसन्द का एक गीत सुधा के नाम...... 



शनिवार, 22 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (9)

गूगल के सौजन्य से 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह) (सात) (आठ) 

सुधा की असल ज़िन्दगी में तो उसकी कहानी चलती रहेगी लगातार लेकिन यहाँ  उसी की इच्छा  के मुताबिक अगली किश्त अंतिम होगी..... ! 

सुधा जब शहर आई थी तो बड़ा बेटा आठ्वीं में और दूसरा बेटा सातवीं में था. गाँव से शहर आकर बसना आसान नहीं था. 19 साल माँ बाऊजी का साथ था और यहाँ अकेले बच्चों का पालन-पोषण करना था. गाँव से स्कूल दूर पड़ते थे. वक्त के अभाव में पढ़ाई पर बहुत असर होता, गाँव में ट्यूश्न पढ़ाने वालों का भी अभाव था. खैर गाँव से शहर आ गए नए घर में. धीरज जा चुके थे . 
सुधा ने एक छोटे से हवन के साथ ग़ृह-प्रवेश किया जिसमें धीरज की दोनों बहनें थीं और कुछ नए घर के आसपास के नए पड़ोसी थे. हवन के दौरान गाँव के दो आदमी किसी काम से नए घर में आए. सुधा से बात करके दरवाज़े से ही लौट गए. 
जाने क्या सूझी कि छोटी ननद सबके सामने ही सुधा को आड़े हाथों लेकर बुरा-भला कहने लगी. गाँव की 'यारियाँ' वहीं छोड़ कर आनी थीं. यहाँ ऐसे नहीं चलेगा. फिर ऐसा हुआ तो गला दबा देने तक की धमकी दे डाली.  सुधा समेत वहाँ बैठी सभी औरतें हैरान थीं. कुछ ही देर में सभी बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गईं. गाँव में बड़ी ननद घर के नज़दीक थीं तो यहाँ शहर में छोटी ननद का घर नज़दीक था. नए शहर में , नए पड़ोस में  सुधा के चरित्र को उछाल दिया गया था. हवन खत्म होते ही वे भी अपने घर चली गईं थी. छोटी ननद ने एक बार भी नहीं सोचा था कि नए माहौल में उसकी बात का क्या असर होगा. 
19-20 साल तक माँ-बाऊजी की सेवा करने के कारण सुधा गाँव के लिए एक आदर्श बहू का जीवंत उदाहरण थी. लोग उसका आदर करते. उसका छोटे से छोटा काम करना भी अपना सौभाग्य मानते. माँ बाऊजी या छोटे बेटे के लिए गाँव के डॉक्टर आधी रात को आने को तैयार रहते. गाँव के सरपंच भी किसी काम के लिए उसे मना न करते. गाँव की बनी बनाई इज़्ज़त के बारे में सोचे बिना छोटी ननद ने नए लोगों के सामने ऐसा कहा कि सालों तक उसका जीना दूभर हो गया. 
समाज हमसे ही बनता है और हम ही समाज को अच्छा बुरा रूप देते हैं. यही समाज अकेली औरत का जीना मुश्किल कर देता है. किसी पर-पुरुष से बात करते देख उसपर हज़ारों लाँछन लगा दिए जाते हैं. आज भी अपने देश के दूर दराज के गाँवों और छोटे शहरों की सोच का दायरा संकुचित ही है. हैरानी तो इस बात की होती है कि लोग आधुनिक लिबास और खान-पान को जितनी आसानी से अपने जीवन में उतार लेते हैं उतना ही मुश्किल होता है उनके लिए अपने दिल और दिमाग की सोच को विस्तार देना. 
सुधा  दो किशोर बेटों के साथ नए माहौल में रहने की पूरी कोशिश कर रही थी. फिर भी घर में कोई भी आता तो पड़ोस सन्देह भरी निगाहों से देखता. सुधा ने अपनी हिम्मत और अच्छे व्यवहार से जल्दी ही सबका दिल जीत लिया. पड़ोसियों की कही बातें अब भी नहीं भूलतीं उसे फिर भी अकेले रहने के कारण न चाहते हुए भी कई बातों को नज़रअन्दाज़ करके रहना पड़ता है. धीरज के साथ न होने के कारण सुधा कई बार ज़हर का घूँट पीकर रह जाती. 
नारी आज़ादी और उसके मान-सम्मान की बातें उसे झूठीं लगतीं. 27 सालों में सुधा ने जो झेला सब के पीछे कहीं न कहीं कोई औरत ही होती जो उसका जीना मुहाल कर देती. पुरुष तमाशबीन सा दिखता जो दूर से ही तमाशा देखते हुए बिना दखलअन्दाज़ी किए अपनी सत्ता सँभाले रखता. 
 नौवीं कक्षा में आते आते बड़े बेटे की शरारतें बढ़ती गईं. स्कूल जाने के नाम से ही वह बिदकने लगता. छोटा बेटा अभी भी बीमार था. स्कूल ने उसका साथ दिया और घर पर रह कर भी उसकी उपस्थिति दर्ज होती रहती. सुधा की पूरी कोशिश होती कि बच्चों में अच्छे संस्कार डाल सके. पढ़ाई का महत्व बताती क्यों कि उसे अपने घर में दसवीं के बाद पढ़ने का मौका नहीं मिला था. 
