हिन्दी दिवस पर आज के युग की कविता के बारे में लिखने का मन बना तो उसके दो रूप आँखों के सामने आ गए....अलंकारों से सजी छन्द युक्त कविता और अलंकार रहित छ्न्द मुक्त कविता...दोनों का ही अपना महत्व है.... ऐसा नहीं है कि नए रूप को देख कर पुराने से मोह कम हो जाता है... पुराने से मोह कहाँ छूट पाता है हाँ नए का आकर्षण भी खूब लुभाता है..... बस इसी बात को सोचते सोचते जो भी दिल और दिमाग में आया उसे उंगलियों ने कीबोर्ड के द्वारा यहाँ सजा दिया.......
अलंकार रहित, छन्द मुक्त रूप है आज की नई कविता का ...
फिर भी मन दीवाना है उसकी सीधी सच्ची सादगी का...
नई कविता के लिए 'नया' शब्द न विशेषण है न फैशन है...
नया युग नई संवेदना, नए शिल्पों को रेखाकिंत करता है..
सोच समझ कर कवि अज्ञेय ने कविता को नई कविता कहा..
मुक्तिबोध और अज्ञेय बने नई कविता के प्रवर्तक कवि...
परम्परावादी कहते 'परम्परा विरोधी-विदेशों के नकलची'
जब जब बदलाव की ब्यार चली, विद्रोह की आग जली...
छायावादी कविता कभी थी विद्रोही कविता
अब उसे कोसने लगी है आज की नई कविता
छायावाद को कल्पना और करुणा का विलास माना
यथार्थवादी चेतना और युग-बोध को प्रबल जाना ..
नई कविता इसी विद्रोह का परिणाम है...
और आज यही कविता संपूर्ण जीवन को
अन्दर बाहर से समझना समझाना चाहती है...
हर मन:स्थिति को चित्रित करने से घबराती नहीं है..
हर परिस्थिति का बेबाकी से अंकन कर जाती है...
अपने ब्लॉग़ जगत की जिन कविताओं को पढ़ा , समझा और सराहा....उन्हें यहाँ संजो लिया...
"ज़िन्दगी की गाड़ी
कभी एक पहिये से नहीं चलती
"मान लूँ
तुम्हे 'पुरुष'
सिर्फ इसलिए
कि-
क्षमता है तुम में,
बच्चे पैदा करने की !
भोग न सको,
जब तक ;
स्त्री के मन को -
मेरे लिए ,
'नपुंसक' ही हो तुम !" (बाबुषा)
"धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब .. (दिगम्बर नासवा)
"ना जाने कितने रिश्ते मर रहे हैं
पहन कफ़न समाज का
कोशिश की,
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश,
सबका हो जाऊं,
नाकामयाब ही रहा | (अमित श्रीवास्तव)
ब्लॉगजगत को हिन्दी -दिवस पर शुभकामनाएँ ..! !
अलंकार रहित, छन्द मुक्त रूप है आज की नई कविता का ...
फिर भी मन दीवाना है उसकी सीधी सच्ची सादगी का...
नई कविता के लिए 'नया' शब्द न विशेषण है न फैशन है...
नया युग नई संवेदना, नए शिल्पों को रेखाकिंत करता है..
सोच समझ कर कवि अज्ञेय ने कविता को नई कविता कहा..
मुक्तिबोध और अज्ञेय बने नई कविता के प्रवर्तक कवि...
परम्परावादी कहते 'परम्परा विरोधी-विदेशों के नकलची'
जब जब बदलाव की ब्यार चली, विद्रोह की आग जली...
छायावादी कविता कभी थी विद्रोही कविता
अब उसे कोसने लगी है आज की नई कविता
छायावाद को कल्पना और करुणा का विलास माना
यथार्थवादी चेतना और युग-बोध को प्रबल जाना ..
नई कविता इसी विद्रोह का परिणाम है...
और आज यही कविता संपूर्ण जीवन को
अन्दर बाहर से समझना समझाना चाहती है...
हर मन:स्थिति को चित्रित करने से घबराती नहीं है..
हर परिस्थिति का बेबाकी से अंकन कर जाती है...
अपने ब्लॉग़ जगत की जिन कविताओं को पढ़ा , समझा और सराहा....उन्हें यहाँ संजो लिया...
"ज़िन्दगी की गाड़ी
कभी एक पहिये से नहीं चलती
एक पहिये पर तो करामात दिखाए जाते हैं
वह भी कुछ देर के लिए
पूरी ज़िन्दगी में दो पहिये
फिर तीन ... फिर ....
