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बुधवार, 14 सितंबर 2011

आज की नई कविता का रूप सौन्दर्य

हिन्दी दिवस पर आज के युग की कविता के बारे में लिखने का मन बना तो उसके दो रूप आँखों के सामने आ गए....अलंकारों से सजी छन्द युक्त कविता और अलंकार रहित छ्न्द मुक्त कविता...दोनों का ही अपना महत्व है.... ऐसा नहीं है कि नए रूप को देख कर पुराने से मोह कम हो जाता है... पुराने से मोह कहाँ छूट पाता है हाँ नए का आकर्षण भी खूब लुभाता है..... बस इसी बात को सोचते सोचते जो भी दिल और दिमाग में आया उसे उंगलियों ने कीबोर्ड के द्वारा यहाँ सजा दिया....... 

अलंकार रहित, छन्द मुक्त रूप  है आज की नई कविता का ...
फिर भी मन दीवाना है  उसकी  सीधी सच्ची सादगी का...
नई कविता के लिए 'नया' शब्द न विशेषण है न फैशन  है...
नया युग नई संवेदना, नए शिल्पों को रेखाकिंत करता है..

सोच समझ कर कवि अज्ञेय ने कविता को नई कविता कहा..
मुक्तिबोध और अज्ञेय बने नई कविता के प्रवर्तक कवि...
परम्परावादी कहते 'परम्परा विरोधी-विदेशों के नकलची'
जब जब बदलाव की ब्यार चली,  विद्रोह की आग जली...

छायावादी कविता  कभी  थी विद्रोही कविता
अब उसे कोसने लगी है आज की नई कविता
छायावाद को कल्पना और करुणा का विलास माना
यथार्थवादी चेतना और युग-बोध को प्रबल जाना ..

नई कविता इसी विद्रोह का परिणाम है...
और आज यही कविता संपूर्ण जीवन को
अन्दर बाहर से समझना समझाना चाहती है...
हर मन:स्थिति को चित्रित करने से घबराती नहीं है..
हर परिस्थिति का बेबाकी से अंकन कर जाती है...

अपने ब्लॉग़ जगत की जिन कविताओं को पढ़ा , समझा और सराहा....उन्हें यहाँ संजो लिया...

"ज़िन्दगी की गाड़ी 
कभी एक पहिये से नहीं चलती
एक पहिये पर तो करामात दिखाए जाते हैं
वह भी कुछ देर के लिए
पूरी ज़िन्दगी में दो पहिये
फिर तीन ... फिर ....
साथ साथ मिलकर चलना ही जीवन को पाना है" (रश्मि प्रभा)  

"मान लूँ
तुम्हे 'पुरुष'
सिर्फ इसलिए
कि-
क्षमता है तुम में,
बच्चे पैदा करने की !
भोग न सको,
जब तक ;
स्त्री के मन को -
मेरे लिए ,
'नपुंसक' ही हो तुम !" (बाबुषा) 


"बचपन के आँगन से बाहर ...
जवानी तक तो मै पहुंची भी नहीं थी कि
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख" (उषा राठोड़) 


"धीमे बोलने के बावजूद 
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब ..  (दिगम्बर नासवा) 



"ना जाने कितने रिश्ते मर रहे हैं
पहन कफ़न समाज का
ना जाने कितने रिश्तों को मारा जा रहा है
पहना के कफ़न समाज का
जो सब से ज्यादा देते है दुहाई
समाज की
सब से कम देखा हें
उन्हे ही मानते नियम
समाज का" (रचना ) 


कोशिश की,
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश,
सबका हो जाऊं,
नाकामयाब ही रहा |   (अमित श्रीवास्तव)


रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं (अनूप भार्गव) 


तल्खियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये 
आप में कोई बुराई हो न हो 
आप ख़ुद को नित टटोला कीजिये 
दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का 
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये   ( नीरज गोस्वामी) 




ब्लॉगजगत को हिन्दी -दिवस  पर शुभकामनाएँ  ..! ! 


क्रमश: 




मंगलवार, 13 सितंबर 2011

परिवर्तन को सहज स्वीकार किया...