स्कूल के दिनों बड़े बेटे की शिकायतों से परेशान सुधा कभी कभी उसपर हाथ भी उठा देती. बाद में चाहे रो लेती. धीरज छुट्टी आता तो बार बार कहने पर भी वह बच्चों को न डाँटता और न कभी उन पर हाथ उठाता. उसकी अपनी सोच थी. कुछ दिनों की छुट्टी में आकर बच्चों के सामने बुरा क्यों बनना. सारा जिम्मा सुधा पर ही डाल देता. खैर सुधा अकेली डटी थी दो बेटों को लेकर गृहस्थी सँभालते हुए दिन बीतते जा रहे थे. 
सुधा बेटों को एक ही बात कहती कि मर्यादा लाँघ कर कोई ऐसा काम न हो जाए कि उस पर या विदेश में बैठे पिता के नाम पर बट्टा लग जाए. बच्चे जो देखते उसी हिसाब से चलते हुए अच्छे नम्बरों में स्कूल पास किया. कॉलेज पहुँच गए. पिता के दूर होने पर भी बच्चों में कोई बुरी आदत पनपने नहीं पाई थी. कॉलेज जाते बच्चों का ऐसा चरित्र सुधा की लगन और मेहनत का फल था. उसके अपने अच्छे और मज़बूत चरित्र ने बेटों को संस्कारी बनाया. हालाँकि परिवार और रिश्तेदार सुधा के इस काम को भी महत्त्व न देते. धीरज और उसके अच्छे खानदान का उदाहरण देते कि इस खानदान में तो आजतक कोई बुरे चरित्र वाला हुआ ही नहीं. 
दोनों बेटों ने बहुत करीब से माँ के सेवाभाव और त्याग को देखा था. माँ उनके लिए भगवान से भी बढ़कर थी. जिस माँ को उसके पति ने बरसों तक अपने से अलग रखा उसके लिए उसी माँ ने बच्चों में भी अपने जैसा ही आदर भाव डाला. बच्चों के लिए माता-पिता भगवान से भी बढ़कर. दोनों बेटों के ऐसे भाव देख कर सुधा और धीरज खुशी से फूले न समाते. अच्छी संतान को सामने देखकर जीवन जैसे सफल हो गया. तपस्या पूर्ण हो गई. दोनों बेटे दिन रात अपने माता-पिता को सुख देने के उपाय खोजते हैं. 
इसी बीच सुधा ने अकेले ही एक और जिम्मेदारी का बोझ अकेले उठाया और बड़े बेटे के लिए सुन्दर सी बहू चुन लाई. ऊँची पढ़ाई के लिए विदेश जाते बेटे को अकेले भेजते वक्त उसे अपने पति की याद आई जिसने इतने सालों अकेले ही ज़िन्दगी बसर कर ली. वही इतिहास दुबारा न दोहराया जाए इसलिए उसने बेटे की शादी करके बहू के साथ विदा करने की ठान ली. धीरज मन ही मन अपनी पत्नी की तारीफ करता है जिसने इस बड़े काम को भी अकेले ही अंजाम दिया. बड़ी धूमधाम से बेटे की शादी की. इस शादी की एक खासियत यह थी कि अच्छी बहू पाने के लिए जात-पात की परवाह किए बिना सुधा ने अपनी जाति से बाहर की लड़की पसन्द की थी. सुधा और धीरज बहू के रूप में बेटी पाकर अपने को धन्य मानने लगे. छोटा बेटा भाभी में माँ और बहन पाकर सातवें आसमान पर उड़ रहा था. 
अब दोनों बेटों की बारी थी. वे अपनी माँ को पिता से मिलाने के लिए साधन जुटाने लगे कि कैसे दोनों एक साथ रह सकें. बरसों के बाद दोनों बेटों की कोशिशों से आज सुधा अपने पति के साथ खुश है. सुधा और धीरज साथ-साथ रहते हैं लेकिन जाने सुधा के दिल और दिमाग में क्या चलता रहता है कि रह रह कर उसे तनाव घेर लेता है. प्यारी सी बहू जो बेटी बनकर हर रोज़ सुधा से नेट पर बात करती है. दोनों बेटे बिना नागा उसे 'गुड मॉर्निंग' कह कर अपनी प्यारी मुस्कान भरी तस्वीर भेजते हैं.उन्हें देखकर बच्चों जैसी हँसी हँस देती है. कुछ देर उनके साथ बच्चा बन जाती है फिर कुछ वक्त के बाद अजीब से अवसाद से घिर जाती है. 
पूछती हूँ तो कहती है उसे खुद समझ नहीं आता कि वह क्यों बार बार तनावों के जाल में उलझ जाती है. 'अच्छा दीदी, आज यह गीत सुनो जो सुबह से बार बार सुन रही हूँ शायद आपको कोई जवाब मिल जाए' कह कर यूट्यूब का यह लिंक भेज देती है ---- 
"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ......."  