तुम्हे 'पुरुष'
सिर्फ इसलिए
कि-
क्षमता है तुम में,
बच्चे पैदा करने की !
भोग न सको,
जब तक ;
स्त्री के मन को -
मेरे लिए ,
'नपुंसक' ही हो तुम !" (बाबुषा)
"बचपन के आँगन से बाहर ...
जवानी तक तो मै पहुंची भी नहीं थी कि
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख" (उषा राठोड़)
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख" (उषा राठोड़)
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब .. (दिगम्बर नासवा)
"ना जाने कितने रिश्ते मर रहे हैं
पहन कफ़न समाज का
ना जाने कितने रिश्तों को मारा जा रहा है
पहना के कफ़न समाज का
जो सब से ज्यादा देते है दुहाई
समाज की
सब से कम देखा हें
उन्हे ही मानते नियम
समाज का" (रचना )
पहना के कफ़न समाज का
जो सब से ज्यादा देते है दुहाई
समाज की
सब से कम देखा हें
उन्हे ही मानते नियम
समाज का" (रचना )
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश,
सबका हो जाऊं,
नाकामयाब ही रहा | (अमित श्रीवास्तव)
रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं (अनूप भार्गव)
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं (अनूप भार्गव)
तल्खियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये
आप में कोई बुराई हो न हो गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये
आप ख़ुद को नित टटोला कीजिये
दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये ( नीरज गोस्वामी)
क्रमश:
14 टिप्पणियां:
हिंदी वही जा बसती हैं
जहां बस्ती हैं अपनों की
क्या बात हैं !!
सुन्दर प्रस्तुति ...आपको भी हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ
हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ .........
हिंदी दिवस पर
बहुत ही रोचक और विश्लेष्णात्मक पोस्ट
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
*************************
जय हिंद जय हिंदी राष्ट्र भाषा
बहुत ही खूबसूरत विश्लेषण किया है ……………एक बार फिर से सबसे परिचित करवा दिया।
सुन्दर प्रस्तुती....
आपने तो नायाब मोती चुन कर इस पोस्ट को सजा दिया है...बहुत खूब लगी सारी साथी ब्लोगर्स की संग्रहित पंक्तियाँ .
आपने तो बढ़िया लिखा ही है...
सुंदर प्रस्तुति आपको भी हिन्दी दिवस कि शुभकामनायें
कभी समय मिले तो आएगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
आज की कविता को भी कविता में ही बताया ...
अनमोल पंक्तियों का संकलन ...
सार्थक प्रविष्टी !
अद्भुत प्रयास ... बहुत अच्छा लगा नयी कविता की परिभाषा को कविता में गढना
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...आपका आभार ।
"मान लूँ
तुम्हे 'पुरुष'
सिर्फ इसलिए
कि-
क्षमता है तुम में,
बच्चे पैदा करने की !
भोग न सको,
जब तक ;
स्त्री के मन को -
मेरे लिए ,
'नपुंसक' ही हो तुम !" (बाबुषा)
"बचपन के आँगन से बाहर ...
जवानी तक तो मै पहुंची भी नहीं थी कि
तुमने झपट्टा मार लिया उस भूखे गिद्ध की मानिंद
नोच लिए मेरे होंसलों के पंख" (उषा राठोड़)
"धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब .. (दिगम्बर नासवा)
"ना जाने कितने रिश्ते मर रहे हैं
पहन कफ़न समाज का
ना जाने कितने रिश्तों को मारा जा रहा है
पहना के कफ़न समाज का
जो सब से ज्यादा देते है दुहाई
समाज की
सब से कम देखा हें
उन्हे ही मानते नियम
समाज का" (रचना )
कोशिश की,
सब को,
अपना बना लूँ,
नाकामयाब रहा |
दूसरी कोशिश,
सबका हो जाऊं,
नाकामयाब ही रहा | (अमित श्रीवास्तव)
रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते
उन्हें झूँठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं (अनूप भार्गव)
तल्खियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये
आप में कोई बुराई हो न हो
आप ख़ुद को नित टटोला कीजिये
दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये ( नीरज गोस्वामी)
मानस के हँस की तरह आपने चयन किया है.... खुद को पाकर ख़ुशी हुई
कुछ बढ़िया पंक्तियाँ पढ़वाई. आभार.
घुघूती बासूती
विचारो मे गहराई है । कवयित्री का स्तर पाठ्य पुस्तको लायक है ।
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