जीवन गतिशील है सोच लिया.... परिवर्तन को सहज स्वीकार किया ...
ब्लॉग को नया रूप  दिया....सफ़ेद दीवारों पर नीला  रंग किया ...
बदले रूप को देखा तो .......
आसमानी रंग का प्रतिबिम्ब सजा कर लहराता  सागर याद आया... 
सागर की चंचल लहरों को अपना सुनहरी रूप रंग देता  सूरज भाया ... 
निस्वार्थ भाव से जलता सूरज देखा जब गीत पुराना इक याद आया....
जलते सूरज का गीत सुना तो ...... 
सत्यवादी  हरिश्चन्द्र तारामति के संग-संग नन्हें बालक का जादू छाया ... 


शनिवार, 10 सितंबर 2011

चलती क़लम को रोक लिया 2

(करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान - और अगर अभ्यास ही न रहे तो सिल पर निसान कैसे पड़े. कल ऊपर लिखी कविता को रीपोस्ट करते हुए पुरानी पोस्ट को खो दिया था जिसे ढूँढने का रास्ता(गूगल) शुक्लजी ने बताया जिसे हम  हमेशा  से ही इस्तेमाल करते हैं... भूलने की बीमारी हो गई है लेकिन इसे उम्र का तकाज़ा तो कतई नहीं कहेंगे ...हाँ यह कह सकते हैं कि इंसान गलतियों का पुतला है और ताउम्र सीखता रहता है  ...उसी दौरान पता ही नहीं चला कि कुछ ऐसा क्लिक हुआ है जो टिप्पणी देने के ऑप्शन को बन्द कर देता है..आज खुद ही ढूँढने की कोशिश की कि कहाँ गलती कर गए...और अंत में टिप्पणी का ऑप्शन खोल ही दिया...) 

अपने मन की हलचल को अपने ही ब्लॉग़ के मन से बाँट लेने से बढ़ कर और कोई बात नहीं... अतीत की यादों को कविता में उतारा था कभी... आज कुछ फिर ऐसा हुआ कि उस कविता की याद आ गई सो रीपोस्ट कर रही हूँ .......... !!  

छोटे बेटे द्वारा बनाया यह चित्र मुझे बहुत पसन्द है 




पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.


दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.


नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.


सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.


साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.


सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.



रविवार, 28 अगस्त 2011

कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन ....

कल की पोस्ट करते वक्त कुछ तकनीकी अज्ञान और कुछ मन की भटकन .... 
सब मिल कर गडमड हो गया.... 

अपने एक परिचित मित्र के मित्रों की दास्ताँ ने मन बेचैन कर दिया... 

लड़की 24-25 साल की है .....
28 साल के पति के साथ सालों की दोस्ती के बाद अभी छह महीने ही हुए थे शादी को...  
मस्ती करने गए थे समुन्दर में.... जो महँगी पड़ गई..... 
लड़की के पति बोट के किनारे पर बैठे अपना संतुलन खो बैठे और पीछे की तरफ़ गिर गए .... 
मित्रों ने फौरन निकाल लिया लेकिन रीढ़ की हड्डी को बहुत नुक्सान पहुँचा ......
अस्पताल में इलाज चलते पता चला कि वेजीटेबल स्टेट में हैं... 
लाइफ स्पोर्ट के यंत्र बस निकालने का फैंसला करना है......... 
लड़की अपने मन के भावों को संयत करती हुई बात करती है ... 
लेकिन जाने मन में कैसे कैसे झंझावात चल रहे होगे......!!!  

ऐसे हादसे अतीत की कड़वी यादों में ले जाते हैं..... 
मन अशांत हो जाता है....
मन अशांत हो तो जीवन ढोने जैसा लगता है....
समझो तो जीवन बुलबुले जैसा हल्का और क्षणभुंगुर भी लगता है ..... 

माँ से बात होती है तो मन बच्चे जैसा फिर से सँभलने लगता है .... 
बच्चा सा बन कर पल में रोते रोते फिर से हँसने लगता है.... 

अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियों बार बार याद आती हैं और  मन गुनगुनाने लगता है ...... 



"साँसों का पैमाना टूटेगा, 
पलभर में हाथों से छूटेगा
सोच अचानक दिल घबराया,
ख़्याल तभी इक मन में आया  
जाम कहीं यह छलक न जाए, 
छूटके हाथ से बिखर न जाए
क्यों न मैं हर लम्हा जी लूँ, 
जीवन का मधुरस मैं पी लूँ." 





शनिवार, 27 अगस्त 2011

ज़िन्दगी एक बुलबुला है !