क्रमश: 

सोमवार, 17 जून 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (8)

गूगल के सौजन्य से 
सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की हर बात मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ ' .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....   
सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी -  भाग (एक) , (दो) , (तीन) , (चार) , (पाँच) , (छह),  (सात) 

सुधा को लगता है कि ज़िन्दगी की कुछ खास बातों का ज़िक्र रह गया है जिन्हें दर्ज करना ज़रूरी है. उसी के लिखे में कुछ संशोधन करके जस का तस यहाँ उतार रही हूँ ---- 

जब पहली बार मुझे अकेला छोड़ कर ये विदेश गए थे तो मन में बच्चे के जाने का गहरा दुख था. दूसरी ओर अपने माता-पिता के सहारे मुझे छोड़ गए थे या मुझ पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी, ऐसे में समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वक्त गुज़रेगा. अकेलेपन का दर्द और घर के हालात देख कर हँस कर विदा करना पड़ा. माता-पिता का स्वभाव भी समझ में आ रहा था परंतु जिन माता-पिता ने जन्म दिया है उनके प्रति फ़र्ज़ अदा करना हर बेटे का कर्म है सो मुझे माता-पिता के पास रहना स्वाभाविक ही था. अपने माता-पिता के सख्त स्वभाव के कारण अगर हम उन्हें नहीं छोड़ पाते तो फिर पति के माता-पिता को कैसे छोड़ा जाए. ऐसा करना मर्यादा से बाहर जाना होता, यही सोच कर पति के माता-पिता को अपना मान कर उनकी सेवा करना अपना फ़र्ज़ समझा.   माँ का स्वभाव नहीं बदला, मुझे अकेले देख कर भी उसे तरस नहीं आता, बात बात पर गुस्सा करती. घर के किसी अकेले कोने में रो लेती फिर उन्हें आकर प्यार करती, गलती हो या न हो उन्हें खुश करने के लिए उनके गले से लग जाती. 

वक्त बीतता गया तब तो गाँव में फोन भी नहीं होते थे सिर्फ खत ही लिखे जाते थे, 15-20 दिन में मुश्किल से एक खत आता. घर के गेट पर खड़े होकर डाकिए की बाट जोहती कि मेरा खत लेकर आएगा लेकिन वह तो आता मेरा खत न आता. मन बहुत उदास हो जाता. बाऊजी नरम दिल के थे सिर पर हाथ फेर कर कहते रोना नहीं बच्चू... कल तेरी चिट्ठी ज़रूर आएगी. उनका इतना कह देना ही मन को हौंसला दे जाता कि बाऊजी तो मेरे दिल का दर्द समझते हैं. 
दिल के दर्द को हलका करने के लिए उसे काग़ज़ पर उड़ेल देती -- 

"आस का दीपक जलते जलते सुबह से हो गई शाम 
अब तो थक कर बैठ गए हैं क्या होगा अंजाम 
इस दीपक की लौ है धीमी, शायद इसमें तेल नहीं है
विरह अग्नि में जलते रहेंगे होगा जब तक मेल नहीं 
कुदरत की करनी है ऐसी जिस्म से जान अलग न हो 
मन से दूर नहीं वो लेकिन तन की दूरी चाहे हो 
साया बनकर साथ चलें वो इन पलकों की छाँव में 
देंगे आकर वही सहारा काँटा चुभे जो पाँव में 
आस का दीपक जलेगा फिर भी चाहे खत्म हो जाए तेल 
दिल में प्यार अगर है सच्चा जल्दी होगा अपना मेल !"

जब भी मन उदास होता ऐसे ही मन के भाव लिख कर अपने आँसुओं को रोक लेती --- 

" उस माँ ने किया है न जाने क्यों मुझसे मज़ाक , 
अश्क देकर ज़िन्दगी से मुस्कान छीन ली 
चुलबुली बुलबुल थी मैं छोटी सी थी बगिया मेरी,
 हँसती खेलती ज़िन्दगी की हर कहानी छीन ली 
तन-मन-धन से की सेवा जो भी मुझसे बन सका, 
पर मिला क्या इस जहाँ में एक नफ़रत के सिवा 
जिससे भी की दोस्ती उसने ही धोखा दे दिया, 
आगे क्या हो ज़िन्दगी में ये भी कुछ पता नहीं 
अब तो दिल में ये तमन्ना है के वो मुझसे मिले,
हाथ देकर हाथ में प्यार से बस ये कहें 
मैं ही तेरी ज़िन्दगी हूँ मैं ही तेरा प्यार हूँ ,  
मायूस ना हो मेरी जाँ बस मैं ही तेरा यार हूँ 
मैं तुझे दूँगा सहारा दुख में घबराना नहीं, 
तेरी बगिया में खुशी है कोई वीराना नहीं 
मुस्कुराहट तेरी तेरे होंठो पर ले आऊँगा, 
बस मेरी जाँ अब ना घबराना मैं जल्दी आऊँगा !! " 

एक साल के लम्बे इंतज़ार के बाद धीरज घर आते. खुशी मिलती लेकिन घर का बोझिल माहौल न बदलता. माँ बाऊजी का स्वभाव उन दिनों और भी तीखा हो जाता. दोनों अपनी अपनी ज़रूरतों की बात करते तो धीरज घर से बाहर भागते. दोनों बच्चों के जन्म के बाद से ही बाऊजी ने बिस्तर पकड़ लिया था. दिन ब दिन चलना-फिरना, उठना-बैठना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा था. इनकी छुट्टियाँ पंख लगा उड़ जातीं और लगता कि अभी कल ही तो आए थे और फिर वापिसी की तैयारी शुरु हो जाती. ये वापिस लौट जाते और मैं फिर पुरानी दिनचर्या में जुट जाती. छोटा बेटा बीमार उधर से बुज़ुर्ग सास-ससुर. लगता था कि दो नहीं मेरे चार बच्चे हैं. दो छोटे-छोटे बच्चे और दो बुज़ुर्ग जो बच्चों की तरह ही थे. 

गाँव से दूर बीमार बेटे को लेकर जाने किस किस शहर घूमती उसके इलाज के लिए. दुनिया का कोई इलाज नहीं छोड़ा. बीमार बेटे को लेकर निकलती तो गाँव की औरतें तरह तरह की बातें बनातीं. 'पता नहीं कैसा इलाज है हर आए दिन शहर चल देती है' कोई कहता, 'पति घर पर नहीं है और ये बूढ़े सास-ससुर को छोड़ कर घर से निकल जाती है' 'बेशर्म कहीं की, अकेले घर से बाहर निकलते हुए शर्म भी नहीं आती' एक औरत ने तो रास्ता रोककर एक बार मुँह पर ही कह दिया, 'सुधा, तेरी तो मौज है, घर वाले घर नहीं हमें किसी का डर नहीं' सुन कर सन्न रह गई. बच्चे की हालत दिखाकर एक बद्दुआ सी निकली मुँह से कि बीमार बच्चे के साथ ऐसे अकेले घूमना सब को नसीब हो. अकेली औरत घर परिवार बच्चे और बूढ़े सँभाल रही है चाहे कैसे भी उसकी तारीफ़ कोई नहीं कर सकता तो किसी को निन्दा करने का भी हक नहीं. माँ थी मैं जो भी जहाँ भी इलाज के लिए जाने को कहता चल देती. एक माँ के लिए बच्चे की सेहत सबसे अहम बात होती है. 