ज़िन्दगी एक बुलबुला है 


  आज के दिन ........ 
"  प्रेम ही सत्य है"  ब्लॉग जन्मा था .... हमेशा ज़िन्दा रहेगा अंर्तजाल पर  डॉ अमर कुमार की तरह ..... 
ब्लॉग को जन्म देने वाला न रहेगा....  कभी अचानक वह भी चल देगा डॉ अमर की तरह ..... 


Dr.Amar Favorite Quotation on Facebook : "  मुझे पढ़ लो, हज़ार कोटेशन पर भारी पड़ूँगा"  


चेतन जगत को लेकर कुछ ऎसे ही ख़्यालात मेरे भी हैं.. पर मृत्यु के बाद क्या और कैसे होगा.. यह नहीं सोचता । 
मूँदहू आँख कतऊ कछु नाहीं... कौन अपना जिया जलाये जिस तरह परिजन चाहें.. क़फ़न दफ़न करेंकुछ तो करेंगे हीदुनिया को दिखाना होता है... वैसे न भी कुछ करें मृत प्राणी को क्या फ़र्क़ पड़ता हैजिन्दा में घात प्रतिघात.. मरने पर दूध भात !  on आख़िरी नींद की तैयारी


नहीं जी, कम से कम मैंने तो आपकी पिछली पोस्ट का कोई अनर्थ न लिया. बरसों पहले (शायद 1982 में) एक अठन्नी के बदले किसी अनाम फ़क़ीर ने दुआ दी कि, “ज़िन्दगी में हमेशा मालिक को, और मौत को याद रखा करो, ताउम्र बिना कोई गलती किए सुखी रहोगे.” यह सूत्र मैंने अपना लिया है, मुझे किसी बात से कोई भय नहीं लगता. एक दूसरा सूत्र और भी...लेकिन वह यहाँ उतना प्रासंगिक नहीं है. आपके होनहार द्वय के चित्र व संगीत सँयोजन उत्कृष्ट के आस कहीं पर ठहरे हुए हैं...किंतु चीकने पात दिख गए. on यही तो सच है......


शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जीवन का ज्वार-भाटा


नर और नारी

सागर किनारे बैठे थे 
झगड़ा करके ऐंठे थे 
रेत पर नर नारी लिखते 
लम्बे वक्त से मौन थे
नर ने मौन तोड़ा
नारी को लगा चिढ़ाने
दो मात्राओं की बैसाखियाँ
लिए हर दम चलती नारी
मै बिन मात्रा के हूँ नर
बिना सहारे चलता हरदम
नारी कहाँ कम थी
झट से बोल उठी
दो मात्राओं से ग़रीब
बिन आ-ई के फक़ीर
कमज़ोर हो तुम
बलशाली होने का
नाटक करते हो 
सुन कर नर भड़का
नारी का दिल धड़का
तभी अचानक लहरें आईं
रेत पर लिखे नर नारी को
ले गई अपने साथ बहा कर
गुम हो गए दोनों सागर में
जीवन का ज्वार-भाटा भी
ऐसा ही तो होता है .... !! 


मंगलवार, 2 अगस्त 2011

सूरज, साया और सैर

नियमित सैर के लिए किसी गंभीर बीमारी का होना ज़रूरी नहीं है...बस यूँ ही नियम से चलने की कोशिश है एक. आजकल सुबह सवेरे भी निकलते हैं सैर के लिए... सुबह सवेरे मतलब साढ़े सात आठ बजे......दोष हमारा नहीं...सूरज का है..(दूसरों पर दोष डालना आसान है सो कह रहे हैं) ... उसे ही जल्दी रहती है निकलने की... जाने क्यों कभी आलस नहीं करता.... निकलता भी है तो खूब गर्मजोशी से .... हम भी उसी गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए सैर करते हैं लेकिन साया बेचारा....बस उसे देखा और कुछ लिखा दिया कविता जैसा..... 

सुबह सवेरे सूरज निकला
मैं और मेरा साया भी निकला
सूरज पीछे....साया आगे
हम सब मिल कर सैर को भागे
देखूँ साए को आगे चलता
पीछे मेरे सूरज है चलता
ज्यों ज्यों मेरी दिशा बदलती
त्यों त्यों साए की छाया चलती
आगे सूरज पीछे साया
पीछे सूरज आगे साया
आते जाते पेड़ों की छाया में
छिपता उनमें मेरा साया
आगे पीछे मेरे होता
सूरज की गर्मी से बचता
लुकाछिपी का खेल था न्यारा
साया मेरा मुझको प्यारा