कहते हैं माता-पिता 10 बच्चों को पाल सकते हैं लेकिन 10 बच्चे माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकते क्योंकि सबके अपने अपने परिवार होते हैं. कोई अपने छोटे घर होने का रोना रोता है तो कोई पैसा न होने का. सभी के अपने अपने कारण होते हैं. कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ रखना भी चाहें तो वहाँ के नियम-कानून ऐसा करने से रोक देते. बात सिर्फ इतनी सी है कि जो आस-पास रहते हैं वे ही अगर वक्त वक्त पर आकर माता-पिता की सुध लें तो सेवा करने वाले बेटे-बहू को हौंसला मिल जाता है. 

मेरे ससुराल का हाल कुछ उलटा था. माँ-बाऊजी का जब भी दिल उदास होता तो खत लिख कर दिल्ली से दोनों बेटों को बुला लेते. वे भी औपचारिकता निभाते हुए आते, एक दो रात रह कर घर का माहौल और भी बिगाड़ कर चले जाते. मेरी छोटी-छोटी गलती को पकड़ कर आरोप लगा दिया जाता कि मुझे बुज़ुर्गों का ख्याल रखना नहीं आता. यही नहीं माँ-बाऊजी को मेरे खिलाफ़ भड़का कर घर के माहौल को और भी बोझिल बना कर चल देना सब को खुश कर देता. दूसरी तरफ विदेश से  बेटा-बहू आते तो घर की रौनक ही कुछ और हो जाती. मस्ती, हँसी और खुशहाली से दो चार दिन भी बहुत अनमोल लगते. उनका कुछ दिन का रहना कई कई दिनों तक माँ बाऊजी के चेहरों पर यादों की मुस्कान बिखेरे रखता जिससे मेरा जीना आसान हो जाता. मेरे दोनों बच्चे भी खुश होकर उनके आने का इंतज़ार करते और उनके जाने पर उदास हो जाते.

बीमार बच्चे के साथ साथ बाऊजी भी बिस्तर पकड़ चुके थे. अचानक माँ को दिल का दौरा पड़ गया. फौरन उन्हें शहर के अस्पताल ले गए जहाँ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि घर पर ही उनकी सेवा की जाए. उन दिनों नवरात्रे चल रहे थे, मन ही मन माँ से विनती करने लगी, 'हे माँ, अगर मेरे मन में आपके प्रति सच्ची लगन  है तो मेरी सासू माँ की ज़िन्दगी बख्श दो ताकि मेरे ऊपर कलंक न लगे कि मैंने उनकी सेवा नहीं की. चाहती हूँ इनका बेटा इनके पास हो, कोई ये न कह सके कि चार बेटों के होते हुए एक भी पास नहीं था. इस परिवार की और मेरी इज़्ज़त आपके हाथ है देवी माँ. जैसे तुम मेरी माँ हो इस माँ को भी मैं ऐसे ही पूजती हूँ. अगर ये स्वस्थ हो जाएँ तो इनके चरण धोकर चरणामृत पीऊँगी. उस जगत माता ने मेरी पुकार सुन ली और माँ का स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधरने लगा. मन को हौंसला मिला लेकिन फिर भी एक बात मन को कचोटती रहती कि सेवा करने के लिए कोई भी बेटा उनके पास नहीं है. 

धीरज विदेश में थे फिर भी पैसे की तंगी रहती ही थी. बच्चे स्कूल जाने लगे थे. दो बुज़ुर्ग और दो बच्चे स्कूल जाने वाले उनमें से एक बच्चा बीमार जिसकी देखरेख के लिए पैसे की ज़रूरत लगी रहती है. सोचा कुछ करूँ ताकि घर खर्च में कुछ मदद हो सके. कहते हैं हाथ का हुनर काम आता है. घर पर ही गाँव की लड़कियों को पेटिंग सिखाना शुरु कर दिया. हाथ का हुनर काम आया और दो पैसे भी बनने लगे. सब ठीक होने लगा कि माँ फिर से बीमार पड़ गईं. उनकी सेवा के लिए पेटिंग सिखाना बन्द करना पड़ा. माँ की सेवा , बिस्तर पर पड़े बाऊजी की देखभाल उस पर बीमार बेटे का ख्याल इतना व्यस्त कर देता कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं होता. माँ बाऊजी लगभग दोनों ही मेरे लिए बच्चों जैसे थे. माँ ने कभी पहले भी काम नहीं किया था अब तो चारपाई पर बैठे बैठे साग सब्ज़ी काट छील देती तो वही बहुत लगता. बाऊजी के सारे काम बिस्तर पर ही होते. इतना कुछ होते हुए भी कुछ करने की चाह से थकावट दूर हो जाती. मनियारी का सामान रख लिया जब भी कोई आएगा तो बस सामान देना है उस वक्त. इन्हीं छोटे छोटे कामों से मन बहल जाता और दो पैसे भी जुड़ जाते.

सब कहते हैं लड़की अपने पाँवों पर खड़ी हो तभी उसकी शादी करनी चाहिए. नौकरी या लघु व्यवसाय किसी भी काम में जाना मुश्किल नहीं लेकिन अगर ऐसे परिवार में शादी हो जाए जहाँ पति विदेश में हो और उसके बुज़ुर्ग माता-पिता और दो बच्चे जिनमें से एक बच्चा बीमार हो तो क्या किया जाए. फिर भी औरत इन हालातों से जूझती हुई जीवन बसर करती रहती है. मैं भी जी रही थी जीवन की हर मुश्किल को अकेले झेलने की आदत सी हो गई थी. अचानक माँ को फिर से दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया. उन दिनों धीरज छुट्टी पर आए हुए थे. माँ को अपने हाथों विदा करके भारी मन से ये फिर चले गए. 

किस्मत का लिखा कोई नहीं बदल सकता क्योंकि एक बार फिर घर से शुरु किया काम बन्द करना पड़ा. बाऊजी अब पूरी तरह से बिस्तर पर थे. घर से बाहर निकलने का तो सवाल ही नहीं था. बाऊजी को सूसू पॉटी और नहाने के बाद कपड़ बदलने तक का जिम्मा मेरा था. बहू नहीं उनकी बेटी बन कर सेवा करती थी. बच्चे की तरह गोद में उठा कर आँगन में जहाँ भी धूप होती वहीं चारपाई पर बिठा देती. बुज़ुर्गों की सेवा करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन औरत होने के नाते कई  बार मुश्किल लगता. सोचती काश कि धीरज मेरे साथ होते या कोई बेटा महीने में एक बार कुछ दिन के लिए ही आ जाता. कभी कभी बाऊजी अपनी लाचारी पर रोने लगते. उन्हें देख कर मुझे रोना आता कि बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी कैसी होती है. धीरे धीरे अपने ही शरीर से लाचार हो जाते हैं. चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते. 

गाँव वाले सब देखते और मेरी मिसाल देते कि बहू हो तो ऐसी लेकिन घर परिवार के लोग उतना ही मुझसे चिढ़ते. मुझ पर आरोप लगाते कि दो रोटी खिलाना ही सेवा नहीं है. माँ के देहांत के बाद बाऊजी एक साल भी न रह पाए और वे भी हमें छोड़ कर चले गए. 84 साल की माँ और 92 साल के बाऊजी के जाने के बाद भी यही सुनने को मिलता कि सुधा माँ बाऊजी को वक्त पर रोटी नहीं देती थी इसलिए वे जल्दी चल बसे. मेरे मासूम बच्चे मेरे सेवाभाव को अपनी आँखों से देखते और समझते. कई बार बच्चों ने भी मेरी मदद करते हुए अपने दादाजी की पॉटी रूई से साफ की. उन्हें कपड़े पहनने में मदद की. 

माँ बाऊजी के गुज़रने के बाद 3 साल तक गाँव में ही रही फिर बच्चों की बड़ी पढ़ाई के लिए शहर आना पड़ा. एक छुट्टी में आकर धीरज ने शहर में घर खरीदा और हम गाँव से शहर आ गए. बच्चे अभी स्कूल में ही थे लेकिन अब एक नई जिम्मेदारी सिर पर थी. दो बेटों को अच्छे संस्कार देने का काम भी मुझ पर आ गया था. अब मैनें बच्चों को माँ की ममता और पिता का अनुशासन देने के लिए कमर कस ली थी अकेले ही." 

क्रमश: